Friday, December 20, 2024
नाम :  श्रुति कुशवाहा 
 
जन्म : 13/02/1978  भोपाल, मध्यप्रदेश
 
शिक्षा : पत्रकारिता में स्नातकोत्तर (माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विवि. भोपाल)
 
प्रकाशन: कविता संग्रह “कशमकश” वर्ष 2016, साहित्य अकादमी, मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद, संस्कृति विभाग, भोपाल के सहयोग से प्रकाशित
वागर्थ, कथादेश, कादंबिनी, उद्भावना, परिकथा, समरलोक एवं जनसत्ता, दैनिक भास्कर, पत्रिका, नई दुनिया सहित विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं-कहानियां प्रकाशित 
 
पुरस्कार: कविता संग्रह “कशमकश” को वर्ष- 2016 “वागीश्वरी पुरस्कार” मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा प्राप्त, वर्ष 2007 कादंबिनी युवा कहानी प्रतियोगिता में कहानी पुरस्कृत, पब्लिक रिलेशंस सोसाइटी द्वारा वर्ष 2022 में पत्रकारिता के लिये अचला सम्मान से सम्मानित
 
 
संप्रति : ईटीवी हैदराबाद, सहारा न्यूज़ दिल्ली, लाइव इंडिया मुंबई, सहारा न्यूज़ बंसल न्यूज़ भोपाल, टाइम टुडे आदि न्यूज़ चैनलों के बाद अब गृहनगर भोपाल में स्वतंत्र पत्रकारिता एवं लेखन
 
 ईमेल – [email protected]

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कविताएं

भाषा गणित

कुछ लोगों के पास मखमल की भाषा थी
उन्होंने थोड़ी खादी मिलाकर इसे राजनीति की भाषा बना दी
 
खद्दर की भाषा में बात करते करते
कुछ लोग कुर्सी की भाषा तक जा पहुँचे
कुछ फिर भी निरे सूत से कच्चे थे
उनकी भाषा कच्ची भले हो, सच्ची थी
वहीं कुछ बहुत कोशिशों पर भी नायलॉन ही बने रहे
 
रेशमी भाषा वाली ज़हीन ध्वनियां मद्धम होती गईं
जालीदार भाषा वाले अचानक बढ़ गए
ये जल्द आते और बहुत जल्द छन जाते
कुछ ऊनी भी थे जो बीच बीच में भर जाते ऊष्मा
कुछ भाषाएं हमेशा टाट की तरह रही
उबाऊ लेकिन भरोसेमंद
 
भाषाओं की अपनी बुनावट थी अपने रंग
भाषा केवल शब्द अर्थ नहीं
भाषा की त्वचा भी थी
भाषा का व्यापार भी था
 
ख़बर तो ये भी है कि
भाषा और कपड़ों के विशेषज्ञ एक ही यूनिवर्सिटी में पढ़े थे

चाँद के पैर

चाँद
मैं अरसे से तलाश रही हूँ तुम्हारे पैर
एक बार देखना है
जिसका चेहरा चाँद है
उसके पैर क्या होंगे
 
सदियों से चक्कर काटते
क्या कभी छू जाते होंगे तुम्हारे पैर
पृथ्वी की देह से
क्या कोई स्पर्श का रिश्ता जुड़ता है
धरती और चाँद के बीच
या तुम्हें भी दी है किसी ने नसीहत
रात में पैर मत मारना
नींद में ख़लल पड़ता है
तुम्हें तो रात में चलने की आदत भी है
 
कल्पना करती हूँ
रोशनी से जगमग होंगे तुम्हारे पैर
या फिर मोर की तरह
अपने रंग से एकदम उलट
इसीलिये छिपा रखे हैं
मगर सुनो
सुंदरता तो देखने वाली आँखों में होती है
और धरती कितने मोह से देखती है तुम्हें
 
थोड़ी फटी भी हो एड़ियाँ
या पड़ी हो दरारें
नाखून टेढ़े हों
जम गई हो गर्द
या थक के हो गए हों पत्थर
मैं तुम्हारे पैरों को
अपनी गोद में रख
सहलाना चाहती हूँ
तलुवों में तेल लगाना चाहती हूँ
तुम्हारे पैरों को लोरी सुनाना चाहती हूँ
 
तुम सदियों से चक्कर काट रहे हो
और सिर्फ मुँह दिखा के चले जाते हो
एक बार चलकर आओ मेरे पास
मैं तुम्हारे पाँव पखारना चाहती हूँ मेरे चाँद

झुमका गिरा रे...

बरेली के बाज़ार में झुमका गिराने वाली
इतनी बावरी है सच
 
उस रोज़ रुमाल छोड़ आई रक़ीब के पास
सौदा लेने गई तो छुट्टे छोड़ दिए
दर्ज़ी के पास नाप छोड़ा चलो माना
क्या ही ज़रूरी था खिलखिलाहट छोड़ना
चौक में कैस के पास छोड़ आई चेहरे का थोड़ा गुलाब
हद्द ये कि एक चाय और सरसरी सी मुलाक़ात पर
किसी दफ्तर में छोड़ आई अपना दिल
 
झुमका गिरा तभी सहेलियों ने समझाया
भाभी ने टोका अम्मा ने तरेरी आँखें
यहाँ तक कि पड़ोसन ने भी कसा तंज
ये लच्छन अच्छे नहीं
भरे बाज़ार चीज़ लानी होती है कि लुटानी
हर कहीं कुछ न कुछ छोड़ आने वाली कैसे संभालेगी गिरहस्थी
लड़कियों को तो सहेजना आना चाहिए
होना चाहिए चम्मचों कटोरियों का हिसाब
आख़िर लड़कियों के ही तो पल्लू से तो बंधे हैं सब नाते
और ये दीवानी सरे बाज़ार गिरा आती है झुमका
दीवानी लड़कियाँ खानदान के लिये खतरा होती हैं
 
बात भला बरेली तक ही क्या रहती
आग की तरह दिल्ली जा पहुँची खबर
बल्ली मारां की किसी गली में शोर उठा फिर सन्नाटा पसर गया
ये झुमके चढ़ावे में गए थे
लड़की के ससुराल होते घर ने लौटा दिया रिश्ता
झुमका खोने वाली क्या ही संभालेगी भंडार की चाबियां
जबसे नाउन संदेसा लाई घर भर में मातम है
अम्मा ने सिर पीटा अब्बा खखार रहे बार बार
छोटा भाई फिर निकला है झुमका खोजने बाज़ार
 
इधर छत पर बेपरवाह लड़की गुनगुना रही है
मैंने तुझसे मोहब्बत की है गुलामी नहीं की बलमा
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एक दिन

एक दिन
आसमान से फूल बरसेंगे
और धरती पर गिरने की बजाय
तुम्हारे झोली में समा जाएंगे
तुम्हारी झोली
जो पहले ही भरी होगी
अनाज और उम्मीदों से
 
एक दिन
सारे धर्मगुरु
धर्मस्थलों के अहाते में चलाएंगे स्कूल
जहां बच्चे सिखाएंगे सही तरह बड़ा होना
 
एक दिन
सारे बच्चे
समाज की साझा ज़िम्मेदारी होंगे
सभी अनाथालय गिरा दिए जाएंगे
एक दिन
रात बंद ताले सी न होगी स्त्री के लिए
उसी के पास होगी उसकी सारी चाबियां
 
एक दिन
खामोशियों से पनपे सन्नाटे नहीं होंगे
चुप्पी से उपजे वीराने नहीं
बौने नहीं पैदा होंगे सपने
वक्र नहीं होंगी मुस्कानें
तिर्यक नहीं होगा दृष्टि
सब होगा सही अनुपात में
 
एक दिन हम मनुष्य होना सीख जाएंगे…

हड़ताल

मैं चाहती हूँ
दुनिया की तमाम स्त्रियां
एक दिन की हड़ताल पर चली जाएं
 
माँएं छुट्टी लें महानता के पद से
एक दिन रोते बच्चे को पुरुष के जिम्मे छोड़
अपनी पसंद का उपन्यास पढ़ने बैठ जाएं
चार बार उठे बिना चैन से हो खाना
खाने के बीच साफ न करनी पड़े बच्चे की पॉटी
आधी रात बच्चे के रोने से न टूटे नींद
अलसुबह न उठना हो दूध पिलाने
उस एक रात बचपन की सहेली को बुला
ड्राइंग रूम में सोफे पर फैल
देर रात तक मारे गप्पे
सारी माँएं इस दिन बच्ची बन जाएं
 
प्रेमिकाएं सारे चुम्बन स्थगित कर
अपने बाएं पैर की छिंगली से
प्रेमी के अहंकार को परे झटक
निकल पड़े लॉन्ग ड्राइव पर
लौटकर बताए कि कितना उबाऊ है प्रेमी का लहज़ा
और प्यार का तरीक़ा बोझिल
बताए कि वो आज भी है प्रेमी से बेहतर
और शहर में अब भी हैं कई ख़ूबसूरत नौजवान
आज भी है बारिश कितनी रोमांचक
आज भी है संगीत कितना मोहक
प्रेम करने के लिये और भी अच्छी चीजें हैं दुनिया में
 
पत्नियों को तो हड़ताल के लिए
इतवार ही चुनना होगा
उस दिन वो सोयी रहे देर तक
और उठकर सबसे पहले
घर के सामने लगाए अपनी नेमप्लेट
ये उन्हीं का चुना हुआ नाम हो
जिसे पुकारा जाना सबसे मीठा लगे
फिर अपने घर में इत्मीनान से पसर चाय पिये
इस वाले इतवार पत्नियां पहने
अपनी पसंद का रंग
खाएं अपने स्वाद का खाना
टीवी का रिमोट हो उन्हीं के हाथ
अपनी मर्ज़ी से देखे वो दुनिया
 
हड़ताल वाले दिन
सारी कामकाजी औरतें
दफ़्तर की लॉबी में बैठ ताश खेलें
ज़ोर ज़ोर से करें बातें
उनके कहकहों से गूंज उठे दफ़्तर
उनकी मौजूदगी से भर जाए हर कोना
उस दिन इन्हीं का कब्ज़ा हो
रिसेप्शन, कॉरिडोर, गेस्ट रूम और लिफ़्ट पर
सारे आदमी सीढ़ियों से चढ़े-उतरें
रोज़ उन्हें घूरने वाली नज़रें
जो बचकर निकलने की कोशिश में हो
तभी कोई कोकिला गुनगुना उठे
‘हम हैं मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार की तरह
उठती है हर निगाह खरीदार की तरह’
यूं शर्म से पानी-पानी आदमी के जूते भीग जाए
 
दुनिया की तमाम बेटियां, सहेलियां, सहकर्मी, दोस्त
दादी नानी चाची मामी बुआ भाभी
लेस्बियन स्ट्रेट सिंगल कमिटेड
यह वह ऐसी वैसी अच्छी बुरी
संज्ञा सर्वनाम क्रिया विशेषण
जिस दिन ये सब हड़ताल पर जाएंगी
यक़ीन मानिये
उस दिन सारे पुरुष
स्त्री होना सीख जाएंगे
 
उसी दिन वो पुरुष से मनुष्य में तब्दील होंगे…

श्राप

किसी किसी पर अपनी ही आग में जलने का श्राप होता है
 
ये बारिश में जलते हैं
भीषण जाड़े में
नौतपे से लोहा लेती है इनकी आग
ये जलना यूँ जलना नहीं कि मुक्त हो
बस सुलगते रहना हैं निरंतर
इनकी ही आँच में सिंकता रहता है इनका मन
मुक्तिबोध कहते हैं
“कभी कभी ऐसा भी होता है,
मन अपने को भूनकर खाता है”
ये नरीमन पॉइंट पर समंदर किनारे पीठ कर बैठने वाले लोग हैं
इन्हें डर है इनकी आग से जल न जाए समंदर
 
इनकी आग के लिए कोई कारण नहीं
इनकी आग के लिए सब कारण है
कभी थोड़ा सा प्रेम मिल जाए तो दहक उठते हैं
विछोह में धुंधुआते रहते हैं सिगड़ी की तरह
ये फूल से चोट लगने
पानी से प्यासे रहने
और आग में पनाह पाने वाले लोग हैं
सुख सबसे बड़ा ईंधन है
ये क्षण भर में जला डालते हैं सुख को
 
इनकी आग इन्हें रोशन करती है
कभी कभी कर देती है घुप अंधेरा
और जो मद्धम हो जाए तो ये ख़ुद
अपनी आग को हवा दे देते हैं
आग से दोस्ती ख़तरनाक होती है
इनकी उँगलियों पर अक्सर मिलेंगे छाले
इन्हें पता है आग की जलन क्या होती है
ये अपने घर आने वाले को सबसे पहले देते हैं पानी
 
कुछ लोगों पर श्राप होता है कि वो जीवन भर
एक ऐसी आग में जलते रहें
जिसे कभी नींद नहीं आती
जिसपर कभी छींटे नहीं पड़ते
जो होती है पर दिखती नहीं
ये आग में जलने वाले लोग
पानी में गलने वाले लोग हैं
 
इनका ख़ुद से बैर है आग-पानी की तरह

कामना

मैंने भी चाहा
किसी रोज़ तुम्हारे कांधे पर लिखूँ कविता 
बताऊँ तुम्हारे सीने से लग कैसी तो मादक गंध आती है
तुम्हारी आँखों में दिखते हैं दो द्वीप
होंठों पर होंठ रख देने की कामना जाग उठती है
तुम्हारे होने भर से महक जाती हैं साँसें
देखने से दहक उठता है मन 
 
चाहा नई उपमा दूँ स्पर्श को
मस्तक को कहूँ पर्वत
भुजाओं को सर्प
दर्ज़ करूँ हथेलियों का ताप 
स्त्री देह को सदियों से कविताओं में गढ़
कितने बड़े कवि हुए
कितने महान कवि 
 
मैंने भी स्त्री कामना को शब्द दिए
तभी एक आलोचक बुदबुदाया
…कलंकिनी

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किताबें

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