Sunday, December 29, 2024
संध्या सिंह
 
•अनामिका प्रकाशन से एक आलोचना की पुस्तक
“भूमन्डलीकरण, संस्कृति का बाज़ार और साहित्य”
•एक कविता संग्रह संकुल प्रकाशन से, “हाशिये पर”
•एक आलेख संग्रह, •कविताएं,साक्षात्कार,परिचर्चा समीक्षात्मक लेख आदि प्रकाशित।
•कुछ कविताओं का पंजाबी में अनुवाद।
•दो  त्रैमासिक पत्रिकाओं का  एक एक वर्ष तक सम्पादन।
•थिएटर व मीडिया लेखन , सरस्वती सम्मान, व हिन्दी साहित्य सम्मेलन, द्वारा प्रशस्ति पत्र।
•सम्प्रति हिन्दी विभागाध्यक्ष, डी ए वी कालेज लखनऊ।

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कविताएं

1

“तुम फिर आ जाते एक बार”
कहते हैं
किसी बूढ़े बरगद के तने से लिपट कर
कलेजा फाड़ कर चिल्लाओ
तो
वह सारा दर्द अपने अन्दर खींच लेता है
और बदले में
दर्द का लेखा जोखा भी नहीं माँगता
……..
बुद्ध चले गये
पर बरगद खड़ा है
प्रतीक्षा में
कि
कोई उसके “कलेजे” से लगे
तो
वह बताए
कि
बरगद आदमी में नहीं मिलते।

2

“आदिम रंगरेज़”
स्मृतियों के अछोर जंगल से
हरा रंग उठाया था उसने
कहते हैं प्रकृति शून्य को बर्दाश्त नहीं करती
इसीलिए जब विचार और घटना के बीच
समय ने प्रवेश किया था
और
लिखा जाने वाला इतिहास घटने लगा था
तब भी नदी बह रही थी
वहीं से जल लिया उसने
श्वेतवसना देवी की भटकन को पहनाने के लिए
लालसा रंगहीन होती है ना
 
रक्तरंजित मिथकों से
हथियारों की खनखनाहट लेकर
उसने अपनी कूँची से श्वेत कपोत उकेरा
 
नि:स्तब्ध मरुस्थल का नीरव एकान्त सन्नाटा
एक मौन कविता रचता रहा
ऋतुएँ उसका हाँथ पकड़ती रहीं
और वह बुनता रहा
वसंत का गंदुमी ख़ालीपन
सूखे पत्तों का मर्मर
गर्म दुपहरी की चुप्पी
ऊदे बादलों की धुंधली उजास
और
इन ऋतुओं के बीच तैरते
अधूरे इन्सानी सपने
तलाश
बेचैनी
वह बेचैन था
क्योंकि
उसकी साँसों ने उस आदिम हरियाली का स्वाद चखा था
वह सबकी हथेली भर देना चाहता था
उसी हरे रंग से
जिसे उसने आदिम अछोर जंगल से उठाया था
हाँ वह रंगरेज था
 
संध्या सिंह

3

प्रश्न पहेली. 1
रक्त रंजित इतिहास
हथियार बद्ध धर्म
वेद पुराण
हदीस कुरान
और
एक प्रश्न पूछती औरत
पूरा हुआ स्त्री विमर्श
 
प्रश्न पहेली   2
उतारना चाहती हूँ
यह शरीर
केंचुल की तरह
और
अन्दर जो निस्पृह बैठा है
हिमखंडों सा तप्त
अनेक अनुत्तरित प्रश्न लिए
उसे निर्बन्ध देखना चाहती हूँ
बस
इतना भर बताना चाहती हूँ
कि
प्रश्न शरीर नहीं पूछते
 
 
प्रश्न पहेली   3
जब मैं पन्द्रह साल की थी
तो बूढ़ी नानी मिचमिचाती आँखों से
दूर आकाश को देखते हुए
ठंडी साँस भरती थी
और कहती थी
 
क्या ज़माना आ गया
घोर कलयुग
पहले ऐसा नहीं था
 
फिर माँ बूढ़ी होने लगी
फिरकी की तरह घर भर में फिरने वाली माँ
मुरझा कर कोने में बैठ जाती
और सूनी आँखों से शून्य में निहारती
 
सब बदल गया
बहुत बुरे दिन आ गए
पहले ऐसा नहीं था
 
आज
 मेरे सामने एक पत्रिका है
और एक पंक्ति है
 
औरत पन्द्रह की पैदा होनी चाहिये
और
तीस की मर जानी चाहिए
 
इस पंक्ति को लिखने वाला कौन है
कोई बहुत बड़ा दार्शनिक
या
कोई विकृत मानसिकता का आदमी
मुझे पता नहीं
 
पर मुझे यह पता है
कि आज यह पंक्ति एक घटित होता हुआ सत्य है
 
शायद पहले ऐसा  नहीं था
 
मेरी पन्द्रह साल की बेटी मुझसे पूछ रही है
 
पहले कैसा था माँ
 
 
डॉक्टर संध्या सिंह
लखनऊ

4

“सभ्यता विमर्श” ~
अन्तरिक्ष के एक ऊबड़ खाबड़ ग्रह पर 
इतिहास को भविष्य की तरफ उछाल कर
जब वह पृथ्वी पर लौटा
तो 
गुरुत्वाकर्षण ने अपनी 
प्रकृति बदल ली थी
धरती आदिम हो चुकी थी
रहने लायक।
 
संध्या सिंह
 
“यात्रा”
तब 
उसकी आँखें रुमानी दुख से भरी थीं
अब
वहाँ निचाट रेत है
जिसके नीचे एक जल का सोता अब भी बहता है
 
बीच की सदियों के साथ
उसने यात्रा की है
वह एक स्त्री है
 
तब
उसकी आँखें बर्चस्व बोध से भरी थीं
अब
वहाँ असीम अहंकार है
वह
उसी मोड़ पर अब भी खड़ा है
सदियां बीत गई ं
उसने यात्रा नहीं की
वह एक पुरुष है।
 
संध्या सिंह

5

“आहत ध्वनि
और
अनाहत नाद के बीच
निरन्तर बहता
यह बहरा समय
जिसमें अनवरत गूँजता रहा
छेनी हथौड़ी का स्वर
सुना है
ऋचाओं के पास लिपियाँ नहीं थीं
स्वयं को छीलते गढ़ते मानव के
दर्द को
एक अबूझ चक्रव्यूह सौंप दिया उसने
अभी भी
निकलने का मार्ग ढ़ूढ़ती मानवता
कविता लिखती है
ईश्वर मौन है”

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किताबें

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