Wednesday, December 11, 2024

उपन्यासकार और कथाकार शर्मिला जालान का जन्म एक  बोहरा राजस्थानी (सूरजगढ़) व्यवसायी मारवाड़ी परिवार में दिनांक 6 जुलाई 1971 को  दरभंगा ( बिहार) में हुआ ।

कलकत्ता विश्वविद्यालय से उन्होंने हिन्दी में एम.ए. और असाधारण रचनाकार कृष्णा सोबती के उपन्यासों में ‘परिवार और स्त्री’ पर एम फिल् किया।

कोलकाता प्रवास में श्री अशोक सेकसरिया, किशन पटनायक, श्री प्रयाग शुक्ल,  श्री प्रबोध कुमार श्रीवास्तव , श्री नंदकिशोर आचार्य, प्रभाकर सिन्हा,अलका सरावगी, व विवाह के बाद अमित जालान का सानिध्य, सहयोग, मार्गदर्शन और स्नेह  मिलता रहा है ।

पिछले 25 वर्षों से कहानियां , निबंध-समीक्षा देश भर की विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रही  हैं| 

अब तक पाँच पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं |

उपन्यास –

  1.  शादी से पेशतर (2001-राजकमल प्रकाशन)
  2.  उन्नीसवीं बारिश -( 2022 -सेतु प्रकाशन )


कहानी संग्रह 

    1 . बूढ़ा चांद ( 2008-भारतीय ज्ञानपीठ)

   2 .  राग विराग और अन्य कहानियां ( 2018-वाग्देवी  प्रकाशन )

   3 .  माँ ,मार्च और मृत्यु (2019-सेतु प्रकाशन ) 

‘बूढ़ा चांद’ कहानी पर मुम्बई, पटना आदि कई जगहों पर 20-22 मंचन हो चुके हैं।

 सम्मान :

  • भारतीय भाषा परिषद ने वर्ष २००४ का युवा पुरस्कार उन्हें दिया और उनके लेखन व कृतित्व को गौरवान्वित किया।
  • कृष्ण वलदेव वैद फ़ेलोशिप -2019
  •   कन्हैयालाल सेठिया सारस्वत सम्मान -2017
                               
  • कलकत्ता साहित्य प्रतियोगिता , राजश्री स्मृति न्यास द्वारा समकालीन  सृजन गद्य रचना में प्रथम पुरस्कार(1997)

कहानी पाठ और शिरकत –                   

  •  भारत भवन भोपाल- युवा-5
  •  युवा -5 भारत भवन भोपाल, 2017 में शिरकत 
  • रज़ा फाउंडेशन, युवा-2018, में शिरकत 
  • आजतक साहित्य उत्सव-2018 में शिरकत
  • रज़ा फाउंडेशन,2019 , गाँधी जयंती में शिरकत, 
  • रेडियो में कहानी वाचन 

आजकल एक पब्लिक हाई स्कूल में अध्यापन कर रही हैं और  कलकत्ते में पति अमित जालान और बेटे शशांक जालान के साथ निवास|

मोबा: 09433855014

ईमेल- [email protected]

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किताबें

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कहानी

माँ मार्च और मृत्यु
– शर्मिला जालान
आज उन्नतीस फ़रवरी है| मृणाल बाबू आज साठ के हो गए| हलके भूरे रंग का पेंट शर्ट पहने आँखों पर चश्मा लगाए अपनी गाड़ी में बालीगंज से शाम को निकले और ड्राइवर तपन से कहा–
“कहीं और जाने का मन नहीं है इसी इलाके में दो तीन चक्कर धीरे-धीरे लगाना|”
आगे बढ़ते हुए मृणाल बाबू ने रिची मोड़ पर वह छोटा हनुमान मंदिर फिर से देखा जिसकी दूसरी तरफ शनि मंदिर है और मंदिर के पीछे एक छोटी पारंपरिक डेयरी | बालीगंज फाड़ी की तरफ जाते हुए हाजरा रोड के दोनों तरफ की दुकानों पर नजर डालते हुए एक युवा लड़की पर नजर गयी जो एक बहुमंजिला इमारत से निकल ट्रेक सूट पहने हाथ में बैडमिंटन लिए सड़क पार करने खड़ी थी| उसके चेहरे पर हवा से बाल उड़-उड़ कर आ रहे थे जिन्हें वह बार-बार हटा रही थी| बालों के पीछे छुपा उसका चेहरा नन्हें परिंदे की तरह उड़ान भरने को उत्सुक था| आगे एक के बाद एक पुराने सामान की दुकानें थी| मरम्मत करने के लिए रखी फ़्रिज,आलमारियां काठ के फ़र्निचर वगैरह| आगे एक दो कसाई खाने | छोटी-मोटी स्टेशनरी की दुकानें,चनाचूर,समोसा मिठाई की छोटी दुकानें| हाजरा रोड के दोनों तरफ खड़ी इन दुकानों के बीच नौकरानियों,ड्राइवरों, धोबी के भी छोटे कमरे दिखाई पड़ते | ये लोग शाम को घरों से निकल बाहर बैठते|

तपन ने गाड़ी बालीगंज फाड़ी से हाजरा मोड़ की तरफ घूमा ली| गरचा, पंडित्या , लाल बगान पार कर देशबंधू मिठाई की दुकान के सामने गोलगप्पे वाले को देखा| वर्षों से एक गोलगप्पे वाला वहां खड़ा ही रहता है | वहीँ कुछ सालों से एक आधा अधूरा स्कूल खड़ा है| इंटरनेशनल स्कूल| मोतीलाल नेहरू रोड, पंडित्या में उनके कई परिचित नए बहुमंजिला मकानों में फ्लैट खरीद कर बस गए| दक्षिण कलकता छोड़ कर सालों से इस इलाके में कई परिवार आ गए और कई आते जा रहे हैं | रिची रोड में कई पुराने वकीलों की बड़ी बाड़ी ( बांग्ला ) हैं|
मृणाल बाबू लोहे के व्यापारी हैं| रियल स्टेट का भी काम करते | गाड़ियों का खूब शौक है|
ग्रिग्रेरियन कैलेंडर में उनका जन्म दिन चार साल में एक बार आता है| आज अपने जन्मदिन पर उनका मन पीछे की तरफ भाग रहा | तीस साल पहले इस इलाके में कौन-कौन सी दुकाने थीं, कैसी बसावट उन्हें सब याद आ रहा | आज वह अपने मित्रों के साथ कैनिलवर्थ में शराब न पीकर अपने इलाके में ही घूमना चाह रहे |
अपने इलाके के बारे में सोचते हुए उन्होंने दायें कान में हवा का झोंका महसूस किया| गाड़ी की खिड़की का कांच खुला हुआ था| दायीं तरफ से हवा आ रही तो बायीं तरफ संगीत चल रहा | कोई पुराना गाना| मीना कुमारी और गुरुदत्त का | जिसके बोल थे- “यही है वो साँझ और सबेरा …”
गाने से उन्हें माँ और बाबा( पिता ) की खूब याद आई| माँ को याद करते हुए वह विचलित हो गए| छुटपन में वे उत्तर कोलकाता में बड़तल्ला गली में रहते ठेक | माँ बताती कि वह सावित्री पाठशाला में कक्षा पांच तक पढ़ीं फिर आगे की पढाई राम मंदिर स्कूल से की| पढ़ी-लिखी सुतंवा नाक वाली माँ का ब्याह जब बाबा से हुआ पूरे परिवार में ऐसा सुन्दर जोड़ा किसी ने नहीं देखा| बाबा लम्बे गौरवर्ण और चेहरे पर क्या तेज| बाबा की चाय पत्ती की छोटी दुकान थी साथ ही शेयर की खरीद बेच का काम भी करते|
बाबा की याद आते ही कोई चीख सुनाई दी| माँ की चीख| बुआ की चीख | बाबा की लाश |मृणाल बाबू वह सब याद कर व्याकुल हो गए| बाबा दस वर्ष की शादीशुदा जिन्दगी जी कर चले गए| क्या हुआ और कैसे यह सब जानना अँधेरे गलियारों से गुजरना है| माँ अट्ठाईस साल की थीं| दूसरा विवाह कहाँ किया माँ ने! माँ सालों उनके मरने का कारण खोजती रहीं |मृणाल बाबू के अंदर बवंडर उठा| ऐसा तूफान कि उखाड़ दे| माँ ने एक दिन मरने के पहले बताया कि उन्होंने आत्महत्या की| माँ के भीतर वर्षों का विषाद जमा था| वह कहीं दूसरे ग्रह की तरफ देखते हुए बोलीं–
‘बाबा के बारहवें के दिन मालूम नहीं कोई शम्पा बनर्जी बागबाजार से आयीं और बोलीं कि वह तेरे बाबा से ही चायपत्ती खरीदती थी |उनका मन अस्थिर था| ज्यादा कुछ बोली नहीं बस टुकुर-टुकुर मुझे देखती रहीं और चली गयीं| मुझे आज तक यह पता नहीं चला कि वह उस दिन रोने क्यों लगीं! वैसी सुंदर औरत मैने कम ही देखी |’
ऐसा कहते हुए माँ के आधे चेहरे पर पीली रौशनी पड़ रही थी और आधा चेहरा अँधेरे में था|
बाबा के नहीं रहने पर माँ ने मृणाल बाबू को पढाया अकेले उनके लिए जीवन जीती रही|
उन्होंने महसूस किया कि हवा बहुत जोर से चल रही है| वह इस हवा में कथा लिखना चाहते हैं | वह कहानी जो हुई थी| हवा के सहारे वे आसमान के अंदर जाना चाहते |चिलकती चमकती कहानी के वरक हटाना चाहते | कोलकाता शहर के पार्क स्ट्रीट के मकबरों की चादर हटा वहां उसके अंदर सोई कोई कहानी पढना चाहते हैं | सुना है आकाश में कोई गंगा बहा करती थी, देखा नहीं पर वह आकाश गंगा उनके मन में फैल रही है|
ऐना एक क्रिश्चन लड़की | उसकी आँखें सलोने हिरन के छौने की आँख सी| इस कहानी का वह चरित्र जो इस हवा के साथ ही आया और चला गया | वे कहानी में कहानी देख रहे |उनके जीवन की कुछ-कुछ घटनाएँ उन्हें कभी-कभी घेर लेतीं और वह उसके साथ बहते चले जाते|
वह यह सब सोचने लगे तभी तपन लगातार बोलने लगा | वह बातूनी है| वह गाड़ी के सिग्नल पर रुकते ही कलकते की उस दिन की जरूरी खबरें तफसील से सुनाने लगा| बोला-
“बाबू आज बंद होने से बहुत लोग काम पर नहीं आये| सभी टैक्सी ड्राइवर गाड़ी बंद कर बैठे हुए| यादवपुर इलाका पूरा लाल है| वहां जुलुस निकल रहे |”
उन्हें याद आया दो दिन से स्ट्राइक है| कई लोग काम पर नहीं गये| कलकता हड़तालों का भी शहर है|
उन के चेहरे पर पुरानी छाया उतर आई| वे बड़तल्ला की गलियों में चल रहे | उनका घर उस मकान में था जहाँ राधा कृष्ण की मूर्तियों की पोशाकों की दुकान थी| अँधेरी सीढियाँ चढ़ कर छोटे कमरे में जाते तो वहां रुक्मणी बुआ बैठी दिखाई देती| यह कहानी हवा पर लिखी कहानी नहीं है| बड़तल्ला गली में सुनाई पड़नेवाली कहानी भी नहीं है |यह सिर्फ उस कमरे में घटी कहानी है|एक असंभव जीवन का नक्शा | रुक्मणी बुआ असम्भव सुन्दर| धूप और झाग सा पवित्र चेहरा तब बदल जाता जब वह जोर- जोर से चिल्लाती| उम्र बढ़ती जा रही थी और मन बच्चा ही बना रहा |
बुआ ने हवा में कथा लिखनी चाही| खुले आकाश मे दिखाई न पड़ने वाली बारिश की बूंदों को पकड़ना| बुआ को याद करते हुए आज मृणाल बाबू जिन्दगी के किसी और सिरे पर आ गए |
हवा और तेज चल रही और उसमे ठंडक भी है| उनकी नाक ठंडी हो रही| कान के लवें लाल हो रहे हैं | हड्डी के कोटर में, बालों के छिद्रों में हवा भर रही | यह हवा उन सभी की कथा से भारी हवा है, बुआ की कथा, बाबा की कथा| क्षणभंगुर कथा| छोटे-छोटे ताल -पोखर में फेंके गए पत्थर की आवाज सी जो विलीन हो जाती|

बुआ का रोना चिल्लाना | पढाई न कर पाना | कक्षा चार के बाद घर में ही रहना |घरेलू काम न करना| कलपना|प्रतीक्षा करना| एक असंभव कहानी को हवा में लिखने की कोशिश करना |माँ के साथ बांसतल्ला की दुकान पर जाना और जाना राम मंदिर | वहां माँ का फल खरीदना और बुआ का चुपचाप खड़े रहना| फलवाले को देखते जाना | घर आकर बुआ हंसती जाती| जब वह हंसती उनकी नाक हंसती थी| आँखें छोटी हो जाती थीं| मन की निर्मलता चेहरे पर चिलकती| वह घर में हकला कर बोलतीं, रुक-रुक कर| कुछ दिनों से साफ-साफ शब्द निकलने लगे थे| एक बार वे भी बुआ के साथ फल लेने गए| न्यू मार्केट में उस फल वाले की बड़ी दुकान थी| साफ रंग था फारूक भाई का| चेहरा खुले आसमान सा खुला| वह बुआ को बोलने देता | फलों के नाम पूछता उनके सामने बुआ लगातार बोलती जाती| बोलते-बोलते उनकी जुबान खुल जाती और साफ साफ बोलने लगती | उन को आश्चर्य होता कि बुआ को घर में क्या हो जाता है| उन्हें लगता फारूक भाई के सामने वह बहती नदी है| अनंत संभावनाओं से भरी| घर संभावनाहीन था| माँ को बुआ को मनोचिकित्सक के पास ले जाना पड़ता| उन दिनों उनकी अनर्गल बातें, कल्पनाएँ, चाहनायें माँ समझ नहीं पाई | बुआ सिजोफ्रेनिक थी|

मृणाल बाबू सोच रहे कुछ भी नहीं बीतता | वह कहीं डूबे हुए हैं पर तपन की आवाज से लौट आये | तपन चुपचाप गाड़ी नहीं चला सकता| बोलता है बाबू-
“मैने तो नक्सल आन्दोलन देखा है| ट्रामें जलाई गई थीं| जुलुस निकलते थे| कैसा समय था|”- ऐसा कहते हुए तपन के चेहरे पर अँधेरा छा गया |
“बाबू यह सब तो एक तरफ चल ही रहा था साथ ही हमारा दो पैसा कमाने का संघर्ष भी| ऐसा कौन सा काम है जो मैने नहीं किया| दस वर्ष की उम्र से लेकर आज उनसठ साल की उम्र तक दो पैसे जोड़ने के लिए तरह–तरह के काम करता रहा| सिंगूर में मेरे दादा रहा करते| हम चक्रवर्ती हैं| दादा पूजा-पाठ का धार्मिक काम करते| ना जाने मन्त्र पूजा कर्म में क्या हुआ कि दादू एक दिन घर छोड़ कर चले गए तो आये ही नहीं| मेरे बाबा ने छोटी नौकरी की| मैने ज्यादा पढाई नहीं की सो एक नेलपॉलिश बनाने के कारखाने में काम करना शुरू किया| फिर कलम बनाने के कारखाने में और उसके बाद कुदाल बनाने के कारखाने में|काम पर काम बदलता रहा| स्टेशन पर रसगुल्ला बेचा|ऑटो चलाया|हर वह काम किया जो कर सकता था|”- यह सब कहते-कहते तपन की आँखे कुछ ढूढती दिखाई पड़ी| वह अपनी कहानी में पिछले कुछ सालों की कहानी देख रहा| वह कहानी जो उससे दूर चली गई| अल्पा से उसने प्रेम विवाह किया पर अल्पा को न जाने क्या हुआ वह चली गयी | जो जलतरंग जीवन में आई वह झूठ नहीं| लेकिन मौसम बदल गया| अल्पा दस साल बाद दस साल छोटे युवक के साथ किवाड़ खोल निकल गई| तपन अचानक जोर से बोलने लगा –
“बाबू मैने जो देखा और जिया है उससे कई कहानियां और उपन्यास तैयार हो सकते |आप तो कई लेखक को जानते हैं| मेरी भी कहानी लिखवाना | अल्पा आलता लगाती | लाल पाड़ की साड़ी पहनती |उन दिनों जब मै उसे नहीं जानता था मेरी दीदी के पास उसकी दीदी आती |पच्चीस मार्च का दिन था वह बुखार में तप रही थी|मै उसे दावा खाने ले गया और डाक्टर को दिखाया |”
तपन आँखे पोछने लगा |उस क्षण लगा उसके वाक्य में कोई मात्रा गड़बड़ा गई है| अल्पा के साथ क्या हुआ! क्यों चली ! वह तपन की बात बदलते हुए बोले –
“यह तो बताओ कि तुम्हें क्या लगता है हड़ताल का असर किस पर ज्यादा हुआ |”
वह बोला-“ कुछ होता हवाता नहीं इस सब से|”
चौराहे पर गाड़ी रुकी| सामने से माधो धोबी आता दिखाई दिया| वह बालीगंज धोबी घाट में रहता और उस इलाके के कई घरों के कपडे धोता|
फ़रवरी की शाम का कोलकाता | लौटती सर्दियों के दिन | यह मौसम पीछे ले जाता| तपन के ऊपर भी शायद बदलते मौसम का असर है| वह भी न जाने किन अँधेरी गलियों में भटक रहा|
सिग्नल खुलने से हार्न बजने लगे| मृणाल बाबू के कानों में तपन की आवाज गूँज रही | सुबह से शाम तक दो पैसे के लिए एक मोड़ से दूसरे तक दौड़ लगाता उसका ऑटो | कुछ ढूँढती हुई उसकी आँखें| अल्पा का कुछ दिनों का साथ| रुक्मणी बुआ का पूरे घर में घूमना, देहरी पर बैठ अस्त होते सूरज को देखना और फारूक भाई को आवाज देना| महालय के दिन उन्होंने अपनी देह का त्याग कर दिया| दूर पोखर में कोई पत्थर गिरा | निःशब्द | बाबा क्या उन बंगाली महिला को मन में बसाये अनंत की और चल पड़े| माँ ने उन दिनों साँझ बत्ती करते हुए कुछ नहीं बताया| माँ क्या कुछ बता पाती! माँ को ही कितना पता था| वे गाड़ी के कांच से बाहर खिड़की से आकाश देखते हैं | सोचते हैं- क्या माघ पूर्णिमा आनेवाली है? रात आकाश में कुछ चमकेगा| बुआ बाबा एक दूसरे से बात करने निकलेंगे| बाबा ऊपर से नीचे हम सब को देखेंगे| उनके सामने ऐना , फारूक भाई, अल्पा, शम्पा बनर्जी सब गडमड हो जाते हैं |
तपन फिर से बंद की बात करने लगा | वे उसकी बात सुन सोचते कि कैसे हजार रूपये कमाने के लिए ये लोग जी तोड़ मेहनत करते| हड़ताल से होनेवाली परेशानी वह नुकीली चीज है जिससे पूरा दिन चुभता रहता|
मृणाल बाबू ने अपना संसार खड़ा किया| सम्पन्नता, पत्नी, विदेश बसा बेटा और बहू | कोलकाता शहर में मिली प्रतिष्ठा अपना हस्ताक्षर| तपन कहता –
“बाबू आपके पास सब कुछ है|”
आपके पास सब कुछ है यह सुन उनका का मन भटकने लगा| कभी लगा वह किसी अरण्य में हैं तो कभी लगा गंगा में, जहाँ वे आधे डूबे हुए और आधे ऊपर हैं|
कभी लगा वह इस समय पूरी तरह से तपन के साथ हो रहे संवाद में हैं तो वे उस हवा में भी हैं जहाँ वे लिख रहे हैं एक कहानी| यह कहानी हवा में लिखी कहानी है जो आई तो सराबोर कर गयी और चली गयी तो वे उद्विग्न हो गए|
उन्होंने मुहं उठा कर देखा लगा कहीं तोता उड़ा है| दूर कहीं शव जलने की गंध आई|रात के हाट-मेले सब उठ रहे|
वे घर लौट आये| फरवरी महीने की रात उन्हें रहस्मय लगी| पूर्णिमा की तरफ जाता चाँद सम्मोहित कर रहा था| पूरी रात चाँद तारों आकाश को देखते हुए निकल गयी|
अगले दिन सुबह के आलोक में चीजें साफ और सीधी दिखाई देने लगीं| वे सब चीजें जो रात में जादुई और मायावी लग रही थीं|
दूसरे दिन वह अपने दफ्तर में बैठे अपने पंखों को समेटे किसी फ़ाइल पर झुके हुए हैं | सुबह की धूप में वे सिनेमा के नायक लग रहे| गौर वर्ण, लम्बे| सामने टेबल पर दो दिन की धूल और बासीपन को हटाने के लिए जग्गू कपड़ा मार रहा | वे तफसील से उससे दो दिन के बंद की बात पूछ रहे| जग्गू कहता –
“बाबू दो दिन अपने घर दक्षिणेश्वर चला गया था| वहां हमारा छोटा स्कूल हैं न,वह मेरा छोटा भाई चलाता| वह देखने और माँ काली के दर्शन करने| आपके लिए प्रसाद लाया हूँ|”-हाथ में प्रसाद देते हुए; –
“आपसे एक बात पूछनी है | आपके बाथरूम का पानी निकल रहा है उसका क्या किया जाये| प्लम्बर तो बीमार है|”
मृणाल बाबू बोले-
“तपन को बोलो किसी को बुलाएगा|”
उनके कई फोन आने लगे | सक्सेना साहब एक होटल खोल रहे हैं | बहुत बड़ी रकम उधर ली उसी सिलसिले में बात कर रहे | वे रोज के जीवन में लौटने की कोशिश कर रहे| जिस तरह यात्रियों के उतर जाने के बाद खाली नौका कुछ देर तक तट के पानी में हिलती डुलती रहती उसी तरह कल की बातें मन पर छायी हुई | सुबह के जरूरी काम सलटा कर वह अपनी कॉपी में तपन, माँ बाबा बुआ की बात लिखने लगें |लिखने से कहानी मन में कुनमुनाती नहीं रहेगी| लिख-लिख कर ही उन्होंने अपने अंदर की नदी को अनहद बहने दिया है| अंदर गिरह न बने|
तपन अपनी कहानी में अपने दुःख के साथ उपस्थित है| अपनी विडम्बना और अपनी कलह के साथ| तपन ने बताया-
“अल्पा किफ़ायत से घर चलाती|ढिबरी जलाती, एक-एक पैसे जोडती| दो तीन तरह की खिचड़ी बनाती| चुप रहती | मुझसे कम बात करने लगी थी| जिस व्यक्ति के साथ घर छोड़ कर गयी वह हमारे मोहल्ले का ही चित्रकार | एक दिन अल्पा को जब उसके साथ बात करते हुए देखा| साधारण बात को खुलते भीगते देखा |बात को साँस लेते देखा| बात को हंसते देखा, अंदर से फूटते देखा | आवाज को बढ़ते असीम होते सुना| अल्पा को अल्पा में नया होते गालों को सुरमई होते देखा |मेरे सामने जब वह ढिबरी लेकर आती टूटी ध्वस्त रहती| मै रोज पैसों का हिसाब गिनता| अपनी थकान बताता| काम रोजगार की आदिम व्यथा| दिनभर के भागदौड़ की कहानी| वह दूर होती जा रही थी | देशों में बढती है जैसे दूरियां| फंदा पड़ रहा और मै उलझ रहा | अल्पा अमृत चाह रही थी और मेरे आसपास उन दिनों विष ही विष था| मेरे दादू घर छोड़ कर चले गए| हमारा छोटा राधा कृष्ण का मन्दिर बिक गया| बाबा बीमार रहे| ऐसे दिन भी देखें हैं जब कलम में रोशनाई भी नहीं रहती | घर का काठ का दरवाजा चरमरा रहा यह चिंता सताती| स्याहि खरीदनी है, बढई को बुलाना है, हांड़ी में अनाज रहे, कभी जीवन में अपना पक्का मकान बनाना है यह बडबडाते हुए सो जाता| गुड का दही वह खूब अच्छा जमाती| गुड की मिठाई भी खूब बनाती| पर गुड़ और दूध घर में ला सकूं उन दिनों हर रात नींद में यही सोचते हुए आँख लगती| मै तीस साल का था और वह बीस साल की| खोपा बनाती और आलता लगाती| एक दिन ताख पर रखा आइना टूट गया तो नया लेने मुझसे कहा| अब वह आइना मुझसे दस साल छोटे तरुण के घर में रखा हुआ है|”
तपन आँखें पोछने लगा,बोला –
“बाबू जीवन एक डरावना जादू है|”
वह बोले –
“डरावना का उल्टा क्या होता है? सुंदर जादू भी कह सकते|”
तपन फिर बोला–
“मैने यह सोचकर धीरज धर लिया कि अल्पा के दूध के दांत नहीं टूटे| बच्चे की अंजुलियों से जीवन को चख रही |उसका जाना ही लिखा था|”
तपन वर्षों से काम बदल रहा | काम बदलते-बदलते एक दिन ऐसा भी आया कि उसने मृणाल बाबू का ड्राइवर बनना ही तय कर लिया | मृणाल बाबू के साथ बात करते-करते कभी-कभी उसकी आँखों की पुतलियों के नीचे छुपा अँधेरा बहने लगता |

उनके अक्षर पन्ने पर चलते जा रहे| पांच साल पहले माँ को मुखाग्नि दी| बनारस के जिस घाट पर माँ का अंतिम शव रखा था वहां श्मशान घाट पर अघोरी प्रेमी को देखा |
प्रेम क्या होता है?
क्या होती है मृत्यु!
क्या प्रेम कभी मरता है?
प्रेम चिता में जलाया जा सकता ?
प्रेम आता है तो जीवन हरा हो जाता और जब चला जाता तो जीवन उजाड़ नजर आता |
माँ ने अपनी दोनों भौहों के बीच सब कुछ समेट कर रखा| माथे की शिकन और तनाव को साड़ी के उघड़े फौल को सिलते हुए बराबर करती रही| सलवटें निकलती रही| पेड़ पर से एक–एक पत्ता गिर रहा| मौसम बदल रहा था | माँ का जीवन भी बदल रहा था | माँ कभी भी पिघल कर नहीं बही| दीवार से सटकर बैठती| मजबूत| माँ की आँखों में न जाने क्या-क्या था | सदियों की विडंबना जो करुणा बन रोशनी सी छाई रहती| माँ उदास थी पर दिखती नहीं| बाबा और बुआ की असमय हुई मौत ने माँ को अंदर की तरफ मोड़ दिया था | माँ भूल से भी कभी कुछ नहीं भूलती थी| विधवा जीवन जिया| माँ ने सभी रिश्तेदारों से कह दिया कि उनके दूसरे ब्याह की बात न करें | वे साल माँ के लिए बहुत कठिन रहे| माँ चट्टान थी| सख्त तन और सख्त मन | मजबूती से जमीं पर पाँव रखती हुई| गड़ती हुई कील उखाड़ कर फेंकती हुई| संभल-संभल कर चलती हुई| माँ चट्टान ही बनी रही| मृणाल बाबू को संभालती| जीवन में जो राजनीति है उसको पढ़ती | हर चीज पर सोचती| बाबाने आत्महत्या क्यों की? क्यों वे बागबाजार जाते? इतना अकेलापन बाबा को कैसे लगा !
बुआ को क्या हुआ था! परिवार मे बाबा को मिली उपेक्षा के बारे में दादी से पूछती| माँ हर चीज के पीछे की रेखाओं को पढ़ती| उसकी तह में जाती| माँ जैसी थी वैसी न होती तो वह नहीं होते| मृणाल बाबू जो की पांचवी पीढ़ी के थे उन्हें राजस्थान में बसे उनके पुरखों की कहानी सुनाती| माँ पुरखों को याद करती | उनका श्राद्ध करती| उनकी गलतियों से सिखती| माँ के जीवन का अर्क निकला जाये तो माँ सारथी की भूमिका निभा रहे कृष्ण की हर बात सुननेवाले अर्जुन की बात को दोहराती हुई माँ थी| अर्जुन कहते हैं–मेरा मोह नष्ट हुआ | मेरी स्मृति मुझे मिल गयी | माँ मोह से मुक्ति की बात कहती| हजार सूरज एक साथ प्रकट हो जाएँ ऐसी चकाचौंध के साथ कृष्ण ने अर्जुन को यह कहा–कर्म ही सत्य है और सब कुछ छल| माँ कर्म थी| जीवन में रची-बसी |घट-घट में व्याप्त| मृणाल बाबू ने एक दिन माँ को पूछा था बाबा के बिना कैसे रह पाई| माँ चुप ही रही| माँ ने कभी किसी की शिकायत नहीं की | माँ को बाबा के जाने के बाद यह समझ में आ गया था की अब उसके दूसरे तरह के दिन शुरू हो गए हैं | बचपन तो मायके में छूट गया युवावस्था के राग रंग उल्लास भी गए| बाबा के जाते ही वह पहली और आखरी गैर जिम्मेवारी का दिन भी ख़तम हो गया | वह गीता पढ़ती और अपने जीवन में गीता उतारते हुए कर्म करती रही| उसके सारे सम्बन्ध सारी सुरक्षा और प्रतिष्ठा सब कुछ धार्मिक किताब पर टिका रहा | रोजमर्रा की हाड़तोड़ मेहनत उसे सारे भटकाव से बचाए रही| माँ की रसोई गेहूं की रोटी और ताजा सब्जी की छौंक से गमकती रहती| माँ संस्कृत के श्लोक दोहराती निर्जला एकादशी कराती|
मृणाल बाबू की कहानी ऐना की कहानी नहीं है| दिखी तो थी ऐना एक दिन सैटरडे क्लब में मिस्टर साईद के साथ| वह ऐना कोई और थी जिसके साथ पार्क स्ट्रीट पर चलते हुए वे हँसे थे| यह दूसरी ऐना थी पहले में से निकली हुई| राख से उठती एक नयी ऐना | दूसरा जन्म| पहले की चिता पर खड़ा|
मृणाल बाबू के बेटे अंकित का फोन आया है| यह पूछने कि अपने जन्मदिन पर मृणाल बाबू ने क्या किया| सालों से लंदन में है| उसकी पत्नी और वह दोनों एम बी कर बड़ी नौकरी कर रहे| इस साल विदेश में उसने अपना एक घर भी ख़रीदा है| मृणाल बाबू अंकित से अपने पोते देव के बारे में दो चार बात कर फिर से वही सब लिखने लगे| अपने लिखे को पढ़ा, पाया गलतियाँ ही गलतियाँ हैं लिखे में|वह लिखे को काट-कूट रहे | अर्थ का अनर्थ करनेवाली भूलें | एकदम उलटी भी हो सकती है बाबा, बुआ, ऐना,शम्पा बनर्जी और माँ की कहानी|
ब्रह्ममुहूर्त के समय जब आँख खुलती है योग और अध्यात्म के आलोक में चीजे अपना रूप बदलने लगती| माँ बाबा की मौत के बाद मानसिक दुश्चिंता के लम्बे दौर से निकल मृणाल बाबू के कॉलेज के सेक्रेटरी के लिए हाथ से बना गौंद का लड्डू भेज रही | मृणाल बाबू का दाखिला बड़े प्रतिष्ठित कान्वेंट कॉलेज में हो गया| क्रिकेट खेलने का खूब मन रहता उन का | क्रिकेट क्लब के कोच से अंतिम बार माँ को बात करते देखा| माँ के मन मे कोई भटकाव नहीं | मणि को जीवन में मान -प्रतिष्टा शिक्षा सब मिले यही माँ चाहती | माँ कॉलेज के फादर के लिए निरंजन बाबू के साथ घर का बनाया नाश्ता भेजती |
बुआ का हकलाना लाइलाज नहीं था | वह उन्हें स्पीच थेरेपिस्ट के पास ले जाने लगी थी| एक दिन बुआ गायब हो गयी| अड़ोस-पड़ोस वालों को धीरे-धीरे पता चल गया | निरंजन बाबू न होते तो माँ बुआ को खोज वापस नहीं ला पाती| वह उस फलवाले के साथ दो दिन रहीं| फल पट्टी में बात फैल गयी| पुलिस पूछताछ करने चक्कर लगाने लगी | किसी तरह निरंजन बाबू ने मामला दबाया | घर लौटने के बाद बुआ ने खाना पीना छोड़ दिया| रोज की कलह |महालय के दिन आत्महत्या कर ली|
मृणाल बाबू इतने सख्त और कन्फेशनल नहीं हो पाते|वह कभी किसी के घट में पैठते हैं कभी किसी के| उनकी पीठ अकड़ गयी है| पांव ऐसे जम गए जैसे बर्फ| वह यात्रा में है पर यात्रा में रहना नहीं चाहते| उनकी लय खो गयी है| वह कई- कई जीवन में गड्मड हो गए हैं |वह घोर दुःख शोक और भय में हैं | वह अपनी चेतना चाहते हैं| वह सो नहीं पा रहे | वह देख रहे हैं माँ को| रौनक को ढक लेते अंधकार को |यह जीवन का कैसा विन्यास है? रस्सा-कशी, उलट फेर, ऊहपोह |
मृणाल बाबू किसी के बेटे, किसी के पिता, पति, मित्र और पडोसी हैं| उनके लिखे में वह जगह आ रही जहाँ रीढ़ में झुरझुरी दौड़ रही है| वह छटपटा रहें हैं | वह अपने लिखे के गिरफ्त में हैं |युवा दिनों का अँधेरा| बाबा की मृत्यु के बाद परिवारवालों ने माँ को समझा बुझा कर उनका ब्याह दक्षिण कोलकता के एक पैसेवाले दुजवर से कर दिया | माँ साल भर वहां रह कर लौट आई| वह व्यक्ति मानसिक रोगी था| माँ के बिना मृणाल बाबू जिद्दी और अड़ियल हो गए | आठवें दर्जे की पढाई करते हुए फेल हो गए | माँ जीवन सँभालने की फिर से कोशिश कर रही|इस बार माँ पहले वाली माँ नहीं रही वह बदल गयी |घर आये बाबा के सामने जन्मकुंडली खोल कर बैठी| संन्यासी पर माँ को अगाध विश्वास था | बाबा ने कहा –
“तुम्हारा बेटा बहुत धन कमाएगा|”
विधवा माँ ने फुसफुसा कर कहा –
“पर बाबा, इसकी संगति ख़राब हो गयी है | सब के सामने मेरी आँखें झुकी रहती | छज्जे में खड़ी नहीं हो सकती|”
बाबा चुप थे और चुपचाप चले गए| माँ ने अघोड़ी बाबा पर विश्वास किया| मृणाल बाबू पास होते रहे|आगे बढ़ते रहे|
रिची रोड पार कर हाजरा रोड पर जिस लड़की को देखा उसका चेहरा निरंजन बाबू से मिलता लगा | बांसतल्ला में निरंजन बाबू की छोटी सी दुकान है| आजकल उनका बड़ा बेटा उनका सराफा का काम संभालता है| माँ अपने गहने उनके पास ही गिरवी रखा करती| उनकी पहचान बड़े लोगो से रही|
मृणाल बाबू ने लिखना बंद कर दिया| मार्च का महीना है| फागुन के दिन| वह सारी बातों को बिसरा कर फागुन महीने के कलकत्ते को देखने लगें | कितनी यादें लेकर आते ये दिन|
कॉलेज में पढ़ते हुए सदर स्ट्रीट से आने वाली ऐना से कलम बदल लिया करते| ऐना को उनकी कलम बहुत अच्छी लगती थी| वह कहती-
“मृणाल तुम्हारी कलम से लिख कर में परीक्षा में पास हो जाती हूँ|”
ऐना बड़तल्ला जैसे सघन इलाके से मृणाल बाबू के मन के अंदर के इलाके को जोड़ नहीं पाई| मंदिर,ट्राम लाइन, शोभा बाजार का शोर| वह पार्क स्ट्रीट के एक ऑफिस में रिसेपप्शनिस्ट थी|| पार्क स्ट्रीट की सिमेट्री की उदासी उसके चेहरे पर छाई रहती| मृणाल बाबू के घर व किचन का जीवन उस इलाके के बाजार उसे पसंद नहीं आये| सब कुछ ढह गया| ऐना और मृणाल बाबू की हंसी जो एक साथ पार्क स्ट्रीट पर सुनाई पड़ी थी वह इतिहास बन गयी|
मृणाल बाबू ने अपनी आँखे बंद कर ली मौसम का असर न जाने क्या- क्या गठरी खोलने वाला है| वह अब सोना चाहते हैं | उनतीस फ़रवरी बीत गयी और गुजर गया एक मार्च भी|
शर्मिला जालान
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