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Tuesday, July 23, 2024

डॉ० रजनी दिसोदिया

जन्म : 26 सितम्बर 1971 हरियाणा 

शिक्षा : एम ए (हिन्दी ), बी०एड० ( दिल्ली विश्वविद्यालय) एम० फिल०, 

पीएच० डी० ( दिल्ली विश्वविद्यालय)

कृतियाँ : कहानी संग्रह (चारपाई) 

कविता संग्रह ( कहानी बहुत पुरानी है)

साहित्य और समाज: कुछ बदलते सवाल (आलोचना पुस्तक )

भाषा साहित्य और सर्जनात्मकता ( पाठ्यक्रम सहायक सामग्री) सहलेखक

लोई और लूना की बात ( दलित स्त्री लेखन पर आलोचना पुस्तक) प्रकाशनाधीन 

 प्रमुख पत्र – पत्रिकाओं हंस, कथादेश, स्त्रीकाल,  समालोचन (ऑन लाइन)  कथन, अपेक्षा, अनभै साँचा, जनसत्ता, सबलोग, युद्धरत आम आदमी, दलित अस्मिता इत्यादि में कहानियाँ, लेख और समीक्षाएँ प्रकाशित।

सम्प्रति : दिल्ली विश्वविद्यालय के मिराण्डा हाऊस कॉलेज में एसोसियेट प्रोफ़ेसर ( हिन्दी ) के पद पर कार्यरत।

संपर्क :10 मिराण्डा हाऊस टीचर्स फ़्लैट्स छात्र मार्ग दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली – 110007

मेल : [email protected]

कहानी बहुत पुरानी है

कहानी बहुत पुरानी है

एक कौव्वे की जिसे मोर का पंख मिला।

या कौन जाने उसने अपने लिए जुटा लिया।

उसे अपनी पूँछ में सजा,

वह जा पहुँचा मोरों के बीच;

देखकर उसे मोर कनखियों से बतियाने लगे।

कब, किसने, कौन सा पंख कहाँ गिराया,

एक दूसरे से पूछने और बतलाने लगे।

ब्याहता मोरनियाँ तो दिन- रात थी उनके साथ

वे अनब्याही और विधवा मोरनियों पर क्रोध बरपाने लगे।

एक पंख जुटा लेने से हमारा

तुम मोर नहीं हो जाते

वे उस कौव्वे को उसकी जात बतलाने लगे।

कौव्वा उदास हो गया

पर मोर के पंख का मोह

फिर भी उसके दिल से न गया

यूँ ही उसे अपनी पूँछ में लगाए

वह कौव्वों के बीच आया

पर अफ़सोस कौव्वों ने भी उसे न अपनाया

मोर का पंख यहाँ भी उसके किसी काम न आया

कहानी बचपन की

यहीं खत्म हुई जाती थी

कि अचानक उसमें एक नया मोड़ आया।

ठाकुरद्वारे की कथा में सुना था मोरों ने

कभी कौव्वों का भी दिन आएगा

हंस चुनेगा दाना तिनका कौव्वा मोती खाएगा।

बस तो फिर क्या था

 एक मोर ने बड़े जतन से 

कव्वे का एक पंख जुटाया

उसे अपने सिर पर ताज सा सजा 

वह कौव्वों की सभा में आया

कब, कैसे वह कव्वे से मोर बना

यह सब इतिहास कह सुनाया

बात सही थी या नहीं

पर मोर का कव्वा बनना क्रांतिकारी था

उसका असर होना ही था

मोर, मोर भी रहा और 

कौव्वा बनकर सराहा भी गया। 

संसार भर के कव्वों 

मुझे तुमसे कुछ नहीं कहना है

कव्वे से मोर बनना

या मोर से कव्वा,

कोई बड़ी बात नहीं..

बड़ी बात है

समझदारी से मक्कारी करना

या समझदार मक्कारी को कान से पकड़ना

पर मुझे पता है ये दोनों ही काम तुम्हारे बस के नहीं।

 रजनी दिसोदिया 07/04/14

शम्बूक अट्हास कर रहा है।

“शम्बूक मारा गया।

उसकी हत्या हो गई।

अपने समय की सर्वोच्च सत्ता से

वो टकरा गया था।“

अखबार वाला सड़कों पर

ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला चिल्लाकर

अखबार बेच रहा था।

सहमी हुई आँखें,

उफ़नती हुई साँसे,

मुस्कुराते होंठ

और फुसफुसाती आवाजें

विभिन्न दिशाओं से आकर

उन अखबारों पर टूट पड़ी थी।

शम्बूक कब गया सर्वोच्च सत्ता को चुनौती देने ?

वह तो गया था—

कार्ल सगान सा विज्ञान लेखक बनने।

प्रकृति, सागर, धरती और आकाश से

प्रेम करने,

पता नहीं कब वह सागर की गहराई

और आकाश की ऊँचाई नापता धरती पर आ पहुँचा

और….

और फिर उसे इंसानों से प्रेम हो गया।

“इंसानो से प्रेम करना कोई अपराध तो नहीं।”

उफ़नती हुई साँसों ने हवा में मुट्टी हिलाते हुए कहा।

 

इंसान होकर इंसान से प्रेम करना,

यह गुनाह ही तो है।

केवल भगवान होकर ही इंसानों से प्रेम किया जा सकता है

उनपर दया की जा सकती है

उनका उद्धार किया जा सकता हैं।

उन्हें मुक्ति दी जा सकती है।

यह सब जान तो लिया था उसने भी

पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी

बाहमन का बेटा मर चुका था

ऐसी अफ़वाह फैल चुकी थी।

“ यह अफ़वाह थी.,

किसी का कोई बेटा नहीं मरा था।“

सहमी हुई आँखों ने हिम्मत करके कहा।

‘तुम भी न,

कभी कोई बात तुम्हारे पल्ले ही नहीं पड़ती।

सारी बातें अभिधा में नहीं कही जाती

कुछ की व्यंजना है अभी बाकी।

बाहमन का बेटा उसका भविष्य है।

उसका भविष्य खतरे में है,

उसका भविष्य मर रहा है

उसका भविष्य बचाओ- बचाओ की मुद्रा में

भाग रहा है।

वह गुपचुप जा पहुँचा है

राम के दरबार में

‘क्या इसी दिन के लिए

हमने रामराज्य का सपना देखा था

वह राम को ललकार रहा है।

आखिर यही तो तय हुआ था

हम तुम्हारा मन्दिर बनवाएँगे

और तुम हमारा भविष्य बचाओगे

तो फिर उठो

काट डालो तप करते शम्बूक का सर

भूमि पर लुंठित उसका सर ही

हमारा भविष्य है।

अखवार चिन्दी- चिन्दी होकर

सारे आकाश में फैल गया था।

उसमें छपे अक्षर

पूरे देश पर बेमौसम ओलों की तरह बरस रहे थे।

अखबार वाला लड़का

सर्द हवाओं में तिनके सा काँपता

उन अक्षरों को बटोर रहा था।

वह घरों, दफ़्तरों और गलियों की दीवारों पर

उन अक्षरों को चिपका रहा था।

अन्दर का सच बाहर आ रहा था।

‘मेरा अपराध क्या है?

शम्बूक ने पूछा था।

तुम दलित हो, पैदायशी दलित,

तुम प्रतिभावान हो जन्म से ही,

तुम मुखर हो, तुम वाचाल हो,

तुम तर्क करना जानते हो,

अपना काम छोड़कर

धरती और आकाश नापते फिरते हो।

कहाँ-कहाँ तक रोकूँ तुम्हें

तुम सुनते कहाँ हो?

तुम इंसानों से प्रेम करते हो,

मलेच्छ- दानव सब इंसान हैं तुम्हारे लिए

कहते- कहते राम की तलवार उठी

और शम्बूक के रक्त से नहा गई।

पर यह क्या?

शम्बूक तो रक्तबीज है।

जहाँ-जहाँ गिरता है उसका रक्त

वहाँ- वहाँ फिर एक शम्बूक पैदा हो जाता है।

हैरान परेशान है बाहमन

अपने डगमगाते डगों से

शम्बूक के रक्त से रंजित भूमि को

ढक रहा है दौड़- दौड़ कर

पर बेचारा 

आखिर अपने दो ही पैरों से

 कैसे ढक सकता है

उस धरा को 

जहाँ शम्बूक की फ़सल लहलहा रही है।

शम्बूक अट्हास कर रहा है।

 

रजनी दिसोदिया

9910019108

……………….

पीढियाँ सीढ़ियाँ होती हैं।

पीढ़ियाँ सीढ़ियाँ होती हैं

जो हमें नीचे से ऊपर

और ऊपर से नीचे लाती हैं

पर मुझे तो ऊपर जाना था, बहुत ऊपर

यूँ कि , मैं यूँ ही बहुत नीचे खड़ा था।

मुझे याद है मेरा बाप

जो अक्सर मुझे अपने कंधों पर चढ़ाए रखता था

ताकि मैं देख सकूँ दूर तक

ताकि मैं उठ सकूँ ऊँचा

बहुत तिलमिलाया था वह

जब कहा था उसकी फैक्टरी के मालिक ने

मेरे पैदा होने पर

“डी सी नाम धर ले इसका

क्यूँकि बनना तो इसने चपड़ासी ही है।

अपने कंधे पर बैठा उसने पकड़ाई थी मुझे

ऊपर जाने वाली सीढ़ी

जिसे मैं थामे था

और चढ़ रहा था ऊपर

मेरे बाप ने रोपा था यह सपना मेरे भीतर

जो उसने देखा था यही बड़ी बात थी।

 

यूँ कि पेपर बहुत बड़ा था

और टाईम बहुत थोड़ा

क्योँकि मेरे बाप के हिस्से का 

पेपर भी तो मुझे ही करना था। 

बाकि लोग तो आधा पेपर पहले ही करवाकर लाए थे

अपने माँ- बाप से

कुछ का तो पूरा ही पेपर हल किया जा चुका था

उन्हें थमाए जाने से पहले ही

कि अचानक

घण्टी बज गई 

मेरा अधूरा पेपर ही छीन लिया गया 

मेरे हाथों से

वह सीढ़ी गायब जो गई

जो अब तक मौजूद थी

मेरे सामने कम्प्यूटर स्क्रीन पर।

मैं हताश था , बदहवाश था।

निराश और उदास था।

माथे का पसीना पौंछ रहा था

कि फूट पड़ी अचानक नई पीढ़ी

मेरे भीतर से

जिसने थामा है मेरे पिता का सपना

अपने हाथों में

किसी ध्वज की तरह

अब मैं अपनी बेटी को अपने कंधे पर बिठाए हूँ

मैंने पकड़ा दी है उसे ऊपर की ओर जाने वाली सीढ़ी

क्योंकि जान गया हूँ मैं अब

पीढ़ियाँ सीढ़ियाँ होती हैं 

जो हमें नीचे से ऊपर ले जाती हैं।

हमारी मुलाकात

वह बहुत खुश थी

उसे यहाँ पहुँचने में कोई परेशानी नहीं हुई थी।

उत्साह से वह बताने लगी,

जब थी पाँच की तभी से 

दादा ही सुनाते से मानस

बिठाकर पास प्यार से।

और जब हुई दस की  तो नानी ने ही कह सुनाई

कथा कामायनी की,

एक-एक पन्ना बाँचकर बताया था माँ ने

 जब वह हुई पन्द्रह की

पिता के घर अलमारियाँ ही अलमारियाँ थीं

अलमारियों में किताबें ही किताबें

जो पकड़कर हाथ बिठा लेती थी उसे अपने पास

खेल ही खेल में 

किताबों की सीढ़ियाँ बनाकर जब वह 

चढ़ बैठी उन अलमारियों के ऊपर तो सरक गई छत आप ही आप

घर के ऊपर एक दूसरा घर था

एक घर से दूसरे घर में आते- आते वह पच्चीस की हो गई थी। 

यहाँ भी किताबों से भरी अलमारियाँ ही अलमारियाँ थीं

जिन्हें सीढ़ियों सी लाँघती वह अचानक मेरे सामने थी,

हँसती- खिलखिलाती

मासूस सी बतियाती

“ अरे यहाँ पहुँचना कौन बड़ी बात है,

मेरे घर से तो सीढ़ियाँ सीधे आकर यहीं खत्म होती हैं।“

“सच” , उसने गले के बीच चुटकी से पकड़कर

“कसम से” कहा।

“ और आप कैसे आईं?”

अब मेरी बारी थी

उसने मेरी आँखों में झाँका।

उसका मासूम चेहरा बेहद खूबसूरत था।

मै…; मैं ज़रा उलझी, फिर सुलझी, फिर बोली—

अरे मुझे तो पता भी नहीं था कि यह भी कोई जगह है जहाँ आया जा सकता है ?

हैं….??? उसने आँखें सिकौड़ी।

मैं तो घर से स्कूल को चली थी

स्कूल के बगीचे में बीचों बीच एक बिल था जिसमें

खरगोश एक झाँकता था बाहर कभी- कभी

न जाने क्यों वह मुझे भा गया।

बस उसे पकड़ने को मैं जा घुसी उसी बिल में।
भीतर सुरंग थी,

काली- अँधेरी, टूटी- फूटी

जंग खाई किसी पुरानी पाईप लाईन सी।

बड़े- बड़े पत्थर पड़े थे बीच में 

जो हटाये मैंने इन्हीं हाथों से

अकेले

सालों साल भीतर ही खिसकती रही थोड़ा- थोड़ा।
मैंने देखा उसकी आँखे फैलने लगी हैं

वह रोमाँचित से मुझे सुन रही है।

“ आपके घर से कोई नहीं आया मदद को?”

उसने एक ही साँस में पूछा

आए न , एक एक कर सब आए

माँ- पिता , भाई- बहन

पर वहीं बिल के मुहाने पर ही खड़ा रह गए।

“ हमने तो नहीं देखा कोई खरगोश

यहाँ कभी,”

सभी बतिया रहे थे।

बाहर भीड़ जुटी थी।

किसी को समझ ही नहीं आ रहा था

आखिर स्कूल की इतनी समझदार लड़की

ऐसे कैसे किसी बिल में घुंस गई।

“ सच तो , आपको डर नहीं लगा?”

उसने उलझन सी में पड़ कर पूछा।

“डरने का टाईम ही कहाँ था” मैने बताया

मैं तो जुनूनी की तरह उस खरगोश के पीछे,

भाग रही थी।

शायद वह भी चाहता था कि 

मैं उसे पकड़ लूँ।

भागते- भागते वह रुक- रुक कर पीछे देखने लगता..

जब कभी वह ओझल हो जाता मेरी निगाहों से

तो आस- पास की दीवारों पर कोई पहेली सी उभर आती,

कभी कोई सूत्र

 कभी कोई सवाल

जैसे ही मैं उन्हें सुलझाती वह फिर दीखने लगता।

“फिर..” उसने उत्सुकता से पूछा।
फिर क्या , जब वह मेरी पकड़ में आया

तो मैने खुद को यहाँ पाया,

तुम्हारे सामने..

मैने मुस्कुरा कर कहा।

“ वाह यह तो बड़ी मज़ेदार रही, और वह तुम्हारा खरगोश..

कहाँ है मुझे दिखाओ न…

उसने बड़ी उम्मीद से मेरा हाथ पकड़ कर कहा।

“ वह तो मैं अपने बहन- भाईयों को दे आई,

उन्हें विश्वास ही जो न होता था कि ऐसा कोई खरगोश भी है।“

पर अब वह कुछ उदास हो चली थी

वे सारी किताबें जो उसने पढ़ी थी या उसे पढ़ाई गई थी उनमें 

ऐसे किसी खरगोश का ज़िक्र ही नहीं था।

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