1 होटल के रूम नम्बर 303 में
होटल के रूम नम्बर 303 में
फल काटने के लिए मुझे
एक चाकू की दरकार थी
रूम सर्विस पर दी गयी 
तीन-तीन सूचनाओं के बाद भी 
जब पन्द्रह मिनट तक
कोई चाकू लेकर नहीं आया 
तो मेरी बेचैनी और कुलबुलाहट बढ़ने लगी 
इतने बड़े होटल के 
इतने बड़े किचन में ढेरों चाकू होंगे 
फिर भी आम काटने के लिए 
मुझे चाकू नहीं मिल रहा 
यानी, सारे चाकू व्यस्त हैं? 
तब तो जल्दी पता किया जाना चाहिए 
कि वे कहाँ व्यस्त हैं! 
वे ब्रेड पर बटर और जैम लगा रहे हैं
या उनसे भाजी-तरकारी,
फल-अंडे और पनीर काटे जा रहे हैं 
या वे काट रहे हैं 
किसी का सिर….किसी का धड़?
वे क्या निकाल रहे हैं अपनी तेज़ नोक से?
फलों के बीज या
सब्जियों में अंदर छुपे कीड़े 
या फिर वे निकाल रहे हैं अपनी नोक से 
किसी मज़लूम के शरीर की आँतें? 
किसी की गर्दन पर तने 
वे टटोल रहे हैं जेबें 
या फिसल रहे हैं 
किसी आठ साला लड़की की देह पर 
ये चाकुओं के काम पर लगे रहने का वक़्त है 
चाकू अति व्यस्त हैं इन दिनों
घर और रसोई की देहरी से बाहर निकलकर 
अपनी धार साबित करने में 
जल्दी पता करो
कौन सा चाकू कहाँ व्यस्त है 
रूम नम्बर 303 में 
मुझे दरकार है एक चाकू की
मैं एक हाथ में फल 
और एक हाथ से गर्दन सँभाले बैठी हूँ।
2 रेजा
रेजा को स्वप्न में भी
दिखायी देते हैं बड़े-बड़े पत्थर
भूरे-लाल, काले-पीले, सफ़ेद रंग के पत्थर,
नादान रेजा यह नहीं जानती
कि इन पत्थरों से बनेगा
लालकिला या ताज़महल
बुलंद दरवाज़ा या इंडिया गेट
या फिर ठेकेदार का शानदार मकान,
उसे बस इतना पता है कि
उसके झोंपड़े की नींव में
नहीं डलते ये पत्थर
जब पत्थरों पर उकेरे जा रहे थे
लोकार्पण कर्ताओं या शहीदों के नाम
रेजा उकेर रही थी अपनी उँगलियों पर
बारह रुपये घंटे के हिसाब से
बारह अट्ठे छन्नू का पहाड़ा,
सौ में बस चार कम गिनते-गिनते
सौ वाट के बल्ब जितना
तेज छलका था उसके चेहरे पर
जिसके सामने धुँधला गया था
ताज़महल का नूर
ताज़महल की तस्वीर देखकर
उसे याद आता है
अपनी साथी रेजा का
पत्थर के नीचे दबकर मर जाना
यूँ तो पत्थर के ढेर पर
दो घड़ी सुस्ताने बैठी
रेजा के सामने
कुछ झुका-झुका-सा दिखता है बुलंद दरवाज़ा 
“पेट पर पत्थर रखना”
यह कहावत भी
बेमानी है रेजा के लिए,
उसके लिए तो पत्थर पर ही खिलते हैं फूल
जब खिलखिलाता है उसका बच्चा
आधा पेट भात खाकर 
साँझ ढले कपड़ों से पत्थर की धूल और
महीन किरचें झाड़कर
भात पकाती रेजा
कई बार भात के किरकिराने पर भी
कर्कश नहीं होती 
इन दिनों अपनी हथेलियों पर
फफोले के दाग सहलाती रेजा
बेहद उदास है,
पत्थर-खदानों में काम बंद है
और बिना पत्थर
नहीं खिलते फूल
रेजा के जीवन में। 
3 कविता की पुकार
जब भी कोई पुकारे तुम्हें
तो जवाब देना
‘हाँ’ में न सही तो ‘ना’ में देना।
देना जवाब
जैसे देती है माँ
घर के किसी भी कोने से
अपने बच्चे की पुकार का,
देना जवाब
जैसे देता है गर्भस्थ शिशु
हौले से लात मारकर
अपनी माँ की लाड़ भरी पुकार का।
धरती में सोया बीज
कुनमुनाकर देता है जवाब बारिशों को
और बारिशें मूसलाधार जवाब देती हैं
पेड़ों की पुकार का,
लहरें आठों पहर टकराकर
किनारों को देती हैं जवाब
और नावें जवाब देने
दौड़ी चली आती हैं
लहरों के पुकारते ही।
देना जवाब
जैसे अतीत देता है जवाब वर्तमान को
सभ्यताएँ, इतिहास, प्रस्तर, जीवाश्म
सब उघाड़ते हैं पट
पुकार सुनकर,
धरती-आसमान, मिट्टी-पानी
फूल-पत्ती, तितली-चिड़िया
कोई चुप नहीं
सब देते हैं जवाब
तुम भी चुप मत रहना
जवाब देना।
जवाब इसलिए भी देना
कि पुकारने वाले को यह आश्वस्ति हो
कि अब भी दम है उसकी आवाज़ में
कि अभी उसकी आवाज़ नक्कारखाने में
तूती की आवाज़ नहीं है
कि अभी इस देश में
सिर्फ़ मुर्दा नहीं रहते,
तुम्हारा जवाब ही एक आवाज़ की उम्मीद है।
जवाब इसलिए भी देना
कि होती रहे तुम्हें भी तसल्ली
कि गूंगे और बहरों के देश में
अभी भी तुम्हारे कान चौकन्ना हैं
और जीभ तेज़
और तुम अभी भी बचे हुए हो
गूंगा-बहरा होने से।
जवाब देना
‘हाँ’ में न सही तो ‘ना’ में देना।
4 मत छलना
मत छलना उसे
जिसने किसी अबोध बालक की
दंतुरित मुस्कान-सा
अपना निरामय विश्वास
तुम्हारे हाथों में सौंप दिया। 
मत छलना उसे
जिसने तुम्हारी चुगली खाती
तमाम आवाज़ों की ओर से
फेर लिए अपने कान
और तुम्हारी एक पुकार पर
बिखेर दी अपनी अनारदाना हँसी। 
मत छलना उसे
जिसने सदियों से
अपनी आत्मा पर बँधी
पट्टियों को खोलकर
उसमें झाँकने का हक
तुम्हें दिया। 
मत छलना उसे
जिसने तुम्हारी ओर
इशारा करती तमाम उँगलियों को
अनदेखा कर
अपनी उँगली थमा दी तुम्हें। 
मत छलना उसे
जिसने झूठ से बजबजाती
इस दुनिया में
सिर्फ़ तुम्हें ही सच समझा। 
अपनी फ़ितरत से मज़बूर तुम जब
फिर भी छलोगे उसे
तो यकीनन
नहीं बदल जायेगी ग्रह-नक्षत्रों की चाल
धरती पर नहीं आयेगा भूकंप
पहाड़ नहीं होंगे स्खलित
नदियों में बाढ़ नहीं आयेगी
तट बंध नहीं होंगे आप्लावित
दिन और रात का फर्क भी नहीं मिटेगा,
मगर ताकीद रहे
कि किसी की भाषा से
विलुप्त हो जायेंगे
विश्वास और उसके तमाम पर्यायवाची शब्द
और शब्दों के पलायन से उपजा
यह रिक्त स्थान ही
एक दिन लील जायेगा तुम्हें।
5 इतना-सा मनुष्य होना
शहर की बड़ी सब्जी मंडी में 
एक किनारे टाट का बोरा बिछाकर 
अपने खेत की दो-चार ताज़ी सब्जियाँ 
लिये बैठी रमैया 
अक्सर छुट्टे पैसों के हिसाब में 
करती है गड़बड़।
न…न….यह समझ लेने की भूल मत करना 
कि रमैया को नहीं आता 
इतना भर गणित, 
हाँ बेशक, दो-पाँच रुपये बचाकर 
महल बाँधने का गणित 
नहीं सीखा उसने।
घर में काम करती पारबती 
मालकिन के कहने पर 
सहर्ष ही ले आती है 
दो-चार किलो मक्की 
अपने खेत से 
और महीने के हिसाब में 
उसका दाम भी नहीं जोड़ती। 
उसे मूर्ख समझकर 
एक तिर्यक मुस्कान 
अपने होठों पर मत लाना, 
अनाज की कीमत जानती है वह 
लेकिन मालकिन के कोठार में 
उसके अनाज का भी हिस्सा है 
यह भाव संतोष से भर देता है उसे। 
सफ़ाई वाले का लड़का विपुल 
अच्छे से जानता है कि 
कोने वाले घर की शर्मा आंटी 
एक छोटा कप चाय पिलाने के बहाने 
अपने बग़ीचे की सफ़ाई भी 
करवा लेती हैं उससे, 
ये मत समझ बैठना 
कि कॉलेज में बी.ए. की पढ़ाई करता विपुल 
परिचित नहीं है
“शोषण” की शब्दावली से, 
लेकिन खुश होता है वह कि 
सुबह-सुबह की दौड़-भाग के मध्य 
आंटीजी का एक काम 
उसने निपटा दिया। 
आप बेशक इन्हें कह सकते हैं 
निपट मूर्ख, गँवार, ज़ाहिल और अनपढ़ 
लेकिन बोरा भर किताबों की पढ़ाई
अगर सिखा न सके मानवता की ए बी सी डी 
अगर सीख न सकें हम दु:ख को मापने की पद्धति 
अगर गहन न हो संवेदना हमारी
अगर समझ न सकें हम 
सामाजिक ताने-बाने का मनोविज्ञान  
तो कम पढ़ा-लिखा होने में 
क्या बुराई है?
कम से कम बचे रहेंगे मानवीय मूल्य 
बचा रहेगा प्यार, स्नेह, सौहार्द 
बचे रहेंगे रिश्ते 
बचा रहेगा विश्वास 
और बचा रहेगा 
हमारा इतना-सा मनुष्य होना।
