asd
Tuesday, July 23, 2024

लीना मल्होत्रा
दो कविता संग्रह प्रकाशित
मेरी यात्रा का ज़रूरी सामान 2012 बोधि प्रकाशन, जयपुर
2 नाव डूबने से नहीं डरती 2016 किताब घर दिल्ली
रंगमंच अभिनय से जुड़ी रही। फ़िल्म लेखन , निर्माण में गहरी रुचि।

………………

कविताएं

स्त्री

क्यों नहीं रख कर गई  तुम घर पर ही देह
क्या दफ़्तर के लिए दिमाग़ काफ़ी नहीं था
बच्चे को स्कूल छोड़ने के लिए क्या पर्याप्त न थी वह उंगली जिसे वह पकड़े था
अधिक से अधिक अपना कंधा भेज देतीं जिस पर टाँग सकतीं उसका बस्ता
तुमने तो शहर के ललाट पर यूँ क़दम रखा
जैसे 
तुम इस शहर की मालकिन हो 
और बाशिंदों को खड़े रहना चाहिए नज़रे झुकाए
 
अब वे  आग की लपट की तरह तुम्हें निगल जाएँगे
उन्हें क्या मालूम तुम्हारे सीने में रखा है एक बम
जो फटेगा एक दिन
उन्हें ध्वस्त करता हुआ
वे तो ये भी नहीं जानते
तुम भी
उस बम के फटने से डरती हो। 

वह अपना हक़ माँग रही थी

वह अपने अधनंगे फूले पेट वाले बच्चे को उठाये
मेरी कविता की पंक्तियों में चली आई
और भूख के बिम्ब की तरह बैठ गई
मैं जब भी कविता खोलती
उसके आज़ू बाज़ू में बैठे शब्द मक्खियों की तरह उस पर भिनभिनाने लगते
जिन्हें हाथ हिलाकर वह यदा कदा उड़ा देती।
उस निर्जन कविता में
उसकी दृष्टि
हमारी नाकामी का शोर रचती
जिससे मैं दूर भाग जाना चाहती
किन्तु अफ़सोस कविता गाड़ी नहीं थी जिसके शीशे चढ़ाकर
उसे मेरी दुनिया से बेदख़ल किया जा सकता।
वह आ गई थी
और अपना हक़ मांग रही थी।

हम चोरी जितने अवैध थे

बर्फीले पर्वत के शिखर पर चटख लाल फूल जैसा अविश्वसनीय था हमारा होना।
 
निर्जल उपवास में चुपके से पिये गए जल के घूँट सा बेआवाज़ हमारा मिलना
 
हर क्षण समुद्र की लहरों  की तरह टूटता चलता था हमारा सम्बन्ध 
 
टूटन की निरन्तरता के संगीत में
हर दिन नई लहर सा उठता गिरता था
 
हमारे झूठ सरल थे जिन्हें दुलार कर हम अपनी जेबों में भर लेते
 
मिलने के बहाने इतने मधुर कि मिलने के उपरांत उन्हें मिष्ठान की तरह खा जाते। 
 
जब भी मिले
अपने विश्वास हमनें जीवन के बहाव को सौंप दिए
 
बारिशों में भीगे 
 
जल में भीगे कागज़ की तरह हमें एक दूसरे से अलगाना मुश्किल था। 
 
धूप में दूर दूर चलते हुए हमारी परछाइयों ने एक दूसरे को छुआ 
वे स्पर्श हमने अपने सपनों में छुपा दिए
 
हम हवाओं में झूमे
वसन्त में खिले
पतझड़ में निडर झड़ गए।
 
हमारी प्रज्ञा को अनुभव  था जन्मों की समयरेखा के पार जाना था हमें 
 
इसे  आध्यात्मिक ख्याल मान भी  लिया जाए
 
तो भी 
यही आसान तरीका था 
एक दूसरे से  प्यार करके बिना रंज किये बिछड़ने का। 

तुम्हें अच्छी लगती हैं

तुम्हें अच्छी लगती हैं
वे जो चुप हैं
और अपने ख़ाली वजूद के पात्र को भरती रहती है घर के सामान से
उनके आँसुओं के इतिहास अपनी ही नमी से गल चुके हैं
अभी अभी समाप्त युद्ध के मैदान से उनके सपाट चेहरों के नीचे छुपाये मिटाये गए
अगर कभी कोई निशान तुम ढूंढ पाए तो वह यह कर टाल देंगी
कि वह पिछले जन्म के स्मृति चिन्ह हैं जो जन्मजात हैं
दादी कहती थी ऐसे निशान और तिल पूर्व जन्म में रही महारानियों को मिलते है
कि कभी उन्होंने भी ज़ुल्म किये होंगे
जबकि वह जानती है
कि सत्ता सिर्फ़ राजनीतिक शग़ल नहीं है
सबसे संहारक युद्ध प्रेम के मैदान में लड़े जाते हैं
वे निर्विकार देखती हैं
प्रलयकारी महानद से उल्टी नाव से उबरते शब्दों को
अर्थ डूब गए जिनमें अपने वज़न की वजह से
वह उन डूब गए अर्थों के शोक में चुप हैं

ये तुम्हारी अनुपस्थिति का अँधेरा है या रात

ये तुम्हारी अनुपस्थिति का अँधेरा है या रात 
 
ये नींद थी या कोई पंछी उड़कर तुम तक पहुँच गया था
यह स्वप्न था या रहस्य बरसाती कोई बदली गुज़र गई
यह तुमने मुझे छुआ था या किसी गुरु के अनुग्रह से हुआ था शक्तिपात 
 
ये जो मैं उठकर पांव के पास टटोल रही हूँ वो चप्पल है
या कोई  राह 
जिस पर अन्यमनस्क मैं  बादस्तूर चलती चली जा रहीं हूँ।

नदी में धक्का नही दिया

न रेल की पटरी पर ही
किसी पर्वत पर जाकर खाई में नहीं धकेल दिया तुम्हें
तुम्हारा हाथ पकड़ा और एक ऐप में घुस गई
जहां तुम अभी खेलने को तैयार भी न थे कि तुम्हें गोली मार दी
इस तरह प्रेम में हुई हिंसा का बदला
चुकाया मैंने खेल में हिंसा से
स्त्री थी
इतना ही कर सकती थी।

………………

error: Content is protected !!