Thursday, September 18, 2025

शोभा अक्षर
खोखले आदर्शों की दोहरी मानसिकता पर प्रहार करती,वर्जनाओं को तोड़ती रचनाकार शोभा अक्षर का जन्म अयोध्या में, 15 अक्टूबर 1993 में हुआ था। पिता श्री कृष्ण कुमार गुप्ता एक व्यवसायी हैं और माता श्रीमती सोनपती गुप्ता, स्वास्थ विभाग, राज्य सरकार में कार्यरत हैं। गुरुनानक अकादमी गर्ल्स इंटर कॉलेज, अयोध्या से शिक्षा ग्रहण करने के बाद, डॉ. राममनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय से बी.सी.ए.(कंप्यूटर एप्लीकेशन), बी.ए. ( हिन्दी एवं राजनीति) और जनसंचार एवं पत्रकारिता में एम.ए. किया।
वर्तमान में ‘पाखी पब्लिशिंग हाउस’ की मुख्य कार्यकारी अधिकारी के रूप में कार्यरत हैं। साथ ही प्रतिष्ठित हिन्दी साहित्यिक पत्रिका की डिजिटल एडिटर भी हैं।
इससे पूर्व ‘वाणी प्रकाशन ग्रुप’ की एसोसिएट एडिटर के रूप में कार्य कर चुकी हैं।
दि संडे पोस्ट, ईटीवी भारत, एक्सप्रेस टीवी, आदि में विशिष्ठ पदों पर आसीन रहते हुए पत्रकारिता का अनुभव। इनकी कविता ‘नाक’ जो कि चाइल्ड एब्यूज पर आधारित है, अब तक भारत की आठ भाषाओं और बोलियों में अनुवादित हो चुकी है।
आपको प्रख्यात अयोध्या रत्न पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।

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कविताएं

'नमक का ढेर'

घिनौनी गालियों, आवाज़कशी ठहाकों और मज़ाक का
एक तमाचा सा मेरे चेहरे पर पड़ा
मैंने सूनी और चकराई सी आँखों से अपने चारों ओर देखा
आख़िर हम चारागाह पहुँच गये
वो भोंडी और कुत्सित मुस्कुराहट से रंगे लोग 
बुरी तरह दूसरों को नीचा दिखाने और
पैरों तले रौंदने के लिये छटपटाते लोग 
चीखते-चिल्लाते और जहरीले हवा में अपना 
अदृश्य मुक्का लहराते लोग
 
मैं बराबर की हैसियत से उनके साथ सम्मिलित हुई थी
बराबर! जरा ठहरो साथियों
उनके बराबर होने की परिभाषा में रक्तरंजित किस्से हैं
 
जब हृदय अन्दर ही अन्दर अपमान की भावना से भर रहा था
तब मैंने पूछा,
क्या तुम्हारी आत्मा एक दम मर गयी है ?
सब खामोश थे और उनकी चुप्पी ही उनकी कुटिलता का जवाब था
नाहक ही अपमान हुआ
अकेले और दुःखी व्यक्ति को परेशान करके 
तुम्हें आनन्द की अनुभूति होती है
सूरज की किरणों में रंजित नमक जैसे बहशी लोग
 
नमक के इस ढेर पर मैं अकेले नहीं खड़ी हूँ
मेरे साथ और मजदूर हैं, उनके पास भी पेट है
उन्हें भी काम करना पड़ता है
मजदूर की अनुभवी आँखें जानती हैं कि वो भी
हमारी तरह मजदूर हैं
पर उनका पेट सिर्फ़ अनाज से नहीं भरता
मैं लौट रही हूँ…
तीखी भावना से कुलबुलाता मन लेकर
मैं अब अधिक स्वस्थ चित्त हूँ
इतना कि अब उनसे अनगिनत बार बात कर सकती हूँ
 
 
– शोभा अक्षर

'फुसलाने वाले'

एक अहंकारी दूसरे अहंकारी को
बड़ा बना रहा है
एक अहंकारी दूसरे अहंकारी को 
महान मानता है
दोनों के शरीर की भाषा,
जिसे अंग्रेजी में बॉडी लैंग्वेज कहते हैं 
उन्हें महा अहंकारी बताती है
विश्व भर में जितने भी ‘परसुएडर्स’ हुए हैं, 
सभी महाअहंकारी थे
 
आज के दौर को
परिभाषित करने के लिए
कितना सटीक शब्द है
 ‘फुसलाने वाले’
‘फुसलाने वाले’ भ्रम पैदा करते हैं
भ्रम, नाना प्रकार के बुखारों को
बढ़ाने का काम करता है
जिसका नतीजा बेहद घातक तौर पर 
सामने आता है
 
 
ये ‘फुसलाने वाले’ हमारे आस-पास चौतरफा मौजूद हैं
जितने भी बड़े ‘फुसलाने’ वाले हैं,
सभी अहंकारी हैं 
अहंकारी लोग एकजुट होकर काम करते हैं
एक-दूसरे से चाहे कितनी भी रंजिश रखें
पर एक दूसरे की तारीफ़ करते नहीं अघाते
 
फुसलाने वालों को इनके अहंकार से चिन्हित किया जा सकता है
जो जितना बड़ा ‘फुसलाने वाला’ होगा, वह उतना ही बड़ा अहंकारी भी होगा
और जितना बड़ा अहंकारी होगा, भीतरी तल पर उतना ही हीन भी होगा
 
– शोभा अक्षर

'शरीफ आदमी'

अदब और कायदे का यह आदमी
भाषा में नहीं, दृश्यों में सोचता है और कहीं भी मिल सकता है
शरीफ आदमी का लोकप्रिय कथन है, 
‘विकल्पहीनता, 
आदमी को आदमी नहीं रहने देती है।’
उसके पास शरीफ आदमी होने का टिकट भी है
शराफत के टिकट चेकर ने 
कईयों को यह ब्लैक में दी है
उसकी स्कीम भी है,
दो खरीदों और चार फ्री ले जाओ
 
अपनी किसिम-किसिम की बातों से वह श्रोताओं को
मंत्र मुग्ध कर देता है
क्योंकि उसकी बातें, मौलिक हैं और स्पष्ट भी
वह अपनी क्षमता से मन मुताबिक दृश्यों को जन्म देता है
शरीफ आदमी, क्लासिक है,
जादुई यथार्थवाद का मालिक भी
स्त्रियाँ उसे इसीलिए पसन्द करती हैं
 
सरल तरीकों से वह स्त्रियों को
ले जाता है 
एक वीरान स्टेशन पर
जहाँ ट्रेन पूरी रफ्तार से चलती है, सरपट जैसे ज़िंदगी 
 
शरीफ आदमी को ट्रेन के भीतर
सर्द माहौल में
ज़िंदा गर्म मांस खाना पसन्द है,
वह खाता है
और पेट भरने के बाद पीता है 
पानी की तरह शराफत
 
 
स्त्रियों को वहीं छोड़ देता है, 
वीरान स्टेशन पर
कुछ दिन बीतने पर ये स्त्रियाँ पीती हैं अपमान के दो घूँट
और ताउम्र के लिए हो जाती हैं मौन
 
शरीफ आदमी व्यवस्था में, 
अपनी भाषा से नहीं बल्कि बिम्ब से
तैयार कर लेता है
शरीफ आदमियों का एक समूह
जो भूखी प्यासी स्त्रियों पर हो रही यातनाओं पर,
भर लेते हैं अपनी आँखों में
आँसुओं की हजार बूँदें
यह बूँदें पूरी तहजीब के साथ
टपकती हैं एक-एक कर
मानो कोई इनकी  गिनती कर
 दर्ज कर रहा हो किसी रिपोर्ट कार्ड पर
 
शरीफ आदमी, भिखारिन की गोद से उसके बच्चे को उठाकर खिलाता भी है
वह हाथ जोड़ कर सभागारों में
अपनी शराफत का दावा भी करता है
वह अपने भाषण में बतलाता है कि
उसका पूरा समूह लीन है एक अलौकिक साधना में
और
शरीफ आदमी की बातों से सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से
गूँज जाता है
 
– शोभा अक्षर

'नाक'

जब वह बारह साल की थी
जून की एक दुपहरी में
उसके ममेरे भाई ने घर पर 
बाथरूम के पास 
ले जाकर दबाये थे 
उसके हल्के उभरे स्तन
और ज़बरन हाथ को
चमड़े के बेल्ट के नीचे
पैंट की चेन के भीतर डाल दिया था
बेल्ट के बक्कल पर
अंग्रेजी का एम बना हुआ था
लम्बी-लम्बी सांसें लेते हुए वो 
पकड़ा रहा था
 बार-बार उसे अपना गुप्तांग
जिसे उसने फुर्ती से बाहर निकाल कर रख दिया था
वैसे ही जैसे सजाए जाते हैं पारदर्शी काँच के भीतर
सर्राफे की दुकान में सोने और चाँदी के जेवर
 
अभी मई में उसने क्लास फिफ्थ का 
फ़ाइनल पेपर दिया था
और थोड़ी देर पहले तक उसे
करसिव राइटिंग में कैपिटल एम लिखना बेहद पसंद था
उसके जीवन में हर रोज़ की तरह 
जब उस दिन भी
आसमान में ढेर सारे हवाई जहाज़ 
जो रफ़ कॉपी के पन्नों से बने हुए 
उड़ रहे थे
उसी वक़्त उस ममेरे भाई की आँखों में हवस,करंट की तरह 
सरपट दौड़ रही थी 
उस रोज किसी खरगोश की तरह झटकते हुए
पूरी ताक़त बटोर कर छुड़ा लिया था उसने अपना हाथ
लेकिन उसकी उँगलियों में एक किस्म की गन्ध अभी बची हुई थी
गन्ध घिनौने लिजलिजेपन में लिपटी हुई
 
वहाँ से तेज़ी से डर कर भागी थी वह
सोचते हुए कि अब तो
 कट जाएगी ‘नाक’
 नाक जिसे उसकी माँ ने चुपचाप
 नानी के कहने पर कई सालों से 
छुपा कर रखा है
एक काले गन्दे सिकुड़े हुए चौकोर कपड़े में गठिया कर
किनारी जिसकी उधड़ी हुई है 
और जिसके एक कोने पर
बना हुआ है सफ़ेद कबूतरों का जोड़ा
इन कबूतरों ने चोंच में पकड़ रखा है
एक-एक तिनका हरे रंग का
 
अब वह थोड़ी बड़ी हो गयी है
और 28 नंबर के साइज की 
सी कप ब्रा पहनती है
एक बार इसी लड़की ने 
अपने सगे भाई को
थप्पड़ मार दिया था
घर के पास एक पुलिस स्टेशन में सबके सामने
 
उसी दिन से उसका
कोई सगा भाई नहीं है
और ये वही लड़की है 
जिसकी वजह से 
अक्सर कट जाती है ‘नाक’
नाक बहुत बड़ी है
कटते-कटते ख़त्म भी नहीं हो रही है 
 
– शोभा अक्षर

'अंदाम'

प्रेम में डूबा हुआ अंदाम
एक कविता लिखना चाहता है
सुंदर शब्दावलियों की झड़ी लगाए बिना
बिल्कुल सादी सरल कविता
सौसन के फूल की तरह
जो हल्के नीले रंग का होता है
 
– शोभा अक्षर

'स्त्री और नीतिग्रन्थ'

किसी सदी के न उत्तरार्द्ध में
 न प्राथमांश में
न ही किसी धर्मग्रन्थ में
इन्हें दर्ज़ होना है ‘नीतिग्रन्थ’ के
 पूरे काल में
इसलिए स्त्रियां, ताउम्र भागती हैं 
रंगों के पीछे
बचाना है इन्हें, 
आने वाली पीढ़ी के आकांक्षाओं के रंग भी
 
अतिक्रमण से और
 परंपरागत परिसीमाओं से
विसंगतियों से, विषमताओं से, 
अनचाहे दुष्परिणामों से
सिसिलेवार वस्तुपरक उल्लेखों से, 
विडंबनाओं से
पितृसत्तात्मक कट्टर खोखले आदर्शवाद की व्यवस्था से
 
अदम्य जिजीविषा से भरी, प्यारी और मनोरम बिम्बों से लैस
ये स्त्रियां, 
प्रेम पाकर रंग जाती हैं इंद्रधनुष के रंग में 
ये नायिकाएं गाती हैं अलौकिक प्रेम धुन 
आदमियत का सहज, बेबाक और बेधड़क निरूपण लगती हैं
ये स्त्रियां
 
स्त्री होने का अर्थ या उनकी सामाजिक भूमिका !
तभी एक आदमी का अंतर्मन पिघलने लगता है
मोम की तरह,
जिसे उसी तापमान पर नहीं पहचाना गया था ?
अब मोम पिघलकर समुद्र का रूप ले चुकी है
और समुद्र जब उफनता है तो किनारे तक 
अपने साथ बहाकर ले जाता है सबकुछ
 
मुझे तो वह कविता पसन्द है
जहां मनुष्य के जैविक तत्व शेष हैं
हंसना, रोना, खेलना, बोलना, और स्त्रियां!
स्त्रियों का होना, विकल्प में? 
स्त्रियाँ मनुष्य तो है न!
यह कथोपकथन अत्यंत विचारोत्तेजक है, 
नीतिग्रन्थ में दर्ज़ होने की जिद यहीं से आती है
 
 
–  शोभा अक्षर

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