Thursday, September 18, 2025

संध्या कुलकर्णी भोपाल मध्य प्रदेश में जन्म मूलतः कर्नाटक बंगलुरू से हूँ ।
संप्रति स्थानीय शासन विभाग से एकाउंट्स अफसर के पद से स्वेच्छा निवृति
कविताएँ कहानियां एवं अनुवाद कार्यरत
विभिन्न पत्र पत्रिकाओं ( सदानीरा , नवनीत , कला समय , दुनिया इन दिनों आदि ) और ब्लॉग्स में रचनाएं प्रकाशित
समय समय पर आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर रचनाओं का प्रसारण
एक कविता संग्रह ‘खोज का तर्जुमा’ प्रकाशित एक काव्य संग्रह और अनुवाद पुस्तक प्रकाशनाधीन ।
प्रभात साहित्य परिषद से सरस्वती पुरस्कार तथा सविता अग्निहोत्री स्मृति काव्य पुरस्कार प्राप्त ।

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कविताएं

माई- बाप

मैं  क्या करूं 
कि , शब्द बदल लेते हैं आकृतियां
कुछ भी बोलने  जाओ 
उभर जाती है जीभ
ऐंठने लगती हैं अंतड़ियां
 
लिखा था न्याय और सत्य
खड़ा हो गया बुलडोजर
एन सामने दांत चिरियाये
छोटे बेटे के कपड़ों की पोटली
छत के नीचे दब गई थी
 
देखते देखते कढ़ाई ,तवा ,भगोने
परात , खाने का सामान, निगल गया
बुलडोजर , मुझे भी डाल लेता
दांतों के बीचमें , कुछ उठाने समेटने दौड़ती तो
जिन्हें हमने घर समझा
आशियाना समझा
वो तो बुलडोजर का खाना निकला…
 
अब क्या करूं
किस तरह न्याय का ककहरा
समझाऊं इन्हें कि,
बुलडोजर का मुंह बंद हो 
 
क्योकि , कहीं जाने की
जगह भी तो नहीं मेरे पास
यही मिट्टी , पानी ज़मीन को 
पुश्तेनी माना था मैंने ….
 
हाँ कोई कागज़ भी नहीं है मेरे पास….

एक जादूगर होता

एक जादूगर होता
और बीत जाती ज़िंदगी
 
एक जादूगर होता था
मिटा देता था सारी गलतियों के दाग़
जब भी मार पड़ती तो झेल लेता खुद पर
किसी भी भूत से भी बड़ा भूत
सारे डर भगा देता था
 
कस कर उसका हाथ पकड़े रखते
या डाल देते किसी डिबिया के भीतर
वो एक किताब की तरह था
हमेशा प्रस्तुत रहता
कभी भी बंद कर कहीं फेक दो
कोई नाराज़गी नहीं
कितनी ही बार पुकारता नहीं सुनती
फिर भी वही मुस्कुराहट उसके होंठों पर
 
जाने कब हाथ छुड़ा भाग लिया वो
कितना पुकारा , कितना तड़पे
पलट न पाया वो , एकदम ग़ायब
 
अब कितनी  भी आहत हो जाऊं
कितनी भी चोटिल , कितना भी तलाश करूं
अकेले ही जैसे सब खुद पर गिरानी होती है गाज
सुलगना होता है नितांत अकेले ही
चमकाना है खुद को , दिखना है चमकते हुए
 
कि , काश ! होता एक जादूगर
और बीत जाती ज़िंदगी ….

घर

घर था 
सौंप दिया गया उसे
तस्वीरें भी लगाईं , सजाया भी खूब
रसोई-घर में सबसे ज़्यादा रही
क्रियात्मकता , सम्मोहन और 
अक्सर फरमाइशी आग्रह  हावी रहे
असमंजस हमेशा बना रहा
जितनी भी सुविधा की आमद का हाथ 
कार्य स्थल जाने के लिए स्वागतीय था
उतना उसकेस्वत्व के लिए किए गए कार्य का नहीं रहा
आटे में चुटकी भर नमक सा अधिकार भाव
यूं हर जगह  झोली पसारे खड़ा रहा
शिकवे-शिकायतें एक छोटी सी गांठ में 
बाँध कर रख लिये गए
ताकि सनद रहे …
 
कुछ थोड़ा किराया देकर 
रहने का भाव एक प्रश्नवाचक चिन्ह सा
चेतना  के वरक पर 
पड़ा  रहा ..

आचरण

कितने मजबूर थे वो आचरण में 
संभाली न जाती थी जिव्हा 
तृष्णा में हो जाते थे कृपण
 
हताहत करने के भाव में
लहूलुहान हुए जाते थे
कभी पैरों से
कभी माथे के ऊपर  से
कम हुए जाते थे ..
 
उनके लिए
जहाँ मन में उगना चाहिए था विष
उग आता था मात्र दया भाव…

इच्छाएं

जब भी जाऊं
लौटने की संभावना बची रहे
और बार-बार लौटने की
इच्छा फिर ज़रूरी न हो
 
इस बार पूरी न लौटूँ
कुछ रह जाऊं वहीं पर
बाकी हिस्सा खींचने पर भी
न जाने पाए पूरा वापस
 
कोई लेने आये तो
बदल जाये मेरा आधा सा चेहरा
कह दूं उससे ये कोई और है
फिर कभी आना
 
कि , होने से ही मात्र
नहीं होता होना
रह जाता है  जाने के बाद भी
थोड़ा सा यहीं कहीं रह जाना
 
अदृश्य होना ही है
सबसे ज़्यादा मौजूद रहना..
 
कठिन है चले जाना
उससे भी ज्यादा कठिन
धरती पर कदम टिकाए रहने की
इच्छा रखना ….

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किताबें

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