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Wednesday, October 9, 2024

किरण सिंह

न्म 1 जनवरी 1966 को देवरिया जिले के गांव रामपुर बुजुर्ग में हुआ । इतिहास और हिंदी विषय के साथ स्नातकोत्तर करने के साथ ही उन्होंने हिंदी विषय में राम विलास शर्मा की समीक्षा दृष्टि पर शोध कार्य किया । उन्होंने मुजफ्फर अली द्वारा निर्देशित शॉल एवं मंगला टेलीफिल्मों के साथ ही इप्टा लखनऊ के नाटकों में अभिनय भी किया है । अब तक उनकी दो पुस्तकें 'यीशू की कीलें' (कहानी संग्रह 2016) और 'शिलावहा' 2019 (लघु उपन्यास) प्रकाशित हुई हैं । नया उपन्यास 'महुआ डाबर' प्रकाशनाधीन है । वह अपने बोल्ड और बेबाक लेखन के लिए जानी जाती हैं। उनके लेखन के केंद्र में ऐसी स्त्रियाँ हैं जो जूझती हैं, सहती हैं, संघर्ष भी करती हैं लेकिन वह हार नहीं मानती अंत तक लड़ती हैं | उनके लेखन के लिए उन्हें पहले 'हंस कथा सम्मान' (2013), सोलहवें 'रमाकांत स्मृति कहानी पुरस्कार', 'यीशू की कीलें’ कथा पर कृष्ण प्रताप कथा सम्मान( 2018 ), विजय वर्मा कथा सम्मान ( 2019 ), वनमाली कथा सम्मान ( 2020 ) आदि पुरस्कारों से सम्मानित किया गया । मास्को विश्वविद्यालय (रूस) के एमए हिन्दी पाठ्यक्रम में यीशू की कीलें और द्रौपदी पीक कहानियाँ पढ़ाई जाती हैं। इन दोनों कहानियों का रूसी भाषा में अनुवाद भी हुआ है। मास्को विश्वविद्यालय (रूस) हिन्दी विभाग द्वारा दौपदी पीक पुस्तक के रूप में प्रकाशित

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संझा (कहानी)

(तुम लोगों में से कोई बुड्ढा कह गया है कि दुख कई तरह के होते हैं. खालिस बकवास. दुख एक है- बिछड़ना. धन हो कि स्वास्थ्य कि अपने लोग...इन तीन से बिछड़ना. तो करोड़ों साल से एक ही तरह के दुख और एक ही तरह से दुखी लोगों को देखते-देखते मैं ऊब गया हूँ. तुम्हें बताऊँ, मैंने इस बार, एक नये किस्म का दुख रचा है. आओ मेरे साथ. क्या ? तुम लोग दूसरों के दुख में मजा नहीं लेते! दाई से पेट छिपाते हो बे!)

रहमान खेड़ा गाँव के लोग नदी के तीर-तीर बसते चले गए. इस तरह चार गाँव बन गए-बंजरपुर, मुरसीभान, गुलरपुर और रहमानखेड़ा  तो पहले से था ही. चारों गाँवों में कुल मिला कर सौ घर होंगे. यह इलाका तीन तरफ पठार, एक तरफ छिछली नदी और चारों तरफ बेर के जंगलों से घिरा है. यहाँ न कारखाने लग सकते हैं, न जमीन में पैदावार है न पनबिजली परियोजना बैठाई जा सकती है. इसलिए यह इलाका गरीब है. बेदखल है. और स्वायत्त है.

चारों गाँवों में एक-एक परिवार ही बढ़ई, धोबी, दर्जी,कुम्हार और लुहार हंै. और एक ही वैद्य जी हैं. वह चैगाँवा के सबसे इज्जतदार आदमी हैं. इसलिए इज्जत उतारने के लिए उन्ही को चुना गया है. इन्ही वैद्य महाराज के घर आठ बर्ष बाद संतान जन्म ले रही है.

ये मूड़ी बाहर निकली...चेहरा...पेट...नाभि...वैद्य जी ने साँस रोक ली...लड़का है कि लड़की. एक चीख....निकलने से पहले ही वैद्य जी ने दोनों हथलियों से मुँह दाब लिया है- ‘‘रात-बिरात कोई दवा के लिए दरवाजे पर ठाढ़ होगा. सुन लेगा!’’

पूत है कि धिया ? बोलते काहे नहीं ?’’ दर्द से थकी बैदाइन सोना चाहती थीं.

‘‘ पता नाहीं!’’

पता नाहीं ? पता नाही! पता नाहींऽ

सौरी के दरवाजे पर रखी बोरसी के गोइठे से भभका उठा. सपनों के कपाल क्रिया की चिराईंध गंध कोठरी में भर गई.

“संतोख रखो वैदाइन! आठ बरस बाद कोई पानी को पूछने वाला तो आया घर में.’’ आज वैद जी के काटने से नाल खींच रही थी. वैदाइन को दर्द का भान नहीं था. सुबह चैगाँव रंग में था. ‘‘बेटी सतमासा भइ ह तो का ! बंस तो आगे बढ़ा! परती धरती का कलंक तो छूटा! हलवाई बैठाना पड़ेगा बैद जी! खुसी का मौका है.’’ छठी-बरही दोनों दिन सबको न्योतना पड़ा. गाँव भर बेटी को गोद में खिलाने की हठ पर अड़ा था. वैद्य जी ने सबके प्रेम का सत्कार करते हुए हाथ जोड़ा और कहा- ‘‘सतमासी लड़की बहुत कमजोर है. बाहर निकालने पर हवा-बतास लग जाएगी. दो चार रोज ठहर जाइए.’’ वैद-वैदाइन ने बेटी का नाम रखा है-संझा. (संझा! हुँह!इनकी बेटी में दिन और रात, दोनां का मिलन है. इसलिए वह सिर्फ दिन और सिर्फ रात से अधिक पूर्ण-पहर है.) संझा के जन्म से पहले बैदाइन दिन भर घर से बाहर रहतीं थीं. ‘हवा खाओं नाहीं तो दवा’ वैद्य जी के टोकने पर उनका जवाब होता. अब बैदाइन ने अपने को एक कोठरी में समेट लिया था. ‘‘एक कोठरी से काम नहीं चलेगा बैदाइन! संझा ठेहुन-ठेहुन चलेगी तो जगह चाहिए.’’ वैद्य जी ने पिछवाड़े के खेतों को घेरते हुए जेल जितनी ऊँची मिट्टी की चहारदीवारी उठवा दी. ‘‘भला काम किया आपने बैद महराज. मैं रोज पानी छिड़क दूँगी. घर ठंडा रहेगा. सोधी गंध उठेगी.’’ बईदायिन ने लंबी साँस भरी. खुली हवा की साँस जैसे मिले न मिले. ‘‘सियार चाहे भेडि़ए दीवार पर चढ़के भीतर कूद जाएँगे. हमारी बेटी को उठवा ले जाएँगे.’’ आँगन के ऊपर और घर की खिड़की में बैद्य जी ने जाली लगवा दी. ‘‘ठीक महराज! मैं इस पर लतर फैला दूँगी. मेरी बेटी के साथ-साथ बढे़गा.’’ बैदाइन ने आसमान को जी भर देखते हुए कहा. सखियाँ-सहेलियाँ बैदाइन को संदेशा भिजवाती कि ‘‘तुम छौड़ी के जनम के बाद गरबीली हो गई हो.’’ बैदाइन बिना मन के सखियों से मिलने बाहर निकलती. ‘‘बिटिया को काहे नहीं लाई. हमने उसे देखा तक नही.’’ सबके पूछने पर बैदाइन कहतीं-ं ‘संझा सुरु के साल दुआर पर भी नहीं निकली न! अब बाहर निकलते ही रोने लगती है. आप के नजीक दो घड़ी हम बैठ भी न पाते. फिर सतमासा के नाते बहत सुकुवार हैं.’’ (मैं चाहता था कि संझा को प्रेम न मिले. जिससे वह किसी को प्रेम दे भी न पाए. और हर तरह से बंजर रहे. लेकिन कोई बात नहीं. सतरंगा संसार देख लेने के बाद, आँखो की रोशनी छिन जाए, तो जन्मांध से अधिक पीड़ा होगी.) चहारदीवारी में बन्द बैदाइन पीली पड़ती जा ही थीं. ‘‘मेरी संझा का क्या होगा ! मेरी संझा का क्या होगा बैद जी!’’वह संझा को गोद मे लिए यही रटती रहतीं. ( कितना भी पढ़े हों, परीक्षा में सफलता का तनाव लेने वाले फेल हो जाते हं. ) तीन बरस की संझा सोच रही थी कि माँ सोई है. वह माँ की बाँह पर लेट गई थी. बैद जी बड़बड़ा रहे थे- ‘‘बैदाइन धोखा दे गई तुम. तुमने भँवर में साथ छोड़ा है बैदाइन! बस कहने को बैद जी महराज, कहने को संझा रानी ! मन में न मेरी चिन्ता थी न बेटी की!’’ ‘‘बेटी की चिन्ता! रात में चिता नहीं जलती. नरक मिलता है. लेकिन कल सुबह बैदाइन को जलाया तो संझा को किसी के पास छोड़ना पड़ेगा. गाँव वाले बेटी को श्मशान नहीं जाने देंगे.’’ ‘‘जो जिन्दा है, उसे देखना है.’’ उसी समय बैद्य जी ने बैदाइन को महावर सिंदूर लगाया. लाल साड़ी में लपेटा. खटिया पर बाँधा. सोई हुई संझा को कंधे पर लादा. एक हाथ से खटिया घसीटते, हाँफते हुए श्मशान पहुँचे. सुबह गाँव वालों से कहा- ‘‘बरम्ह मुहूर्त में एक घड़ी के लिए मुक्ति का पुन्य योग बन रहा था. आप लोागें को जगाता तब तक समय बदल जाता.’’ ( अच्छे भले बच्चे को तो पिता सँभाल नहीं पाते संझा तो... अब भेद खुलने ही वाला है. वे लोग भी दाहिनी पहाड़ी पर पहुँचने लगे हैं. ) वैद जी मुँह-अँधेरे उठ जाते. बेटी को बुकवा-तेल मलते, नहलाते-धुलाते. बेटी की इलास्टिक लगी कच्छियाँ मोरी में बहा दी थी. वैदाइन की कुछ सूती साडि़यों से लँगोट बना लिये थे. सूने घर में भी बेटी को लँगोट पर पैजामी फिर लंबी फ्राक पहनाते. थुल थुल वैद्य जी, बेटी के साथ बड़े से आँगन में दौड़-दौड़ कर खेलते जिससे वह थक जाए. संझा के सोने के बाद उसकी कोठरी में बाहर से ताला बन्द करते और गद्दी पर औषधि देने के लिए बैठ जाते. लौट कर आते तो संझा टट्टी, पिशाब और आँसुओं में लिपटी मिलती. जब बैदाइन थीं, भोर होने से दूसरे पहर तक, वैद्य जी जंगल में जड़ी छाँटते थे. अब वे संझा को अकेले छोड़ कर इतनी देर के लिए कैसे जाएँ ? उसे साथ लेकर तो बिलकुल नहीं जा सकते. गाँव वाले उसे गोद में लेने के लिए झपटने लगेगें. कही संझा ने पेशाब कर दिया और स्त्रियाँ उसकी पैजामी बदलने लगीं तो ? औषधि के बिना चैगाँव के लोग निराश हो-हो कर लौटने लगे. एक दिन वैद्य जी के दरवाजे पर पंच इकट्ठा हुए -‘‘बैद महराज सिरफ अपनी छौड़ी को देख रहे है. हम सब भी तो आपके ही भरोस पर हैं. आप संझा बिटिया की देख भाल के लिए दूसरा लगन कर सकते हैं. हम दूसरा बैद कहाँ से पाएँगें ?’’ वैद्य जी ने बहुत सोच कर जवाब दिया- ‘‘बात संझा की बिलकुल नहीं है. बात ये है कि बैदाइन के जाने के साथ ही मेरे हाथ से जस भी चला गया. दवा फायदा नहीं करे तो इलाज से क्या फायदा. आप लोग पहाड़ी पार के कस्बे में जाइए.’’ (जब जान जाने लगती है तो बंदरिया भी अपने बच्चे को फेंक कर तैरने लगती है.) रोगी आने बन्द हो गए. वैद्य जी के घर का एक-एक सामान, गाँव वालों के हाथ, जोन्हरी और कोदो के बदले बिकने लगा. आज वैद्य जी ने जाँत में फँसे जौ के आटे को झाड़ कर इकट्ठा किया. भून कर संझा को पिला दिया था. ‘‘मैं भी मर गया तो! नहीं, नहीं! ... मुझे जीने की सारी शर्तें मंजूर हैं.’’ उन्होंने सोच लिया-‘‘लोगों का मुझ पर से भरोसा उठ गया तो क्या! मैं उन्हें खुद पर भरोसा करने की औषधि दूँगा.’’ संझा ने देखा कि उसके बाउदी खड़े होने पर गिर रहे हैं. फिर साँप की तरह रेंगते हुए जंगल की दिशा में जा रहे हैं. पेड के नीचे सुस्ताते, रहमान खेड़ा के किसान से वैद्य जी ने कहा- ‘‘ मुझे कुछ खाने को दो, तुरन्त. बदले में मैं तुम्हें मर्दाना ताकत की शर्तिया कारगर औषधि दूँगा.’’ उसकी स्त्री से कहा-‘‘इससे तुम्हारा बाँझपन भी दूर होगा.’’ महीना भीतर, सूरज निकलने से पहले ही, वैद्य जी के ओसारे में लोग जगह छेका कर बैठने लगे. जंगल से बहुतायत में उगी मुसली तोड़ने में वैद्य जी को समय न लगता और इसे लेने वाले पैसे भी तुरन्त दे देते. कभी, मरते हुए आदमी के सभी अंगों में जुंबिश भर देने वाले वैद्य जी, एक अंग तक सीमित हो कर रह गए थे. ‘‘बाउदी! आप की फंकी में फफूँद लग रही है. इमाम दस्ते में दवा कूटते समय आपके आँसू गिरते रहते हैं ! अपने मन भर जड़ी नहीं बटोर पाते इसलिए न! आज से जंगल में औषधि के लिए मैं जाऊँ बाउदी!’’ ‘‘नहीं! नहीं! बाहर निकलते ही तुम्हें छूत लग जाएगी. एकदम भयंकर! लाइलाज बीमारी! मैंने कितनी बार तुम्हें समझाया है.’’ ‘‘कौनो बीमारी नहीं लगेगी. मैं बहुत ताकतवर हूँ.’’ ‘बैद हम हैं कि तुम. फिर चैगाँवा में लड़कियाँ बाहर नहीं निकलती.’’ ‘‘आपने मुझसे तीली माँगी थी. जब मेरी उमिर की लड़की की उँगली कट गई थी. वह बन में चरी काटने गई थी न! ’’ ‘‘तुम बूटियाँ नहीं पहचान पाओगी. बिलकुल नहीं. ’’ ‘‘बाबूजी! आपने मुझे औषधि बनाना सिखाया हैं. पढ़ना लिखना सिखाया है...मैंने लाल जिल्द वाली किताब में पढ़ा है...सर्पगंधा की झाड़ से साँप नहीं गोबर की बास आती है. मजीठी..” ‘‘बाहर की दुनिया बहुत खतरनाक है संझा!’’ ‘‘आप भी बाउदी! आप जब औषधि देते हैं, मैं दरवाजे की झिर्री से झाँकती रहती हूँ. सब आदमी- औरत आपके आगे हाथ जोड़े रहते है...सब पीड़ा में कराहते हैं. बेचारे लोग...आप झूठ्ठे डर रहे हैं बाउदी ?’’ ‘‘मैं तुमको इस संसार के बारे में कैसे समझाऊँ बेटी!’’ ‘‘आपने मुझे दुनियादारी सिखाने के लिए कितनी सारी कहानियाँ सुनाई तो हैं... बृहन्नला की... शिखंडी की... अर्धनारीस्वर की... कृष्ण के चूडि़हारिन बनने की....’’ बैद्य जी उठ कर बाहर चले गए. वह समझ गए कि समय आ गया हैं. वैद्य जी ने बारह साल से बन्द खिड़की की, जंग लगी सिटकनी खोल दी. उस खिड़की पर, वह पतली जाली लगी हुई थी, जिससे भीतर से बाहर सब कुछ देखा जा सकता था किन्तु बाहर से भीतर का कुछ भी नहीं दिखाई देता था. वैद्य जी ने दूसरा काम यह किया कि पानी की कमी वाले उस इलाके में, खिड़की से पचास कदम की दूरी पर, खूब गहरी बोंिरंग का हैण्डपम्प लगवा दिया. ‘‘रोटी बनाने के बाद यहाँ से दुनिया देखना बेटी.’’ कहते हुए बैद्य जी बाहर निकल गए. वैद्य जी को आज, अपनी बारी की प्रतीक्षा में बैठे रोगी टोक दे रहे थे-‘‘ बैद्य जी! अपना भी दवा-दारु कीजिए. आपके हाथ से फंकी गिर-गिर जा रही है.’’ ‘‘हाँ-हाँ.. वो सूरत भाभी होंगी, जो मस्से निकलने से परेशान है. खूब लंबी...वो तो बाउदी की मीना बहिनी ही हैं. खाँसते-खँासते जिनका चेहरा लाल हो जा रहा है वो कमलेसर चाचा होंगे. गुलबतिया...हाँ, वही है, जिसके घुटने पर बड़े फोडे का दाग है. वो रमजीत्ता होगा, बैल जैसे कंधों वाला.’’ वैद्य जी, संझा को गाँव के हरेक आदमी का नक्शा बता चुके थे. एक दूसरे पर गीली मिटटी फेंकते, नहाते, बतियाते, पुट्ठे पर हाथ मार कर हँसते लोग-‘‘बाप रे! सब कितना अच्छा है...मेरी अम्मा जैसा.’’ संझा ने बाउदी से चहक-चहक कर सब कुछ बताया, कई बार बताया- ‘‘देखा बाउदी! कहाँ लगी छूत की बीमारी! नहीं लगी न! सब मेरे फुआ, चाचा, बाबा, आजी ही तो थे. मैं औषधि लेने जंगल में निकल सकती हूँ.’’ ‘‘अभी रुको बिटिया!सँभल के संझा! महीने भर तक तुम्हें कोई बीमारी नहीं लगी तब सोचूँगा.’’ खिड़की खुलने के बाद, बाउदी के झुकते जाते कंधे, संझा अपनी ख़ुशी के आगे देख नहीं पा रही थी. दूसरे दिन, सूरज निकलने से पहले ही, हैण्डपम्प चलने की आवाज आने लगी. उनींदी संझा झट खिड़की पर जा बैठी. माएँ नहा रही थीं. खिड़की के नीचे उसकी उम्र की आठ दस लडकियाँ, फ्राक उठाए, उकडू़ बैठी थीं. वे बातें करती हुई खिसकती जा रही थीं. उनके छोटे भाई उसकी दीवार पर पिशाब कर रहे थे. ‘‘ये छौड़े-छौड़ी इसी धरती के हैं न ! फिर इनका सब कुछ मेरे जैसा क्यों नहीं है ? ‘‘हो सकता है मैंने अँधियारे में आँखें फैलाकर देखा हो तो चीजें बड़ी दिखी हों.’’ (अपाहिज माँ का इकलौता बेटा मर जाए तो वह असंभव बातें कहती है- ‘उसकी साँस चल रही थी. लोग अपना काम खतम करने के लिए हड़बड़ी में दफना कर घाट से लौट आए.) ‘‘ऐसा तो नहीं कि मुझ में ही गड़बड़ी हैं. वो चीज उन सबकी की एक जैसी थीं. मैंने बाउदी की किताबों में ऐसी फोटुएँ देखी तो थीं. लेकिन ये क्या हैं, तब मैं बूझ नहीं पाई थी. ... नहीं! बाउदी ने बताया है कि मैं चैगाँव की सारी छौडि़यों में सबसे अच्छी हू. फिर उमिर के साथ सारे अंग बढ़ते हैं. याद है, अँगूठेभर का मुखिया का लड़का बाउदी की दवा से एकदम से खींच गया था. इसके बढ़ने की भी कोई दवा जरुर होगी. मेरे बाउदी तो मरते आदमी को जिन्दा कर देते हैं.’’ सब कुछ ठीक है. तब संझा की रोटियाँ क्यों जलने लगी थी और हाथ भी. बाउदी के सामने बिना बात उसकी नजरें हत्यारिन जैसी झुकी क्यों रहने लगीं थीं. वैद्य जी चुपचाप अपनी टूटी-फूटी संझा के लौटने की प्रतीक्षा कर रहे थे. वैद्यजी देख रहे थे कि उनकी बेटी सो नहीं रही है. वह, उनके बाहर निकलने का इंतजार करती है और खिड़की पर बैठ जाती है. हैण्डपम्प पर नहाते लोगों के एक-एक अंग को खा जाने वाली निगाह से देखती है. रात में वैद्य जी जल्दी ही आँखों पर हाथ रख कर लेट जाते. संझा तुरन्त उठकर ढिबरी की बत्ती चढ़ा लेती. आयुर्वेद की पोथियों के अक्षर जोड़ कर रात-रात भर पढ़ती. चैथे पहर फिर खिड़की पर. छः महीने बीतने को आ गए. संझा के बाउदी ने तो संझा को यही बताया हैं कि चरक, सुश्रुत, धनवन्तरि से कुछ भी छूटा नहीं है. बाउदी अपनी संझा से झूठ थोड़े कहेंगे. लेकिन जो तकलीफ संझा को है, कहीं उसकी चर्चा नहीं, नाम निशान कुछ नहीं. जबकि बहुत-बहुत घिनौनी बीमारी के बारे में तक तो लिखा है. ‘‘कहीं इस कमी को पाप तो नहीं मान लिया गया है, जिसकी चर्चा तक छिः मानुख है. बाउदी हो !’’ ...कुछ नहीं. बाउदी ने जो दवा मुखिया के लड़के को दी थी, उस दवा को खाते हैं. दो-चार महीने बीतते-बीतते सब अच्छा हो जाएगा. बाउदी से बात करने की.... कौन जरुरत ? वो भी यही औषधि देंगे.’’ छः महीने और बीतने के साथ ही संझा का चैदहवाँ साल लग गया. उसके साथ की लड़कियों के अंग जब मुलायम और गदरारे हो रहे थे. उस समय संझा का बदन तेल पिए हुए लाठी की तरह लंबाई नाप रहा था, ऊँचाई के नाम पर सिर्फ गाँठें उभर रही थीं. उसकी नसें बैगनी और त्वचा मोटी हो रही थी. उसकी ठुड्डी और होठों के ऊपर भूरे रोंएँ उग रहे थे. गालों की हड्डियाँ उभर रही थीं और चेहरा तिकोन में लंबा हो रहा था. किन्तु एक अंग वैसा ही था, सुई की नोक के बराबर. वह शीशे के सामने खड़ी रहती. गिरने-गिरने को होती तो बैठ जाती. एक छेद उसके दिल में होता जा रहा था जिससे वह बन्द कोठरी में कपड़े पहनना भूलने लगी थी. एक आखिरी उपाय. उसके बाद वह बाबा से बात करेगी. बाबा ने वरदराज की कथा सुनाई थी. उसके हाथ में बिद्या की रेखा नहीं थी तो उसने हथेली चीर कर बिद्या रेखा बना ली थी. वह भी अपनी किस्मत बदल देगी. (बिल में पानी भरने से चूहे बाहर निकलते हैं. साँिपन को निकालना हो तो बिल में आग लगानी पड़ती है.) संझा उन्माद में थी. उसने ढिबरी की लौ धीमी कर दी. आँगन में लगी, नीम-तुलसी की पत्ती पीस कर रख लिया. बन्द कोठरी में जमीन पर लेट गई है और दोनों पाँव दीवार पर फैलाकर टिका लिया. शरीर को धनुष की तरह तान लिया. अम्मा की धोती फाड़ कर मुँह में ठूँस लिया. भगवान के नाम पर बाउदी की तस्वीर उभरी और चाकू वहाँ रख लिया. लंबी साँस ली. साँस रोकी. और चाकू की फाल धँसा लिया. वह लंबान में चीर देने के लिए ताकत लगाना चाहती थी. लेकिन चाकू धँसने के साथ ही बदन निचुड़े कपड़े की तरह ऐंठने लगा. आँखें, साँस लेने बाहर निकली मछली के मुँह की तरह खुलने-झपकने लगी. मुँह में ठुँसी हुई माँ की धोती निकाल कर, वहाँ रखते हुए, लहराती आवाज में कहा-‘‘बाऽउऽदी बाऽउऽदी’’ वैद्यजी को लगा कि वह तो संझा को लेकर सपने में भी डरे रहते हैं. हंर समय लगता है कि बेटी पुकार रही है. दुबारा-तीबारा वही आवाज सुनकर कोठरी की ओर भागे. ‘‘संझा आँख खुली रखना. सोना मत संझा! संझा! संझा सोना मत!’’ वैद्यजी चिल्लाते हुए पिछवाड़े के जंगल की दिशा में दौड़ रहे थे. मूसली के सिवाय घर में रखी शेष औषधियों में फफूँद लग चुका था. वैद्यजी बेटी को गोद में लिए नित्य क्रिया कराते. नीम के पानी से घाव धोते. लेप लगाते और संझा के दोनों पाँव जाँघ के पास से बैदाइन की धोती से बाँध देते जिससे दरार जुड़ती चली जाए. सातवें दिन वैद्य जी ने संझा से कहा- ‘‘तुमको ऐसा नही करना चाहिए था बेटी. तुम्हारी जिन्दगी चली जाती.’’ ‘‘बाउदी क्या अगला जनम होता है.’’ ‘‘क्या तुमने मेरे मुँह से कभी सुना है कि तुम मेरे पिछले जन्म के पाप की सजा हो.’’ ‘‘नहीं बाउदी’’ ‘‘जब पूर्व जन्म नहीं होता तो पुर्नजन्म भी नहीं होता.’’ ‘‘क्या कोई रास्ता नहीं बाउदी !’’ ‘‘किस्मत ने एक जरुरी अंग हटा कर तुमको पैदा किया है, बेटी!” जीवन के लिए सबसे जरुरी तो आँख हैं. जोगी चाचा अंधे पैदा हुए. जरुरी तो हाथ है. बिन्दा बुआ का दाहिना हाथ कोहनी से कटा है. रामाधा भइया तो शुरु से खटिया पर पड़े हैं, रीढ़ की हड्डी बेकार है. बिसम्भर तो पागल है, जनम से बिना दिमाग का. क्या.. वो..वो आँख, कान, हाथ, पाँव, दिमाग से भी बढ़ कर होता है ? ‘‘ तुम बंस नहीं बढ़ा सकती.’’ ‘‘गाँव में ऊसर औरतें भी हैं, मान से रहती हैं.’’ ‘‘बाउदी आप चुप क्यों हैं. क्या मैं किसी के काम की नहीं.’’ ‘‘.इस धरती के बासिन्दों ने तुम्हारी जाति के लिए हलाहल नरक की व्यवस्था की है. उस नरक के लोग पहाड़ी पर तुम्हारे जन्म के सात साल बाद आ कर बस गए हैं. वे लोग कपड़े उठा कर नाचते हैं और भीख माँगते हैं. लोग उन्हें गालियाँ देते हैं, थूकते हैं, उनके मुँह पर दरवाजा बन्द कर लेते हैं, उन्हें घेर कर मारते हैं. वे जिस इलाके में बसे हों, वहाँ कोई भी अपराध हो, इन पर ही इलजाम लगता है. वे डरे और जले हुए लोग अपनी बिरादरी बढ़ाना चाहते हैं. तुम्हारे बारे में पता चल गया तो वो लोग तुम्हें छीनने आ जाएँगे और चैगाँव के लोग तुम्हें घर से खींच कर उनके साथ भेज देंगे.” ‘‘मुझे छूत की बीमारी नही लगेगी. मैं इस समाज के लिए अछूत हूँ...घिन्न खाने लायक हूँ.’’ ‘‘तुम्हें जिन्दगी भर अपने आप को छिपाना है संझा!’’ ‘‘मैं बाहर निकलना चाहती हूँ बाउदी! मै औषधि की पत्तियाँ छूना चाहती हूँ. बहता पानी...गीली मिट्टी...जंगल..आसमान देखना चाहती हूँ! बाउदी! मैं दौड़ना चाहती हूँ... खूब जोर से हँसना चाहती हूँ....सबके जैसे जीना चाहती हूँ. आपके कहने से मैं ऐसे रह तो जाऊँगी लेकिन दो चार दिन की ही रह जाऊँगी बाउदी!’’ ‘‘मेरी गुडि़या! तुम आज रात से बाहर निकलोगी. मैं उपाय करता हूँ.’’ वैद्य जी दो रात पहले संझा बिटिया का नाम लेकर चिल्लाते हुए क्यों भाग रहे थे ? वे गद्दी पर क्यों नहीं बैठ रहे हैं ? चैगाँव के सवाल का जवाब तैयार था-‘‘तुम लोग गँवई ही रहे. बूढ़ा बैद कुछ सोच कर दो दिन से दम साधे है. पास आओ, उस रात डकैत आए थे. ’’ ‘‘डकैत!’’ ‘‘हाँ!’’ अपने चोटिल साथी को लेकर. मेरी खिड़की के नीचे बैठे थे. संझा बिटिया ने उन्हें देख लिया. मैं ने छोड़ा नहीं, उनको दौड़ लिया. बिटिया का नाम इसलिए ले रहा था जिससे उसे हिम्मत बनी रहे और तुम सब जाग भी जाओ. अरे हाँ सुनो! भागते-भागते वे कह गए कि सारा जंगल छोड़ कर, मेरे घर के ठीक पीछे वाले जंगल में छिपे रहंेगे. मुझसे बदला लिए बिना वहाँ से नहीं जाएँगे. इसलिए तुम लोग सब दिशा में जाना, मेरे घर के पीछे के जंगल की ओर मुँह करके मूतना भी मत.’’ ‘‘धन्न! बैद महराज! आपकी दवा-पट्टी से ठीक होकर वे हमें ही लूटते. आपने अपने पर जोखिम लेकर हमको बचाया.’’ (बुड्ढा वैद्य सती बाप है.) संझा के घर के पिछवाड़े से, जंगल तक की, बेर के कांटों भरी पगडंडी, राजपथ बन गई. जिस पर वह दो-चार दिन अपने बाउदी की ऊँगली पकड़ कर लड़खड़ाते हुए चली. उसके बाद उड़ने लगी. वह बन की रात में, जुगनओं से भरी ओढ़नी, माथे पर टार्च की तरह बाँध लेती. वह रात भर की राजकुमारी के सिर पर हीरों का ताज था. पके हुए कटहल से कोया निकाल कर पखेरुओं के खाने के लिए बिखेर देती. कटहल की खोइलरी में छेद कर के बरगद की जटाएँ फँसाती और कमर से लटका लेती. यह औषधि का थैला था. पाँवों में चप्पल की तरह पुआल बाँध लेती और हरेक पेड़ को छूते हुए, कांटों पर बेधड़क दौड़ती. युवा पेड़ों का पानी, संझा के छूने से, देर तक काँप कर ठहरता. बूढ़े और बच्चे पेड़ों को, अपनी नींद के लिए, संझा की थपकियों की आदत पड़ चुकी थी. ‘‘देखें डाँट खाने पर कैसा लगता है!’’ वह बरगद की डाल को झकझोर देती. अधेड़ कौए उस पर मिल कर चिल्लाते. सोए हुए जानवर आँखें खोल कर संझा को देखते, मुस्कुराते और ऐसे सो जाते जैसे माँ को बगल में देख कर बच्चे सोते हैं. जंगल  में, कोई संझा को देख लेता तो सबसे यही कहता- ‘‘ मैंने कल रात उड़ने वाली हरियल साँपिन को देखा है.’’ संझा महसूस करती कि रात में हवा सम पर चलती है क्योंकि सोए हुए पेड़ बराबर से साँस लेते हैं. पेड़ों को झकझोरने पर, रात में सन्नाटा रहता है तब भी, दिन जितनी आवाज नहीं होती. हरा रंग, काले रंग से गाढ़ा होता है. तभी तो, दूर अँधेरे में, पेड़ की मोटी जड़ नहीं दिखाई देती, किन्तु नन्हीं पत्ती दिखती है. तीसरे पहर वह औषधि बटोरती. ‘‘कल हैण्ड पम्प चलाते समय सहचन दादा की नकसीर फूट गई थी. उसकी नाक में टपकाने के लिए दूब का रस और लेप के लिए नदी की मिट्टी ठीक रहेगी. बुन्नू दादी की गठिया के लिए नागरमोथा...अर्जुन...अरे वही जो बृहन्नला बना था...उसकी छाल करेजे की औषधि है ? बहुत अच्छा! आज तो मधु के लिए मधुमाखी के भी हाथ जोड़ना है भाई ! बाउदी ने कहा था.....कतरो की माहवारी नहीं साफ आ रहा है...माहवारी ? ये कौन सी बीमारी हैं ? उँह! बीमरियों के बारे में जितना कम जानो अच्छा.’’ वह थकने लगती तब पानी में उतर जाती. चिडियाँ जब संजा को चेताना शुरु करतीं कि सुंबह होने को है, संझा पानी से खेलना छोड़े और घर जाए, तब वह अध्र्य देती और कहती- ‘‘हे सूर्ज हे! हे जंगल! हे जल! मुझ अछूत को ऐसी सिफत देना कि मेरे छूने से औषधि अमरित बन जाए. ’’ संझा और उसके साथ की लडकियाँ कपड़े पहने हुए ही नहाने लगी हैं. अन्तर शर्म और शर्मिन्दगी का है. उसके साथ की लड़कियों के पास, भौंरो वाले सूरजमुखी से लदी चोटियाँ थीं, उस समय वह पठार का पठार ही रह गई. बदन पर कड़े होते बाल, पठार पर सूखी घास की तरह थे. वह इतनी लम्बी है कि माँ की साडि़याँ छोटी पड़ती हैं. बैगनी नसों और अँगूठे पर उगे रोएँ वाला पाँव छिपाने के लिए उसे कमर से बहुत नीचे साड़ी बाँधनी पड़ती थी. ठुड्डी और होंठों के ऊपर की रोमावली ढकने के लिए वह पल्लू को सिर से लेने के बाद, नाक के नीचे से उस कान तक, तर्जनी-अँगूठे से पकड़े रहती. चेहरे पर सिर्फ आँखें दिखती और पीछे पूरी कमर खुली रहती. संझा कभी नही जान पाएगी कि लंबाई के कारण उसकी कमर में, नदी के अचानक मुड़ जाने जैसा कटाव बनता है. उसकी उभरी-चिकनी रीढ़ की घिर्रीयाँ, नदी में उतरती सीढि़याँ लगती हैं. (ये संझवा हरियल नाहीं, पनियल साँपिन है. काहें कि साली की लचक से मेरे मन में ऐसी लहरें उठने लगी हैं जइसे पनियल साँपिन के चलने से पानी में उठती हैं.) संझा की समझ में यही आया कि उसे हम उमिर लड़कियों को देख कर घबराहट होती है. इस कारण, उसे लड़कों को देखना अच्छा लगने लगा है. ‘‘बाउदी! वो हर शनिचर पहाड़ी से औषधि लेने उतरता है, कौन है ?” ‘‘ललिता महाराज का गोद लिया हुआ बेटा है. तुमने देखा होगा ललिता महराज को. भक्ति में नाचते-बजाते पहाड़ी पर चले आते हैं.” ‘‘नाचने-बजाने की आवाज से कँपनी चढ़ने लगती है बाउदी! ’’ ‘‘तुम्हारे साथ की लड़कियाँ ब्याही जा रही हैं. सारे गाँव में रोज ढोल घूमेगा. अपने को थामे रहना बेटी!’’ चैगाँव की बेटियों के बाप हल्दी और अच्छत लेकर सबसे पहले वैद्य जी को न्योतने पहुँचते. उस समय वैद्य जी का चेहरा पीला-सफेद पड़ जाता. (मैं वर्तमान के भय से, भविष्य के भूत पैदा करता हूँ) चैगाँव आपस में बात करने लगा कि संझा बिटिया को हल्दी नही लगेगी क्या ? ‘‘वैद्य जी साँसे-ढेकार नही ले रहे हैं.” ‘‘संझा बिटिया के भाग से बूढ़ा बैद कोठिला भर-भर धन-जस कमा रहा है. तो काहें ब्याह करेगा. ’’ चार पंच जन वैद्य जी के दरवाजे पहुँचे-‘‘संझा के साथ की सब लड़कियाँ ब्याह दी गई हैं बैद जी!’’ ‘‘अरे हाँ! बैदाइन होती तो ध्यान दिलातीं...मैं आज से ही बर खोजने निकलता हूँ.’’ बैद जी जवाब देकर बैठ गए. ‘‘संझा के साथ की लड़कियाँ बाल-बच्चेदार हो गई हैं बैद जी! वे नाती-पोतों वाली हो जाएँ तब संझा को बियाहिएगा का ?’’ ‘‘देख रहा हूँ. यहाँ-वहाँ गया था. पनही टूट गई...’’ छठें-आठवें साल बैद्य जी आजिज आ गए-‘‘मेरी गुनवन्ती बेटी जोग दामाद भी तो जोड़ का मिले. मेरी बेटी मछरी तो है नही जो सड़ रही हो! उठा कर गड़ही में फेंक दूँ.’’ चैगाँव के लोग तिलमिला गए.‘‘ हमारी बेटिया सड़ी मछरी थीं और इनकी संझा में सुरखाब के पंख जड़े हैं."  ‘‘इसका कहना है कि हमने अपनी बेटियों को गड़ही में फेंक दिया.’’ ‘‘चैबासे में तो लेन-देन भी नहीं चलता.’’ ‘‘फिर बैदा संझा का ब्याह क्यों नही करना चाहता ?’’ ‘‘बैद ने वैदाइन के मरने के बाद अपना ब्याह भी क्यों नहीं किया. जबकि हमारे यहाँ की कई उनके साथ बैठने को तैयार थी ?’’ ‘‘बैद...बैदाइन के मरने के बाद औषधि छोड़ कर मूसली क्यों बेचने लगा ? ‘‘कहीं बाप ही...’’ ‘‘संझा को इसलिए बाहर नहीं निकलने देता कि वह सब बता न दे!’’ (संझा को जन्म लिए सत्ताइस साल हो गए. बूढ़ा वैद्य पहले ही संझा को घर से निकाल देता, तो मुझे आज अपने खरबों बर्ष के जीवन मे, पहली बार इतना पतित न होना पड़ता. खैर! दुनिया तक यह फरमान जाना ही चाहिए-‘‘किस्मत से लड़ा जा सकता है. हराया नहीं जा सकता.’’) वैद्य जी दाहिनी पहाड़ी पर चढ़ते. उधर किन्नरों की बस्ती थी. दूसरे दिन बाएँ हाथ की पहाड़ी पर चढ़ते. जिधर चैगाँव देवता का मन्दिर था. वह दोनों ओर हाथ जोड़ते और लौट आते. ‘‘बेटी! तुमने एक दिन कहा था-अपनी जिन्दगी बनाए ंरखोगी, किसी भी हाल में.’’ ‘‘मैं अपनी जिन्दगी नहीं खतम कर रही हूँ बाउदी! आप मुझे आदमखोरों के बीच भेज रहे हैं.” ‘‘मैं मजबूर हूँ.’’ ‘‘मुझे बचाने से बढ़ कर क्या मजबूरी हो सकती है बाउदी! ‘‘मै बता नहीं सकता.’’ ‘‘मेरी बात मुझसे ही नही बता सकते ?’’ ‘‘मैं ने देखा कि तुम हर शनिवार....वो पहाडि़यों से उतरता हुआ लड़का...कनाई...अच्छा मानुख है...’’ ‘‘वो लड़का और आप लोग मानुख हैं. मैं छिः मानुख हूँ बाउदी!’’ वैद्य जी ने आज पहली बार संझा को जोर से बोलते हुए सुना था. वे चैंक गए-‘‘ तुम बिदाई के समय चुप रहना. रोना मत बेटी!’’ वैद्य जी दीवार के सहारे पीठ टिकाए बैठे रहते . चैगाँव की परिपाटी के अनुसार, बेटी के ब्याह में सभी जुट कर काम कर रहे थे -‘‘वैद्य जी को ललिला पहाड़ी पर खड़ी संझा को देख कर चैगाँव जड़ हो गया. उसके बदन पर लँगोट बची थी. अगरबत्ती के धुएँ के रंग जैसी त्वचा पर, जगह-जगह काँटे और कंकड़ धँसे थे. कई जगह से रक्त की पतली-पतली धार बह रही थी, जिस पर लतर-पत्तियाँ चिपकी थीं. माथे का सिंदूर आधे गाल पर फैल गया था. उसके हाथ में बेर की फल-कांटेदार डाल थी. वह अच्छा करने पर फल और बुरा करने पर कांटे देने वाली दिखाई दे रही थी. सभी देख रहे थे कि रक्त की धारियों को पोंछ दिया जाए, तो चैगाँव देवता की मूर्ति बिलकुल ऐसी ही है. हवा को काटती संझा की भीगी आवाज ऐसी लग रही थी जैसे बहुत सारे जल पंछी, फड़फड़ा कर उड़े हों-  ‘‘एक पर सौ, तुम सब मर्द हो ? ये ललिता महराज आदमी है और मैं हिजड़ा ? ये कनाई जो अपनी प्रेमिका की थंभी नही बन सकता ? वो बसुकि का चचेरा भाई जो उसके साथ रोज जबरदस्ती करता था, जिसे डर था कि बसुकि कनाई के साथ भाग न जाए, वो बड़ामर्द है. मैं गर्भपात की औषधि लेकर रोज रात को न बैठूँ तो तुम मर्दो के मारे चैबासे की लड़कियों को नदी में कूदने के सिवाय क्या रास्ता है ? तुम सबों की मर्दानगी-जनानगी के किस्से नाम लेकर सुनाऊँ क्या ? उस रात जब मैं सोमंती के तीनों बच्चों को दवा देने आई थी...सोमंती ने ही अपने बच्चों को जहर दिया था अपने प्रेमी के साथ मिल कर ...उन्नइस साल की कुनाकी, जिसने झंझट खतम करने के लिए अपना गर्भासय निकलवा दिया...उसका आदमी खुद उसे लेकर कस्बे के साहबों के पास जाता था...जब खून नहीं रुक रहा था तब रोती हुई मेरे पास आई...चैगाँव के एक एक आदमी की जन्मकुडली है मेरे पास. न मैं तुम्हारे जैसी मर्द हूँ. न मैं तुम्हारे जैसी औरत हूँ. मैं वो हूँ जिसमें पुरुष का पौरुष है और औरत का औरतपन. तुम मुझे मारना तो दूर, अब मुझे छू भी नहीं सकते, क्योंकि मैं एक जरुरत बन चुकी हूँ. सारे चैगाँव ही नही, आस-पास के कस्बे-शहर तक, एक मैं ही हूँ जो तुम्हारी जिन्दगी बचा सकती हूँ. अपनी औषधियों में अमरित का सिफत मैंने तप करके हासिल किया है. मैं जहाँ जाऊँगी, मेरी इज्जत होगी. तुम लोग अपनी सोचो. तो मैं चैगाँव से निकलूँ या तुम लोग मुझे खुद बाउदी की गद्दी तक ले चलोगे.’’ (मैं अब तक भाग्य था. लेकिन किसी मजबूर पर ताकत आजमाने वाला और किसी मजबूत की ताल से दुबका हुआ मैं, सबसे बड़ा हिजडा़ हूँ.)

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