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Tuesday, July 23, 2024

मित्रो आज हिंदी की प्रसिद्ध रंगकर्मी और नाट्य आलोचक प्रो. गिरीश रस्तोगी का जन्म दिन है।आज वह जीवित होती तो 86 वर्ष की होती।उत्तरप्रदेश के बदायूं जिले में 12 जुलाई, 1935 को जन्मी गिरीश जी को लोग भूल गए होंगे।स्त्री दर्पण आज उनको याद कर रहा है और युवा रंगकर्मी तथा नाट्य आलोचक रमा यादव का एक सुंदर लेख गिरीश जी पर प्रस्तुत कर रहा है। गिरीश जी गोरखपुर विश्वविद्यालय में हिंदीविभाग की अध्यक्ष रहीं । उन्होंने 1968 में गोरखपुर जैसे शहर में एक नाट्य संस्था बनाकर रंगकर्म किया और देश के जाने माने रंगकर्मियों को बुलाकर आयोजन किए और भुवनेश्वर उदय शंकर भट्ट मोहन राकेश पर किताबें लिखीं। प्रसाद भुवनेश्वर हजारी प्रसाद द्विवेदी मोहन राकेश प्रभा खेतान आदि की कृतियों पर नाटक किए। नेमीचंद्र जैन के बाद वह दूसरी बड़ी रंग समीक्षक थी।तब उषा गांगुली अनुराधा कपूर कीर्ति जैन आदि परिदृश्य पर नहीं थीं प्रो. गिरीश रस्तोगी द्वारा निर्देशित और रूपांतरित कई नाट्य प्रस्तुतियों को उप्र संगीत नाटक अकादमी के संभागीय व राज्य नाट्य समारोह में प्रदर्शित होने का गौरव प्राप्त है। उदयपुर, जोधपुर और कलकत्ता में नाटक यशोधरा का प्रदर्शन किया तो अंतरराष्ट्रीय बोध महोत्सव में दलाईलामा के सामने नाट्य़ लेखक मोहन राकेश के तीन नाटकों की प्रस्तुति ने उन्हें अभूतपूर्व ख्याति दी। संत तुकाराम की जीवनी पर आधारित महाराष्ट्र के परिवेश में बंधी नाट्य प्रस्तुति, चाणक्य, चंद्रगुप्त की प्रस्तुति खूब सराही गई। रामकथा के धोबी पर आधारित प्रसंग की नाट्य प्रस्तुति विभिन्न नाट्य समारोहों में खूब सराही गई। प्रो. गिरीश रस्तोगी के रंगकर्म के विविध आयाम हैं। उन्होंने सिर्फ गोरखपुर ही नहीं बल्कि देश के नामी-गिरामी नाट्य निर्देशकों को अपने शहर में निमंत्रण देकर उनकी प्रस्तुतियों से लोगों को परिचित कराया। इसमें हबीब तनवीर के नाटक 'चरन दास चोर और 'मिट्टी के गाड़ी के मंचन को कभी भुलाया नहीं जा सकेगा। बीवी कारन्त का नाटक 'स्कन्दगुप्त देवराज अंकुर की नाट्य प्रस्तुति 'खानाबदोश के साथ-साथ 'भिखारी ठाकुर की टोली का 'विदेशिया इस कड़ी में महत्वपूर्ण हैं। सिर्फ नाट्य मंचन ही नहीं किया उन्होंने नाटकों को लेकर संवाद की श्रृंखला भी आयोजित की, जिसने गोरखपुर के नाट्य मंच को नई दिशा प्रदान की। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के सहयोग से रंगकर्मियों के लिए नाट्य प्रशिक्षण केंद्र के माध्यम से उन्होंने प्रतिभाओं को परिमार्जित करने का कार्य भी किया। स्त्री विचार केंद्रित ध्रुव स्वामिनी का मंचन तो आज भी रंगकर्म के कद्रदानों के जेहन में ताजा है। उन्होंने हमेशा यह महसूस किया कि रंगमंच में सन्नाटा बिल्कुल उचित नहीं है, इसलिए वे लगातार अपने नाटक प्रस्तुतियों के लिए तत्पर रहती थी। प्रो. रस्तोगी नाट्य माध्यम से समाज में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन में जीवन भर महत्वपूर्ण भूमिका निभाती रही। हिंदी विभाग में आचार्य के तौर पर उन्होंने रिटायर होने तक सेवा दी। उन्हेें समय-समय पर महादेवी वर्मा पुरस्कार, आचार्य रामचंद्र शुक्ल पुरस्कार, सुभद्रा कुमारी चौहान, अंतरराष्ट्रीय महिला सम्मान से नवाजा गया। उन्होंने अंतिम सांसें 16 जनवरी 2015 को लीं।

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ज़ोहरा सहगल ("एक नाम ज़िंदादिली का")

मित्रो corona महामारी के इस दौर में स्त्री दर्पण ने जन्मदिन लाइव आदि स्थगित कर दिए हैं लेकिन इस मनहूस घड़ी में थोड़ी सकारात्मकता के लिए बीच बीच में कुछ आलेख आदि देते रहेंगे।आज महान अदाकारा जोहरा सहगल को हम याद कर रहे हैं। आठवें दशक के चर्चित कथाकार अवधेश श्रीवास्तव का यह लेख उनकी 109 वीं जयंती पर दे रहे हैं।
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अवधेश श्रीवास्तव
ज़ोहरा सहगल… एक ऐसी जिंदादिल अदाकारा… जिसने रुढ़ियों को तोड़ा.. जिसने सिने पर्दे पर अभिनय को एक अलग मुक़ाम दिया… एक ऐसा नाम जिसने लंबे अरसे तक अपनी अदाकारी से कई पीढ़ियों को प्रेरणा दी ।
ज़ोहरा सहगल के बारे में कहा जाता है कि वह अपनी घड़ी हमेशा वक्त से पांच मिनट आगे रखती थीं । यह एक व्यंजना भी है, उस अज़ीम अदाकारा और शानदार शख्सियत की, जो अपने दौर से हमेशा कुछ कदम आगे रहीं ।
ज़ोहरा सहगल ने साल 1935 में उदय कुमार के साथ बतौर नृत्यांगना करियर की शुरुआत की । वह चरित्र कलाकार के तौर पर कई हिंदी फिल्मों में नज़र आई। उन्होंने अंग्रेजी भाषा की फिल्मों, टेलीविजन और रंगमंच के जरिए लोगों के दिलों में अपने अभिनय की अमिट छाप छोड़ी । भारतीय सिनेमा जगत में लाडली के नाम से चर्चित ज़ोहरा सहगल कई फिल्मों का हिस्सा रहीं ।
एक समृद्ध, लेकिन पारंपरिक परिवार में गुजरे पाबंदी से भरे बचपन में उन्होंने अपने हिस्से की मस्तियां चुरायीं। जब उनकी हमजोलियां में से कई बंद डोलियों में नैहर से ससुराल तक की यात्राओं में अपनी ज़िंदगी सीमित कर रहीं थी, वहीं ज़ोहरा जर्मनी में बैले डांस में प्रशिक्षण ले रहीं थी।
ज़ोहरा सहगल का जन्म एक पारंपरिक मुस्लिम परिवार में उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में 27 अप्रैल 1912 को हुआ था । ज़ोहरा सहगल का असली नाम साहिबज़ादी ज़ोहरा बेगम मुमताज़ उल्लाह खान था । वह सात भाई बहनों में तीसरे नंबर की थीं और उनका लालन पालन देहरादून में चकराता के पास हुआ । जब जोहरा एक साल की थी तो उनकी बांई आंख की रोशनी चली गई। उस समय तीन लाख पाउंड खर्च कर लंदन के एक अस्पताल में इलाज़ कराया गया और आंख की रोशनी लौटी। ज़ोहरा की पढ़ाई लड़कों के स्कूल में हुई इसलिए उनका स्वभाव अल्हड़ और खिलंदड़ था। वह स्कूली दिनों में पेड़ों पर चढ़ जाया करती और लडकों जैसी शरारत करती थी।
ज़ोहरा का मतलब है- गुणी और हुनरमंद स्त्री । ज़ोहरा ने अपने नाम के स्वरूप ही जीवन को जीया और कई बार खुद साबित भी किया। जहां उन्होंने 1929 में मैट्रिक की परीक्षा पास किया। तो वहीं, 1933 में अपनी मां की आखिर ख़्वाहिश को पूरा करने के लिए ज़ोहरा ने लाहौर शहर (जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है ) में स्थित क्वीन मैरी कालेज से स्नातक शिक्षा हासिल की ।
इसके बाद, ज़ोहरा सहगल जर्मनी के ड्रेसडेन में स्थित विग्मान बैले स्कूल में बैले डांस सिखने के लिए चली गई। आख़िर, कई मुश्किलों के बावजूद ज़ोहरा को बैले स्कूल दाख़िला मिला। जहां पर अगले तीन साल तक उन्होंने आधुनिक नृत्य का प्रशिक्षिण लिया। विग्मान बैले स्कूल में प्रशिक्षिण लेने वाली ज़ोहरा पहली भारतीय छात्रा बनीं ।
उसी दौरान, जर्मनी में आधुनिक नृत्य के जन्मदाता और विश्व प्रसिद्ध भारतीय नर्तक उदयशंकर अपने यूरोप टूर पर आए हुए थे। उदयशंकर द्वारा शिव पार्वती प्रदर्शित बैले डांस देखकर ज़ोहरा इतना प्रभावित हुई कि उन्होंने उदयशंकर से उनके बैले डांस ग्रुप से जुड़ने का आग्रह किया। जिसके बाद, 1935 में उदयशंकर के बैले ट्रूप के साथ गई । जिससे उनकी उम्मीदों और ख्वाबों को जो पर लगे, तो उसकी परवाज़ दुनिया के कोने-कोने तक पहुंची ।
ज़ोहरा सहगल की शोहरत कला की दुनिया में एक बेहतरीन नृत्यांगना के रूप में फैल चुकी थी। गौरतलब है कि एक नृत्यांगना के रुप में ज़ोहरा सहगल ने जापान, मिस्र, यूरोप और अमेरिका में कई कार्यक्रम पेश किये।
1940 में ज़ोहरा सहगल हिंदुस्तान लौट कर आयीं । भारत आकर ज़ोहरा सहगल ने अल्मोड़ा में स्थित उदय शंकर की डांस स्कूल इंडिया कल्चरल सेंटर में शिक्षक बन गई । जहां पर उनकी मुलाक़ात उनके भविष्य के पति कामेश्वर सहगल से हुई । जहां पर दोनों ने साथ काम किया और निपुण नर्तक और कोरियोग्राफर बन गए। उनकी दोस्ती मोहब्बत में तब्दील हुई ।
लेकिन यहां से उनकी जिंदगी ने एक और मोड़ लिया और जोहरा ने एक और ऐसा फैसला लिया, जो अपने वक्त तो क्या आज के वक्त से भी आगे का है। यह फैसला था, एक ग़ैर मज़हब के शख़्स से शादी करने का। ज़ोहरा ने अपने से आठ साल उम्र में छोटे कामेश्वर सहगल से शादी का फैसला कर लिया ।
कामेश्वर सहगल इन्दौर के रुढ़िवादी हिन्दू परिवार से संबंध रखते थे। कामेश्वर साहब वैज्ञानिक, चित्रकार और नर्तक थे। साथ ही कहा जाता है कामलेश्वर खाना बनाने का भी शौक़ भी रखते थे। उनकी पढ़ाई सदी के महान चित्रकार एमएफ हुसैन के साथ ही इन्दौर के ललित कला महाविद्यालय में हुई थी।
ज़ोहरा और कामेश्वर की दोस्ती, इश्क़ के मुकाम आगे पहुंची। यह दोनों के इश्क़ का जुनून ही था। दोनों परिवार तथा समाज के ज़बरदस्त विरोध के बावजूद 14 अगस्त, 1942 को शादी के बंधन में बंध गए।
जिसके बाद ज़ोहरा ने पति के साथ लाहौर का भी रुख़ किया था। जहां पर दोनों दंपत्ति ने मिलकर “ज़ोहरेश नृत्य स्कूल” नाम से एक डांस संस्थान की स्थापना की। लेकिन वहां की सियासी हवाएं दंपत्ति को नागवार लगीं, लिहाज़ा पाकिस्तान से दोनों वापिस भारत लौट आये। ज़ोहरा करियर तराशने और किस्मत आजमाने फिर मुंबई आ गई ।
दोनों का प्यार साल दर साल परवान चढ़ता रहा और उनका जीवन दो बच्चों, बेटी किरन और बेटे पवन से गुलज़ार हुआ। साल 1952 इस प्रेम कहानी का कामेश्वर सहगल के निधन के साथ दुखद अंत हुआ।
यह कहना गलत नहीं होगा कि ज़ोहरा सहगल के तरक्क़ीपसंद ख़्यालात का सफ़र एक गहरी राजनीतिक समझदारी पर आधारित था, जो धर्म-जाति के भेदभाव से इनकार करती थी और औरत होने के नाते अपने लिए दोयम दर्जे की सामाजिक स्थिति को ठहाकों में उड़ा देती थी । यही वज़ह रही कि जब हिंदुस्तान दो हिस्सों में तकसीम हुआ, तो उन्होंने अपने अज़ीज़ भाइयों और बहनों की तरह मुल्क़ छोड़ने के बारे में सोचा भी नहीं, बल्कि उन्हें रोकने की पुरज़ोर कोशिश की ।
पति के इंतकाल के बाद शायद ज़ोहरा सहगल के लिए जीवन एक इम्तहान भी रहा। जिसके बाद, उन्होंने कुछ फिल्में, नाटक और टेलीविज़न धारावाहिकों में काम किया।
इसी दौरान वह रंगमंच के प्रगतिशील आंदोलन इप्टा से जुड़ीं। उन्होंने 14 साल तक इंडियन पीपुल्स ऑफ थिएटर एसोसिएशन और पृथ्वीराज कपूर के पृथ्वी थिएटर में अभिनय किया। रंगमंच से उनका यह प्रेम आखिरी सांस तक चला ।
पृथ्वी थियेटर से जुड़कर ज़ोहरा का नया अवतार हुआ । नृत्य और बैले के संसार से वो अभिनय के संसार में दाखिल हुईं जहां कहा जाता था कि पृथ्वीराज जैसा सिखाने वाला हो तो दुनिया जहान का सबकुछ समझ आ जाता है। ‘इप्टा’ की मदद से बनी चेतन आनंद की ऐतिहासिक फिल्म “नीचा नगर” में अभिनय भी किया। “नीचा नगर” कान फिल्म-महोत्सव में अंVVVVतरराष्ट्रीय सिनेमंच पर पुरस्कृत पहली भारतीय फिल्म थी। उन्होंने 1950 में बनीं ‘अफसर’ और 1956 में आई ‘हीर’ फिल्म में भी अभिनय किया था। यही नहीं उन्होंने1951 में आई गुरुदत्त की चर्चित फिल्म ‘बाजी’ जैसी अन्य कई फिल्मों में कोरियोग्राफी भी की थी।
पृथ्वी थियेटर के साथ कोई चौदह साल तक काम करने के साथ ही उन्होंने देश-विदेश के तमाम हिंदी-अंग्रेज़ी नाटकों में काम किया।
पंडित जवाहरलाल नेहरू से परिचय के कारण जोहरा नाट्य अकादमी की अध्यक्ष बन गईं। लेकिन साल 1962 में ज़ोहरा सहगल ने फिर से लंदन का रुख किया। उन्होंने फिल्म, टीवी और रेडियो के साथ विभिन्न क्षेत्रों में भी काम किया । उन्होंने बीबीसी द्वारा बनाए साल 1976-77 में बनाए गए धारावाहिक ‘पड़ोसी’ से बहुत नाम कमाया। 1984 में सीरियल ज्वैल इन द क्राउन में लेडी चटर्जी का रोल उनके करियर का चरम बिंदु था। 1985 में सीरियल तंदूरी नाइट्स में वे दादी के रोल में थीं और लंदन का हर छोटा-बड़ा दर्शक उन्हें पहचानता था। 1987 में करीब 25 साल बाद जब ज़ोहरा भारत लौटीं तब वह लोकप्रियता के सर्वोच्च शिखर पर थीं। दूरदर्शन के सीरियल ‘बुआ फातिमा’ में उन्हें अभिनय करने का मौका मिला।
जिसके बाद वह, हिंदी सिनेमा की बूढ़ी अम्मा के नाम से मशहूर हो गईं। मुख्यधारा के सिनेमा में जोहरा की उपस्थिति महज़ रस्म अदायगी नहीं रही बल्कि उन्होंने अपने अभिनय की गहरी छाप छोड़ी। दिल से, हम दिल दे चुके सनम, वीर जारा, सांवरिया, बेंड इट लाइक बेकहम, चीनी कम, कभी खुशी कभी गम जैसी फिल्में इसकी ताक़ीद करती हैं।
गौरतलब है कि ज़ोहरा को 2001 में कालिदास सम्मान, 1998 में पद्मश्री, 2004 में संगीत नाटक अकादमी और 2010 में पद्म विभूषण से नवाज़ा गया । इसके अलावा भी उन्हें कई पुरस्कार मिल चुके हैं।
उनके 100 साल पूरे होने के मौके पर उनकी बेटी और ओडिसी नृत्यांगना किरन सहगल ने उनकी जीवनी प्रकाशित की थी, “जोहरा सहगलः फैटी.”। फैटी इसलिए कि मां वजन को लेकर बहुत सजग रहती थीं । लेकिन वो कम न होता था और बेटी ने मां को फैटी कहकर चिढ़ाया करती थीं। किरन ने अपनी मां के जीवन संघर्ष को बहुत गहराई और दिली तसल्ली के साथ इस किताब में उकेरा है। एक कलाकार और संस्कृतिकर्मी की निजी और सार्वजनिक जद्दोजहद को समझने का मौका हमें ज़ोहरा की आत्मकथा “क्लोजअप” से मिलता है। अपने दो बच्चों के साथ रह गई इस अदाकारा का मनोबल, इस किताब में झांकता है। तब भी ये कोई आत्मदया या आत्मविलाप के वृतांत नहीं हैं, इनमें भरपूर उल्लास और जीवट के नज़ारें हैं । अकेले रह सकने की ताब पर ज़ोहरा सहगल कहती थीं कि जिंदगी मुझे डराए इससे पहले मैं उसे डरा दूंगी।
ज़ोहरा के साथ एक लंबे साक्षात्कार के आधार पर अनोखी डॉक्युमेंट्री बना चुके जानेमाने रंगकर्मी एमके रैना ने कहा था ‘ज़ोहरा सहगल में महासागर जैसी सामर्थ्य था। ज़ोहरा को हफीज़ जालंधरी की नज्म, ‘अभी तो मैं जवान हूं’ विशेष तौर पर पसंद थी। ज़ोहरा पर उम्र हावी नहीं थी। वह मन से और मिज़ाज़ से खुद को लड़की ही मानती थीं। तकलीफ को शिकस्त देने का ये भी एक सलीका ही था। शायद इसीलिए उन्हें सौ साल की बच्ची भी कहा जाता था’ ।
अपनी अदाओं, ठिठोलियों और अल्हड़ताओं में हमें रिझाती रहने वाली इस नायिका को उम्र और वक्त के तकाजों ने कम चोटें नहीं पहुंचाई । एकाध साल पहले की ही तो बात है जब उन्होंने भारत सरकार के संस्कृति और शहरी विकास मंत्रालयों से आर्टिस्ट कोटे के तहत ग्राउंड फ्लोर के आवास की अपील की थी क्योंकि ऊपरी मंजिलों पर चढ़ना उतरना उनके लिए मुमकिन नहीं रह गया था । लेकिन सौ साल पार कर चुकीं जोहरा सहगल की ये मांग ठुकरा दी गई थी।
ज़ोहरा सहगल से जुड़ी एक दिलचस्प बात शायद बहुत कम लोग ही जानते होंगे कि फिल्म जगत के कई नामी कलाकार ऑडिशन देने से पहले ज़ोहरा सहगल से आर्शीवाद लेने जाते थे, जिनमें फिल्म जगत के मशहूर कलाकार देवानंद भी थे।
ज़ोहरा सहगल दक्षिण एशियाई सांस्कृतिक जीवन की एक धड़कन रही हैं। धड़कन ज़रूर रुक गई, मगर धरोहर के रूप में वो हमेशा जिंदा रहेंगी। उनके 100 साल, एक स्त्री और एक रंगकर्मी के अथक श्रम के सौ साल हैं। जिसको उनके प्रशंसक और चाहने वाले प्रेरणा रुप अपने ज़हनोदिल जिंदा रखेगें।
जन्म: 27 अप्रैल 1912
मृत्यु: 10 जुलाई 2014
अवधेश श्रीवास्तव
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मो. – 09582096038, 07599242988

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हिंदी की प्रसिद्ध कथाकार सुधा अरोड़ा ने आज चन्द्रकिरण सौंनक्सा की 100 वीं जयंती पर उनको याद किया ।उनका एक लेख यहां पेश है।

2020 का यह वर्ष स्वातंत्र्यपूर्व भारत की कथाकार चन्द्रकिरण सौनरेक्सा का जन्म शताब्दी वर्ष है। कल 19 अक्टूबर उनका जन्म दिवस है।
सुभद्राकुमारी चौहान , सुमित्राकुमारी सिन्हा के कालखंड की एक बेहद महत्वपूर्ण कथाकार चन्द्रकिरण सौनरेक्सा जी ने जीवन के उत्तरार्द्ध में अपनी लंबी चुप्पी को तोड़ा ।
अपनी आत्मकथा ‘पिंजरे की मैना’ में अपने जीवन के ऐसे बेहद निजी अनुभवों और त्रासदियों को उन्होंने उड़ेल दिया जिसे उस समय के मध्यवर्गीय समाज की, एक औसत स्त्री की, त्रासदी से जोड़कर देखा जा सकता है ।
86 वर्ष की उम्र में वे ऐसे पड़ाव पर पहुंच चुकी थीं, जब व्यक्ति अपनी भरपूर जिन्दगी जी चुकता है , जिया जा रहा समय उसे बोनस लगता है, खोने के लिए उसके पास कुछ बचा नहीं रह जाता, उसकी कलम बेबाक हो जाती है और सच बोलने से उसे न खौफ़ होता है, न परहेज़ ।
इस आत्मकथा की तुलना अगर किसी किताब से की जा सकती है तो वह है मन्नू भण्डारी की “एक कहानी यह भी।” दोनो किताबों में गजब की ईमानदारी, साफगोई और पारदर्शिता है। शब्द झूठ नहीं बोलते, दोनों आत्म कथाओं के ब्यौरे इस बात के गवाह हैं।
इस पुस्तक पर पर्याप्त चर्चा नहीं हो पाई । “स्त्रियां अपना विक्टिम कार्ड खेलती हैं”, यह कहकर स्त्री की आत्मकथाओं को हमेशा से
कटघरे में खड़ा करने का चलन रहा है । “पहले क्यों नहीं बोली, अब क्यों बोली” का यह जुमला पिछले 50 सालों से लेकर, हाल ही के “मी टू” अभियान तक, सुना जाता रहा है । पुरुष ही नहीं, स्त्रियां भी इस आलोचना में शामिल हो जाती हैं ! स्त्री की चुप्पी को महानता का दर्जा देने वाले समाज में, ऐसी ईमानदार आत्मकथाओं का, स्वागत होना चाहिए !
“पिंजरे की मैना” का एक प्रसंग पाठक को बेहद विचलित कर देता है — एक दिन लेखक-पत्रकार- छायाकार पति रात को नौ बजे अपनी एक बीस वर्षीय महिला मित्र को हॉस्टल से घर ले आते हैं और सारे क्रोध, अपमान, आत्मग्लानि के बावजूद पत्नी अपने पति का तथाकथित सम्मान और उनकी इस हरकत को परिवार के सदस्यों की नजर से बचाने के लिए कमरे में भेज देती है और सारी रात गैलरी में अखबार बिछाकर दरवाजे से टेक लगाकर बैठ जाती है कि पति के इस कारनामे की किसी को भनक न लगे । लेकिन बात छिपती नहीं – डिप्टी डायरेक्टर साहब को सस्पेंड किया जाता है और समाचार पत्रों में इस रंगीन अफसाने की खबर छप जाती है। …..फिर रोटी रोजी का सवाल! किसी तरह सुमित्रानंदन पंत और जगदीशचंद्र माथुर के सहयोग से चन्द्रकिरण सौनरेक्सा जी लखनऊ आकाशवाणी की नौकरी पर नियुक्त हो जाती हैं।
घर और बाहर का मैनेजमेंट – पिछली पीढ़ी की औरतों ने भी कैसे बखूबी निभाया है, यह किताब इसे समझाने में सक्षम है। पिछली पीढ़ी में तमाम पौरुषीय कारनामों के बावजूद कैसे और क्यों शादियां टिकी रह जाती थीं और किस कीमत पर , इसे
‘‘पिंजरे की मैना’’ पढ़कर बखूबी जाना जा सकता है ।
एक लंबे अरसे तक साहित्यिक जगत से उन्होंने अपने को काट लिया, समारोहों में जाना बंद कर दिया था पर इसकी टीस लगातार बनी रही – ‘‘ मैं आज भी निम्नमध्यवर्ग का अंश हूं , तब भी थी । सोचा, एक मुक्केबाज की चोट से अगर बचना चाहते हो , तो उसके रास्ते से हट जाओ । तब उसके मुक्के हवा में चलेंगे, चलानेवाला भी जब उसकी व्यर्थता जान लेगा, तो हवा में मुक्केबाजी बंद कर देगा ।….मैं तो स्वनिर्मित गुमनामी के अंधेरे में खो गई । वृंदावन से एक बंदर चला जाए तो वृंदावन सूना नहीं हो जाता । एक चन्द्रकिरण के साहित्य जगत से हटने से वह सूना नहीं हो गया ।’’ यह वाक्य कितनी तकलीफ से लिखा गया होगा, अनुमान लगाया जा सकता है !
हिन्दी प्रदेश के उन पिंजरों में , जहां आज भी चन्द्रकिरण सौनरेक्सा जैसी औरतें हैं और वही सब कुछ झेल रही हैं जो सत्तर साल पहले की कामकाजी औरत ने झेला, अपने समय की एक महत्वपूर्ण लेखिका का बेबाक और पारदर्शी बयान बहुतों के लिए ताकत का सबब बनेगा ।
एक ग़जब की समानता विश्व की कई महिला रचनाकारों में दिखाई देती है ! बंगाल में अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में एक बांग्ला लेखिका ने अपनी आत्मकथा का नाम दिया – “पिंजरे में पाखी” , चन्द्रकिरण सौनरेक्सा की आत्मकथा – “पिंजरे की मैना”, माया एंजेलो की आत्मकथा के एक खंड का नाम – “When the caged bird sings ” यह बेहद चर्चित कविता रही, अफ़गानी कवयित्री नादिया अंजुमन की भी ऐसे ही आशय की एक कविता है। इनमें से किसी ने भी दूसरे देश की इन रचनाकारों को नहीं पढ़ा। ”बर्ड इन अ केज” शीर्षक से अनगिनत रचनाएं हैं। यह शोध का विषय है कि हर स्त्री रचनाकार अपने पिंजरे को पहचान लेने के बावजूद पिंजरे की तीलियों को तोड़कर आसमान में उड़ने के लिए पंख नहीं फैलाती, वह सिर्फ मैना की तरह पिंजरे के भीतर ही गाती है । ….पर वह पिंजरे की शिनाख्त कर पाती है, यह भी कोई कम बड़ी उपलब्धि नहीं !
जब मैंने 2008 में यह किताब पढी थी , सोचा था – पिंजरे की मैना से मिलकर उनका आभार व्यक्त करुंगी कि अन्ततः उन्होंने कलम को हथियार बनाने का भरपूर साहस दिखाया । पर इससे पहले कि मैं उनसे मिलती, मैना पिंजरा खोलकर उड़ गई ।
चन्द्रकिरण सौनरेक्सा जी के जन्मशताब्दी वर्ष पर उन्हें याद करने के लिए Vimal Kumar और उनके “स्त्री दर्पण” आयोजन का आभार ! हम अपनी महिला रचनाकारों पर गर्व कर सकते हैं ।
पुनश्च : पूर्वोदय प्रकाशन, दिल्ली से सन 2008 में प्रकाशित यह पुस्तक “पिंजरे की मैना” एक लंबे अरसे से अनुपलब्ध है । संभवतः जल्द ही इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित होगा !
Portrait by Sulochana Saraswat 
 

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"स्मृति के झरोखे से सुनीता जैन की याद मृदुला गर्ग "

मित्रो हिंदी की प्रसिद्ध कवयित्री उपन्यासकार सुनीता जैन का तीन वर्ष पूर्व निधन हो गया था। वह एक विदुषी लेखिका थी जो अँग्रेजी और हिन्दी दोनों भाषाओं में समान अधिकार से लिखती थी। सुनीता जी और वरिष्ठ लेखिका मृदुला गर्ग आपस में गहरी मित्र थीं। मृदुला गर्ग जी अपनी इस आत्मीय मित्र को इस संस्मरण में याद कर रही हैं। 13 जुलाई 1941 को हरियाणा के अंबाला जिले में एक जैन परिवार में जन्मी सुनीता जी का किशोरावस्था दिल्ली में बीता। प्रारंभिक शिक्षा स्नातक तक दिल्ली में पूर्ण करने के बाद अमेरिकी अंग्रेजी साहित्य में न्यूयॉर्क के राज्य विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर और 1968 में नेब्रास्का विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की उपाधि (पीएचडी) हासिल की। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, दिल्ली में एक पूर्व प्रोफेसर और मानविकी और सामाजिक विज्ञान विभाग की प्रमुख रहीं। उन्होंने 60 से अधिक पुस्तकें, अंग्रेजी और हिंदी में प्रकाशित कीं, इसके अलावा कई जैन लेखन का अंग्रेजी में अनुवाद किया। 11 दिसंबर 2017 को वें हमारे बीच नहीं रहीं। उन्हें 2004 में पद्मश्री से नवाजा गया था। तो आइए मृदुला जी के शब्दों में सुनीता जी को याद करते हैं।
कवि कथाकार जो अन्त तक रचनाशील रहीं – मृदुला गर्ग
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जब भी कोई अजनबी मिलता है तो कहता है, धर्मयुग में आपकी कहानियाँ पढ़ा करते थे। मैं भी सुनीता जैन के लिए यह कह सकती हूँ, फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि अब हम एक-दूसरे के लिए अजनबी नहीं रहे। यूँ ठीक-ठीक अजनबी बरसों से नहीं थे। दिल्ली में रहते, कभी-कभार गोष्ठियों या दूरदर्शन पर आमना-सामना हो जाया करता था। पर निजी तौर पर, परिचय जैसा कुछ नहीं था। जो था, कहानी के नाम पर। और कहानी का नाम लो तो धर्मयुग, क्योंकि मैं जिस समय की बात कर रही हूँ, वह धर्मयुग-साप्ताहिक हिन्दुस्तान-सारिका का ज़माना था। दरअसल दिल्ली मैं बाद में आई, कहानी के माध्यम से सुनीता को पहले जाना। जो लोग सुनीता को रचनाशील कवयित्री की तरह जानते हैं, वे शायद इस बात पर अचरज करें कि उस ज़माने में, वे अपने गद्य के लिए ज़्यादा जानी जाती थीं।
तो सत्तर के दशक में, मैंने, सुनीता जैन की एक कहानी या कहें गद्य का मुखड़ा, धर्मयुग में पढ़ा था। उनसे मेरा वही पहला साक्षात्कार था। झील की बतखें नाम था और झील की ही तरह, वह निर्वेग रूप से मेरे भीतर उतर गया था। उन दिनों मैं दिल्ली से बाहर, कर्नाटक प्रदेश के एक छोटे-से कस्बे में रहती थी। हिन्दी से ताल्लुक बनाए रखने का कोई उपाय था तो वही, धर्मयुग और सारिका का आस्वादन।
मैंने तब तक हिन्दुस्तान के बाहर क़दम नहीं रखा था और सुनीता की कहानी थी, ठेठ न्यू यॉर्क के बारे में। विदेश से मेरा तब तक साबका, ज़्यादातर साहित्य के माध्यम से रहा था। इसीलिए उसके तमाम यथार्थ के ऊपर फंतासी की झीनी-सी चादर पड़ी रही थी। अब जो झील और सुदर्शन युवक समेत, विदेशी पृष्ठभूमि पर, अपनी देशवासिनी की हिन्दी में संस्मरणनुमा कहानी पढ़ी तो वह झीनी चादर, झर्र से उतर गई। और पलटा खाकर फर्र से दुबारा यथार्थ पर चढ़ गई। एक अलग अंदाज़ लिए हुए फंतासी-युक्त यथार्थ, आँखों के सामने आ गया। सुनीता का धीमा, हल्का, काँपता-सा रोमानी अंदाज़, उस विदेशी को हिन्दुस्तानी बनाए दे रहा था और आख़िर में वह फलसफ़ा। अपने यहाँ रिश्तों की कई अनाम परतें होती हैं, जिन्हें करीब से करीबतर लाने का मतलब है, उन्हें खोना या कमतर बनाना, जिसकी पेशकश न करें तो बेहतर है। कहानी का मर्मस्पर्शी अन्त, बरसों मेरी याददाश्त में टंका रहा। हाल में सुनीता की कहानियाँ और अन्य गद्यांश दुबारा पढ़ने का मौका मिला तो वह गद्य का टुकड़ा भी पढ़ा। और तब पता चला, अरे इसे तो मैं कभी भूली ही न थी।
उस पहले पाठ और अबके बीच पूरा जीवन बीत चुका, यानी यौवन बीत चुका। विदेश का तिलिस्म भी टूट चुका। हल्के-काँपते रोमान्स के दिन आए और बीत गए। यादों में शुमार हुए और भूल चले… मैं और सुनीता अजनबी नहीं रहे। कभी-कभार हँस-बोल लेने के औपचारिक रिश्ते की कुछ परतें छीलकर, एक-दूसरे को हमने, बीसवीं सदी के अंतिम दशक में जाना। जब मैं इस अर्थ में बूढ़ी हो चुकी थी हँसने-बोलने के प्रति खास लगाव नहीं रहा था और सुनीता भी एकदम जवान होने का दावा नहीं कर सकती थी। हालांकि वह तब तक रिटायर नहीं हुई थी और ज़िन्दगी को शिद्दत से जी रही थी। उन दिनों वह कविता में रमी थी। हिन्दी-अंग्रेज़ी दोनों में लिख रही थी। कहानी-उपन्यास से काफ़ी कुछ किनारा किए थी। वह उन थोड़े से लेखकों में से है, जो आज भी कविता के लिए सरस्वती शब्द का इस्तेमाल करते हैं। पर मैंने पाया कि रचनाकार से इतर भी, सुनीता के पास एक रचनाशील बुद्धि और पारखी मन है, जो उससे रचना का सारगर्भित अनुशीलन करवाता है और उसे उसकी तह तक पहुँचने का बल देता है।
उसकी तीक्ष्ण बुद्धि और प्रबन्धन की समझ को देखते हुए, मुझे काफ़ी बार ख़्याल आता था, विदुषी और कार्यदक्ष महिला, आई.आई.टी में प्रोफेसर, ह्युमेनिटीज विभाग की अध्यक्षा; व्यावसायिक क्षेत्र में भरी-पूरी पहचान लिए; आख़िर वह किस मोह जाल में फँस कर साहित्य के दुखदाई क्षेत्र में विचरने आई होगी? शायद यह प्रश्नोत्तर ही, “साहित्य क्यों पर साहित्य ही”, हमें एक-दूसरे के क़रीब लाया होगा, क्योंकि हम दोनों, एक-दूसरे से बिना पूछे, उसके निदान तक पहुँच लेते हैं।
अपने अनुभव से मैं जानती थी कि साहित्य ही सुनीता का वास्तविक क्षेत्र है और हमेशा रहा है। उसके अलावा, जो-जो उसने किया, वह समय की माँग थी, जीवन की ज़रूरत और थोड़ी-बहुत, जीवन को भव्य तरीक़े से जीने की लालसा। पर जब उसने अध्यापन या प्रबन्धन के क्षेत्रों को चुना तो उन्हें हाशिये में नहीं डाला। जो उनकी माँग थी, हमेशा पूरी की। उनका स्वधर्म, निष्ठा से निभाया, फिर भी अपना कुछ बचाकर रखा, जो वह साहित्य को अर्पित करती रही।
मुझे लगता है, सुनीता के चरित्र का मूल सत्व यही है कि वह किसी चीज़ को हाशिये में नहीं डालती। जिसे, अन्य जन अपना प्रयोजन सिद्ध करने लायक न मान, डाल रहे होते हैं, उसे भी नहीं। उन विषयों को भी नहीं, जिनकी तरफ़ से, ज़्यादातर होशियार लोग उदासीन हो चुके हैं। इसलिए सुनीता, करीब-करीब हर विवादास्पद विषय पर सोचते और बोलते पाई जा सकती है। इस तरह का आचरण यानी हाशियों को निरन्तर मुखपृष्ठ पर खींच लाने का उपक्रम, जीवन में अनेक जटिलताएँ पैदा करता है। और कर्ता के चरित्र में भी। विरोधाभास और विसंगतियाँ चारों तरफ़ से घेराबंदी करने लगते हैं। सब तरह की विडम्बनाओं के बीच आडम्बर और अपेक्षित आचरण की माँग के हमलों से, अगर किसी चीज़ को बचाने का हौसला बना रहता है तो इसीलिए कि जिसे बचाया जाएगा, वही अपना वास्तविक जीवन-केन्द्र होगा। तो जो बचा रहता है, वह होता है, लेखन।
सुनीता का परिष्कृत, आभरण-युक्त, सजीला रख-रखाव देखती हूँ और देखती हूँ उसके लेखन की स्फूर्त सहजता को। कहीं कोई तालमेल नहीं बैठता। हर हाल वह लेखन, उस बाहरी व्यक्त्तिव का प्रतिबिम्ब नहीं ही है। फिर आन्तरिक व्यक्ति का होगा? व्यवहारिक और आन्तरिक का अंतर हर व्यक्ति के भीतर होता है। सुनीता के यहाँ कुछ ज़्यादा है, इसलिए उसे जानना ज़्यादा समय लेता है और अधिक मेहनत की माँग करता है। उसका लेखन उसके आन्तरिक व्यक्तित्व का दर्पण है या कहें उस सरस्वती का दर्पण है, जिसे उसने अपनी तरफ़ से अपने लेखन का पर्याय बना रखा है।
सुनीता ऐसे लिखती है जैसे पात्रों और पाठकों से संवाद कर रही हो और उसी तरह, हम उसे संप्रेषित भी करते हैं। पर इसका यह मतलब नहीं है कि वह लेखन का आधार, केवल भावनाओं को बनाती हैं, विचार को नहीं। असल में, यह आसपास के जीवन को जितना महसूस करती है, उतना ही उस पर सोचती भी है। तभी कविता, कहानी, उपन्यास के इतर, वैचारिक लेख उसके समग्र लेखन के अंश है। उन्हीं को उसके समग्र लेखन में विविधा के अन्तर्गत संयोजित भी किया गया है।
कभी-कभी हम विविध का अर्थ, वह खुरचन मान लेते हैं जो समग्र लेखन की हांडी के तले में बची रहती है। पर असलियत वह नहीं है। असल में विविध, घी का वह बघार है, जो रचना की सारी सुगन्ध को सोख कर, ऊपर उतरा लाता है। रचना में विचार का प्रस्फुटन होने पर ही, आलोचना की सम्भावना पैदा होती है। दरअसल विचार, साहित्य-पठन की अनिवार्य शर्त है। लेखकीय कथ्य का सार्थक पाठ तभी किया जा सकता है, जब उसमें अन्तर्निहित सब उप-पाठों को तलाश कर, उन्हें आत्मसात किया जाए। उनका विवेचन-विश्लेषण करके, उनके परिप्रेक्ष्य में, समग्र पाठ को रख कर देखा जाए। तभी उसके सब आयाम खुल सकते हैं। वह जो ज़ोर-शोर के साथ कहा गया है, वह जो धीमी आवाज़ में आधा-पौना कहा गया है; और वह जो अनकहा छूटा रह गया है या छोड़ दिया गया है। यह काम सचेत पाठक भी कर सकता है और सचेतन आलोचक भी। पर दोनों में से एक भी होने के लिए ज़रूरी है, रचनात्मक होना। रचनाकार नहीं, रचनात्मक। रचना कभी-कभी होती है। हर अनुभव, अनुभूति या कल्पना की उड़ान को रचना में नहीं बाँधा जाता। चाह कर भी नहीं। पर जब हम रचना नहीं कर रहे होते, अपने भीतर उसकी पदचाप नहीं सुन रहे होते, तब भी हम रचनात्मक बने रह सकते हैं। दूसरे के अनुभव को संवेदना के साथ देखने-परखने के लिए, रचनात्मकता की ज़रूरत होती है। उतनी ही तब होती है, जब दूसरे के लिखे को हम आँकते हैं। विचार, का प्रस्फुटन आलोचना की सम्भावना पैदा करता है तो संवेदना और ईमानदारी, उसे सार्थक आकार देती है। सुनीता रचनाकार तो है ही, जीवन और साहित्य के प्रति रचनात्मक भी है। इसलिए जब वह किसी रचना का विश्लेषण और आकलन करती है तो बौद्धिक ऊर्जा, भावात्मक लगाव और चारित्रिक बेबाकी के साथ करती है। हमारे यहाँ साहित्य के विवेचन में अनेक खाली स्थल हैं; अनायास या सायास छोड़ी दरारें हैं। दरारों से परे हाशिये हैं। सुनीता का वैचारिक लेखन, उन दरारों को भरने का काम करता है।
यह सोच कर दुख होता है कि इतना सब करने के बाद भी सुनीता उदास है और लोगों की उदासीनता से, खिन्न। हिन्दी साहित्य-जगत, रचनाकारों की अलग-अलग आवाज़ों को, उनके अलगाव के वैभव में पहचानने का क़ायल कभी नहीं रहा। लेखक के जीवन में घुसपैठ किए बग़ैर, उसके लेखन को परखने में भी वह विश्वास नहीं करता। इसलिए शायद सुनीता के लेखन की वैसी पड़ताल नहीं हुई जैसी होनी चाहिए। उसकी आलोचनात्मक पड़ताल को भी, “महिलाएँ आलोचना नहीं लिखतीं” की पिष्टोक्ति से बाहर निकाल कर सराहा नहीं गया। पर सराहा जाए या नहीं, लेखन अपने पढ़ने वालों के भावबोध को समृद्ध करता ही है और वही उसकी सही पहचान है। कभी वह विवेक को उकसाता है, कभी सौन्दर्यबोध को गहराई और मॉसलता देता है तो कभी भूले-बिसरे अतीत के जीवन्त पात्रों का पुनर्सृजन करके, उन्हें फिर एक बार हमारे क़रीब ले जाता है।
सुनीता के तीन खण्ड काव्यों, क्षमा, माधवी और गांधर्व पर्व में अतीत से पात्र उठाकर उनकी पुनर्रचना की गई है। उसके अलावा कुछ कविताओं में भी उन्होंने अछूते प्रसंग उठाये हैं जैसे माँ पर बेटी द्वारा लिखी कविताएं(जाने लड़की पगली), या प्रेम में स्त्री के अनगिन रूपों की ऐसी रसमय प्रस्तुति, जिसमें अपनी संस्कृति को बचाए रखने की भावना प्रबल है।
पर सबसे प्रभावी रूप में यह तत्व, उसके हाल में प्रकाशित खण्ड काव्य क्षमा में फलीभूत हुआ है। उसकी प्रवक्ता, गोस्वामी तुलसीदास की विस्मृत व तिरस्कृत, कवि-पत्नी रत्नावली है। गोस्वामी तुलसीदास के स्त्री-आसक्त युवक से असाधारण राम भक्त कवि बनने की घटना, सर्वज्ञात है। सदियों से उन्हें उसके लिए, साहित्य रसिकों तथा आम जनता की अपार श्रद्धा प्राप्त होती रही है। विडम्बना यह है कि जिस तन्मय भक्ति का काव्य लिखने के लिए तुलसीदास श्रद्धेय बने, उसी भक्ति से प्रेरित हो, सत्य वाचन कर, तुलसीदास के भीतर उसका आह्वान करने के लिए,रत्नावली श्रद्धेय नहीं, कटुभाषी खलनायिका बना दी गई, और सदा तिरस्कृत होती आई। खण्ड काव्य क्षमा ने रत्नावली और तुलसी की कथा को अनूठे भाव और शैली में अभिव्यक्ति दी है। रत्नावली को ऐसे पात्र की तरह गढ़ा है, जिसके साथ इतिहास ने शताब्दियों तक अन्याय किया पर जिसने इतिहास का घटनाक्रम ही नहीं, भविष्य का भावबोध भी निर्धारित किया। रत्नावली स्वयं एक कवि थी। जब उसने पति से कहा कि इतनी लौ ईश्वर से लगाते तो जन्म सार्थक हो जाता तो उसकी जिह्वा से वही आध्यात्मिक कवि मानस बोल रहा था, जिसके लिए तुलसीदास को ख्याति मिली। पर सुनीता का मन्तव्य केवल इतना भर सिद्ध करना नहीं है, हालांकि उन्होंने रत्नावली की कुछ रचनाएं भी खोज निकाली हैं। क्षमा काव्य का सबसे प्रखर और मार्मिक पक्ष यह है कि मृत्यु शैया पर, जब तुलसीदास रत्नावली से क्षमा माँगते हैं तो वह अपने पारस्परिक प्रेम का साक्ष्य तो देती है पर अतुलनीय गरिमा के साथ, उनसे मिलने की कोई चेष्टा नहीं करती। पाठक सोचने पर बाध्य हो जाता है कि, क्या रत्नावली की कथा, युगों से चली आ रही हर प्रतिभाशाली स्त्री की व्यथा-कथा नहीं है? किसी भी लेखक के लिए यह कर पाना दुर्लभ उपलब्धि है।
यह संयोग ही है कि सुनीता जैन ने साठ बरस की वय पूरी करने के बाद क्षमा लिखा। जैन समुदाय छिमा वाणी दिवस के नाम से एक अनोखा पर्व मनाता है। हर बरस एक दिन, जैन धर्म के अनुयायी, बरस भर में जाने-अनजाने किये गये अपने अपराधों के लिए दोस्तों-रिश्तेदारों से ही नहीं, परिचितों और अल्प परिचितों से भी क्षमा माँगते हैं। ऐसा अद्भुत पर्व कोई और नहीं मनाता। हो सकता है इसी ऐतिहासिक स्मृति से प्रेरित हो कर, सुनीता ने गोस्वामी तुलसीदास से अपनी तिरस्कृत पत्नी से क्षमा मँगवा दी हो। प्रेरणा कहीं से मिली हो, उससे तुलसीदास और रत्नावली के साथ सुनीता का क़द भी कुछ ऊँचा हुआ है मैं उम्मीद करती हूँ क्षमाशील भी।
यह समझना ज़रूरी है कि विवेक को उकसा कर,सौन्दर्यबोध को गहराई दे कर और अतीत के जीवन्त पात्रों को पुनर्सृजित करके, कोई लेखन, हमें उस तरह जीने को बाध्य नहीं करता, जैसे उसका लेखक जी रहा हो। वह सबको अपनी तरह जीने की प्रेरणा देता है, बस पहले से कुछ अधिक सचेतन हो कर। सुनीता का लेखन यह बखूबी करता है। उससे भी बड़ी ख़ूबी यह है कि वह दूसरों के लेखन के उच्छेदक तत्वों को भी पहचानती है। मेरे उपन्यास अनित्य की पड़ताल और उसके अंग्रेज़ी अनुवाद होने के दौरान मेरी सृजन यात्रा या कहूँ यातना में, सुनीता ने जो संवेदनशील और सकारात्मक भूमिका निभाई थी, वह हमेशा याद रहेगी।
मैंने बहुत-से उदास क्षण उसके साथ गुजारे हैं। कुछ यात्राएँ भी साथ की हैं। वह एक दक्ष, चौकन्नी यात्री हैं। मैं एकदम नकारा। इसीलिए यात्रा में उसकी प्रबन्धन कुशलता की हमेशा प्रशंसक रही हूँ। आभारी भी।
सुनीता के भीतर दोस्त बनाने की उत्कट लालसा है, जो बहुत बार, उसे चोट खाने पर मज़बूर करती है। दोस्त मान लेने से ही कोई दोस्त नहीं बन जाता। मैं समझती हूँ कि दोस्ती निभाना प्यार निभाने से ज़्यादा विकट होता है। इसलिए जो दोस्त चाहता है, जिसके लिए दोस्ती करना ज़रूरी होता है; उसे हमेशा चोट खाने के लिए तैयार रहना पड़ता है। आप दोस्त इसलिए चाहते हैं कि अपने को खोल सकें, संवाद कर सकें, भावनाओं को प्रश्रय मिले। पर दोस्त बनाने का मतलब यह भी होता है कि आप उसके नकार के अधीन हो जाते हैं। दोस्ती बनी रहे और दोस्त से उसे निभाने की ज़हमत भी न उठवानी पड़े। वरना डर होता है कि वह दोस्ती से कट कर भाग न ल। इस कशमकश में आप वही सब खोने लगते हैं, जिसे पाने के लिए दोस्त बनाया था। यानी संवाद से कन्नी काटने लगते हैं; अपने को खोलने से कतराने लगते हैं। पर जिसे दोस्त चाहिए, उसे चाहिए ही। जीवन की अनेक विडम्बनाओं की तरह इसे भी झेल लेगा। अपना स्वधर्म कौन छोड़ता है? फिर रचनाकर्म तो है ही। दोस्त दोस्ती न निभाएँ, न सही। रचना में दोस्ती ढूँढ़ी जा सकती है। असंगत दीखते पाठ में संगति ढूँढ़ी जा सकती है। विविध तरीकों से विविधा रची जा सकती है।
11 दिसम्बर 2017 की शाम हिन्दी की इस प्रख्यात कवयित्री सुनीता जैन का 76 वर्ष की आयु में निधन हो गया। वे छह माह घातक रूप से बीमार रहीं पर बहुत कम लोगों को पता चला। वे लोगों की हमदर्दी नहीं चाहती थीं, बस अन्त तक रचनाशील बने रहना चाहती थीं,इस विश्वास के साथ कि लिखा शब्द व्यर्थ नहीं जाता। वाक़ई एक अचम्भा ही था, अपार कष्ट में,अन्त तक उनका लिखते रहना। तर्क सम्मत है उनके अंतिम कविता संग्रह का नाम ,”ऐसे जाने देना।”
उसकी एक कविता की ये पंक्तियाँ अंतिम समय में उनकी मनोदशा का रचनात्मक और आध्यात्मिक रूप दोनों दर्शाती हैं।
आज और कल में सिमट जाएगा
तेरा मेरा नाम, साधो
नहीं किसी को याद आएगा
दो दिन पीछे नाम, साधो
फिर भी कर तू
जो भी तेरा काम, साधो।
नहीं हम याद रखेंगे। मुझे विश्वास है कि उनके दोस्त रचनाकर्म की सही पड़ताल ज़रूर होगी और उसमें अन्तरनिहित अस्मिता बोध को समझा जाएगा।
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हिंदी प्रदेश का स्त्री आंदोलन,स्त्री -दर्पण और रामेश्वरी नेहरू

मित्रो आज आप रामेश्वरी नेहरू की 134 वीं जयंती पर अलका तिवारी का विस्तृत लेख पढ़िए।अलका तिवारी हिंदी नवजागरण की नई अध्येयता हैं।वे स्त्री प्रश्नों पर लिखती रही हैं ।
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आज भले ही इतिहास के पन्नों में दर्ज कर रामेश्वरी नेहरू का नाम भुला दिया गया हो मगर जब भी भारत में स्त्री आंदोलन और स्त्री जागरण के इतिहास का मूल्यांकन किया जायगा,रामेश्वरी नेहरू का नाम निश्चित ही पहली पंक्ति में गिना जायेगा।नेहरू परिवार की इस महत्वपूर्ण कड़ी ने न सिर्फ तत्कालीन राजनीति में अपना सक्रिय योगदान दिया अपितु समाज सुधार और स्त्री सुधार के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य किए।स्त्री -दर्पण के माध्यम से नवजागरण कालीन संदर्भों में रामेश्वरी नेहरू ने स्त्री जागरण की मशाल जलायी वह आज भी मिसाल है।
रामेश्वरी नेहरू ,पंडित बृजलाल नेहरू की पत्नी थीं,जो पंडित जवाहरलाल नेहरू के चचेरे भाई थे।विवाह के पश्चात रामेश्वरी नेहरू न सिर्फ नेहरू परिवार के राजनीतिक गतिविधियों से जुड़ी राजनीति से इतर समाज-सुधार और स्त्री – सुधार जैसे तत्कालीन मसलों पर भी गंभीरता से सक्रिय हुयीं।महत्वपूर्ण है कि हिंदी प्रदेश में 19वीं सदी तक स्त्री-आंदोलन का कोई स्पष्ट संकेत नहीं मिलता है,स्त्री -शिक्षा और त्री -जागरण के नाम पर भारतेंदु द्वारा निकाली गयी ‘बाला- बोधिनी’ पत्रिका या फिर ‘वामामनरंजन’ ,’देवरानी -जेठानी की कहानी’ और ‘भाग्यवती ‘ जैसी पुस्तकें ही प्रकाश में आती हैं,जिससे हिंदी प्रदेश में स्त्री -शिक्षा की स्थिति को सहज ही समझा जा सकता है।वस्तुतः 20वीं सदी तक आते -आते हिंदी प्रदेश में स्त्री -जागरण की जो लहर देखने को मिलती है वह 19वीं सदी के आखिरी दशकों में खुद स्त्रियों के नेतृत्व में उठे स्त्री आंदोलन से थी,जिसमें रामेश्वरी नेहरू एक महत्वपूर्ण कड़ी थीं।
1909ई. में रामेश्वरी नेहरू ने इलाहाबाद में ‘प्रयाग महिला समिति’ का गठन किया और इसी समय एक गंभीर पत्रिका ‘स्त्री-दर्पण’ की भी नींव डाली। इस पत्रिका का एक अंतरंग भाग ‘कुमारी दर्पण’ के नाम निकलता था जिसका संपादन ‘रूप कुमारी नेहरू’ किया करती थीं।स्त्री -दर्पण अपने कलेवर और तेवर के साथ हिंदी प्रदेश में स्त्री -आंदोलन की सबसे मुख्य पत्रिका बन उभरी।स्त्रियों की समस्याओं को आंदोलनकारी ढंग से इतनी गंभीरता व गहराई से उस समय उठाने वाली दूसरी कोई पत्रिका न थी।रामेश्वरी नेहरू ने स्त्री -दर्पण के माध्यम से तत्कालीन स्त्रियों में न सिर्फ स्वत्व का भाव जगाया वरन उन्होंने इस पत्रिका के माध्यम से स्त्रियों को राजनैतिक और सामाजिक चेतना से भी सम्पन्न किया।जिसका परिणाम यह निकला कि स्त्रियाँ राजनीति में बढ़चढ़कर दिलचस्पी ले रहीं थीं साथ ही हिंदी पट्टी में नवीन चेतना सम्पन्न स्त्रियों का एक बौद्धिक वर्ग भी इस पत्रिका के माध्यम से सामने आ रहा था,जिनमें उमा नेहरू, हुकमा देवी,सौभाग्यवती देवी ,गुलाब देवी,यशोदा देवी,सुशीला देवी ,लक्ष्मी देवी ,सत्यवती, मुन्नी देवी ,कैलाश रानी और सावित्री देवी जैसी तमाम प्रखर लेखिकाएं स्त्रियों से जुड़ी समस्याओं पर क्रांतिकारी ढ़ंग से सक्रिय दिखती हैं।
जिस समय रामेश्वरी नेहरू ‘स्त्री – दर्पण’ प्रारंभ करती हैं, हिंदी प्रदेश में उस समय परदा प्रथा, बाल विवाह, विधवा विवाह, मृतस्त्रीक विवाह, स्त्री शिक्षा और राजनीतिक अधिकार जैसे जरूरी सवाल स्त्री हितों से जुड़े थे,जिन्हें उन्होंने ‘स्त्री -दर्पण’ के माध्यम से बखूबी उठाया, स्त्री -दर्पण के अंकों में इन सवालों पर लिखे सैकड़ों लेख भरे पड़े हैं।हालांकि पूर्व के पुरूष सुधारकों ने भी इन समस्याओं पर ध्यान दिया था मगर महत्वपूर्ण बात ये थी कि पहली बार ‘स्त्री -दर्पण’ के माध्यम से इन समस्याओं का विश्लेषण नारीवादी दृष्टिकोण से हो रहा था।स्त्रियों की समस्याएं अब खुद स्त्रियाँ उठा रही थीं इतना ही नहीं पुरूष सुधारकों की दृष्टि से इतर स्त्रियाँ खुद स्त्री वैचारिकी की एक जमीन तैयार कर रहीं थीं जो आगे चलकर स्त्री -आंदोलन का सुदृढ़ आधार बनी।
स्त्री -दर्पण की प्रगतिशीलता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि उसमें सत्यभक्त और रमाशंकर अवस्थी जैसे आला प्रगतिशील पुरूष भी महत्वपूर्ण और विचारोत्तेजक लेख लिखा करते थे जो अपने आप में बड़ी बात थी।स्त्री -दर्पण में परदा प्रथा,विधवा विवाह और मृतस्त्रीक विवाह पर जोरदार बहस के साथ ही महत्वपूर्ण लेख सामने आये।सत्यवती देवी का लेख ‘स्त्रियाँ और परदा,’हुक्मा देवी का लेख ‘स्त्री उन्नति कैसे हो?’,’स्त्री जाति की अवनति का कारण-अनमेल विवाह’, सत्यभक्त जी का लेख ‘प्राचीन भारत में स्त्रियों के अधिकार’ उमा नेहरू का लेख’ स्त्रियाँ और स्वराज्य’ ऐसे तमाम लेखों के माध्यम से ‘स्त्री -दर्पण’ के उद्देश्य और तेवर को स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है साथ ही स्त्री – आंदोलन में इसके महत्व को भी आंका जा सकता है।
रामेश्वरी नेहरू न सिर्फ राजनीतिक चेतना से लैस महिला थीं,वरन देश -दुनिया की गहरी समझ भी रखती थीं इसी कारण स्त्री – दर्पण में उस समय किसान आंदोलन, स्वराज्य आंदोलन, विश्वयुद्ध, तथा देश- दुनिया में हो रहे विभिन्न सम्मेलनों और आंदोलनों की भी स्पष्ट झलक देखी जा सकती है।स्त्री हितों पर अपने उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए प्रारम्भ में ही रामेश्वरी जी ने स्त्री -दर्पण में स्पष्ट किया है–“भारतीय स्त्री को मनुष्योचित पद दिलाना ही शुरू के दिन से इस पत्रिका का लक्ष्य रहा है।” स्त्री शिक्षा का मसला उस समय हिंदी प्रदेश की मुख्य स्त्री समस्या थी ऐसे में रामेश्वरी नेहरू की इस पत्रिका ने स्त्री – शिक्षा के सवाल को स्त्री -मुक्ति के सवाल से जोड़ दिया।इस तरह स्त्री -शिक्षा अब स्त्री -पुरूष के बीच एक नया क्ष शक्ति -संतुलन कायम करने के साधन के रूप में देखी जाने लगी।इस संदर्भ में महत्वपूर्ण है कि हिंदी पट्टी के मिर्जापुर जैसी पिछड़ी जगह में ‘भारत महिला परिषद’ नाम से एक स्त्री संगठन बना ,इस संगठन की ओर से स्त्री -दर्पण ने 1918 में एक अपील छापी जिसमें पढ़ी -लिखी स्त्रियों को स्कूलों में पढ़ाने के लिए आगे आने की बात की कही गयी।तात्पर्य ये कि स्त्रियों को घरों से निकालकर स्वयं उनको स्वालंबी और सक्षम बनाने की दिशा में रामेश्वरी नेहरू का खासी योगदान रहा।
विधवा विवाह की समस्या पर रामेश्वरी नेहरू, गांधी व अन्य नेताओं के विपरीत बाल विधवाओं और युवती विधवाओं परअपनी राय रखती हुयी बड़ी बेबाकी से कहती हैं,”जो विधवाएं देवी पद पर सुशोभित रहकर निष्काम धर्म की मूर्तिमती देवी बनी हैं वे हमारी और सारे संसार की पूजनीया हैं।पर प्रश्न है उन बेचारियों का जो लालसा दमन नहीं कर सकतीं और विवाह के लिए तरसती हैं।वे बालाएं भी हैं और युवतियां भी हैं। हमारी समझ में यही बात नहीं आती कि हमारे देश के नेता एक के लिए विवाह सम्मति देते हैं तो दूसरी के लिए क्यों नहीं देते?”(सम्पादकीय-1919)। इसी प्रकार स्त्री -आंदोलन के समर्थन में रंगून में ‘महिला समिति’ में दिया गया उनका भाषण बहुत ही महत्वपूर्ण और स्त्री हितों पर केन्द्रित था,जो 1917अगस्त के अंक में स्त्री दर्पण में छपा जिसमें स्त्री स्वतंत्रता की वकालत करते हुए वे कहती हैं-” सीता,सावित्री, दमयंती, शकुंतला पर्दे में रहने वाली स्त्रियां नहीं थीं।रणभूमि पर देश के लिए जान देकर लड़ने वाली राजपूत स्त्रियां भी पर्दे में रहने वाली स्त्रियां नहीं थीं।” वस्तुतः हम देख सकते है रामेश्वरी नेहरू अपनी युगीन परिस्थितियों और परिवेश से कहीं आगे जाकर स्त्री सरोकारों पर सक्रिय थीं और इसमें कोई दो राय नहीं की ‘स्त्री-दर्पण’ के माध्यम से उन्होंने स्त्री-स्वतंत्रता और समानता की जो जमीन तैयार की आज उसी पर स्त्री वैचारिकी का सुदृढ़ भवन टिका हुआ है।मगर रामेश्वरी नेहरू जैसी प्रखर स्त्रीवादी चिंतक और लेखिका का उचित मूल्यांकन नहीं किया गया ऐसे में आज पुनः उनको नये सिरे से पढ़नेऔर समझने के साथ ही उनके अवदान को साहित्य में उचित स्थान दिलाने की आवश्यकता है।

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कस्तूरबा गांधी

राजेन्द्र बाला घोष उर्फ बंग महिला

महादेवी वर्मा

शिवरानी देवी

चंद्रकिरण सौनरेक्सा

रामेश्वरी नेहरू

उमा नेहरू

कमला देवी चौधरी

इस्मत चुगताई

शिवानी

कृष्णा सोबती

महाश्वेता देवी

मन्नू भंडारी

परवीन शाकिर

फहमीदा रियाज़

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