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Wednesday, October 9, 2024

जन्म : 1961 के उत्तरार्ध में मुजफ्फरपुर बिहार।
शिक्षा : अंग्रेजी साहित्य से पीएचडी,डीलिट

कृतियां: आलोचना – पोस्ट एलियट पोएट्री : अ वॉएज़ फ्रॉम कनफ्लिक्ट टु आइसोलेशन, डन क्रिटिसिजम डाउन द एजेज़, ट्रीटमेंट ऑव लव एंड डेथ इन पोस्ट वार अमेरिकन विमेन पोएट्स, फ़ेमिनिस्ट पोएटिक्सः वेएर किंगफ़िशर्ज़ कैच फायर, हिंदी लिटरेचर टुडे

विमर्श: स्त्रीत्व का मानचित्र, मन माँजने की ज़रूरत, ,पानी जो पत्थर पीता है, साझा चूल्हा ,त्रिया चरित्रम : उत्तरकांड ;स्वाधीनता का स्त्री पक्ष, स्त्री विमर्श का लोकपक्ष

कविता: ग़लत पते की चिट्ठी,बीजाक्षर, समय के शहर में, अनुष्टुप, कविता में औरत, खुरदरी हथेलियां, दूब- धान, टोकरी में दिगंत थेरी गाथा: 2014 ,पानी को सब याद था;

संस्मरण : एक ठो शहर था, एक थे शेक्सपियर, एक थे चार्ल्स डिकेंस
सेमी: उपन्यास – अवांतर कथा, दस द्वारे का पिंजरा, तिनका तिनके पास, आईनासाज़ ;

कहानी – प्रतिनायक

अनुवाद : नागमंडल (गिरीश कर्नाड) , रिल्के की कविताएँ, एफ़्रो- इंग्लिश पोयम्स, अतलांतके आर – पार (समकालीन अंग्रेजी कविता), कहती हैं औरतें (विश्व साहित्य की स्त्रीवादी कविताएँ)तथा द ग्रास इज सिंगिंग( डोरिस लेसिंग)

सम्मान : राजभाषा परिषद पुरस्कार, भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार, साहित्यकार सम्मान, गिरिजाकुमार माथुर सम्मान, परंपरा सम्मान, साहित्य सेतु सम्मान, रजा फ़ाउंडेशन अवार्ड,केदार सम्मान, शमशेर सम्मान, सावित्री बाई फुले सम्मान, मुक्तिबोध सम्मान ,महादेवी सम्मान , वैली औफ़ वर्ड्ज़ अवार्ड फ़ॉर पोयट्री और साहित्य अकादमी सम्मान

संप्रति : दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य की प्रोफ़ेसर.

अनामिका की दस कविताएं

  • चौका

मैं रोटी बेलती हूं जैसे पृथ्वी।

ज्वालामुखी बेलते हैं पहाड़।

भूचाल बेलते हैं घर।

सन्नाटे शब्द बेलते हैं, भाटे समुंदर।

 

रोज सुबह सूरज में एक नया उचकुन लगाकर,

एक नई धाह फेंककर

मैं रोटी बेलती हूं जैसे पृथ्वी।

पृथ्वी-जो खुद एक लोई है

सूरज के हाथों में

रख दी गई है, पूरी-की-पूरी ही सामने

कि लो, इसे बेलो, पकाओ,

जैसे मधुमक्खियां अपने पंखों की छांह में

पकाती हैं शहद।

सारा शहर चुप है,

धुल चुके हैं सारे चौकों के बर्तन।

बुझ चुकी है आखिरी चूल्हे की राख भी,

और मैं अपने ही वजूद की आंच के आगे

औचक हड़बड़ी में

खुद को ही सानती,

खुद को ही गूंधती हुई बार-बार

खुश हूं कि रोटी बेलती हूं जैसे पृथ्वी।

    • विस्फोट

    पहला बम फोड़ती है हरदम भाषा ही

    उंगली उठाकर,

    उंगली जो एक सामने वाले पर उठती है

    तो चार अपनी तरफ!

    भाषा की अलग-अलग जेबों में

    अलग-अलग पॉकेट बम-

    विस्फोट अर्थों-अनर्थों का!

    टुकुर-टुकुर देख रहे हैं शब्द सारे 

    सब-कुछ है धुआं-धुआं!

    जिन्दगी फिर पढ़ रही है ककहरा!

    याद आ रहे हैं आइंसटीन-

    तीसरा युद्ध जो हुआ तो चौथा

    पाषाण युग के हथियारों से ही

    लड़ा जायेगा!

    विस्फोट के ऐन एक मिनट पहले

    किसी ने वादा किया था,

    जिन्दगी का वादा!

    घास की सादगी 

    और हृदय की पूरी सच्चाई से

    खायी थीं साथ-साथ जीने और मरने की कसमें!

    विस्फोट के ऐन एक मिनट पहले

    किसी ने चूमा था नवजात का माथा!

    विस्फोट के ऐन एक मिनट पहले कोई सत्यकाम

    जीता था सर्वोच्च न्यायालय से 

    लोकहित का कोई मुकदमा

    तीस बरस के अनुपम धीरज के बाद!

    पहला ही नम्बर घुमाया था

    विस्फोट के ऐन एक मिनट पहले!

    विस्फोट के ऐन एक मिनट पहले

    नालान्दा पुस्तकालय की

    जली हुई चौखट पर

    बुद्ध से मिली आम्रपाली-

    ‘हे भन्ते,

    नहीं जानती,

    मेरे जीवन का हासिल क्या!

    जीने की तैयारी में

    सारी जिन्दगी गयी!

    मेरे सगे थे वही जिनकी मैं सगी न हुई

    मेरे वे सारे सम्बन्ध

    जो बन ही नहीं पाये,

    वे मुलाकातें जो हुईं ही नहीं,

    वे रस्ते जो मुझसे छूट गये

    या मैंने छोड़ दिये,

    उढ़के दरवाजे जो खोले नहीं मैंने

    शब्द जो उचारे नहीं

    और प्रस्ताव जो विचारे नहीं-

    मेरे सगे थे वही

    जिनकी मैं सगी न हुई!

    रोज आधी रात को 

    फूलती है जब कुमुदिनी

    मेरी हताहत शिराओं में

    तो टूट जाती है नींद!

    एक पक्षी चीखता है कहीं विरहदग्ध!

    आसमान भी किसी आहत जटायु-सा

    बस गिरा ही चाहता है

    मेरे कन्धों पर

    और हृदय में उमड़ता है सन्नाटा

    प्रलय मेघ-सा!

    कब तक चलेगा भला ऐसा?

    क्या है उपाय शान्ति का

    बाहर या भीतर हृदय के हृदय में?

    कैसे सधे मैत्री

    मदिर मौन से शब्द की,

    श्यामविवर वाले स्तम्भन से

    मौन की महाप्राण यतिगति की,

    प्रकृति से विकृति की,

    आकाश से धरती की मैत्री,

    दुख के दारुण दावानल से

    सुख-स्वप्न की झींसियों की,

    आग से पानी की

    कैसे सधे मैत्री-

    जो इतने दिन नहीं सधी,

    कैसे मानें कि सधेगी ही!

    कुछ कहा था बुद्ध ने फिर से

    कानों के कान में नहीं

    विस्फोट के ऐन एक मिनट पहले!

    • जनम ले रहा है एक नया पुरुष

    सृष्टि का नौवां महीना है, छत्तीसवां हफ्ता

    मेरे भीतर कुछ चल रहा है

    षड्यन्त्र नहीं, तन्त्र-मन्त्र नहीं,

    लेकिन चल रहा है लगातार!

    बढ़ रहा है भीतर-भीतर

    जैसे बढ़ती है नदी सब मुहानों के पार!

    घर नहीं, दीवार नहीं और छत भी नहीं

    लेकिन कुछ ढह रहा है भीतर: 

    जैसे नई ईंट की धमक से

    मारे खुशी में

    भहर जाता है खण्डहर!

    देखो, यहां……बिलकुल यहां 

    नाभि के बीचों-बीच

    उठते और गिरते हथौड़ों के नीचे

    लगातार जैसे कुछ ढल रहा है,

    लोहे के एक पिण्ड-सा

    थोड़ा-सा ठोस और थोड़ा तरल

    कुछ नया और कुछ एकदम प्राचीन

    पल रहा है मेरे भीतर,

    मेरे भीतर कुछ चल रहा है

    दो-दो दिल धड़क रहे हैं मुझमें,

    चार-चार आंखों से

    कर रही हूं आंखें चार मैं

    महाकाल से!

    थरथरा उठे हैं मेरे आवेग से सब पर्वत,

    ठेल दिया है उनको पैरों से

    एक तरफ मैंने!

    मेरी उसांसों से कांप-कांप उठते हैं जंगल!

    इन्द्रधनुष के सात रंगों से

    है यह बिछौना सौना-मौना!

    जन्म ले रहा है एक नया पुरुष

    मेरे पातालों से-

    नया पुरुष जो कि नहीं होगा-

    क्रोध के और कामनाओं के अतिरेक से पीड़ित,

    स्वस्थ होगी धमनियां उसकी 

    और दृष्टि सम्यक-

    अतिरेकी पुरुषों की भाषा नहीं बोलेगा-

    स्नेह-सम्मान-विरत चूमा-चाटी वाली भाषा,

    बन्दूक-बम-थप्पड़-घुड़की-लाठी वाली भाषा,

    मेरे इन उन्नत पहाड़ों से

    फूटेगी जब दुधैली रौशनी

    यह पिएगा!

    अंधियारा इस जग का

    अंजन बन इसकी आंखों में सजेगा,

    झूलेगी अब पूरी कायनात झूले-सी

    फिर धीरे-धीरे बड़ा होगा नया पुरुष-

    प्रज्ञा से शासित-अनुकूलित,

    प्रज्ञा का प्यारा भरतार,

    प्रज्ञा का सोती हुई छोड़कर जंगल

    इस बार लेकिन वह नहीं जाएगा।

     

      • पूर्ण ग्रहण

      बरसों की बिछड़ी

      दो वृद्धा बहनें-

      चांद और धरती-

      आलिंगनबद्ध खड़ी हैं निश्चल।

      ग्रहण नहाने आई हैं शायद

      गंगा तट पर।

      ढीली गठरी उनके दुखों की-

      तट पर पड़ी!

      ठुड्डी उठाई जो

      चांद ने धरती की तो

      बिलकुल सिहर गई!

      तेज बुखार था उसे

      रह गई थी सिर्फ झुर्रियों की पोटली!

      वह रूप कहां गया?

      ‘ऐ मौसी,

      टीचरजी कहती हैं, नारंगी है पृथ्वी!’

      ‘नारंगी- जैसी लगती है,

      लेकिन नारंगी नहीं है

      कि एक-एक फांक चूसकर

      दूर फेंक दी जाए सीठी!

      • मरती नहीं उड़ानें

      एक बाल थेरिन भी

      थेरियों के हॉस्टल में थी,

      एक दिन उसने कम्प्यूटर पर तितली देखी

      और कहा-

      ‘‘ये क्या घनचक्कर है, अम्मा,

      तितली तो इतनी सुंदर है,

      फिर हिटलर की मूंछों को काहे

      तितली-कट कहते थे?”

      बुद्ध उधर से गुजरे, हंसकर कहा-

      ‘‘हिटलर की मूंछों का

      प्रतिपक्ष थीं ये तितलियां!

      दुनिया-भर की कड़क मूंछों से

      लोहा लेने को तैयार!’’

      इतने में दीख गई सचमुच की तितली

      जो इन दिनों जल्दी दीखती नहीं,

      और बुद्ध बोले-

      ‘‘देखो-देखो, गौर से देखो-

      अपने नन्हे रोशन पंखों से

      अंधियारा काटती हुई

      एक तितली उड़ रही है वहां!

      उड़ रही है पंख खोले हुए एक झिलमिल उम्मीद

      घोर नाउम्मीदी के मेघायित आकाश में।

      सृष्टि के पहले आंसू की तरह

      कंपकंपा रहे हैं उस तितली के पंख।

      इस खफीफ कम्पन में

      भय का स्पर्श नहीं है,

      सिहरन है आनन्द की

      जो जानते हैं उड़ने वाले ही!

      तितलियां मरती नहीं हैं, मरती नहीं हैं उड़ानें आदमी के भीतर की।

      अपना आकाश सिर्फ

      उन्नत करना होता है,

      और हिम्मत करनी होती है

      पंख खोलने की!’’

       

        • नमस्कार, दो हजार चौंसठ

        नमस्कार, दो हजार चौंसठ!

        नमस्कार, पानी!

        कैसे हो? इन दिनों कहां हो?

        नमस्कार, पीपल के पत्तो,

        तुमको बरफ की शकल याद है न?

        दूर वहां उस पहाड़ की चोटी पर उसका घर था,

        कभी-कभी घाटी तक आती थी-

        मनिहारिन-सी अपनी टोकरी उठाए: 

        दिन-भर कहानियां सुनाती थी परियों की!

        कैसे तुम भूल गए उसको?

        नमस्कार, नदियो!

        दुबली कितनी हो गई हो।

        आंखों के नीचे पसर आए हैं साये!

        क्या स्वास्थ्य अच्छा नहीं रहता?

        स्वास्थ्य केन्द्र चल तो रहा है?

        कैसा है पीपल का पेड़ और ढाबा?

        कई बरस पहले

        मुझे टेªन में एक लड़का मिला था?

        उसकी उन आंखों में

        इस पूरी दुनिया की बेहतरी का सपना था!

        क्या तुमने उसको कहीं देखा?

        उसके ही नाम एक चिट्ठी है,

        एक शुभकामना-सन्देश मंगल-ग्रह का:

        चांद की मुहर उस पर है,

        आई है कोरियर से लेकिन

        पता है अधूरा,

        मोबाइल नम्बर भी है आधा मिटा हुआ!

        क्या मिट्टी कर लेगी इसको रिसीव

        उसकी तरफ से?

        आओ, अंगूठा लगाओ, मिट्टी रानी,

        नमस्कार!

        अच्छा है- कम-से-कम तुम हो-

        पीछे-पीछे दूर तक मेरे-

        उड़ती हुई!

        • भाषा थेरी बोली

        झोली फैलाए हुई, मैं भाषा थेरी के घर चली गई।

        वह ममता का सागर थी, मुझसे कहने लगी-

        ‘सत्य ही मेरा स्तन्य है,

        मेरी यह गोद है तुम्हारा घर!

        मेरा घर?

        मेरे हैं कई – कई घर, कई सहचर,

        मैं कहीं अंटती नहीं,

        सांसें हैं मेरी असवारी,

        जाती हूं भीतरी शिराओं तक तुम्हारी

        और लौट आती हूं वापस अपनी खुदी तक!

        जो देखता है, मुझे देखता है,

        जो सुनता है, सुनता है मुझको!

        मैं स्वाद हूं, मैं ही जिह्वा,

        मैं गन्ध, मैं ही हूं पृथ्वी-

        फूलों-फलों-औषधियों का मत्त विलास!

        जो जानता है, मुझे जानता है,

        वाणी मैं, ब्रह्माण्ड है कोख में मेरी!

        सातों समुन्दर मेरा आंचल,

        सन-सन-सन बहती हुई सब दिशाएं मैं,

        इस सृष्टि का पहला आंसू,

        उद्दीप्त मुस्कान पहली,

        हरीतिमा घास की मैं ही, आकाश की नीलिमा,

        हिमाच्छन्न हो मेरा मन तो मैं

        साधूं निरंकुश सी सकदम,

        रस-रंग-गंध और ध्वनियां इस सृष्टि से बहिष्कृत करूं

        और मना कर दूं फूलों को-

        खबरदार, यदि खिले।

        सारा यह रूप तुम्हारा, तुम्हारी यह चेतना, मेरा उपहार है तुम्हें!’’

          • जानना

          किसी को जानना 

          मोल ले लेना है

          अपने लिए एक और आईना

          और एक अच्छा इयरफोन

          जिससे कि साफ-साफ सुन सकते हैं

          कि आखिर क्या बातें करता है

          बाड़े की भटकोइयों से

          बिके हुए खेत की तरह फैला सन्नाटा!

          सुन सकते हैं जरा और ध्यान देने पर

          हवाओं में गोल-गोल नाचती हुई झीनी बुइया-सी

          किसी और देश-काल से आई

          वृद्धा वेश्याओं की फीकी हंसी

          दुनिया के सबसे बड़े पागलखाने के 

          किसी पुरातन पागल के एकतारे की जैजैवन्ती,

          किए-अनकिए सारे अपराधों की लय पर

          झन-झन-झन जंजीरें बजा रहे कैदी की 

          अचानक जगी कुकुरखांसी,

          सारे नियमों की उलटबांसी,

          और वे गुम आहटें

          मृतप्राय भाषाओं की

          जिनका कि एक भी अक्षर

          पड़ता नहीं पल्ले-

          फिर भी जिनमें होती है कुव्वत

          पानी के भीतर बसे अपने

          मायावी नागलोक-तक खींच लेने की

          (तिनकों का कोई सहारा लिए बिना डूबे सन्दर्भ बन जाते हैं नागमणियां यहीं!)

          किसी को जानना

          एक बड़ी उत्तप्त-सी छलांग है

          पहले अपने बाहर,

          फिर अपने भीतर-

          देर तलक हिलता है जिससे

          तालाब का पानी!

          एक बार बरसते हैं बादल,

          पेड़ तीन बार बरसते हैं-

          हर बारिश के बाद

          पेड़ों की डालियां हिलाते हुए 

          सोचते थे हम।

          किसी को जानना

          सब भूली-बीसरी बातों का

          धीरे-धीरे याद आ जाना है!

          जनना हो जाना है

          बूंद-बूंद लोकती हुई

          थर-थर-थर पत्ती!

           

          • पूर्णमिदम्

          जिस रात पूरा किया ‘उत्तरकांड’

          बहुत देर नींद नहीं आई,

          फिर नींद के झुटपुटे में दो दृश्य दीखे!

          पहले में धरती की छाती फटी थी

          सीता के दुख से,

          पर सीता उसमें समाई नहीं थीं!

          गोद में धरती का सिर रखकर

          समझा रही थीं उसे

          ‘‘कि कोई दुख इतना बड़ा नहीं होता

          जो झेला न जाए!

          फिर सृष्टि का यह नियम है

          लव-कुश की तरह ही सदा

          जुड़वा पैदा होते हैं दुख-सुख!

          अकेलेपन के अपने मजे हैं,

          खासकर औरत की खातिर

          वार्धक्य फुर्सत है!

          ‘स्रवन समीप भए सित केसा’-

          यह स्थिति जब किसी 

          औरत के जीवन में आती है,

          धूप-हवा सी वह तो बिलकुल महीन

          और हल्की हो जाती है!

          भली भई मेरी मटकी फूटी,

          मैं तो पनिया भरन से छूटी!

          इस अकूत फुर्सत में ही

          वह गढ़ सकती है रुद्रवीणा

          किसी अधूरे स्वप्न से लेकर तार, 

          कल्पवृक्ष से लेकर लकड़ी

          और छेड़ सकती है महाशून्य पर

          राग आसावरी!’’

          मां-बेटी का यह संवाद सुना

          तो झक से आंख खुल गई मेरी!

          मुश्किल से जब वह दोबारा लगी 

          तो देखा निश्चिन्त बैठी हैं सीता

          अपना अकेलापन रुद्रवीणा-सा बजाती हुई!

          इसी रुद्रवीणा की धुन अकानता

          आया है रावण उन्हें ढूंढ़ता,

          फिर से आशान्वित कि राम की अब तो दुनिया अलग है,

          लव-कुश की भी पूरी हो ही गई जिम्मेदारी!

          आ बैठा सूखे पत्तों की चटाई पर, धीरे से बोला-

          ‘‘देवि, अब हम दोनों ही

          उम्र के उस मोड़ पर आ गए हैं

          जहां प्रेम देह की कछार छोड़कर

          हो जाता है एक मीठी आपसदारी!

          बहुत भटककर फिर से आया हूं

          द्वार तुम्हारे!

          क्या तुम मुझे रुद्रवीणा सिखाओगी?”

          सीता ने तिनके की ओट नहीं ली,

          सीधा ही बोली इस बार-

          ‘‘कोई किसी और की रुद्रवीणा

          कैसे बजाए भला?

          जितना भटककर तुम आए हो मुझ तक,

          उससे भी ज्यादा भटककर

          मैं पहुंची हूं वापस अपनी खुदी तक!

          यह रुद्रवीणा ही है अब तो मेरा वजूद! 

          खुद अपनी लकड़ियां काटो,

          खुद रुद्रवीणा गढ़ो!

          जो भी लय-ताल सिखानी होगी,

          प्रकृति खुद ही सिखा देगी!

          जाओ हे भिक्षुप्रवर!

          इस बार लौटा रही हूं तुम्हें पहचानकर मर्म जीवन का!

          आघात ही मुक्ति का मार्ग है, बन्धु,

          इससे ही जगते हैं वीणा में राग!

          खुद अपनी रागिनी सुनो ओर लौटो

          अपनी खुदी तक!

          तुम विराग के और रागों के भी

          सर्वथा योग्य हो-

          गायक हो महाशून्य का,

          शून्य से शून्य घटा, शून्य बचा!’’

            • चिट्ठी लिखती हुई औरत

            औरतों के बारे में

            माना जाता है 

            कि वे 

            चिट्ठियां लिखती हैं 

            धारावाहिक!

            इतना उनके भीतर क्या है-

            शताब्दियों का संचित-

            कि टीक राकस की

            पड़ जाती है

            उनकी बातों में,

            द्रौपदी की साड़ी हो जाती हैं

            बातें उनकी?

            चिट्ठी लिखती हुई औरत

            पी. सी. सरकार का जादू है।

            औरत को मिला है ये वरदान-

            कि वह कहीं भी बैठी-बैठी

            हो सकती है अन्तर्धान।

            बस में या प्लैट्फ़ॉर्म की उकड़ूं बेंच पर

            ऊंघते-उचकते

            अचानक सिहरकर 

            वह मार सकती है पालथी

            और सर्कुलर/ठोंगा/पोस्टर पलटकर

            लिख सकती है कुछ भी, मसलन

            कि ‘‘बहुत याद आती है, आओ।

            पता नहीं कौन 

            एक छोटी-सी बच्ची है

            जो आजकल मेरे दिन बेल देती है

            इतने बडे़ और बेडौल

            कि वे अंटते ही नहीं तवे में

            और किनारों के नीचे लपककर

            झट चूम लेते हैं

            ओठ आग के।

            ..रात के कलेजे में

            बजता है सन्नाटा

            और एक थर्राहट बजती है-

            गिरे हुए पत्तों और खुले हुए पन्नों की…

            तेलिया मसान समय कहता है

            ‘घूम ताक’-

            तुमको सुनायी नहीं देता, पागल? देखो न-

            घूमकर!’’

            औरतों को डर नहीं लगता

            कुछ भी कह जाने में,

            उनको नहीं होती शर्मिन्दगी

            मानने में

            कि उनमें

            पानी है, मिट्टी भी।

            पानी और मिट्टी: इन दोनों में से

            किसी का

            कोई ओर-छोर नहीं होता।

            दोनों खुद धारावाहिक चिट्ठियां ही हैं

            ईश्वर की-

            हम सबके नाम!

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