Monday, September 15, 2025

नाम- नेहा नरूका
निवासी- कोलारस, जिला-शिवपुरी, मध्य प्रदेश
शिक्षा-हिंदी (एम.ए.), नेट, पीएचडी ( ‘हिंदी की महिला कथाकारों की आत्मकथाओं का अनुशीलन’ विषय पर शोधकार्य)
सम्प्रति-शासकीय श्रीमंत महाराज माधवराव सिंधिया महाविद्यालय कोलारस में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर (हिंदी) पद पर कार्यरत
प्रकाशन-‘सातवाँ युवा द्वादश’ में कविताएँ संग्रहीत एवं हंस,समावर्तन,द पब्लिकएजेंडा,माटी,अन्यतम,निरंजना,लहक आदि पत्रिकाओं में कविताओं का प्रकाशन और सोशल मीडिया पर सक्रीय भागीदारी एवं चर्चित ब्लॉग्स पर कविताओं का प्रकाशन।
सम्पर्क-nehadora72@gmail.com

…………………………

कविताएं

बावरी लड़की

एक लड़की बावरी हो गयी है
बैठी-बैठी ललराती है
नाखूनों से
बालों से…,
भिड़ती रहती है
भीतर ही भीतर
किसी प्रेत से
 
चाकू की उलटी-तिरछी रेखाएं हैं
उसके माथे पर
नाक पर
वक्ष और जंघाओं पर
उभरे हैं पतली रस्सी के निशान  
 
होंठों से चूती हैं
कैरोसीन की बूंदें
फटे वस्त्रों से
जगह-जगह
झाँकते हैं
आदमखोर हिंसा के शिलालेख
 
सब कहते जा रहे हैं
बाबरी लड़की
ज़रूर रही होगी
कोई बदचलन
तभी तो
न बाप को फिकर
न मतारी को
 
सुनी सुनाई
पते की बात है
लड़की घर से
भाग आयी थी
 
लड़का-लड़की चाहते थे
एक दूसरे को
पर यह स्वीकार न था
गांव की पंचायतों को
सो लड़का, लड़की को एक रात
भगाकर शहर ले आया
 
बिरादरी क्या कहेगी सोचकर
बाप ने फांसी लगा ली
मतारी कुंडी लगा के पंचायत में
खूब रोई
बावरी लड़की पर
 
पटरियों…ढेलों से होती हुई
लड़की मोहल्लों में आ गई
रोटी मांग मांग कर पेट भरती
ऐसे ही गर्भ मिल गया
बिन मांगी भीख में
बड़ा पेट लिए गली-गली फिरती
ईंट कुतरती
 
एक इज्जतदार से यह देखा न गया
एक ही घंटे  में पेट उसने
खून बनाकर बहा दिया
और छोड़ आया शहर से दूर
गंदे नालों पर
कचरा होता था जहाँ
सारे शहर का
कारखानों का
पाखानों  का
बावरी लड़की कचरा ही तो थी
सभ्य शहर के लिए
जिसमें घिन ही घिन थी
 
नाक छिनक ली
किस्सा सुनकर महाशयों ने
मालिकों-चापलूसों  ने
पंडितों-पुरोहितों ने
और अपने अपने घरों में घुस गये
बाहर गली में
बावरी लड़की पर कुछ लड़के
पत्थर फेंक रहे हैं
‘कहाँ से आ गयी यह गंदगी यहाँ’
हो.. हो.. हो.. हो…
बच्चे मनोरंजन कर रहे हैं
जवान  और  बूढ़े भी
 
खिड़कियां और रोशनदान बंद  कर
 कुलीन घरों की लड़कियां
वापस अपने काम में जुट गईं
 
‘अरे भगाओ इसे-
जब तक यह…
यहां अड़ी बैठी रहेगी
तमाशा होता रहेगा’
एक अधेड़ सज्जन ने कहा..
पौधों में पानी दे रही उनकी बीबी
नाक-भौं सिकोड़ने लगी
‘कौन भगाए इस अभागिन को’
 
लड़की बावरी
खुद ही को देख-देख के
हँस रही है
खुद ही को देख-देख के
रोती है
सेकेंड दो सेकेंड
चेहेर के भाव बदलते हैं
गला फाड़ कर पसर जाती है
गली में ही
जानवरों की तरह
बावरी लड़की…

आओ, मिलो, एक बोसा ले लो

तुम मुझसे मिलना चाहते हो न 
 
तो आओ, मिलो मुझसे और एक बोसा ले लो 
 
मिलो उस क़स्बाई गंदगी और ख़ुशबू से 
 
जिसने मिलकर मुझे जवान किया 
 
जिसने खेतों से कटते प्लॉट देखे 
 
मुहल्ले के उसे पुराने जर्जर मकान से मिलो 
 
जिसका सबसे पुराना व्यक्ति पिछले दिनों मर गया 
 
घर के पिछवाड़े होते थे मासिक धर्म के कपड़ों के घूरे 
 
उनके बीच जगह ढूँढ़ कर शौच करतीं उन औरतों से मिलो 
 
जिनके पिता या पति उम्र भर शराबी रहे या बेरोज़गार 
 
सँकरी गलियों में टँगे छज्जों पर 
 
शाम होते ही लटकने लगती थीं घूँघट वाली बहुएँ 
 
छोटी-छोटी बातों पर करती थीं खिलकौरियाँ 
 
और कभी बात करते-करते रो उठतीं 
 
मैं चाहती हूँ तुम उन बहुओं से मिलो 
 
अभी भी उनकी आँखों के गड्ढों में नमकीन पानी भरा है 
 
तीन-छह-दस तोले सोने में लदीं 
 
मेहँदी और महावर से सजीं बीस-बाईस साल की लड़कियाँ 
 
ससुराल से लौटकर आईं तो पचास की हो गईं 
 
उन पचास साल की बूढ़ी लड़कियों से मिलो 
 
कभी-कभार राखी और शादी-ब्याह के मौक़ों पर आती हैं बस 
 
और आते ही बता देती हैं जाने की तारीख़ 
 
सीलन भरे कमरे में रात भर तड़पती थीं कुछ जवान छातियाँ 
 
जो सुबह होते-होते सूख जातीं 
 
कभी उन सूखी छातियों वाली प्रेमिकाओं से मिलो 
 
देखो कैसे उनके जिस्म बर्फ़ हुए हैं 
 
पानी की सब्ज़ी में तैरते थे दो-तीन आलू और एक टमाटर 
 
बासी रोटियों के झुंड पर गिरते थे कई हाथ 
 
जिनकी रेखाओं में भरी थी बर्तनों के माँजन की राख 
 
मैं चाहती हूँ तुम उन हाथों से मिलो 
 
और उनका एक बोसा ले लो।

सफ़ेद रंग की प्रेमिका

वह काला था 
 
क्योंकि उसकी माँ ने खाया था काला लोहा 
 
मुझे पसंद था काजल 
 
उससे मिलने के बाद मैंने पहली दफ़ा जाना 
 
काले रंग की ख़ूबसूरती, आकर्षण और ताक़त को 
 
उसकी सोहबत में मेरी बटन आँखें 
 
बैलगाड़ी का पहिया हो गईं 
 
मैंने उनसे देखा 
 
नग्न भारत माता 
 
धरती पर दहाड़ मारकर रो रही हैं 
 
उनके लंबे घने काले बाल ज़मीन पर जंगल बने थे 
 
जंगल के बीच-बीच में गड्ढे थे जिनमें रक्त भरा था 
 
मैंने आँखें बंद कर लीं 
 
क्योंकि वे अक्सर ऐसी तस्वीरें देख लेती थीं 
 
जिन्हें देखने के बाद ज़िंदगी के फ़लसफ़े बदल जाते हैं 
 
मुझे वे सारे रंग याद हैं 
 
जिन्हें पहनकर मैं उससे मिलने जाती थी 
 
उस रात भी मैंने काला रंग पहना था 
 
वह रात भी काली थी 
 
और काली थी वह देह भी 
 
हम थे अदृश्य और मौन 
 
हम दो ही थे उस दिन इस पृथ्वी पर 
 
तीसरा कोई नहीं था 
 
ईश्वर भी नहीं 
 
उस रात के बाद सफ़ेद सुबह हुई 
 
मैं उससे बिछड़ गई 
 
और वह मुझसे 
 
मुझे फिर धीरे-धीरे काले रंग के सपने भी आने बंद हो गए 
 
मुझे काला रंग उतना पसंद भी नहीं रहा 
 
पसंद तो मुझे सफ़ेद रंग भी नहीं था 
 
पर यह बात मैंने सबसे छिपाकर रखी 
 
जो रंग चढाओ 
 
वही चढ़ जाता है इसके ऊपर 
 
कोई ‘नहीं’ नहीं दिखता 
 
‘हाँ हाँ’ दिखती है बस 
 
यही बात परेशान कर जाती है इस रंग की मुझे 
 
हाँ! इसे मिट्टी का सबक़ सिखाया जाए 
 
कीचड़ में घुसाया जाए 
 
रोटी-सा तपाया जाए 
 
तब कुछ ख़ासियत बनती है 
 
मेरा रंग भी सफ़ेद है— 
 
फक् सफ़ेद 
 
पिछले दिनों वह मुझे फिर मिला 
 
जैसे वैज्ञानिक को मिल गया हो वह सूत्र 
 
जो दिमाग़ की नसों में कहीं खोया था सालों से 
 
उसे केसरिया रंग पसंद है 
 
मुझे भी पसंद है यह रंग लेकिन रंग की तरह ही 
 
मेरे नए जूते इसी रंग के हैं 
 
जिन्हें मैंने अपने हाथों से बनाया है 
 
मेरे पास कुछ मांस था 
 
मैं उससे बना सकती थी कुछ और भी 
 
पर मैंने जूते बनाए 
 
उनके चंगुल से आज़ाद करके लाऊँगा इस रंग को 
 
जिन्होंने इसे क़त्लगाह में तब्दील कर दिया 
 
एक दिन इसी रंग को अपने शरीर पर घिस-घिसकर बनाऊँगा आग 
 
और जलाऊँगा उन्हें 
 
जिन्होंने इसका इस्तेमाल लाश बोने में किया 
 
सिंहासन उगाने में किया 
 
इन्हीं सफ़ेद हाथों से मैंने उसे टोका : 
 
सिर्फ उन्हीं को जलाना जो सूखे हैं और सड़ चुके हैं 
 
जिनसे कोई कोंपल फूट नहीं सकती 
 
चाहे कितना भी सूरज डालो 
 
चाहे कितना भी दो पानी 
 
जिनमें बाक़ी हो हरापन उन्हें मत जलाना 
 
क्योंकि हरा रंग जलता है तो धुआँ भर जाता है चारों तरफ़ 
 
जलाने वाले का दम भी घुटने लगता है 
 
और कभी-कभी तो आग ही बुझ जाती है 
 
इस तरह सूखे भी बच जाते हैं साबुत 
 
मैंने हरा रंग भर लिया है अपने भीतर 
 
मेरे पैरों में हैं केसरिया जूते 
 
मैंने पहन लिया है काला लोहा 
 
मेरी माँ ने गर्भावस्था के दौरान पीया था जिस ‘गाय का दूध’ 
 
उसकी मौत के बाद एक शहर ही दफ़न हो गया उसके शव के नीचे 
 
उस शहर के प्रेत ने मुझे अभिशाप दिया था 
 
सफ़ेद रंग की प्रेमिका होने का 
 
ये काले केसरिया हरे गंदले रंग 
 
मुक्ति के मंत्र हैं 
 
ये मंत्र मैंने उस औरत से लिखवाए हैं 
 
जो सचमुच का काला लोहा खाती है 
 
जिसका शरीर रोटी का तवा है।

हिंसा

मेरे ऊपर पहली हिंसा कब और किसके द्वारा हुई
कुछ याद नहीँ आ रहा…
 
हो सकता है तब हुई हो जब मेरी उम्र रही हो कोई एक-आध साल 
मेरे रोने की ध्वनि और दादी के चीखने की ध्वनि, जब गड्डमड्ड होकर माँ के कानों से टकराई होगी
तब माँ ने मुझे झूले में पटक कर तड़ाक की आवाज़ के साथ पहला थप्पड़ रसीद किया होगा-
 
(माँ: “रोटी के लिए अबेर करवा दी जा मोड़ी ने!”
दादी: “मोड़ीं छाती से चिपकाय कें रखी जातीं हैं ? “
बुआ: “गोदी में लिवाय-लिवाय कें डुलनी बनाय दई है मोड़ी।”)
 
इत्यादि हिंसक वाक्य जब मुँह से निकलकर हवा में घुलते होंगे तो गुलाबी गाल से पहले लाल फिर नीला रंग झड़ता होगा।
 
माँ घर में सबसे कमज़ोर थी
माँ से कमज़ोर थी मैं
तन, मन, धन तीनों से बेहद कमज़ोर 
और इंसान अपने से कमज़ोर इंसान पर ही अपनी कुंठाएं आरोपित करता आया है
 
मैंने कोई हिसाब-क़िताब दर्ज़ नहीँ किया हिंसा का
सम्भव भी नहीँ था यह करना
गणित मेरे लिए बेस्वाद विषय रहा हमेशा
 
माँ ने इसलिए मारा क्योंकि मैं उनकी दुर्गति में सहायक थी, मैंने उनके दूध से रीते स्तन ज़ख्मी किए थे
पिता ने इसलिए कि मैं जवान होकर भी उद्दंड थी, मैंने उन्हें झुककर कभी प्रणाम नहीँ किया था
पति ने इसलिए कि मैं बेशर्म थी, मैं उसके दोस्तों के सामने हँस देती थी और अकारण ही नाचने लगती थी
नाचने से मेरे भाई को भी सख़्त चिढ़ थी, इसलिए कभी-कभार वह भी प्यार से मार देता था मुझे 
चिढ़ तो मेरे प्रेमी को भी मेरे हर शब्द से थी, इसलिए वह अक्सर शब्दों के थप्पड़ मारता था मेरे गालों पर, उन्हीं गालों पर जिन्हें वह कई बार पागलों की तरह चूमकर फूल जैसा होने का ख़िताब दे चुका था।
 
मैंने मारा अपने बच्चों को
क्योंकि वे मेरा कुछ बिगाड़ नहीँ सकते थे
वे तो सार्वजनिक आलोचना भी नहीँ कर सकते थे मेरी
अगर करते भी, तो कौन करता उनपर विश्वास ?
आखिर मैं माँ थी! और माँ हमेशा ममता-त्याग-महानता की मूर्ति होती है।
 
 
हिंसा हर परिस्थिति में हिंसा नहीँ कही जाती
हम इसे पवित्र परम्परा के नाम से जानते हैं
हिंसक परंपराओं के पालन में हम सभी मनुष्य माहिर हैं
हमें अपराधबोध भी नहीँ सताता
हम इसे प्रेम कह-कहकर व्याख्यायित करते हैं।
 
मृत्यु के बाद भी आत्मा पर पड़े हिंसक चिह्न जीवाश्म बन जाने के लिए अभिशप्त हैं
इसलिए हम सब उन हाथों को विराम देने के बारे में विचार कर सकते हैं
जो ‘निर्माण’ की जगह ‘हिंसा’ के लिए उठे।

पुरखिनें

पुरखे युद्ध करते रहे
घाव लेकर घर लौटे
वीर कहलाए। 
पुरखिनें कारावास में रहीं
बेड़ियां पहने-पहने पुरखों के घावों पर मरहम लगाती रहीं
मरहम लगाते-लगाते मर गईं।
 
घाव और कारावास में से कोई एक विकल्प चुनना हो तो तुम क्या चुनोगी?
तुम कहोगी : घाव की पीड़ा से तो कारावास की बैचेनी भली!
 
पर पुरखिनें कहेंगी: घाव को समय भर देता है पर समय कारावास को कम नहीं कर पाता। 
समय;  कारावास का आदी बना देता है, फिर स्वतंत्रता से भय लगने लगता है
फिर नींद में भी स्वतंत्रता भयानक स्वप्न के रूप में आती है।
 
समय; पुरखिनों के कारावास को कम नहीं कर सका
पर समय ने पुरखों के घाव ज़रूर भर दिए।
 
घाव और कारावास में से एक चुनना हो
तो तुम कारावास मत चुन लेना मेरी बच्ची…
माना कि घाव से मर सकते हैं पर मरकर पुरखों की तरह वीर तो कहलाते हैं न ?
 
घाव से तड़प-तड़प कर मर जाना, कारावास में रहकर घुट-घुटकर मरने से सौ गुना बेहतर विकल्प है।
 
तुम्हें जिस तरह मरना है मर जाना मेरी बच्ची
पर कम से कम मेरी तरह पश्चात्ताप की अग्नि में जलना मत!
 
©नेहा नरूका

प्रकाश-संश्लेषण

महीनों से एक हवाबंद डिब्बे में रखी पुरानी मूंग को जिस तरह मिला पानी, मिली वायु, मिला प्रकाश, मिला समय ठीक उसी तरह तुम मुझे मिले…
 
मगर ठहरो इस कविता में तुम्हारे अतरिक्त एक ‘अन्य’ भी है 
और वह इस अँकुरित मूँग को खा जाना चाहता है, जबकि उसे ज़रा-सी भी भूख नहीं…
दरअसल उसे खाने का बहुत शौक़ है, वह दिन-रात खाया करता है और कंठ तक आत्मविश्वास से भरा हुआ है
 
‘भूख न होने पर भी खाना’ हिंसा है’, यह ज्ञान मैंने शेर से लिया है, हालांकि मैं शेर से सिर्फ़ चिड़ियाघर में मिली हूँ
 
इस समय जिस शहर में बैठकर मैं लिख रही हूँ, उस शहर में भूखमरी फैली है और 
वह कह रहा है: भूख ख़राब चीज़ है!
 
इसतरह औरों की भूख उसके ज़ेहन में वस्तु की तरह निवास कर चुकी है
 
भूख की ख़राब आदत से लोगों को बचाने के लिए उसने दुकानें खोली हैं, अस्पताल खोले हैं, खोले हैं धार्मिक स्थल
वहां भूख का व्यापार हो रहा है, भुखमरों को भूख रोकने की टेबलेट बाँटी जा रही है, लम्बे-लम्बे वक्तव्य दिए जा रहे हैं, मंत्रजाप हो रहे हैं…
 
मूँग को वह खा चुका है! 
       और अब मेरे शहर को वह खा रहा है-
 
तुम इस शहर को भी थोड़ा पानी दो!
तुम इस शहर को भी थोड़ी वायु दो!
तुम इस शहर को भी थोड़ा प्रकाश दो!
तुम इस शहर को भी थोड़ा समय दो!
 
मैं चाहती हूँ मेरा शहर वनस्पतियों की तरह प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया सम्पन्न करे 
मेरा शहर आत्मनिर्भर बने
और स्वयं को उस ‘अन्य’ से बचा ले, जिसने इस कविता को ‘प्रेम कविता’ बनने के सुख से वंचित कर दिया।

……………………….

error: Content is protected !!
// DEBUG: Processing site: https://streedarpan.com // DEBUG: Panos response HTTP code: 200 ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş