मैं विशाखा मुलमुले कविताएँ व लेख लिखती हूँ । कई पत्रिकाओं जैसे माटी ,आजकल , कथादेश , परिंदेे , पाखी , मंतव्य , अहा ! जिंदगी , समालोचन ( वेब पत्रिका ) , जानकी पुल , रेवान्त , दुनिया इन दिनों , स्त्रीकाल ( स्त्री का समय और सच ) , बहुमत , रचना उत्सव , कविकुम्भ , छत्तीसगढ़ आस – पास , विभोम स्वर , सामयिक सरस्वती , समहुत , कृति ओर , शीतलवाणी , प्रेरणा – अंशु , प्रणाम पर्यटक , विश्वगाथा , व्यंजना ( काव्य केंद्रित पत्रिका ) साहित्य बीकानेर , प्रतिमान , काव्यकुण्ड , साहित्य सृजन इत्यादि में मेरी कविताओं को स्थान मिला है ।
सुबह सवेरे ( भोपाल ) , दिल्ली बुलेटिन , जनसंदेश टाइम्स , हिंदी नेस्ट , अनुगूँज ई पत्रिका , युवा प्रवर्तक , राजधानी समाचार भोपाल स्टोरी मिरर ( होली विशेषांक ई पत्रिका ) , पोषम पा , हिन्दीनामा , अविसद इत्यादि ई संस्करण में कविताएँ
मराठी , पंजाबी , नेपाली व अंग्रेजी भाषा में कुछ कविताओं का अनुवाद
सात साझा काव्य संकलनों में मेरी कविताएँ हैं ।
ब्लॉग – समकालीन जनमत , होता है शब रोज , पहली बार , समकालीन परिदृश्य , साहित्यकी , कथान्तर – अवांतर , छत्तीसगढ़ मित्र में कविताएँ
हिन्दी से मराठी एवं मराठी से हिन्दी कविताओं के अनुवाद कार्य में प्रयासरत
आदरणीय सुधीर सक्सेना जी की चुनिंदा कविताओं का डॉ सुलभा कोरे जी के मार्गदर्शन में मराठी में अनुवाद किया है ।
वरिष्ठ कवयित्री योगिनी राउल जी की कुछ कविताओं का हिन्दी में अनुवाद किया है , कविताएं सदानीरा वेब पत्रिका में प्रकाशित।
[email protected]
पुणे महाराष्ट्र
[email protected]
पुणे महाराष्ट्र
काव्य संग्रह – पानी का पुल ( बोधि प्रकाशन से दीपक अरोरा स्मृति पांडुलिपि योजना के अंतर्गत 2021 में प्रकाशित )
………………………
कविताएँ
1 ) पुनर्नवा
घास नहीं डालती कभी हथियार
उग ही आती है पाकर रीती जमीन
कुछ घास की तरह ही होते है बुरे दिन
जड़े जमा ही लेते हैं अच्छे दिनों के बीच
काश ! मुस्कान भी होती घास की तरह जीवट
और मन होता काई समान
पाते ही सपाट चेहरा खिल उठती
हरियल मन उगता आद्र सतह में अनायास
प्रेम में होता है हृदय निश्छल , पनीला
उमगते है द्रव बिंदु सुबहों – शाम
वे गुजरने देते हैं अच्छे / बुरे दिनों के कदमों को
बनकर घास का विस्तृत मैदान
मरकर अमर होती है घास
जब चिड़िया करती उस से नीड़ निर्माण
पुनर्नवा हो जाती तब प्रीत
धरती से उठ रचती नव सोपान
2 ) घुँघरू
गन्ने के रस की देखी दुकान
बिलासपुर में रामेस्वर ने
जिसके चक्र में लगे थे घुँघरू
बार- बार चरमराता था गन्ना
पिसता था गन्ना
भूसे में बदलने तक
जितनी बार घूमता था चक्र
उतनी ही बार सुर में बजते थे घुँघरू
रसीले से रसहीन होने की यात्रा
क्या होती इतनी ही सुरीली
सोचा उसने
या ईश्वर की तरह मालिक ने भी थमा दिया
उसके हाथों में मायारूपी झुनझुना
जो दिग्भ्रमित करता रहे उसका मन
न हो उसे दुख – दर्द की छुअन
ऐसे ही घुँघरू देखे उसने
कोल्हू के बैल में ,
घोड़ागाड़ी के घोड़े में ,
कुएँ की रहट में ,
तब कुछ सोचा उसने और लगा लिए
अपने रिक्शे पर भी घुँघरू
ताकि ,
भटका रहे उसका भी मन
और चलता रहे जीवन
3 ) कल्पना
न भोर न दोपहर मध्य का पहर
घाम से सराबोर लावण्या के गवाक्ष पर आ बैठा कपोत
स्त्री के अनुरागी मन में आरम्भ हुई
कपोलकल्पना
विचार के तार उलझे – सुलझे
इतने क्षण में
कपोत ले आया चोंच में तिनके
धुँधले काँच पर धुँधला – सा बना अक्स
तिनका याकि सन्देश
धुँधलके में स्त्री का मन
प्यार की तरह कपोत के पंख से भी उठी हवा
नहीं होती स्वस्थ , सुनती आई है वह यह सदा
अस्वस्थ हुआ उसका मन
असमंजस में है स्त्री : काँच का पर्दा हटाये कि नहीं !
4 ) गिरफ्त में
इस शंकालु समय में
मैं उस वृक्ष के समीप जा न सकी
जो बिखेरता था खुशबू
जिसे मैं आँचल में समेटती थी
इस दूरियों के समय में
इक नन्ही सी रुनझुन
इक प्यारी सी मुस्कान
इक मासुमियत का चेहरा है घर के समीप
पर उसको एक बार भी मैं दुलार न सकी
इस कटीले समय में
मैं काटती रहती ना – ना विधि अपना समय
पर कटीली झाड़ियों में फंसा एक लड़की का दुप्पटा हटा न सकी
आँखों ही आँखों से घूमती रही दुनिया
लाल आँखों से उलीचती रही संताप
पर एक आँख का भी आँसू पोछ न सकी
इस निष्ठुर समय में
अन्नदाता के समर्थन में
बापू के देश में
जीभ की परतंत्रता में
एक रोज़ का भी उपवास साध न सकी
इस हमलावार समय में
बंधु संग बांधव
मानव संग मानवता
धर्म संग धम्म
आत्मा संग परमात्मा
किसी को भी बचा न सकी
5 ) ओ ! ईश्वर
ओ ! ईश्वर तुम अच्छे मूर्तिकार नहीं
देखो मेरी दोनों हथेलियाँ उनकी लकीरें
दोनों अखियाँ उनकी कमान सी भौहें
बिल्कुल भी एक समान नहीं
ओ ! ईश्वर तुम अच्छे कथाकार नहीं
दो गली छोड़कर , या दो ही घर छोड़कर
रहती एक हमनाम लडकी
उसकी कहानी और मेरी कहानी
बिल्कुल भी एक समान नहीं
ओ ! ईश्वर तुम समझदार भी नहीं
सुख – दुःख से तुम्हे तो कोई सरोकार नहीं
फिर सुख से भरे हल्के क्षणों में
क्यों बाँधते हो दुख की बेड़ियां नई
ओ ! ईश्वर तुम अच्छे साहूकार नहीं
तुम्हें आता जोड़ – घटाव नहीं
जिस क्रम में भेजते हो आत्माओं को सशरीर
उस क्रम में उन्हें बुलाते अपने पास नहीं
ओ ! ईश्वर ,
तुम आओ जीवन की पाठशाला में पुनः कभी
देखो , कैसे हमारा पूर्ण या अपूर्ण शरीर
दुसरों के सुख में सुख जोड़कर
अपने दुःखों का भाग देकर
जीते जी बनातें स्वर्ग यहीं , स्वर्ग यहीं