चर्चित कथाकार कवयित्री पत्रकार अणुशक्ति सिंह पेशे से पत्रकार हैं।कुछ साल पहले उनका उपन्यास शर्मिष्ठा बहुत चर्चित हुआ।बिहार की तेज तर्रार स्त्री विमर्शकार अपने बेबाक विचारों के लिए सोशल मीडिया पर बहुत सक्रिय है।फिलहाल डीएनए ऑनलाइन में पत्रकार हैं।दिल्ली में रहती हैं।अनुवाद में भी प्रवीण और एंकरिंग में भी कुशल।
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कविताएं
अकेली माँओं को मरने की इजाज़त नहीं
किरिबाती(किर्बस) के निवासी
मेरे पुत्र के पिता
प्रेम-रत, प्रेम-पीड़ित स्त्रियाँ
प्रेम और विरह
मार्च क्लोजिंग के इंतज़ार में..
अबोला
जब मैं खो चुकी होऊँगी
दूर जा चुकी होऊँगी
सारे ख़यालों से
किसी फ़िल्मी सीन में
अपने आप को ढूँढ रही होऊँगी
तब क्या तुम्हें मेरी याद आ रही होगी?
कुछ गाने बज रहे होंगे,
कुछ तेज़, कुछ धीमें
तुम भी कुछ गुनगुना रहे होगे
पर मैं नहीं होऊँगी…
तुम्हें सुनने को…
क्या तुम तब भी गुनगुनाओगे?
तत्वमसि
कभी कभी मैं चाहती हूँ ‘तुम’ हो जाना
जब मैं ‘तुम’ बन जाऊँ, तुम ‘मैं’ बन जाना
जब तुम ‘मैं’ बन जाओगे
थोड़े से झक्की भी हो जाओगे
थोडे निर्भीक, थोड़े आशिक़
जब तुम ‘मैं’ बन जाओगे
प्यार करना भी सीख जाओगे।
तब पता है मैं क्या करूँगी?
मैं ‘तुम’ बनकर ख़ुद पर हँसूँगी…
दूर से तुम्हें देखूँगी
और पलट कर खो जाऊँगी,
किसी भीड़ में…
जहाँ मुझे वापस ‘तुम’ न होना पड़े।
मृगया
सखियों ने कहा था मुझसे,
प्रेम को इतना न पगो सखी
यह तो महज़ स्वर्ण मृग है
कनक आवरण में,
रत्नों का श्रृंगार महज़ छलावा है…
विनाशकारी है,
इस मायाजाल के मोह में बंधना
पर हे प्रिय, मैं तो उसी सीता के कण से उत्पादित हूँ
प्रेम के रज से भी प्रेम करने को आतुर
मुझे तो स्वर्ण मृग भी सत्य ही दिखता है…
उस सत्य को पकड़ लेना चाहती हूँ मैं,
उसके आवरण को बिछा देना चाहती हूँ,
तुम्हारे पांवों के नीचे…
ताकि जंगल-जंगल भटके तुम्हारे पाँव,
जब मेरे प्रेम के आवरण पर सुकून पाएं,
मेरी भ्रान्ति को भी स्वर मिल जाए…
बीतना एक भारी दिन का
प्रस्थान का संदूक...
अनहद
वह जिसने पहली बार गढ़ा था,
अनहद शब्द
उसी ने पहली बार एक परिभाषा दी थी,
स्त्री के होने को
स्त्री होना सरल नहीं है,
पर मुश्किल भी तो नहीं।
करना ही क्या है…
अनहद हो जाना है।
नदी से सागर में बदल जाना है
बंटी हुई सारी धाराओं को,
ख़ुद में समेट लेना है…
प्रतीक्षा में
हर रोज़,
कई अलग सी बातें होती हैं
हर रोज़,
कई एक सी बातें भी होती हैं.
जैसे,
मैं अक्सर ही
एकटक निहारती हूँ रास्ते को
ज़ारी रहती है,
मेरी पुरानी प्रतीक्षा
मैं उन रास्तों पर लौट आना चाहती हूँ
जहाँ कभी चली नहीं…
मेरा लौटना स्वाभाविक है.
मेरी प्रतीक्षा भी स्वाभाविक है.
अस्वाभाविक बस मेरी इच्छाएँ है…
जैसी उस पाषाण कन्या की थीं
जो जम्बू द्वीप के आख़िरी छोड़ पर बैठी,
देख रही है राह शिव की, इतिहास के पहले से…
देखती रहेगी, इतिहास के बाद तक…
एकल माँ-बाप के बच्चे
कमिटेड लड़कियाँ
एक सिगरेट का कश,
दो नीट रम का पेग,
वीकेंड पर जमी चौकड़ी,
मोबाइल फ़ोन बिन बैटरी,
आधी रात की शिमला ट्रिप…
दो बूँद दोस्ती की,
काश उन लड़कियों को भी मिल जाती,
जिनके पास कभी थी,
हॉस्टल की आधी रात वाली मैगी,
एक प्लान गोआ जाने का,
कुछ सपने आज़ाद चिड़िया कहलाने के,
उन ही कमिटेड-डेडिकेटेड लड़कियों को,
जो आज बोयफ़्रेंड की बाट जोहती हैं,
हसबैंड की शर्ट का बटन टाँकती हैं,
संडे को ग्रोसरी ख़रीदने जाती है,
जिसकी अब कोई सहेली नहीं है…
जिसके पास हैं दस काम,
सौ बहाने, न मिल पाने के
कहीं से उधार मिल जाती,
वही पुरानी बेबाक़ी,
थोड़ा सा फक्कड़पना,
कुछ आज़ाद साँसें,
विद और विदाउट कमिटमेंट
चालू औरत
मेरा देखना...
तेरहवीं मंजिल से नीचे देखता हूँ मैं
दिखती है सड़क
और
किनारे बैठे लोग.
पैदल पार पथ के उस तरफ
एक बुढ़िया बैठी है.
फलों की उसकी टोकरी,
इतनी ऊंचाई से रंगों की दुकान लग रही है.
जिसका सारा रंग बिखर गया है,
उसके साथ की छोटी बच्ची के फ्रॉक पर.
वह शायद उसकी नातिन होगी,
या फ़िर पोती.
जो बार-बार झपट्टा मार रही है,
टोकरी के फलों पर.
मगर हर बार उसके हाथ के फल,
वापस ले लिए जाते हैं.
देखते-देखते मेरा हाथ मेरी जेब पर चला जाता है
मेरी जेब में रेज़गारियों की खनक है.
मैं सोचता हूँ,
उतरते हुए कुछ फल खरीदूंगा,
उसमें से थोड़े उस बच्ची को दूंगा.
शाम के धुंधलके में मैं नीचे उतरता हूँ
चलते वक़्त मेरी जेब की खनक मेरे कानों तक आती है
मगर नज़रें सिर्फ रास्ता देखती हैं.
मुझे न फलवाली दिखती है,
न ही उसके साथ की बच्ची.
मैं कराह उठता हूँ,
खुद को दिये धोखे से.
मैं सोचता हूँ,
क्या अब भी वह बच्ची तेरहवीं मंजिल से दिख रही होगी…
मित्र-पत्नी
ऑफिस-बॉय
जब भी वह मुझे ‘यस सर’ कहता है,
मेरा सीना फूल जाता है.
सुबह जब मैं उसकी बनायी चाय को
वापस लौटाता हूँ.
मैं रोमांचित हो उठता हूँ.
मुझे याद आती है बीती शाम,
जब मैं बॉस के केबिन से,
टका सा मुंह लेकर लौटा था…
मैंने झपटे में देखा था
वह ऑफिस बॉय मुस्कुरा रहा था.
मुझे याद आता है,
मैं भी तो हुक्म चलाने के क़ाबिल हूँ.
मैं उसे तीखी, नमकीन, मीठी चाय बनाने को कहता हूँ.
वह हतप्रभ मुझे देखता है…
मैं कहता हूँ ‘गेट लॉस्ट’
वह मुंह लटका कर चला जाता है.
मैं संतोष से भर जाता हूँ.
घर से लौटना
माँ पकड़ाती है मुझे
ठेकुए और मठरी का डब्बा
और पिताजी देते हैं
स्नेह का आलिंगन
मैं माँ से डब्बा लेते वक्त
देखता हूँ
उसकी उंगलियों की पोर को
जो हो चली हैं
आगे से थोड़ी खुरदरी
शायद सालों पहले
हुई थी उसकी आखिरी देखभाल
पिताजी से आलिंगन लेते वक़्त
मैं महसूस करता हूँ
बिछड़ जाने का दुःख
मैं रो उठता हूँ, अंतर्मन में
मैं फ़ैसला लेता हूँ
अब इस बार
अकेला नहीं जाऊँगा
इस ख़याल के साथ ही
मुझे आता है एक और ख़याल
दो कमरों के मकान में
कहाँ किसको रख पाऊँगा
मेरी निजता का क्या होगा
क्या होगा आधुनिक सज्जा का
क्या माँ की सूती साड़ी
पिताजी का पुराना पानदान
उसमें खप पायेगा
सप्ताहांत की छुट्टियाँ
यूँ ही बर्बाद हो जाया करेंगी
मैं अंदर तक डर जाता हूँ
भूल जाता हूँ
जो भी कुछ पल पहले सोचा था
उठाता हूँ मठरी का डब्बा
और पिता के आलिंगन से
निकल पड़ता हूँ
मेरी मंथर गति त्वरित हो जाती है
मैं वापस आ जाना चाहता हूँ
अकेला, निरा अकेला
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कहानी
ओडोनिल की एकदम मद्धिम पड़ चुकी ख़ुशबू, टिपिर टिपिर चूता वाश बेसिन का नलका, खिड़की के दूसरी तरफ़ रखा मोतिये के फूलों का गमला।
‘बाथरूम के बाहर वाली खिड़की पर गमला रखना मुनासिब नहीं। कैसे पानी डाला जाएगा, कौन देखभाल करेगा। यह खिड़की तो बंद रहा करेगी।’ माली ने फ़रमाइशी गमला बाथरूम के बाहर वाली खिड़की पर रख तो दिया पर हतप्रभता बरक़रार थी। दूर वाले हाइवे के सन्नाटे की ओर खुलती इस खिड़की को बंद रखना रौशनी को आने से रोकना था। खिड़की के बाहर थोड़ी भीत निकली हुई थी। मोतिये के गमले के लिए वह जगह मुफ़ीद थी। लोहे की जाली से छनकर रौशनी आती और सफ़ेद फूलों के खिलने के उजास दिनों में ख़ुशबू के झोंके भी।
उजास भरे फूलों की गंध इतनी तीखी थी कि सुगंधित साबुन और शैंपू भी फ़ीके पड़ जाते, रूम-फ़्रेशनर्स की बिसात क्या थी। ऐसे ही दिनों में, एक दिन नहाने के लिए कपड़े उतारते हुए फूलों की गंध एक ख़ास गंध से दब गयी।
—
‘तुम्हें पता है हर इत्तर हर बदन पर ख़ास असर करता है’ पर्फ़्यूम के सैम्पल टेस्ट करते हुए वह उसकी कान में बुदबुदाया था।
‘ऐसा क्या?’
सुनकर उसकी खिंची-खिंची फालसई आँखें चमकी थीं। नथुनों में नशा भर गया था। वह बताते-बताते थोड़ा क़रीब आ गया था।
‘कोई तुम्हारी गंध बोतल में नहीं उतार सकता?’
वह मुस्कुराया था, आँखों की पलकों ने सबके सामने की गयी इस बेनियाज़ ग़ुस्ताख हरक़त पर झपक कर डाँटा भी था।
—
‘तुम अपनी यह टीशर्ट रख क्यों नहीं देते।’
‘यहीं? फिर पहन कर क्या जाऊँगा?’
‘दूसरी पहन जाओ।’
‘पर तुम करोगी क्या इसका?’
‘कुछ भी… जो भी दिल करेगा।’
आँखों की पलकों ने फिर हरक़त की थी। ख़ूब फैल कर लड़की की उल्टी-सीधी बातों पर चौंकने की कोशिश की।
‘सुनो, पूरे दिन पसीने में तर-बतर होती रही टीशर्ट, धुलवा लेना उसे।’ लड़के ने ताक़ीद की।
लड़की के कानों ने सुनकर अनसुना कर दिया।
रोज़ नहाने के बाद वह टीशर्ट बाहर निकलती। उसे पहना जाता, फिर तह लगाकर रख दिया जाता।
—
दोनों प्रेम में थे। प्रेम के कोमल पलों में एक-दूसरे के ऊपर पिघलते रहते। एक दूसरे के ऊपर पिघलना, एक दूसरे की गंध में सराबोर होना भी था।
गड्ड-मड्ड से होते दो रंग ज्यों फैल गये हों कैनवस पर। एक देह की महक उतरती दूसरी पर। भौतिकी की कक्षाओं में बताया गया था, मूल रंग तो तीन ही होते, लाल, हरा और नीला। बाक़ी सब रंग तो इन तीन रंगों से मिलकर बने हैं। गाहे-बगाहे उसे ख़याल आता, इन दो देहों की गंध को मिलाकर जो गंध तैयारी होगी, उसकी ताब कैसी होगी? और उसे रंग दिया गया तो वह रंग कैसा होगा?
प्रेम के गहन क्षणों के बाद, गिर आये बालों को हटाते हुए, काँधे और उरोजों के बीच की सख़्ती पर नम होंठ धरते हुए उसने कहा था, ‘तुम महकती रहती हो, मालूम है तुम्हें?’
कैसी महक?
ख़ुश्बू सी… ख़ुशबू उट्ठे… उसके होंठ अब कान की लौ को चूमने लगे थे।
वह ख़यालों में खो गयी थी। धूप और धुएँ से भरे ख़याल, जैसे किसी ने अभी-अभी गुग्गुल और कपूर को चंदन की छीलन पर धरकर सुलगा दिया हो।
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गीज़र के झरर्रर्र, नलके के टिप-टिप के बीच बाथरूम टूल पर बैठी हुई वह अलसायी जा रही थी। नहाने का मन नहीं हो रहा था। पानी से भरी बाल्टी में एक बूँद टप से गिरती, भँवर जैसा कुछ पैदा होता। बूँदों के गिरने, भँवर में खो जाने की यह प्रक्रिया सम्मोहक थी। एक नज़र मोतिये पर गयी। कुछ कविता की पंक्तियों सा उभरा मन में। ख़ुद से अलग सी गंध आयी। घड़ी भर पहले के वे सुकोमल पल याद आये। नहाने का मन ना हुआ। आत्म-गंध में लीन वह बाहर आ गयी। तैयार होने के क्रम में परफ़्यूम को छुट्टी दे दी गयी थी। ठिठकता हुआ सा ख़याल आया, जो किसी ने जिस्म से आती मर्दानी गंध का पता पूछ लिया तो। वह क्या कहेगी?
अहा! मिल तो गया जवाब… यह इश्क़ की ख़ुशबू है। दो गंधों का अनुपम मेल। छन-मन, छन-मन, छुन-छुन, किसी ने अंतस के किसी कोने में झाँझर बजायी थी।
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वे झाँझरों के बजने के दिन थे जब अचानक ही अंदाज़ा हुआ मोतिये के पौधे पर उजास भरे फूल कम हो रहे थे। हरे-भरे पत्तों के बीच की एकरूपता खो गयी थी। धूसर जाले, सफ़ेद अधखिल कलियों के मध्य हरा-पीला सा जीव रेंग रहा था। मन कसैला हो गया। आज बाथरूम में मोतिये की महक कुछ कम थी। ओडोनिल की तीखी ख़ुशबू कुछ अधिक ही महसूस हो रही थी। उसका मन कसमसाने लगा। बिन नहाये ही वह बाहर चली आयी… ठीक उसी दिन की तरह। ख़ुद को सूंघ कर देखा। इस गंध में वह अनोखापन नहीं था। वह टीशर्ट जो महीनों से नहीं धोयी गयी थी, एक बार फिर से पहनी गयी। उसने भी निराश किया। उस टीशर्ट की वह ख़ास गंध खो गयी थी। उसे अब नेफ्थलीन के बॉल्ज़ ने अपनी गदबदाती गंध से अतिक्रमित कर लिया था। झाँझरो ने बजना बंद कर दिया था। या फिर उसमें कुछ ख़राबी आ गयी थी। शीशे के छनक कर टूटने की आवाज़ कहाँ से आयी थी?
—
‘क्या हम प्यार करते-करते ऊब जाएँगे?’
फालसई आँखों वाली ने किसी कातर क्षण में सवाल किया था।
‘तुम कहो ना मरून आइज़?’
उसने लाल-कत्थी आँखों वाली के बालों में उँगलियाँ फिराते हुए पलट कर पूछ लिया था।
‘मुझे इस प्रेम से बाहर नहीं होना।’
‘मुझे भी नहीं। यूँ भी बोरियत तो तब होती जब सब एकसार होता। हम तो रोज़ नये होते हैं।’ उँगलियाँ फिराते हुए लड़के ने जवाब दिया था।
लड़की ने उँगलियाँ बालों से निकाल कर चूम ली थी।
उन मर्दानी उँगलियों के आधे फुट से कम के इस सफ़र में उँगलियाँ एक ही बार गंध ग्राह्यता के छिद्रों के पास से गुज़री थीं। उसने सच कहा था। यह गंध अलग थी। रोज़ अलग गंध। क्या अनुपात ऊपर नीचे होने से भी तीसरी गंध बदल-बदल जाती है। जैसे कि रंग की मात्रा ऊँच-नीच होने पर बनने वाली तीसरी रंग की सूरत बदल जाती है?
ऊँह! कितना सारा विज्ञान। उसने इतना सोचने को जाने दिया था।
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अरसा बीत गया था। जो बीता वह मुश्क़िल वक़्त था। वह ख़ास टीशर्ट अनधुले कपड़े के बोझ के नीचे कहीं दब गयी थी। बाथरूम के बाहर की खिड़की पर रखा उजास फूलों वाला गमला अब बस नन्हा सा ठूँठ सम्भाले हुआ था।
कुछ बातें बिसरी हुई मान ली गयी थीं। हाइवे पर सन्नाटा था। सन्नाटे को हर तीसरे-चौथे मिनट पर मीठेपन की अधिकता लिए हुए एक तीखा शोर चीरता था। वह शोर ढलकती साँसों की गवाही देता। इश्क़ की मियाद भी पूरी हो रही थी। फालसई आँखों वाली शीशे में अक्स निहारना भूल-भूल जा रही थी। एक दिन चेहरा धोते हुए ग़लती से नज़र आँखों पर गयी थी। रंग कुछ कम गहरा था। उन्हीं दिनों मोतिये के सूखते पौधे पर भी नज़र गयी थी।
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मुश्क़िल वक़्त को क़िस्सों में आपदा कहकर दर्ज किया गया था। इश्क़ की कई कहानियाँ डूबती साँसों के बीच ख़त्म हो गयी थीं। दुकानों के शटर गिरे हुए थे। रोड पर लोग नहीं थे, फिर भी अफ़रा-तफ़री थी। यह सदियों में पहली बार हो रहा था। बिना भीड़ के सब अस्त-व्यस्त था। प्यार की क़ीमत खुल कर लगाई जा रही थी। हर साँस को फेफड़े की सलामती से आंका जाता था। इन्हीं बिगड़ते फेफड़े वाले दिनों में लड़की को लगा जैसे उसकी नाक बिगड़ रही है। अचानक ही उसने गंधों को महसूसना बंद कर दिया था। गंध जाना डर की निशानी थी। ख़राब फेफड़े वाले कई लोगों ने पहले गंध जाने की शिक़ायत की थी।
गंध का जाना कहीं ना कहीं संक्रमण का आना था।
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कई टेस्ट हुए। सलामती का प्रमाणपत्र मिला। लोगों ने बधाई देनी शुरू की। डूबती साँसों के दौर में, घोर संक्रमण के काल में, उसका संक्रमण स्तर मामूली से भी मामूली था। वह नेगेटिव थी। हालाँकि गंध अब भी नहीं मिल रही थी। उस मर्दाने गंध की याद बेचैनी भर रही थी। शब ओ रोज़ इस बेक़रारी में गुज़रने लगे कि बस कहीं से वह गंध वापस आ जाए। खोने का अहसास तमाम अहसासात में सबसे कठोर/क्रूर है। बचपन में एक गुड़िया गुमी थी, एक सत्रह रुपए की कलम भी। उम्र की रवानी पर कपड़े, पैसे, फ़ोन, ना जाने क्या-क्या खोये थे। इतना सब खोने का असर केवल एक दिन रहा था। लोप हुई गंध हर रोज़ ज़िंदगी छीन रही थी, साँसें मुकम्मल थीं जबकि…
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गंध की तलाश हर जगह जारी थी। रसोई की छनर-मनर में। अलमारी में रखे काग़ज़ों के पुलिंदे में। विदेशी पर्फ़्यूम वाले ताखे में। कूड़े के डब्बे में… हर कोशिश नाक़ाम रही थी। वह नेगेटिव थी बस गंध ढूँढ़ रही थी। एक दिन धोने के लिए कपड़ों का पुलिंदा उठाया गया। अचानक से एक सीली सी गंध आयी। कपड़ों के गट्ठर के नीचे वह टीशर्ट रखी थी जिसकी मर्दानी ख़ुशबू ने इश्क़ के दिनों को ज़िंदा रखा था। सीली गंध वाली टीशर्ट वहीं छोड़कर वह रिपोर्ट देखने भागी। उसकी आँखें प्रेम लफ़्ज़ ढूँढ़ना चाह रही थीं। वह नेगेटिव थी। मुहब्बत का सूचकांक भी अचानक से माइनस की ओर बढ़ गया था। नो स्मेल, येट नेगेटिव … इश्क़याई गंध! यह कोई पहेली तो नहीं।
टीशर्ट की सीली गंध नथुनों में भर रही थी, आँखे महीनों पहले लिखे गये प्रीत के आख़िरी संवाद को हज़ारवीं बार वापस देख रही थी। क्या किसी लहर की गुंजाइश है…
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