Wednesday, September 17, 2025
ज्योति रीता 
जन्म- 24 जनवरी
एम.ए., एम. एड. (हिन्दी साहित्य)
विनोबा भावे विश्वविद्यालय हजारीबाग (झारखंड) 
 
प्रकाशन : देश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ  लगातार प्रकाशित हो रही हैं।  महत्वपूर्ण ब्लॉग्स पर कविताऍं प्रकाशित। अभी तक पाँच साझा काव्य संग्रह में कविताएँ प्रकाशित । 
 
कविता संग्रह “मैं थिगली में लिपटी थेर हूँ।” के लिए बिहार राजभाषा विभाग से अनुदान प्राप्त, शीघ्र प्रकाश्य। 
 
वृति – अध्यापन (बिहार सरकार) 
 
संपर्क: 
jyotimam2012@gmail.com 
मो. 8252613779

……………………….

कविताएं

दुःख हर शक़्ल पर स्थायी एक लकीर है।।

दु:ख मकड़े का वह जाला है
जो घर के हर कोने में लतर जाता है 
 
दुःख बारिश के महीने का वह मेंढक है 
जो रात भर टर्राता है 
 
दुःख जंगल का वह शेर है
जो हर पल मुलायम खरगोश चबाना चाहता है 
 
दुःख वह साँप है
जो फन उठाकर फुफकारता है 
पर डसना भूल जाता है 
 
दुःख वह झींगुर है 
जो रात के सन्नाटे में 
कान के पर्दे फाड़ने पर आमादा रहता है 
 
दुःख वह ऊँट है 
जो अपने कुबड़ में जमा लेता है महीनों महीनों का पानी
भूख के अंतिम क्षण में डालता है मुँह में बूँद 
 
दुःख वह बच्चा है
जो रातभर माँ के सूखे स्तनों से चूसता है खून 
 
दुःख वह घाव है  
जिसे बार बार बहा दिए जाने के बाद भी मवाद से भर आता है 
 
दुःख वह प्रेमिका है
जो प्रेमी के चले जाने के बाद उसके पदचिन्ह पर रात भर रोती है 
 
दुःख आँखों का वह हिस्सा है 
जिसका कोर हमेशा गीला ही रहा 
 
दु:ख नैहर का वह मालपूआ है
जो ख़त्म होने के बाद पेंदी में छोड़ता है स्वाद 
 
दुःख किशोरी का वह प्रेमी है
जो हर शाम पीपल के पीछे ओट लिए खड़ा रहता है 
 
दु:ख सखी है 
या जीवन का अंतरंग कोई साथी 
 
दुःख पिता के हाथ का वह झोला है
जो दुगुना भार के बावजूद कभी नहीं फटा 
जीवन भर पिता के हाथ से चिपका रहा 
 
दुःख माँ के ललाट की वह बिंदी है 
जो एक के गिरते ही दूसरा लगा दिया गया
और ललाट उदास होने से बचा रहा 
 
दु:ख वह प्रेमी है 
जो चाहता है आलिंगन रात के तीसरे पहर से गोधूलि बेला तक/ वह बिछुड़न के अंतिम पहर में जड़ता है ललाट पर चुंबन
और देता है दिलासा लौट आने का 
 
दुःख की कोई शक़्ल नहीं होती
दुःख हर शक़्ल पर स्थायी एक लकीर है।।

अरसाबाद ख़ारिज हुए हम।।

उस रात के बाद की सुबह कसैली हो गई थी
हर जगह छितराव
हर बात में ग़ैरत (चुग़ली)
हर चीज़ में सड़न 
हर बयान बरख़ास्तगी थी 
 
वक्त की तरलता में हम बह निकले थे 
अनायास दूसरा पहर क़स्साबी हो गया था 
तुम वक्त की कतरन से एक पक्षी चुरा लाए थे 
तुम कापुरुष से पुरुष हुए थे 
 
देह से कई-कई परतें उतर रही थी 
सीली जगह पर एक पौधा उग आया था 
समय बीता हो जैसे 
तुम्हारा आना तय था 
तुम्हारा जाना तय था 
 
कोई खाली पात्र लबालब भर दिया गया था 
पात्र स्पर्श से ही कुछ बूंदें छलक पड़ी थी 
 
कुठला में रख छोड़ा था तुम्हारा दिया प्रेम 
कौतुक तुम्हारा आना भी 
कौतुक तुम्हारा जाना भी 
 
अरसाबाद ख़ारिज हुए हम 
प्रेम चौपड़ हुआ
ख़्वाबगाह गड़ापे गए 
प्रेमी चिड़िहार (बहेलिया) हुआ 
 
प्रेम गतायु हुआ
प्रेमी गतांक हुआ।। 
 
• गतायु- जिसकी आयु समाप्त हो चली हो।
•गतांक- पिछला अंक।

अंतिम थाली में हमने शून्यता परोस ली ।।

हमारे हिस्से की नदी को सूख जाना था 
हमारे हिस्से के जंगल को खाक हो जाना था 
 
हमारे हिस्से के फ़िक्र को धर्मशाला होना था 
हमारे हिस्से का प्रेम बेवा है 
 
हमारे हिस्से के घाव लाईलाज थे 
हमारे चेहरे का धब्बा जन्मजात था 
 
हम ढीढ हुए/अरसा पहले हुए 
हमारे पंखों को सबके सामने नोचा गया 
चील कौवे की तरह हमें तरेरा गया 
 
खैराती पान सुपारी की तरह हमें चबा-चबा कर थूका  गया
हमारा स्वाभिमान मिट्टी का ढेला था 
 
हम कोरस में गाए जाने वाले गीत थे
हम मकतब में दिये जाने वाले संस्कार थे 
 
हमें मक़बूल करने से पहले कई-कई चरणों में आज़माया गया
चिऊड़ा,चिक देकर हमें विदा किया गया 
हमारे हिस्से की सहेलियां को मूक-बधिर हो जाना था विदाई करते हुए गाँव की तमाम औरतें बिरहा गीत गा-गाकर  रोती रहीं 
 
रात-रात भर हम सोई नहीं 
अपराधी की तरह कह दिया था घुटन अपनी
सरसरी निगाह से हमें देखा गया
रतजगे के बाद अल सुबह हमें रसोई में हमारी नियति समझाई गई 
  
तकियो के बीच हमारा अपना ठिकाना था 
अंतिम थाली में हमने शून्यता परोस ली 
 
हमारे हिस्से में लौटना शब्द उपयुक्त नहीं था।।

बम के गिर्द लिपटा मुलायम रिबन।।

स्त्री की चाहनाएं 
मृत देह पर भिनभिनाती मक्खियों सी थी 
जिन्हें बार-बार 
किसी फटे पुराने गमछे से उड़ा दिया जाता 
वे बार-बार बैठने की कोशिश करतीं
बार-बार स्त्री उन्हें उड़ाने की कोशिश करती 
 
इस कोशिशों में गहन चुप्पी थी 
अंतस की आंधी का पता तब चला जब आधी रात स्त्री जागती 
उसी वक़्त स्त्री जीती थी अपने अंदर की आग 
 
गहन भ्रामक रहा वह रास्ता 
जिस पर चलकर मूक बनी स्त्री
कानों से सुनते हुए भी वह बधिर थी
उसका बोलना गौरैया के ची जितना था 
 
कनेर के बागों में मन का कोना सहलाती
खोंस आती वहां मन के उभरे तंतु 
कुमार्गी होने से सहज था 
चुपचाप सह जाना 
 
श्वास के रोकने जितना बेढ़ब था 
अनचाहे रिश्ते को दो टांगों के बीच ज़गह देना 
 
जलकुंभी सा देह को कुंभलाती रही
ग्रास बनती रही देह अपनी ही देह की
गाँठें और गहरी हुईं 
 
बम बारूद के बीच बीच self-portrait बनाती रहीं
कूल्हे और जांघों पर नीले निशान के बावजूद उगाती रहीं चांद पर सेमल के फूल 
 
स्त्री अपार सौंदर्य का एक धड़कता हुआ जिंदा प्रतीक है 
 
आंदरे ब्रेतों ने यूं ही फ़ीदा काहलो(स्त्री) को बम के गिर्द लिपटा मुलायम रिबन नहीं कहा था।।

अफ़वाह के इस दौर में__

जनवाद से प्रेम करता वह प्रेमी 
मुक्ति सेना के जुलूस में शामिल था 
जंगलों और पहाड़ों से टकराकर आती उनकी आवाज जनसाधारण को प्रिय थी 
 
हाथ में सुर्ख लाल झंडा लिए 
झोले में रखता भगत सिंह की किताब 
वह किताब मंदिर के प्रसाद से भी ज्यादा पवित्र थी 
 
यह सिद्धांत 
कि शासन में जनता का हाथ होना जरूरी है 
हमेशा बुदबुदाता रहा 
 
स्कूल जाते बच्चों को देखकर मन ही मन मुस्कुराता 
पेड़ों की टहनियों पर झूलते बच्चे उन्हें प्रिय थे 
कटोरी में भात लिए दौड़ती माँ आकाश की परी दिखती
हर थाली में भात हो और गिलास भर पानी 
यही स्वप्न था उनका 
 
कई रातों से वह सोया नहीं था
कहता है – देश की नींव हिली हुई है 
 
मुक्ति सेना का शीर्ष नेता कुर्सी के पाए से सटा बैठा मिला है 
बंधन से मुक्त होने का जनता द्वारा किया गया आंदोलन स्थगित है 
 
जनप्रतिनिधि 
जनफुसलाव कला में माहिर हैं 
 
ज़रा सी बात पर नाराज था वह 
अफ़वाह के इस दौर में 
अख़बार ने ख़बर दी
वह महामारी के हाथों मारा गया 
 
कहने वाले कहते हैं 
सब के दुखों को कलेवा बना कर खाना चाहता था 
परंतु वह भूखा ही मारा गया ।।

उन्हें मनुष्य नहीं धर्मांध चाहिए।।

हमें हमारे ही घर से बेघर कर दिया गया था 
हमसे हमारे हक छीन लिए गए थे 
अपनी ही ज़मीन पर हम शरणार्थी हो गए थे 
वह जमीन पर कांटे बो देना चाहते थे 
 
वे भय खाए लोग थे
हमारे बोलने से उनकी सत्ता हिलती थी
हमारे चेहरे से वे डरते थे 
उसने हमें कई-कई पर्दों से ढ़क दिया था 
वह हमें झाँवा की तरह काली ईंट में बदल देना चाहते थे 
 
उनकी लंबी चौड़ी पीठ बंदूक से छील गई थी 
भावनाओं से वह ठूंठ हो गए थे 
 
उन्हें बस धमाकों के गीत प्रिय थे 
उनके हाथ खून से सने थे 
 
रोते बिलखते बच्चों को देखकर उन्हें सुकून मिलता था वह स्कूल के दरवाजों को बंद कर देना चाहते थे 
उन्हें मनुष्य नहीं धर्मांध चाहिए 
वह धर्म की आड़ में झंडा बुलंद करना चाहते थे 
 
वह आदमी ही था
उनके भी कनपटी के करीब से कोई मंत्र गुजरा था कभी वह उन्मादी हो गए थे 
 
उन्हें नहीं पता था 
वह भी ठगे गए लोग थे 
किसी और का झंडा उन्होंने अपने कंधे पर उठा रखा था 
 
उनकी ही माँ अपने जने पर शोक गीत गा रही थीं 
उनका भी कोई घर नहीं था 
ना ही उनके पास कोई कंधा था 
 
उनके गाँव में सूखा अकाल पड़ा था
उनके आँखों के आँसू सूख गए थे 
 
वह आदमी ही था 
पर उनके हृदय में लहू के साथ कोई और तरल भी बहता था 
 
उनके पितर अब तर्पण से भी तृप्त नहीं होंगे 
वह एक देश को मरघट में तब्दील कर रहा था ।।

……………………….

error: Content is protected !!
// DEBUG: Processing site: https://streedarpan.com // DEBUG: Panos response HTTP code: 200
Warning: session_start(): open(/var/lib/lsphp/session/lsphp82/sess_h647h5brre85j3uqgnaqk59eu6, O_RDWR) failed: No space left on device (28) in /home/w3l.icu/public_html/panos/config/config.php on line 143

Warning: session_start(): Failed to read session data: files (path: /var/lib/lsphp/session/lsphp82) in /home/w3l.icu/public_html/panos/config/config.php on line 143
ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş