Friday, September 12, 2025

विभावरी

सन 1981 में पश्चिम बंगाल के काचरा पाड़ा में जन्म. मूल रूप से उत्तर प्रदेश के गोरखपुर की निवासी. प्रारम्भिक शिक्षा गोरखपुर से. इलाहाबाद वि.वि. से 2002 में विज्ञान स्नातक तथा 2004 में हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर की उपाधि. इलाहाबाद वि.वि. के 2003-04 के छात्र संघ चुनावों में बतौर ‘महिला छात्रावास प्रतिनिधि’ निर्वाचित.

2006 में जवाहरलाल नेहरु वि.वि. से ‘स्त्री विमर्श के विविध आयाम: ‘डार से बिछुड़ी’ और ‘सुन्नर पांडे की पतोह’ के विशेष सन्दर्भ में’ विषय पर एम.फिल. और 2010 में ‘हिंदी साहित्य और सिनेमा के मध्य स्त्री दृष्टि का अंतर’ विषय पर पीएच. डी. उपाधियाँ प्राप्त. इसी दौरान छात्र राजनीति से सक्रिय जुड़ाव के तहत जे.एन.यू. के ‘लिटरेरी क्लब’ की संयोजक और ‘स्कूल ऑफ़ लैंग्वेज, लिटरेचर एंड कल्चरल स्टडीज़’ की काउंसिलर निर्वाचित.

बुलंदशहर के एक राजकीय महाविद्यालय में तीन वर्ष तक अध्यापन कार्य के बाद 2011 से गौतम बुद्ध वि.वि. ग्रेटर नोयडा में अध्यापनरत.

FTII से 2016 में 41वें फ़िल्म अप्रिशिएशन कोर्स में सहभागिता.

‘नया ज्ञानोदय’, ‘कथन’, ‘बयान’, ‘आजकल’ और ‘रचना समय’ जैसी विभिन्न पत्रिकाओं, ‘मोहल्ला लाइव’, ‘चवन्नी चैप’, ‘जानकीपुल’, ‘असुविधा’, और ‘काफ़ल ट्री’ जैसे अनेक ब्लॉग्स और ‘BBC हिंदी’ व ‘जनसत्ता’ जैसे वेब पोर्टल में स्त्री और सिनेमा व साहित्य से संबंधित शोध-आलेख प्रकाशित.

विभिन्न साहित्यिक-सांस्कृतिक मंचों पर साहित्य, सिनेमा और स्त्री विषयों पर सक्रिय सहभागिता

‘सिनेमा और भूमंडलीकरण’, ‘बेदाद-ए-इश्क़, रुदाद-ए-शादी’ और ‘उपन्यास का वर्तमान’ ‘आज के सवाल श्रृंखला: कृषि संकट’ जैसी संपादित पुस्तकों के लिए लेखन.

हाल ही में पिक्चर पोएट्री की आॅनलाइन किताब ‘…और मैंने चुना काफ़िर हो जाना’ प्रकाशित

………………………..

कविताएं

1

अपराध और दंड 
 
 
 
सभ्यताओं के इतिहास में,
 
अपराध के लिए दंड नियत हुआ जिस रोज़,
 
ठीक उसी रोज़ पैदा हुआ दुनिया का पहला  अपराधी
 
आदम, हव्वा और वर्जित फल की कहानी  
 
और उसकी वर्जनाओं से उपजा अपराध
 
अब दंड बन कर घिसटता है
 
हमारे चारो ओर
 
हम निरीह बनपशु जैसे,
 
किंकर्तव्य विमूढ़
 
अपराध करते जाने
 
और दंड भुगतते जाने को अभिशप्त
 
अपनी अपनी वर्जनाओं को ढोते हुए,
 
मृत्यु की तरफ़ अग्रसर हैं!

2

प्रेम कोई पौधा नहीं है
 
जिसे उगा लिया जाय बालकनी के गमले में
 
ना ही नफ़रत कोई बीज
 
जिसे बोया जाय हर साल, मुफ़ीद वक़्त पर
 
प्रेम, शिराओं में बहता लहू है
 
जिसके बग़ैर
 
नहीं चल सकती मनुष्यता की धड़कन
 
नफ़रतें,
 
आँख में पड़ा वो कंकड़ हैं
 
जिसके साथ
 
नहीं बढ़ सकते मनुष्यता के क़दम
 
कितनी असहज थी ये सहजता
 
कि नफ़रतें सस्ती रहीं मुहब्बतों के बरक्स
 
कितना अजीब है ये सच
 
कि मैंने जब-जब चाहा मनुष्य होना
 
मनुष्यता के क़दम लड़खड़ा गये

3

तुमने रंग ओढ़े, 
 
बेरंग हो उठीं उनकी आँखें
 
 
 
तुम खिलखिलाई 
 
चढ़ गयी उनकी त्यौरियाँ 
 
 
 
तुमने राजनीति लिखा 
 
उन्होंने पढ़ी कोमलता 
 
 
 
तुमने शोषण लिखा 
 
उन्होंने पढ़ी ममता 
 
 
 
तुमने लिखा जीवन 
 
उन्होंने पढ़ा ईश्वर 
 
 
 
जब जब तुमने जो जो लिखा 
 
वह न पढ़कर उन्होंने ताकीद की उसके सच होने की
 
 
 
जब पढ़ा जाना था तुम्हारी हँसी में लिपटी उदासी को 
 
उन्होंने चुना 
 
तुम्हारी देह को पढ़ना 
 
 
 
जब तुमने लिखा अपनी ही देह का व्याकरण 
 
तुम बेदख़ल की गयी, देह के अधिकार से 
 
 
 
ये जिसे आईना मान बैठी हो तुम 
 
वह सदियों के शोषण का दस्तावेज है
 
वे जिसे सौन्दर्य कहते हैं तुम्हारा
 
तुम्हारी दासता के प्रतिबिंब हैं
 
 
 
अपराजिता!
 
भूलना मत
 
तुम्हें फिर से गढ़ना है, अपनी भाषा का व्याकरण
 
तुम्हें फिर से परिभाषित करने हैं, अपने सौन्दर्य के मायने
 
 
 
अपराजिता!
 
तुम ‘कुटज’ हो
 
तुम्हें फिर फिर खिलना है
 
तुम्हारे लिए ऊसर बना दिए गए इस बियाबान में

4

क्योंकि चुनना हर बार आसान नहीं होता
 
 
 
तुकबंदियों के दौर में हमने चुना, अतुकांत होना
 
हर बार कविता देर से पहुँची पूरेपन तक
 
क्रूरताओं के दौर में हमने, संवेदनाओं को चुना
 
क्रूरताएं अट्टहास करती रहीं हम पर
 
जिस रोज़ दुनिया रंगी जा रही थी एक ही रंग में
 
हमने चुना बहुरंगी होना…
 
तमाम रंग ‘शापित’ हुए हमारे
 
जिस देश में विचारों की आज़ादी को देश निकाला मिल रहा था
 
हमने चुना उसी देश में रहना, ‘देशद्रोही’ करार दिए जाने को
 
जातिवादी और धार्मिक दंभ से भरे समाज में
 
हमने चुना ‘अधर्मी’ और ‘कुजात’ होना,
 
‘संहिताओं’ के पन्ने घूरते रहे हमें देर तक
 
इन सबके साथ हमने चुना ‘बुरी स्त्री’ होना
 
और यह दुनिया बदलने लगी एक रोज़!

5

छोटी बहू’ के लिए
 
मेरे लिए एक किरदार से कहीं ज़्यादा हो तुम ‘छोटी बहू’!
 
क्योंकि तुम में थोड़ी सी मैं ही नहीं बसती,
 
क्योंकि तुम भी बसती हो इस दुनिया की हर औरत में थोड़ी-थोड़ी
 
अपनी वर्जनाओं से लेकर अपनी आज़ादख़याली तक,
 
तुमने रचा है ख़ुद को हर्फ़ दर हर्फ़
 
अपने समर्पण से लेकर अपने विद्रोह तक
 
तुम बेबाक हो
 
अपनी गुरुताओं से लेकर अपनी लघुताओं तक
 
विस्तार हो तुम एक सरल रेखा का
 
अपनी कामनाओं के जंगल में नितांत अकेली तुम,
 
एक प्रश्नचिन्ह हो, समाज के पूर्ण विरामों पर
 
सुनो! ‘छोटी बहू’,    
 
ये बंदिशें जो गुमराह करती हैं तुम्हें,
 
ये वर्जनाएं जो घुटन भरती हैं तुममें,
 
ये आवरण जो ढंकते हैं तुम्हारा स्व,
 
उतार फेंकों इन्हें ख़ुद के वजूद से एक दिन
 
खुल जाने दो वेणी में बंधे अपने केश
 
क्योंकि ‘मोहिनी सिन्दूर’ के भ्रामक छलावों के बीच  
 
अगर कुछ सच है, तो वह है तुम्हारा जीवट
 
सुनो! ‘छोटी बहू’!
 
इस बार कोई तुम्हें ‘छोटी बहू’ पुकारे
 
तो उसे कहना तुम्हारा एक नाम भी है

………………………..

किताबें

………………………..

error: Content is protected !!
// DEBUG: Processing site: https://streedarpan.com // DEBUG: Panos response HTTP code: 200 ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş ilbet yeni giriş