Wednesday, September 17, 2025

जन्म – 1 मई 1959 को कोतमा, जिला शहडोल [मध्यप्रदेश ]

शिक्षा एम. . हिंदी और मनोविज्ञान 

रुचियां जीवन के रहस्यों और दुर्लभ पुस्तकों का अध्ययन ….यायावरी ,दर्शन और मनोविज्ञान में विशेष रूचि ……

कृतियाँ :-

कविता संग्रह :

  • मैं शब्द हूँ  
  • अनंत संभावनाओं के बाद भी 
  • उठाता है कोई एक मुठ्ठी ऐश्वर्य 
  • पहिंजी गोल्हा में [ सिंधी कविता संग्रह ]

कहानी संग्रह :

1 : मुझे ही होना है बार बार 

2 : अन्दर के पानियों में कोई सपना कांपता है

3 : उससे पूछो 

4 : मैं अपनी मिट्टी में खडी हूँ कांधे पे अपना हल लिये 

5 : समन्दर में सूखती नदी [ प्रतिनिधि कहानी संग्रह ]

6 : बर्फ़ जा गुल [ सिन्धी कहानी संग्रह ]

7 : खामोशियुनि जे देश में [ सिन्धी कहानी संग्रह ]

8 ये कथाएं सुनाई जाती रहेंगी हमारे बाद भी [प्रतिनिधि कहानी संग्रह

9 : अनकहा आख्यान 

10 : अणचयल आखाणी सिन्धी कहानी संग्रह   

 

उपन्यास :

1: तत्वमसि  

2 : कुछ न कुछ छूट जाता है 

3 : मिठो पाणी खारो पाणी [ यह उपन्यास सिन्धी में भी प्रकाशित ] 

4 : हिन शहर में हिकु शहर हो [ सिंधी उपन्यास ]

5 : इस शहर में इक शहर था [ नॉवेला- Bynge Hindi पर ]  

5 : देह कुठरिया [ ट्रांसजेंडर कम्युनिटी पर ]

अनुवाद- १- जे. कृष्णमूर्ति to हिमसेल्फ का हिंदी अनुवाद

       २- ‘भगत – प्रेम प्रकाश की कविताओं का अनुवाद – साहित्य अकादेमी द्वारा प्रकाशित.

अन्य :

‘’अन्दर के पानियों में कोई सपना कांपता है ‘’पर इंडियन क्लासिकलके अंतर्गत एक टेलीफिल्म का निर्माण  

अनेक रचनाओं का अंग्रेजी, उर्दू, पंजाबी, उड़िया, सिन्धी, मराठी, बंगाली भाषाओँ में अनुवाद… 

कई कहानियों के नाट्य रूपांतरण आल इंडिया रेडियो, दिल्ली से प्रसारित  

एक कविता सी.बी.एस.सी ८ में चयनित ‘’इतना कठिन समय नहीं‘’

कुछ कहानियां अलग-अलग विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में चयनित.  

हिमालय की यात्रायें ….

लद्दाख पर यात्रा वृतान्त………

मुक्तिबोध सम्मान…… 

‘मिठो पाणी खारो पाणी’ पर कुसुमांजलि सम्मान’ 2017  

कथा क्रम सम्मान’ 2017 

कहानियों पर गोल्ड मैडल …….व कई अन्य छोटे-बड़े सम्मान 

संपर्क :

बंगला # १४, ख़ुशी एन्क्लेव, वी.आई.पी.- माना रोड, पोस्ट – रविग्राम, अमलीडीह, रायपुर 492006  (..)

फ़ोन :+919827947480

मेल : jaya.jadwani@yahoo.com

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कहानियां

मुझे ही होना है बार-बार

मैंने उस समंदर में पहली डुबकी लगाई, जिसकी उत्ताल लहरें अपने भयंकर सम्मोहित रूप में हाथ उठा-उठाकर मुझे अपने पास बुला रही थीं. मैंने अपने चारों तरफ देखा- कुछ भी ऐसा नहीं था जो मेरे पाँव की बेड़ी बन जाए. दूर-दूर तक फैली धूप में चटखी चट्टानें, जिसकी दरारों और निचली सतहों पर पानी जम जाने की वजह से काई उग आई थी या ज़मीन पर दूर तक बिछी उन मटमैली चट्टानों में पानी के वेग से कहीं-कहीं गढ़े बन गए थे, जिनमें अभी भी मटमैला पानी भरा हुआ था. मैंने रोमांच की तलाश में अपने चारों ओर देखा. ये सारी चट्टानें अगर एक साथ फट जाएं? इस सारे समंदर का पानी अगर ये चट्टानें पी जाएं? हमने कभी चट्टानों की प्यास के बारे में नहीं सोचा, कभी रेत की प्यास के बारे में नहीं सोचा या कभी पानी की प्यास के बारे में. हमने कभी समंदर की प्यास के बारे में नहीं सोचा, जो अपनी बाहें फैला-फैला कर नदियों को अपने पास बुलाता है. हमारी सोच को पूरा का पूरा तय कर दिया जाता है, जैसे भारत या किसी भी देश के मानचित्र को यहाँ से वहां तक, बस. सरहदों के पार जाने में खतरा है. अब मैं किसे बताऊँ, मुझे सरहदों के पार जाना ही इसीलिए है, नहीं तो क्या ज़रूरत है, फिर? पता नहीं क्यों, वही चीजें अभिभूत करती हैं जो मिल नहीं सकतीं. इंसानी लालसाओं का द्वार कहाँ खुलता, कहाँ बंद होता है, यह मैं आज तक नहीं जान पाई.
तो मैंने उस समंदर की लहरों पर अपने जिस्म को ढीला छोड़ दिया, लहरें अपने आक्रामक रूप में थीं. उन्होंने मुझे चारों ओर से दबोच लिया और अपने साथ ले चलीं उन अतल गहराइयों में, जहां समंदर के सारे जीव-जंतु हमारे बदन पर अपने नामोनिशान छोड़ने को भयावह रूप से आतुर रहते हैं. बाहर ऊब थी, जिसकी कटीली तारों से खुद को टकरा-टकरा कर घायल कर लिया था मैंने और अब मैं अपना लहू चाटते हुए अगले आक्रमण की तैयारी में थी. मैंने भी उन जीवों को छोड़ा नहीं, अपनी पूरी ताकत से उन्हें नोचने-काटने लगी. मेरे समस्त अंगों का उपयोग होने लगा, वे भी जो कई बरसों से बेकार पड़े थे. मैंने लामार्क और डार्विन के उद्विकास के सिद्धांत के बारे में सोचा. नहीं, मैं ऐसा नहीं होने दूंगी. मेरा रोआं-रोआं छितराने लगा- इस पार से उस पार तक.
सारे समंदर का पानी लाल होने लगा. मेरे विचारों के कण उसकी गहराइयों में घुलने लगे, उसकी खामोशियों में भी. मैंने अपने सीने पर एक गीत लिखा और उस सबका आव्हान करने लगी, जिन्होंने मुझे क्षत-विक्षत किया था और चरम आनंद के क्षणों को मैंने उसके साथ भोगा था.
आओ, मेरे साथ गाओ, वह हिंसक गीत, जिसे एक बार गाने के बाद कोई कुछ भी करने को तैयार हो जाता है. आओ, मेरे अंदर का हिंसक जानवर कराह रहा है, अब इसे सांत्वना के स्वर मत दो. यह भाषायह नहीं समझ सकता. इसे मारो चाबुक से, इसे और भड़क जाने दो. जब तक इसके अंदर एक भी लहू की बूँद बाकी है, यह चुप नहीं बैठेगा. और इसे मरने मत देना. इसी के ज़ख्मों पर पैर रखकर इंसान खड़ा है. इसके बिना तो किसी मानव की सम्पूर्णता की कल्पना भी नहीं की जा सकती. मैंने हमेशा इसे सबसे छुपा-छुपा कर पाला है. हमेशा इसे पनाह दी है, इससे पनाह मांगी है. आज मैं इसे अच्छे से देखना चाहती हूँ. इसके पैने नाखूनों में लहू लगा है और अधखाए मांस के रेशे. यह अपनी लंबी जीभ से अपने बदन से चिपका लहू चाट रहा है. इसे लहू की गंध अच्छी लगती है. बहुत बार तो यह किसी ख़ास गंध की तलाश में बरसों मारा-मारा फिरता है और जब यह मिल जाती है, वह इसे बहला-फुसला कर इतने आदिम तरीके से उसकी चीर-फाड़ करता है कि वह गंध फिर हवा में बिखरने के लायक भी नहीं बचती. मैंने उसकी तरफ से आँखें फेर लीं. न फेरो तो यह बेहद खतरनाक तरीके से अपनी ओर खींचता है. इसकी आंखों में जादुई चमक है. एक बार इसके घेरे में आ गए तो एक खतरनाक किस्म की मोहकता हम पर हावी हो जाती है. मैं यह भी करके देख चुकी हूँ. कुछ दिनों की थकान भरी संतुष्टि.फिर किसी नई गंध की तलाश.
मेरा गीत अपने अंतिम चरण पर है. मैं समंदर की अतल गहराइयों में फेंक दी गई हूँ. मुझे सांस नहीं आ रहा. मुझे सांस नहीं तड़फ चाहिए. मुझे अपने ज़ख्म अपनी देह से अलग जान पड़ते हैं. समंदर के तेज बहाव में वे इधर-उधर बहे जा रहे हैं. मैं उन्हें पकड़ना चाहती हूँ पर वे मेरे हाथों से छिटक-छिटक रहे हैं. मैंने देखा – वे किनारे की रेत पर फ़ैल गए हैं. छोटे-बड़े ज़ख्म पुराने सीप और शंखों की तरह किनारे की रेत पर उम्र की तेज धूप में चमक रहे हैं. धूप ढल जाएगी और ये काले पड़ते जाएंगे. फिर किसी शाम को मैं अकेली बैठ इनके छिलके उतारूंगी और नाखूनों से इस पर जमा दुःख साफ़ करूँगी.
पानी बड़े खतरनाक तरीके से मुझे चट्टानों पर पटक रहा है. मेरे हाथ में जब भी कोई सीप आती है, मैं उसका मुंह खोल देती हूँ. मुझ उस अकेली सीप की तलाश है जिसमें एक सच्चा मोती है. मेरे जिस्म से न जाने कितने समुद्री जीव टकरा रहे हैं, वे मुझे चाट रहे हैं. ‘मैं बिल्कुल तुम्हारी तरह हूँ.’ मैंने उनसे कहा. वे एतराज़ नहीं करते. चट्टानें घायल हो रही हैं. उनकी रेत मेरे धक्कों से बिखर रही है, गिर रही है. सदियों से साधे थी खुद को, छूट रहा है आज सब्र और छन कर खड़ी हो गई है एक आकृति मेरे जिस्म की मार से. और मेरा जिस्म – कुछ भी तो नहीं रह गया इस पर. न रूप, न गंध, न स्वाद, इच्छाओं-लालसाओं की सूखी ठठरी रह गया है मात्र.
पानी मेरे जिस्म से खेलता-खेलता थक रहा है. लहरों ने मुझे छोड़ दिया है. ‘तुम अकेली नहीं हो’, वे मुझसे कहती हैं और किसी और की तलाश में मुड़ जाती हैं. कोई बात नहीं, सिर्फ मुझे ही तुम्हारी तलाश नहीं थी, तुम्हें भी थी मेरी तलाश और हम दोनों को अब किसी दूसरे की तलाश है, दरअसल अब हम दोनों को ही समझ में आने लगा है, अपने ज़ख्म अपनी जीभ से चाटने में क्या है, कुछ नहीं. मज़ा तब है, जब कोई और हमारे ज़ख्म चाटे और हम दोपहर की गुनगुनी धूप में पैर फैलाकर लेटे देखते रहें अपने ज़हर का प्रभाव.
मैंने पानी से अपना सिर बाहर निकाला और चाँद की किरणों को पीने लगी. आओ, मुझमें एकाकार हो जाओ. मुझे सृष्टि की एकरूपता का रहस्य समझ में आने लगा है. जो मैं हूँ, वही तुम हो. जो तुम हो, मैं हो सकती हूँ. मुझे रूप दो, रहस्य दो, गंध दो. मेरे रंध्र-रंध्र में उतरो. और मैंने देखा, मुझमें न सिर्फ किरणें उतर रही हैं. तारे भी गिर रहे हैं. आसमान से टूट-टूट कर और मेरा जिस्म तारों से पट गया है. एक खूबसूरत चमकता हुआ जिस्म. मैं आल्हादित हो उठी.
‘देखो. मुझे देखो.’ मैंने दसों-दिशाओं को आवाज़ दी. ‘है कोई ऐसा, मेरे जैसा. सिर्फ मैं ही हो सकती हूँ, सिर्फ मुझे ही होना है. मुझे ही बिखरना है टूटकर. मुझे ही बनना है. सृष्टि के अंत के बाद भी मुझे ही होना है.लगातार.बार-बार.
मैं अपने मानचित्र से बाहर आ गई. मैंने अपनी सरहदों को दूर से देखा कटीली बाड़ों से घिरा. अँधेरे में डूबा. कुछ टिमटिमाती रोशनियों के टुकड़े उस पर गिरते हैं और उस निस्सीम अँधेरे में खो जाते हैं. कुछ टिमटिमाती रोशनियाँ, जिसके एक टुकड़े की खातिर हम सदियों से मारे-मारे फिर रहे हैं और जब वह एक टुकड़ा कभी गिरता है, हम सब भूखे भेड़ियों की तरह उस पर टूट पड़ते हैं. उसे नोच-नोच कर हवा में छितरा देते हैं. और फिर वह भी आखिरकार उसी अँधेरे में जा मिलता है.
मैंने बाहर आकर उस चट्टान को देखा, जिसे मेरी देह ने तराशा था. फिर अपने बदन को देखा. जो तारों से भरा जगमगा रहा है. मैंने एक तारा उठाया और उस आकृति के माथे पर जड़ दिया.
‘अब तुम बहुत सुन्दर हो, मेरी ही प्रतिरूप.’ मैंने उसे चूम लिया.
 
                                         JAYA JADWANI

क्या आपने मुझे देखा है

 क्या आपने उस भूरे –लम्बे बालों वाले लड़के को देखा है? जिसे मैं कई दिनों से देख रही हूँ. जिसने हिप्पी स्टाइल में ढीले –ढाले कपड़े पहन रखे हैं…घिसी हुई जीन्स…सलवटों वाली टी शर्ट और खूब सारे जेबों वाली जैकेट. जेबें जो खाली झूलती रहती हैं तुम्हारी चाहनाओं की तरह. उसके चलने में एक लापरवाह किस्म की लापरवाही है जैसे वह कहीं नहीं पहुंचना चाहता. मुझे ऐसे लोग अच्छे लगते हैं जो कहीं नहीं पहुंचना चाहते. क्या आपने किसी को कहीं पहुँचते देखा है? इअरफोन अपने कानों से लगाये वह शायद म्युज़िक के साथ ही इस शहर को देखता है, म्युज़िक बैकग्राउंड का काम करता होगा जैसे हम फिल्मों में देखते हैं बहुत सारी चीजें एक साथ पर जुड़ते उसी से हैं जिससे हमारी भीतर की तान मिल जाये. आप समझ रहे हैं न मैं क्या कह रही हूँ. जनाब ये शब्द अक्सर गलत समझे जाते हैं जब लिखे जा रहे हों तब भी, जब कहे जा रहे हों तब भी. सबसे बेहतर है मौन…. रास्ता मुश्किल जरूर है पर आपको सही जगह पहुंचाता है. अगर आप दूर से इन न जाने किन-किन देशों –प्रदेशों से आये जवान लड़के –लड़कियों को देखें तो आप इनकी बाबत बहुत कुछ जान सकते हैं. जिस्म का ट्रांसमीटर बहुत पावरफुल होता है. गाता हुआ जिस्म तो बहुत साफ़ सुनाई देता ही है रोता हुआ भी. इन सबकी अलग –अलग कहानी और घर हैं .जिनसे ये उब और भागकर यहाँ आये होंगे. अगर मैं कोई लेखक होती तो जरूर इनके बारे में न जाने कितने किस्से आपको सुना देती और सब सच होते हालांकि मैं इनमें से किसी को नहीं जानती. हर लेखक एक चलता –फिरता कब्रिस्तान होता है, जिस भी मुर्दे को आवाज़ देंगे वही उठकर आपको एक कहानी सुनाने लगेगा. देखिये जनाब जब मैं बहका करूँ आप मुझे टोक दिया कीजिये.
 
     हां तो मैं कह रही थी एक ही दिन अलग –अलग चार जगहों पर मुझे वह लड़का दिखा…माउन्टरिंग इंस्टीट्यूट के घने इलाके में जब मैं सुबह की सैर से वापस आ रही थी, एक पत्थर पर बैठा अपनी मोबाईल पर झुका न जाने क्या कर रहा था….आहट पाकर उसने क्षण भर को अपना सिर उठाया…एक सरसरी सी निगाह मुझ पर डाल वापस उसी मुद्रा में. नहीं –नहीं मुझे जरा भी बुरा नहीं लगा. जनाब, अब मेरी उम्र कोई इस तरह की बातों से बुरा मानने की तो है नहीं. हालाँकि न देखे जाने पर हर उम्र की औरत बुरा मानती है और बड़ी उम्र की औरतें तो थक जाती होंगी अपनी तरफ किसी चाहना से भरी निगाह की प्रतीक्षा में और उसी थकन में फिर वे गिर पड़ती होगीं अपनी पति की उतनी ही व्यस्त और त्रस्त गोद में. आपने सूखी पत्त्तियाँ चबाते जानवरों को देखा होगा. जब हमारे जीवन में रस नहीं रहता हम एक –दूसरे को बिल्कुल इसी तरह चबाने लगते हैं. ये आनंद है जनाब …एक वीभत्स आनंद, अपनी जरुरत भर पूरी कर लेने का …जानवरों से ऊपर उठने के पश्चात् भी जब –जब मनुष्य उनके लेवल पर आया है इसी वीभत्स आनंद को जीने .पर इस बात का यह अर्थ बिलकुल न निकालियेगा कि अब मुझमें देखने को कुछ नहीं बचा. जनाब, ये तो मेरी मुरव्वत है. आप एक बार मिलकर तो देखिये, सोचने लगेंगे काश! मैं इसके साथ जरा सा चल पाता….जरा सा इसे छू पाता. खुद को तराशने का हुनर अगर बचपन में आपको किसी ने सिखाया न हो तो बड़ी यातना सहने के बाद आता है. इसके बाद तो इससे बड़ी ख़ुशी कोई नहीं. आप बड़े मजे से अपने साथ रह लेते हैं जैसे मैं रह रही हूँ पिछले पैतीस सालों से यह जानते और देखते हुये भी कि अभी भी न जाने कितनी आँखें और पैर मेरा पीछा कर रहे हैं. खैर, दूसरी बार उस छोटी सी बेकरी में बैठी जब मैं अपनी गर्म पिज़्ज़ा का इंतज़ार कर रही थी, वह भी दूसरी मेज पर बैठा कांच के शोकेस में सजी ठंडी पेस्ट्रीयों और केक को देख रहा था. जैसे कोई बच्चा देखता है ….उसने एक मैंगो पेस्ट्री मंगवाई और खाने लगा. इस बार मैं उसे देर तक देखती रही थी. गेहुंये रंगत वाला वह दुबला –पतला हिप्पी सा दिखता लड़का मुझे रूठे हुए बच्चे सा ही तो लगा था. जिसका खिलौना किसी ने छिपा दिया हो. हो सकता है… जिसके साथ आया हो या आना चाहता हो वह किसी दूसरे के साथ चली गयी हो. आजकल के लड़के –लड़कियां एक –दूसरे से बहुत जल्दी ऊब जाते हैं. उन्हें एक –दूसरे के भीतर उतरने की जितनी जल्दी रहती है, बाहर आने की उससे ज्यादा. एक –दूसरे को समझने की लम्बी –काली- अंधेरी सुरंग…कितना भी धीरे चलो हर बार पैर फिसलता है? यह संसार का सबसे मुश्किल रास्ता है जनाब ….बहुत कम लोग बहुत दूर तक जा पाते हैं. खैर, उसके लम्बे बाल इस वक्त पोनी की शक्ल में पीछे बंधे हैं. बड़ा सा माथा चिकना ऐसा जान पड़ता है, जैसे ….मैं कुछ सोच ही रही थी कि …उसकी नज़र घूमी, मुझ पर पड़ी और मुड़ गयी. इस बार मुझे सचमुच अच्छा नहीं लगा. मुझे इतना साधारण किसी ने महसूस नहीं कराया था. मैं मन ही मन हंस पड़ी और उठी एक निर्णय के साथ अपनी पिज़्ज़ा ख़त्म किये बगैर. तीसरी बार वह उसी बस में बैठा था, जिसमें ‘कोठी’ जाने के लिए मैं बैठी थी. मुझे उम्मीद थी वह ऊपर ‘कोठी’ में भी जरूर दिखेगा अपनी मोबाईल से पहाड़ों और झरनों का कोई वीडियो बनाते हुये या अकेले में सिगरेट या बियर पीते हुए तो मैं उससे खुद बात करने की कोशिश करुँगी. पर वह वहां सचमुच नहीं दिखा. वापसी की आखिरी बस में सबसे आगे की सीट पर वह बैठा था. उस दिन ऊपर कोठी में मैंने उसे ढूँढने के सिवा कुछ और नहीं किया था. सारे नजारों ….सारी हरियाली को उस एक चेहरे ने ढँक लिया था. गनीमत है कि बादल अब तक अछूते थे. उन नीले बादलों पर किसी की परछाई नहीं थी. न उसके चेहरे की न मेरे विचारों की. इत्तफ़ाकों के ये कैसे सिलसिले थे, जो इतना तरतीबवार घट रहे थे. मनाली बस स्टैंड पर जब हम उतरे तो समूचा बाज़ार गुलज़ार था. लोग घूम –फिर कर वापस आ गए थे. सारी होटल्स और रेस्टारेंट ठसाठस भरे पड़े थे. मैंने उसे एक बार में घुसते देखा तो न जाने कब से दबी बियर पीने की तलब जोर मारने लगी. मैंने माल से बियर की दो बोतलें खरीदीं और अपने कमरे में वापस आ गयी.
 
       उस रात मुझे नींद नहीं आ रही थी. मैं सीधी लेटी सफ़ेद छत को निहार रही थी…बाहर अँधेरा था …और ठंडी हवा और निस्तब्ध ख़ामोशी…रात के नीम अँधेरे में अपने साथ जागना एक विषादकारी अनुभव साबित होता है .कहते हैं अपने भीतर झाँकने का सबसे महत्वपूर्ण क्षण यही रात की घड़ी है, जब आपको अपनी नंगी –ठण्ड और अकेलेपन में कांपती आत्मा का तीव्र साक्षात्कार होता है. बहुत कठिन क्षणों में मैंने यह साक्षात्कार किया है. जब मेरा पति मेरे जिस्म के खिलौनों से खेल कर उन्हें तोड़कर थक कर सो जाता था….तब. कभी आपने टूटे हुये खिलौनों के रोने की आवाज़ सुनी है ? कुछ औरतें ऐसे ही रोती हैं अपने उन टुकड़ों के लिये जो फिर उनसे कभी नहीं जुड़ पाते. आपमें से अधिकतर जानते होंगे औरतों के टूटने का सिलसिला अक्सर उनके बचपन से ही शुरू हो जाता है जब उन्हें साधारणता की बेड़ियों में जकड़ दिया जाता है जैसे मुझे जकड़ा गया था वर्जनाओं की बेड़ियों से. मेरे भाई को जितनी स्वतंत्रता थी उससे आधी भी नहीं थी मेरे पास .और मेरा बाप …..मुझे नफरत है उससे ….बारह साल तक उसने मुझे ……और मेरी मां चुप रहती थी ….ऐसी कौन सी विवशता होती है जनाब कि औरतें मुंह नहीं खोलतीं .बारह सालों के बाद मैंने मुंह खोला और मैं हास्टल भेज दी गयी. छुट्टियों में मैं अपने घर जाने की बजाय अपने किसी फ्रेंड के घर जाना ज्यादा पसंद करती थी .कालेज के बाद मेरी शादी कर दी गयी और फिर मेरा पति ……क्या सारे पुरुष एक जैसे होते हैं ? नहीं जनाब मैं यह बात मानने को तैयार नहीं हूँ ….पर पुरुष अकेलेपन को उस तरह नहीं जान सकता जिस तरह एक औरत जान सकती है. पुरुष औरत के पास जाता तो है ताकत बटोरने पर उसकी ताकत छीन लेना चाहता है. उससे उसका वज़ूद तक. वह नहीं चाहता कोई उसको चैलेन्ज करे. मैंने पहली राहत की सांस ली अपने डाइवोर्स के बाद. मैंने उन सबको अपनी ज़िन्दगी से निकाल बाहर फेंका जिन्हें मैं नहीं चाहती थी और मैं अकेली हो गयी. अकेलापन जो कभी वरदान की तरह लगता है ….कभी अभिशाप की तरह .इस वक्त मैंने देखा मेरे भीतर का अकेलापन न जाने कब बाहर चला आया था और चुपचाप मुझे घूर रहा था. आज यह आक्रामक नहीं है मैंने इस बात का फायदा उठाया और अपना कम्बल सिर तक खींच लिया.  
 
      दूसरे दिन न वह सुबह की सैर पर मिला, न बेकरी में, न बस स्टॉप पर मैं दिन भर माल पर भटकती रही, शाम को वन विहार में. और सात दिन यह लुका छिपी चलती रही. कभी नीला आसमान बादलों से ढँक जाता….कभी बादल पहाड़ों के उस पार चले जाते. मैं कभी अगस्त की बारीक बारिश में भीगती कभी भीतर के सूखे से लडती. फिर मैंने एक रात उसे ढूंढ लेने का निश्चय किया. जी हां ….आप बिल्कुल ठीक समझते हैं, मैं रात नौ बजे उस बार में जा पहुंची जहाँ मैंने उसे जाते देखा था. वह वहीं था.
 
    इस वक्त जहाँ मैं हूँ, बहुत शोर है और इस शोर में भी मैं अपनी चेतावनी देती आंसुओं में डूबी आवाज़ सुन सकती हूँ……उठ भाग ..निकल यहाँ से ..ये तेरी जगह नहीं है. यहाँ कुछ नहीं मिलेगा ….. मैं उठती नहीं …मेरा अपने साथ युद्ध है और मुझे जीतना ही है बिना अपना मष्तिष्क काटे. आप पूछ सकते हैं मैंने क्या किया….कुछ नहीं जनाब …जबकि जी चाह रहा है इस समस्त बार को तोड़ –फोड़ दूं ….ये ग्लास ..प्लेट्स …बाटलस …सब …सब कुछ …नसों को तोड़ता –फोड़ता कोई तूफान है जो बाहर आना चाहता है….मैं कस के दबाये बैठी हूँ. मैंने खुद को कभी इस बात की इजाज़त नहीं दी कि अपने मन का कर सकूँ. जब छाती से रुदन फूटकर बाहर आना चाहता है मैं हंस रही होती हूँ. जब मेरी प्यास समंदर पी जाना चाहती है …मैं तपती रेत पर चल रही होती हूँ……. खुदाया ! क्या मैं किसी को अपना वास्तविक रूप दिखा पाउंगी ?
 
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        आपको क्या लगता है मैं नहीं जान पाया था. आप बहुत भोले हैं श्रीमान. औरतों के मामले में हम पुरुष बहुत दूर से सूंघ लेते हैं. और इस औरत में तो मुझे कायल करने के समस्त गुण हैं. कुछ खास है इसमें. इसके जिस्म में एक पुकार है …..आँखों में एक अनछुही सी रह –रह कर कांपती चाह ……भीतर की चाह कैसे जिस्म की त्वचा पर चमक जाती है यह तो खुद चाहने वाले को नहीं पता. यह जब दूर तक पसरे पहाड़ों पर बिछी बर्फ़ की तस्वीरें ले रही थी अपनी मोबाईल से ….मैं इसकी नाज़ुक उँगलियों और जीन्स और टॉप में फंसे तराशे जिस्म को देख रहा था…पहली नज़र में ही पूरी की पूरी छाप मेरे भीतर उतर गयी थी हालाँकि मैं न देखने का दिखावा करता रहा. औरतों का किस्सा बड़ा जानलेवा होता है श्रीमान. इनकी भीतर की भूलभुलैया में अगर आप उतर गए तो ये जहाँ ले जाकर आपको छोड़ेगी आपको वापसी का रास्ता भी न मिलेगा और अपनी चाहत की बात तो इन्हें भूल कर भी न बताइयेगा. औरतें उन्हीं को ज्यादा पसंद करती हैं जो उन्हें पसंद नहीं करता. तभी तो सभी खलनायकों की ढेर सारी प्रेमिकाएं होती हैं. मैं भी यही चाहता हूँ श्रीमान मेरी ढेर सारी प्रेमिकाएं हों. सब की सब मुझे पसंद करें …मेरी बात मानती रहें. आप जानते हैं न श्रीमान, औरतें शासित होना पसंद करती हैं कहें चाहे कुछ भी….बस आपमें ये हुनर होना चाहिये. आप इन्हें अपने पीछे दौड़ाना चाहते हैं तो इनसे दूर रहिये. अपनी अकड़ में रहिये. जैसे मैं रहा और देखिये कैसे आई है सात दिनों के बाद आखिरकार. इन्हें ‘मैन’ चाहिये ‘बच्चा’ नहीं. हालाँकि मैं कोशिश करके भी उस तरह से खुरदुरा नहीं बन पाया तभी तो श्रीमान लड़कियां मुझे छोड़कर चली जाती हैं. इस बार मैं बेहद सावधान रहा. मैं उस दिन कोठी में भी उससे छुपता फिर रहा था और फिर वापस आने पर इस बार में घुस आया था. वैसे भी मुझे कुछ दिनों के लिए एक अंग्रेज लड़की मिल गयी थी और मेरी रातें बड़े मज़े से गुज़र रही थी. क्या कहा ?मैं झूठ बोल रहा हूँ. नहीं श्रीमान. दरअसल मुझे इन जल्द हासिल होने वाली औरतों से नफरत है पर यह भी सच है ये आपको वहां तक ले जाती हैं जहाँ आप इनके बिना नहीं पहुँच सकते. वर्जनाओं और डरों से दूर…इनके सामने आपको वे कपड़े पहनने की कोई जरूरत नहीं है जो आप हर वक्त पहने रहते हैं. आप नंग –धड़ंग इनके सामने विचर सकते हैं. कपड़े गिराते ही आपमें से बहुत कुछ गिर जाता है….और आप फूल से हलके हो जाते हैं. और श्रीमान सच तो यह है कोई औरत बाजारू नहीं होती .हम ही साले उसे बाज़ार में खड़ा कर देते हैं अपने लिए ….एक घर में …एक बाज़ार में …..पर श्रीमान ये मामले इतने दोटूक नहीं होते कि आप कह कर समझा सकें…..मैंने अपने पापा को देखा है….जब वे छिप –छिप कर नंगी औरतों की तस्वीरें देखते हैं. मुझे दया आती है उन पर. जब उन्हें दस रोटियों की भूख होती है, दो रोटियां मिलती हैं उन्हें…..और सालों बाद इस तरह के लोग एक लम्बी भूख बन कर रह जाते हैं. हालाँकि शादी नाम की कैद बनाई ही इसलिये गई है कि कोई भूखा न रहे पर अधिकतर लोग भूखे रहते हैं और सड़क किनारे बनी दुकानों पर टूट पड़ते हैं. देखिये श्रीमान, मैं आपको भटका नहीं रहा. मैं चाहता हूँ आपको उस पाइंट पर खड़ा कर दूं जहाँ से आप सब देख सकें. फिर भी ऐसा बहुत कुछ छूट जायेगा जिसे आप पकड़ नहीं सकेंगे. और अगर ऐसा हो तो यही समझियेगा मैं ठीक से अपनी बात समझा नहीं सका आपको .अब वह अन्दर आ गई है …आप चुपचाप यहीं बैठे रहिये अपने गिलास के सामने और मुझे अपना काम करने दीजिये.
 
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    न देह, न रूह, किसी को देखकर आप यह अनुमान नहीं लगा सकते कि वह कितनी उजली या मैली है. हम देखते हैं त्वचा या बालों का रंग, आँखों की चमक, चेहरे की ताब और वह खामोश भाषा जो कहने –सुनने से परे अपना मायाजाल खुद रचती है.
 
    मैं जानती हूँ आप क्या सोच रहे हैं मेरे बारे में ?क्या मुझे इससे कोई फ़र्क पड़ता है? जिसके संबंधों का इतिहास आपको नहीं मालूम उसके बारे में किया गया कोई भी फैसला एक गलत फ़ैसला होगा.           
 
 जैसे ही मैं उसके सामने बैठी उसने मुस्कुरा कर मुझे देखा ….
 
‘प्लीज़ कम …वेटिंग फॉर यू …’
 
मेरी आँखें चौड़ी हो गयी …’तुम मुझे देखते रहे हो ….’
 
‘आफकोर्स यस .यू आर वेरी ब्यूटीफुल. एक जलती हुई लपट हैं आप, कोई भी भस्म होना चाहेगा.’
 
‘तो वह नाटक था कि तुम मुझे नहीं देख रहे.’
 
‘ऑफकोर्स …आपको निकट लाने का……’
 
‘पुराना फार्मूला ?’ मुझे हंसी आ गई.
 
‘कुछ फार्मूले कभी पुराने नहीं पड़ते. कुछ रिश्ते भी कभी पुराने नहीं पड़ते…. औरत –मर्द का रिश्ता. अगर आप उस दूसरे के बारे में सोच रहे हैं तो यकीन मानिये वह भी आपके बारे में सोच रहा है. आप तो मुझसे ज्यादा एक्सपीरियंसड हैं.’
 
‘ क्या तुम्हें नहीं लगता दुनिया इस पैग की तरह होनी चाहिये ….आओ …पियो और जाओ….एक्सपीरियंस हमारे पाँव की बेडी बन जाता है. एक्सपीरियंस के हिसाब से तो मुझे पुरुषों से नफ़रत होनी चाहिये……’ मैं आहिस्ता हंस पड़ती हूँ.
 
‘मुझसे मिलने के बाद आपको पुरुषों से प्यार हो जाएगा.’ उसने बेहद कोमल स्वर में कहा.
 
‘हा …..हा …..हा…. अगर मैं सिर्फ़ तुम्हीं से प्यार कर सकूँ ?’
 
‘अगर ऐसा हो जाये मुझे बता ज़रूर दीजियेगा …’ वह उसी तरह मुस्कराता रहा.
 
‘तुमसे मिलने वाली सारी लड़कियों की यही गति होती है क्या ?’
 
नहीं ….पर मैं चाहता हूँ आपकी हो …’
 
और हम दोनों हंस पड़ते हैं .उसने वेटर को बुलाया और मेरे लिए वोदका ऑर्डर कर दी.
 
‘आपने सोचा नहीं यह अजनबी आवारा लड़का और मैं एक संभ्रांत महिला……’ उसने कहा .
 
‘मैं अपनी सोच से आगे जाना चाहती हूँ….और जिसे तुम सम्भ्रांत होना कहते हो वह बड़ी यातना सहने के बाद आता है….’ पता नहीं वह समझा या नहीं. पर मुझे उसका उत्साह से दमकता चेहरा अच्छा लगता है…..मैंने शिद्दत से महसूस किया…जिस चीज़ की गुज़र जाने के बाद बेतहाशा तलब होती है वह है जवानी. जब सारी दुनिया तुम पर टूट पड़ना चाहती है तब तुम भागे –भागे फिरते हो. और जब तुम उन पर टूट पड़ना चाहते हो वे भागी –भागी फिरती हैं. मैं उससे बहुत सी चीजें कभी नहीं कहूँगी ….वह नहीं समझेगा…वह समझे मैं चाहती भी नहीं हूँ.
 
‘ आप क्या करती हैं ?’
 
‘ मेरा एक बुटीक है जिसे मैंने पिछले पंद्रह सालों की अनथक मेहनत से खड़ा किया है. अपने डायवोर्स के बाद ……वे बड़े कठिन दिन थे. सच तो यह है अपने काम को अपना जीवन सौंपने के बाद आपके पास बहुत कुछ बचा नहीं रह जाता या अगर बचता भी होगा तो आपको पता नहीं चल पाता…और आप चाहते भी नहीं हैं आपको पता चले .तुम्हें पता है हम सबसे ज्यादा किससे डरते है ….खुद से …’
 
‘इंट्रसटिंग …’ उसने कहा. 
 
 ‘मैं भी खुद से डरती थी. अपनी मांगों से ….अपनी चाहनाओं से …’
 
 ‘और अब आपने खुद से डरना छोड़ दिया है ?’
 
‘मैं खुद को दिखा देना चाहती हूँ कि मैं तुमसे नहीं डरती .’ मैंने मुस्करा कर कहा तो वह बहुत ज़ोर से हंस पड़ा .मैं उसकी हंसी देखती रही.
 
 वह मुझे गौर से देखता अपनी वोदका पी रहा है. बहुत आहिस्ता –आहिस्ता हम एक –दूसरे की तरफ बढ़ रहे थे. शुरू में तो वह मुझसे ‘मैम….मैम…’ कहकर बात करता रहा. आखिर मैं कमजकम उससे दस साल बड़ी थी…फिर धीरे –धीरे हम खुलते चले गए. उसने बताया कि अपनी पढाई पूरी करने के बाद वह एक ऐसे जॉब की तलाश में है जो उसके पांव की बेडी न बने. उसके पहले वह यूँ ही एक आवारा किस्म की ज़िन्दगी जीना चाहता है. ‘आवारा किस्म की ज़िन्दगी’….  इन शब्दों को मैं एक –एक घूँट की तरह पीती रही. क्या यह सिर्फ़ पुरुषों के भाग्य में है ?
 
‘ इसके पहले कि तुम्हें शादी के खूंटे से बाँध दिया जाये ….?’
 
‘इस खूंटे से तो मैं बंधने से रहा. आपको बताने में कोई हर्ज़ नहीं है मैं दो साल लिव इन रिलेशन में रहा हूँ.’
 
‘फिर ?’
 
‘फिर क्या ?सब ख़त्म……वह चली गयी.’
 
‘उसका अहसान मानो कि वक्त रहते उसने तुम्हें छोड़ दिया और अब तुम दोनों स्वतंत्र हो ….’
 
‘आप मुझे मेरे गिल्ट से निकाल रही हैं ….’
 
‘एक बात अच्छी तरह समझ लो. ऐसा कोई नहीं जो अनंतकाल तक आपके साथ चलने को राजी हो सके. ऐसी मांग, ऐसी चाह ही पागलपन है. लोग आते हैं अपना रोल प्ले कर चले जाते हैं. हम क्यों उन्हें रोककर रखना चाहते हैं ? उनका और अपना जीवन नरक बनाने के लिए ? और फिर हर दोस्त हमारे अन्दर एक नया संसार पैदा करता है, यह संसार हममें ही छुपा रहता है जब तक वह आकर इसे अनावृत नहीं कर देता .’
 
‘इस तरह तो आपके भीतर बहुत से संसार अनावृत हो गए होंगे ?’
 
‘और बहुत से अभी नहीं हुए हैं ……’ मैं मुस्कराती रही. जिस क्षण गलत समझे जाने का भय आपके भीतर से निकल जाता है उस क्षण के बाद अपना सच जीने का हुनर आपको आ जाता है.
 
वह ध्यान से सुन रहा है….उसकी आँखें सिकुड़ गयी हैं.पता नहीं कितना समझा.
 
‘तो आपने किसी को रोकने की कोशिश नहीं की?’
 
‘नहीं ….सब चले गए क्योंकि सब चले जाते हैं .’
 
    दो पैग के बाद मैं खुलती चली गयी. शराब कुछ देर के लिए ज़िन्दगी के मामूली मसलों से तुम्हें ऊपर उठा देती है…खुद से ऊपर उठा देती है. पिछले कुछ सालों से वक्त का गुजरते जाना मैं बिलकुल साफ़ –साफ़ महसूस कर पा रही हूँ …क्यों चाहती हूँ मैं इसका साथ? अपने अकेलेपन से मुक्ति पाने के लिए? मुझे उस नशे में एक तीव्र अहसास हुआ….. पिछले न जाने कितने सालों से मैं अपनी स्वतंत्रता में भी अकेलेपन की पीड़ा भोग रही हूँ. हम स्त्रियों का जीवन एक अजीब सी दुश्चिंता और डर में बीतता है. डर ….असुरक्षा का, लोगों का, भूत –भविष्य का, पुरुषों का और इस बात का कि ये डर कोई देख न ले. हम अपने मन का नहीं जी पाते तो सोचते हैं क्यों नहीं? जी लेते हैं तो सोचते हैं क्यों ?   
 
        आप कहेंगे, बेवकूफ औरत !जरूर कहिये जनाब….ये हमें बहुत बाद में पता चलता है एक लम्बी उम्र गुज़ारने के बाद कि दरअसल हम खुद पर बोझ हैं. हम खुद को किसी को दे देना चाहते हैं. क्या आपको लगता है अकेलेपन की पीड़ा से छुटकारा पाने का कोई दूसरा रास्ता भी है ?
 
         हम दोनों के हाथ में तीसरा पैग है ….मैं उसकी आँखों में अचानक पैदा हुई लपट साफ़ देख पा रही हूँ ….वह कभी आगे बढ़ता कभी पीछे हटता जान पड़ता है….मुझे हंसी आ रही है …देह और मन का यह द्वंद मेरे लिए कितना जाना –पहचाना और यातनादायी है. ये दोनों कभी एक –दूसरे से हाथ नहीं मिलाते. देह नैसर्गिक होना चाहती है, मन उसे बाँध कर रखना चाहता है. मैंने उसे कुछ नहीं कहा. उसने चौथा पैग बना दिया और इसके बाद मुझे सिर्फ इतना याद है कि उसके कंधे का सहारा लेकर मैं बाहर आई थी. ऑटो में बेसुध बैठी थी और उसके बाद अपने कमरे में….
 
       वह मेरे पास बैठा है …धीरे –धीरे मुझे खोलता और खुलता….परत दर परत……
 
     ‘ तुम सोचते होगे ये औरत मेरी मां की उम्र की है और ….’
 
     ‘शटअप….मैं इस तरह नहीं सोचता ….’
 
     ‘डज़ इट मेक एनी डिफरेन्स ?’ 
 
    ‘ इट डज़….लिसन …आय वांट यू …आय नीड यू …’
 
    ‘बट यू डोंट लव मी.’
 
  ‘ हा ….हा…….हा……यू नो …औरतें कभी बड़ी नहीं हो पातीं …न कभी प्रेक्टिकल हो पाती हैं …तुम अभी भी इस शब्द के पीछे भाग रही हो? मेरी गर्लफ्रेंड भी मुझसे हमेशा यही पूछती थी ….डू यू लव मी ? मैं हमेशा कहता था ..यस . क्योंकि इसके अलावा कोई कुछ सुनना ही नहीं चाहता. कुछ शब्द बनाये ही गए हैं दूसरों को बेवकूफ बनाने के लिए …..लव …गॉड …आस्था …विश्वास …. ये शब्द सुनने में अच्छे लगते हैं पर हकीक़त से इनका कोई वास्ता नहीं होता.’
 
  ‘तुम इस उम्र में इतने प्रेक्टिकल कैसे हो ?’
 
 ‘ लड़कियां बना देती हैं पर अफ़सोस वे खुद नहीं बन पातीं .’ वह फिर हंसा…..
 
  ‘मुझमें आओ….हम एक सांस लेंगे और एक हो जायेंगे….आपको इतना और इस तरह का प्यार किसी ने नहीं किया होगा. यू आर थर्स्टी….वाटर इन मी….तूफान हूँ मैं…नष्ट हो जाऊंगा. नष्ट कर दूंगा.’
 
 और वह मुझ पर टूट पड़ा …..
 
    वह एक आदिम जिप्सी नृत्य था ….वह जितनी बार मुझे पकड़ता मैं छूट –छूट जाती थी ……मुझे वहां मत ढूंढो जहाँ मैं नहीं हूँ….नाभि के नीचे नहीं….. नाभि के ऊपर है रहस्य …पर्वतों के बीच उदित होता है वहीँ सूर्य ..आओ ..उसे देखें …उसके आने से आती है हरीतिमा. समस्त कायनात खिल उठती है. आओ …आकाश से इसे झपक लें. पी लें इसे …रुको –रुको सुनो ..उडो ऊपर ….और ऊपर ..और ऊपर .. तुम्हारे पंख कितने बेचैन हैं ?और ये बादल हमें कहाँ उडाये लिये जा रहे हैं ? ये उडान ….ओह ….. और ऊपर ….और ऊपर ….इन बादलों के पार ….यह भूरा कोमल अहसास …..ये हरे रंग ……आओ ….प्रकृति ने एक गीत गाया है ? हम इस धुन पर नृत्य करें ….ये फूल से हलके पैर ….मुझे उठा लो…..ओह ……ओह……एक आवारा चीख कमरे में बिखर गयी.
 
   000
 
   आज आपके मैं एक कन्फेशन करना चाहता हूँ…. मैंने आपको बताया था न मुझे इस तरह की जल्द हासिल होने वाली औरतों से सख्त नफ़रत है…..हालाँकि जब मैं इससे मिला यह मुझे बिल्कुल अलग लगी. आप जानते हैं न यह मेरे लिए पहली बार नहीं है पर आज मैं भूल गया कि मैं कौन हूँ और क्या कर रहा हूँ ?यह मुझे बहा ले गयी. मैं समंदर में तैरने का अभ्यास कर रहा था….मुझे उस पार पहुंचना था जो न जाने कहाँ था ? मुझे लगा मेरी नाव पलट गयी है और मैं डूब रहा हूँ…..वह डूबने का अद्भुत सुख और फिर उस नाव के एक पट्टे को पकड़ कर तैरते हुए ऊपर आना….निढाल जिस्म को किनारे पर ढहा देना…..लहरों ने जब हमें किनारे पर फेंका ….हम उसी तरह पड़े रहे ….एक –दूसरे में गुंथे …..
 
    इस रात के बाद हम अपनी अपनी दुनियाओं में वापस चले जायेंगे …… पर मैं इसे कभी नहीं भूल पाउँगा……
 
    मैं इससे वह सब नहीं कह पाया जो मैं कहना चाहता था….पर जो भी मैंने कहा, वह चुपचाप सुनती रही फिर सो गयी. मैं उसे सोते हुये देख रहा हूँ….मैं उसकी नींद नहीं तोडना चाहता .
 
     कुछ देर बाद उसने आँखें खोली और मुझे देखा ….उसकी आँखों में हैरानी उतर आई ..मैं अब तक वहीँ था ?
 
‘सुनो …..’ मैंने उसे पुकारा …. ‘आय लव यू ….रियली…..’
 
‘सुनो ……क्या तुम थोड़ा सा मुझे देख सके ?’ उसकी वह आवाज़ मेरे आर –पार निकल गयी .
 
000
 
      दूसरे दिन मैंने आईने में खुद को देखा और हैरान रह गयी. न जाने कितने बरस मेरे जिस्म से झर गए थे….शायद दस …शायद बीस…मुझे सचमुच नहीं पता…पर मैं नई सी हो गयी थी. नई सी नहीं, नई. मानो मैं अपनी बेटी हूँ..और मैं पीड़ा और प्रसन्नता से पुलकित हो उठी. जानती हूँ आप दुनियादार लोगों को लगता है वक्त और परिस्थितियों के साथ औरत को खुद को मार देना चाहिये और हम मार देते हैं क्योंकि आप लोग ऐसा चाहते हैं. एक बात बताइये आप लोगों को औरत की स्वतंत्रता से इतना डर क्यों लगता है? हमें बाँध नहीं पाते इसलिये ?औरत को खुद को मारने की तरकीबें आप उन्हें उनके बचपन में ही सिखा देते हो. मैंने भी मार दिया था खुद को अपने जाहिल पति से डाइवोर्स के बाद. फेंक दिया था खुद को खुद के अन्दर पर क्या करें ?सालों बाद जब ढक्कन उठाकर भीतर झांकते हैं तो अपनी साँसें चलती हुई पाते हैं, अपने अनजाने मैं जिन्दा थी और ये जो आईने के सामने खुद को निहार रही है …वही है. यकीन नहीं आता आपको ? तो इसकी आँखों में देखिये …इन्हीं आँखों के अन्दर नीचे उतरने वाली सीढियां हैं…क्या कहा…आपका इससे कोई परिचय नहीं है …जानती हूँ जनाब, ऐसी औरतों को आप घरों में रहने कहाँ देते हैं ? घरों में तो वो क्या कहते हैं पालतू मुर्दा औरतें रहती हैं ….जो किसी रोबोट की तरह आपके बताये काम करती हैं ….घरों में ‘ये जिंदा औरतें’ नहीं रहतीं ‘ये’ अपने अन्दर छिप कर बैठी रहती हैं और आप उनसे कभी मिल नहीं पाते…..कभी इनसे मिलने की ख्वाहिश हो तो जरा संभल कर ये सीढियां उतरियेगा …अपना हाथ छूटा तो खुद को कभी ढूंढ न पाएंगे.
 
 
                                                                 Jaya Jadwani / Raipur

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