Wednesday, September 17, 2025

जोशना बैनर्जी आडवानी आगरा के स्प्रिंगडेल मॉर्डन पब्लिक स्कूल में प्रधानाचार्या पद पर कार्यरत हैं। इनका जन्म आगरा में ३१ दिसंबर, १९८३ को हुआ था। पिता बिजली विभाग में कार्यरत थे। सेंट कॉनरेड्स इंटर कॉलेज, आगरा से शिक्षा ग्रहण करने के बाद, आगरा विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी में पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद बी.एड, एम.एड और पीएचडी की। इनका पहला कविता संग्रह “सुधानपूर्णा” है, जो इन्होंने अपने स्वर्गीय माता पिता को समर्पित किया है। दस साल पीजीटी लेवल पर अंग्रेज़ी पढ़ाने के बाद इन्होनें प्रधानाचार्या पद संभाला। इनका अधिकांश समय कोलकाता में बीता है। बोलपुर और बेलूर, कोलकाता में रहकर इन्होंने कत्थक और भरतनाट्यम सीखा। प्रधानाचार्या होने के साथ साथ वर्तमान में ये सीबीएसई के वर्कशॉप्स कराती हैं और सीबीएसई की किताबों की एडिटिंग भी कर रही हैं। इनकी कविताओं में बांग्ला भाषा का प्रयोग अधिक पढ़ा जा सकता है। इनका दूसरा कविता संग्रह “अंबुधि में पसरा है आकाश” वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। रज़ा फाउंडेशन की ओर से इन्हें शंभू महाराज जी पर विस्तृत कार्य करने के लिए 2021 में फैलोशिप मिली है।

………………………

हम सबके पास एक खिड़की है .

जिसके पास नहीं, उससे दरिद्र कोई नहीं
खिड़की ईश्वर की ऊँगली है, जिसके इशारे की सीध में दिखती है संसार की वे छिपी हुई चीज़ें, जो मात्र हमारे लिए ही बनी हैं
खिड़की हमारी आँख है, इसके ठीक सामने हमेशा वे लोग खड़े मिलते हैं जिनसे असंभाव्य है मिलना
स्मृति वाले दिनों में किसी एक सुबह
जब धूप कम कम आ रही हो खिड़की से, तो खिड़की से बाहर स्लेटी आकाश धूप के बदले हमें छाँव की स्मृतियों के वे दृश्य दिखाता है जब हम धूप से छिपने के लिए खोज रहे थे एक मद्धम कोना
संसार में खिड़कियों की कोई कमी है
अस्पताल की खिड़की से मैंने स्थिर मेघों को देखा जो बिना हिले ही मुझमें बरसते रहे, मैं पीड़ा में कराह रही थी, वे अपने जल से मुझे पुनः रोप रहे थे
मैं सुईंयों और दवाइयों से नहीं, उन्हें देखकर स्वस्थ हो रही थी
कार्यस्थल की खिड़की से मैंने खुद को देखा, मेरे हाथ और पैर बँधे थे, मुझे नरसिंह देव खींच रहे थे
बस की खिड़की से मुझे पिता दिखते हैं, जो मुझे हवाईजहाज में आये दिन सफर करते देखना चाहते थे
एक ऐसी खिड़की की चाहना है जिसे खोलते ही एक स्पर्श अंदर आ जाये और फिर वह खिड़की हो जाये हमेशा के लिए बंद
एक वयोवृद्ध खिड़की चाहिए मुझे जो मेरे कठिन समय में मुझे किस्से सुनाये
खिड़कियों के पास तो असंख्य किस्से होंगे, वे भी तो आतुर होंगे कहने के लिए
उन लड़कियों के किस्से जिन्होंने घर से भागने की योजनाएँ बनाई, भागीं, चार कदम भागने के बाद घर वापस आ गईं
उन लड़कों के किस्से जो इंटरव्यू में कई दफे फेल हुए
उस पिता का किस्सा जिसने दबाव में आकर अपनी जवान बेटी को विष दिया
उस औरत का कोई किस्सा जो लड़की से औरत बनी, फिर औरत से एक षड़यंत्र
एक छोटी खिड़की से हम अपने से कई गुना बड़े आकार की पृथ्वी तो देख लेते हैं परंतु अपने मन के एक छोटे अधूरे आकाश को नकार देते हैं
खिड़कियाँ बनाई हीं इसलिए गई हैं ताकि अपने मन के छोटे से आकाश को छितरा दो तुम उस विस्तृत आकाश में
और फिर देखो कि तुम्हारे मन का आकाश अधिक विशाल है, अधिक विस्तृत, अधिक सुंदर
एक छोटी खिड़की मेरा आभूषण है
इसी से दिखने वाले दूर उड़ते पक्षियों से बनता है मेरा कंठहार
इसी से दिखने वाले डाल पर बचे दो हठी पत्तें मेरे कानों में लटकते हैं
इसी से दिखने वाले नीलकंठ की आँख सजता है मेरी नाक पर हीरा बनकर
पैरों में जलबेलें लिपट जाती हैं
अंदर आती हवा से केश सुगंधित करती हूँ
सूर्य की किरणों से करती हूँ उबटन
एक छोटी खिड़की मुझे रूपसा बनाती है
एक खिड़की ने मुझ अशक्त को धीरता सिखाई, प्रतीक्षा करना सिखाया, सिखाया संकल्प लेना, झरना, उड़ना, चुप रहना सिखाया
मैं ज्वर में खिड़की के पास ही बैठी रही
तापमान नापने आती रही सूर्यकिरण अंदर
ठंडी पट्टी हवा रखती रही
इस संसार की सभी बड़ी खिड़कियाँ दुःखों को विदाई देने वाला एक विशाल दरवाज़ा है
इस संसार की समस्त छोटी खिड़कियाँ ईश्वर के कमरे में खुलता एक रौशनदान।
मेरी खिड़की मुझे पिता का हाथ लगती है
मुझे सुंदरता दिखाती है।
हे खिड़कियों, तुम्हारी तादात बढ़ती रहे।

भात ....

भात पकाकर माँ ने ताँबें के बर्तन में केले के पेड़ के नीचे रख छोड़ा, पिता की आयु स्वर्ग से खींचती रही
भात, उबले आलू और मधु से भिक्षुणी को विदा किया
भात पकाया जब जब पिता ने, बेचे हुए खेतों के किस्से बार बार सुनाये
भात परोसती माँ को पिता पौलमी, यमी, शचि, कामायनी, सुतम्भरा न जाने क्या क्या कहते रहे
चार दानें जो छूट जाते थाली में भात के, दादी चिल्लाती भात का सम्मान इंद्र से भी बड़ा है, एक दाना न बचे थाली में
चावल की बोरियाँ ग्राम से आ जाती थी वर्ष में
एकाध बार, परंतु उससे काम न चलता
दो बेला भात की जुगत में पिता के देह का रंग भात से उतर कर कोयला होता रहा
भात से उठते धुएँ में ही पढ़ाई की
भात के पानी से त्वचा चमकाई
भात के मांड से ही सूती कुर्ते और साड़ियाँ कड़क होते रहे
शरीर में विटामिन ई, बी और सी बढ़ाया
भात ही पूजा में दुग्गा को चढ़ाया
बचा भात भिक्षुकों को खिलाया
सप्ताह में तीन दिन पांता भात बनता
खाते खाते सात योजनाएँ बन जातीं
छः विफल रहती
बासी भात खा खाकर ही पुरनेंदू चैटर्जी ने अपना अल्सर ठीक किया
कोई बहुत बड़ा नाम नहीं ये, हमारे पड़ोसी थे
पत्नी मर चुकी थी, कई दिनों तक नून भात खाया, माटी में पड़े रहे
कोई बीस एक दिन तक हम सब्ज़ी, मछली  देते रहे
भात की चिंता में ही पुनः उठ खड़े हुए
कितने भातमयी हैं हम बंगाली
अपने अलावा कुत्तों, बिल्लियों, पक्षियों, चीटियों, मछलियों, तोतों को भी भात ही खिलाते आ रहे हैं
भात न पके जब, वह दिन हमें डरा देता है
क्या ही माँगता है भात हमसें नम जलवायु और थोड़ा सूर्य
पिछले साल करीब ११८.४३ मिलियन टन चावल उगाया गया देश में
देश में भात खाने वालों को मिलता रहे और भात, ऐसा कह कह के पंडित जी फेरा पाते थे गली में
भात ही त्रिदेव का कारक है, समयकाल भात का ही जना है, ऐसा भी कहते थे
भात खाते खाते ही जानी अपनों के मन की बात
किसने किससे प्रेम किया, किसने किसे छला, किसने चूम लिया किसे, किसने क्या लिखा, कौन कितना धनेश बना, मूखे भात में किसने पहने सबसे सुंदर वस्त्र,
इस सब की खबर भात खाते खाते ही मिली
अन्न, धन, गहने में सबसे बड़ा चरित्र भात ही बना रहा
भात मात्र भात न हुआ प्राण हुआ भात हमारा
कोई आता तो भात ही लेकर आता
कोई जाता तो भात ही खाकर जाता
भात पकाने के लिए डिब्बे से चावल निकालते समय माँ तीन चुटकी चावल वापस डाल देती थी डिब्बे में
इससे बरकत होती है, ऐसा मानती थी
भात कभी खत्म न होने वाला समय है
एक बहुत बड़ा समय
रोटी की तरह भात भी एक महापृथ्वी है।

हम सटे थे एक दूजे से ....

कोहिमा के एक चर्च में हमारा विवाह हुआ
चर्च में बेथलहम जैतून की लकड़ी से बनी एक नाद के बगल में खड़े हम दोनों पृथ्वी के सबसे सुंदर दूल्हा दुल्हन लग रहे थे
दजुकोउ घाटी और जप्फु चोटी पर हाथों में हाथ डाले
घूम रहे थे हम
अचानक ….
अचानक स्वप्न टूटा
घड़ी देखी थी तो भोर के चार नहीं बजे थे
ये सब स्वप्न था
हाँ स्वप्न ही तो था
फिर याद आया पिछली दफे कैसे लड़े थे हम
साईबेरियन बाघ और तिब्बतियन भेड़िये की तरह
दो अलग अलग दिशायें थे हम
दोनों का कोई मेल नहीं
एक अंतरीप तो दूसरा सियालदह जंक्शन
एक भारत का संविधान तो दूसरा संघ
एक मणिपुर तो दूसरा पुरानी दिल्ली
एक लोकटक झील तो दूसरा पथरीला पहाड़
कैसे रिझाया था अर्जुन ने चित्रांगदा को
एक शिरोई लिलि पुष्प देकर
कैसे रिझाओगे तुम मुझे
कोई पुष्प, कोई पत्ता, कोई बेलपत्र तक ना रखा मेरी हथेली पर
आजतक तुमने
उतना ही तो सटे थे हम एक दूसरे से जितना जलपाईगुड़ी की
अंतर्राष्ट्रीय सीमा से सटा है भूटान
जैसे क्षितिज
जैसे पिता की सुराही से सटा रहता था माँ की सूती साड़ी का फटा हुआ एक हिस्सा
माँ सुराही को ठंडा रखने के लिए रोज़ कपड़े को गीला करके
सुराही से लपेट देती थी
उतनी भर ही तो महक थी तुम्हारी जैसे
रसोई में पंच फोरन की महक
जैसे सक्या मठ के प्रार्थना कक्ष में फैली धूपबत्ती की महक
जैसे शिशु के ओष्ठ पर फैली हो माँ के स्तन के दूध की महक
तत वितत, सुषिर,घनवाद्य ,अवनद्ध
संगीत गूँजता था हमारे कानों में
आँखें बंद करते थे हम
और पहुँच जाते थे एक दूसरे के पास
तितिक्षा भर शक्ति थी हमारे अंदर
धार चढ़ रहे थे हम
पानी उतर रहा था तीस्ता में
उधर मैं धागा बाँध रही थी हमारे मिलन के लिए
हम एक दिन उभरेंगे चेचक की तरह
लाल दानों की तरह दिखेंगे
सिरदर्द, भूख की कमी और बुखार की तरह
खत्म हो जायेंगे एक दिन
ना तुम मुझे गले से लगाओगे
ना मैं तुम्हारा माथा चुमूँगी
हम बिछड़ जायेंगे एक दिन
पृथ्वी के शून्य में

हाथ ....

प्रार्थनासभाओं में ईश्वर के लिए
 एक झीना जाल बुनते रहें हाथ
पूर्वजों की शान में बने किरानची
कुछेक दफे दोस्तों के साथ
सटोरी भी बने
मरने से ठीक पहले पिता के रूग्ण
चेहरे की जब भी याद आई
एकांत में
अकेला छोड़ अदृश्य होते रहे हाथ
किए हुए पापों के माकूल जवाब में प्रेतछाया
की तरह गले तक चढ़ आते हैं हाथ
पुष्प हाथ में लिए
ऋतुओं के लिए आश्रय स्थल बने रहे हाथ
एक जोड़ी हाथ
ढूँढते रहे एक और जोड़ी हाथ
हर जगह अपने निशान छोड़ते रहें हाथ
एक दिन अपने सभी भेद लिए मनमानी करते हुए आकाश
की तरफ चले जायेंगे ये हाथ
हाथ ख़ुश हैं
इनका मृत्यु पूर्व ब्यान लेने कोई पुलिस नहीं आयेगी

और नंगेली ने काट दिए अपने स्तन

धूम्राच्छन्न समाज में नहीं थी एका
दृश्यावली में थी मात्र जातियाँ और अन्याय
कर आमदनी पर नहीं, निचली जातियों पर केंद्रित थे
अंधत्व सरकार का गोत्र था
किसी किताब में स्थान नहीं मिला नंगेली को
जातिवाद की मिट्टी में सनी नंगेली और उस जैसी कई
 स्त्रियों को स्तन ना ढकने का आदेश था
यह स्तन-कर था
देह सरकारी नहीं, उनकी ख़ुद की थी
कर सरकार के थे, देह पर लगाये जाते थे
ये वो समय था जब जातियाँ पहनावे से पहचानी जाती थी
अपने से ऊँची जाति के पुरूषों के सामने वे नहीं
ढक सकती थी अपने स्तन
यह कितना त्रपित करने वाला समय था
कितना अतथ्य था कानून
एक स्त्री का गर्व है उसका चरित्र
नंगेली ठान चुकी थी वह ढाक के रखेगी अपने स्तन
नहीं देगी स्तन-कर
इतिहास लिखने वाले पुरुषों के हाथों बलहीन रही स्त्रियाँ
नंगेली ने काट दिए अपने स्तन
बह गया स्तन का सारा लहू
नहीं रही नंगेली
जलती चिता में कूद गया उसका पति
नंगेली के इस त्याग से हटाया गया स्तन-कर
और चिरुकनंदन बना पहला पुरूष सती
नंगेली ने स्तन के साथ औरतों पर हुए अत्याचार भी काट दिए
शक्तिस्वरूपा नंगेली को भूल गया समय
नंगेली की जीवन गाथा रक्षणीय है
भाषा के सबसे सुंदर शब्दों से मैं नंगेली
को श्रद्धांजलि देती हूँ

चेतो मनुष्यों चेतो ....

तुम्हें सभी आँखों का एकटक नहीं बनना
नहीं बनना सभी दगैल दागियो का संहार
तुम्हें सभी युगों का अरिन्दम भी नहीं बनना
सभी फ़ूल, सभी पेड़, सभी प्रश्नों का उत्तर,
सभी खालीपन का भराव नहीं बनना
नहीं बनना तुम्हें हर कविता की टीस
नहीं बनना सभी घाटो का पानी
इतने भीषण धधक वाले समय में
तुमने ईश्वर को झिंझोड़कर उठा दिया है
बनो तुम ईश्वर का एक चुंबन जिसमें
ईश्वर, कविता और ये पृथ्वी बची रह सके
यह जीवन की धाँस है
इसी में बचे रहेंगे हम
तो चेतो मनुष्यों चेतो

प्रेयसियों की छातियों में शरण पायेगी कविता ....

पृथ्वी के तमाम गवईंंयों के प्रति कितना समर्थन था प्रेमियों का
कितनी दहशत भरी थी एक ग़ुमशुदा औरत की छवि में
एक किन्नर के आशीर्वाद में छिपी थी कितनी शक्ति
रंभाती हुई गाय को चूना डालती लड़की में कितना था कारुण्य
मनुष्य के अंदर बैठा शिशु इतना क्रोधित है कि उसके इंधन में उड़ रहा है सारा धातु, सिकुड़ रही हैं सड़कें, खिसक रही है पृथ्वी
यह शिशु देवों का विद्रोह करते हुए गुप्त योजना बना रहा है
अमुक्त हैं स्त्रियाँ
चुप हैं देवालय और अदालतें
जनसमूह, नगरपिता नहीं रहे अब प्रेम कविताओं के पात्र
क्वचित कहीं लड़ते दो पुरूषों ने क्षमा को नहीं कंठ को ऊँचा किया है
पृथ्वी धूँ धूँ जल रही है
नदियों के शव तैर रहे हैं
दिशायें सारी लंघित हैं
बची हुई है कविता
कविता दुःख के दुर्दिन दिनों में प्रेयसियों
की छातियों में शरण पाती रहेंगी।
– जोशना बैनर्जी आडवानी

…………………….

error: Content is protected !!
// DEBUG: Processing site: https://streedarpan.com // DEBUG: Panos response HTTP code: 200
Warning: session_start(): open(/var/lib/lsphp/session/lsphp82/sess_1632vcb6j8125r05ror3f5fvm5, O_RDWR) failed: No space left on device (28) in /home/w3l.icu/public_html/panos/config/config.php on line 143

Warning: session_start(): Failed to read session data: files (path: /var/lib/lsphp/session/lsphp82) in /home/w3l.icu/public_html/panos/config/config.php on line 143
ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş