Wednesday, December 4, 2024

जन्म: १९६० कलकत्ता ।हिंदी में कलकत्ता विश्वविद्यालय से पीएच डी रघुवीर सहाय पर।

पहली कहानी ’आपकी हँसी’ छपी १९९१ के वर्तमान साहित्य के महाविशेषांक में।

दो कहानी संग्रह: कहानी की तलाश में (१९९६), दूसरी कहानी(२०००)

उपन्यास:
1.पहले उपन्यास ‘कलिकथा वाया बाइपास’(१९९८) पर साहित्य अकादमी पुरस्कार(२००१)। अनेक भारतीय भाषाओं के अलावा इटालियन, फ़्रेंच, जर्मन , स्पैनिश भाषाओं में अनूदित।
2. शेष कादंबरी(२००१)। केके बिरला फ़ाउंडेशन का बिहारी सम्मान। बांग्ला, अंग्रेज़ी के अलावा इटालियन में अनूदित
3. कोई बात नहीं (२००४)
4. एक ब्रेक के बाद (२००८)- इटालियन में अनूदित।
5. जानकीदास तेजपाल मैन्शन(२०१५)। अंतरराष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा पुरस्कार।
6. एक सच्ची झूठी गाथा(२०१८)
7. कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए(२०२०, वाणी प्रकाशन) कलिंगा लिटफ़ेस्ट का ‘बुक ऑफ़ द ईयर अवार्ड’(2021), वैली ऑफ़ वर्ड्ज़, देहरादून का अवार्ड (2021).

वेनिस विश्वविद्यालय में एक कोर्स का अध्यापन। भारत एवं विश्व के अनेक विश्वविद्यालयों में ‘कलिकथा वाया बाइपास’ कोर्स में शामिल। फ़्रान्स, जर्मनी, इटली, ब्रिटेन, नॉर्वे, मॉरिशस में अनेक बार पुस्तक मेलों और साहित्यिक सेमिनार में भारत का प्रतिनिधित्व। इटली की सरकार द्वारा ‘ऑर्डर ऑफ़ द स्टार ऑफ़ इटली- कैवेलियर’ का सम्मान प्राप्त।

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एक पेड़ की मौत

कहानियाँ कई बार शीर्षक लगाकर ही पैदा होती हैं और चूँकि यह एक ऐसी ही कहानी है, इसके साथ यह खतरा जुड़ा हुआ है कि आप समझ लें कि आप इसे पहले ही भाँप सकते हैं और खारिज कर दें । यों भी पेड़–और वह भी कलकत्ता जैसे महानगर में–तो मरते ही रहते हैं और किसे पड़ी है कि यहाँ–वहाँ सड़कों पर पेड़ों तले टूटे–फूटे बरतन–भाँड़ों के साथ गृहस्थी जमाए मरते–जीते लोगों के शहर में, एक पेड़ की मौत का मातम मनाए  ?
 
लेकिन जिस व्यक्ति से हमने यह कथा सुनी, उसी की शैली में हम आपको कथा सुनाने से पहले ही यह बता देना चाहते हैं कि इस पेड़ की मौत में कुछ ऐसा है कि आप चकरा जाएँगे और कथा के अंत में जो सवाल आपसे पूछा जाएगा, उसका उत्तर आप जो भी देंगे, वह न सिर्फ आपको खुद अपने बारे में कुछ जानकारी दे जाएगा, बल्कि आपको इस शक में डाल देगा कि क्या आप पूरी तरह सही हैं  ?
 
जगन्नाथ बाबू हमारे पुराने पड़ोसी हैं और उन्हें कथाएँ–किस्से सुनाने का बेहद शौक है । उनमें खासियत है कि वे हर उम्र और हर किस्म के व्यक्ति को ऐसी कथा सुना सकते हैं कि वह ऊब ही नहीं सकता । शायद उनसे ज्यादा कोई यह बात नहीं जानता कि हर आदमी की पसंद की कहानी अलग होती है और कोई ऐसी कहानी नहीं हो सकती जो सबको पसंद आए ।
 
जगन्नाथ बाबू के पास इतने कहानी–किस्से होना और उससे भी ज्यादा उन्हें सुनाने की ऐसी इच्छा होना–दोनों ही उन्हें जान लेने के बाद कोई अनोखी बातें नहीं हैं । एक तो जगन्नाथ बाबू ने आज तक छ: साल से ज्यादा कभी भी एक जगह नौकरी नहीं की है और पचास के पास पहुँचते–पहुँचते अब तक तीस–चालीस नौकरियाँ बदल चुके हैं । जिंदगी में इस तरह दफ्तर बदलनेवाले लोग एकाध नहीं तो, कम–से–कम दुर्लभ तो होते ही होंगे । जहाँ सारा जमाना इस फिराक में हो कि जैसे–तैसे–कैसे जूते खाकर भी एक जगह टिकने के फायदों को उठाकर जिंदगी को सहा जाए, वहीं जगन्नाथ बाबू का जब सुनो, तभी दफ्तर बदल जाता है । कहते हैं कि शहर में उनका नाम है कि उनके जैसा मुनीम होना मुश्किल है; बड़े–बड़े ऑडिटर और एकाउंटेंट तक उनके आगे फेल हैं–किसी भी कंप्यूटर या कैलकुलेटर से जल्दी वे हिसाब कर सकते हैं और उनके पास अपने ईजाद किए हुए ऐसे–ऐसे फार्मूले हैं कि वे किसी भी गलती को पकड़ने में दो मिनट से ज्यादा समय नहीं लगाते ।
 
जगन्नाथ बाबू बेशक गुणी तो हैं ही कि दफ्तर बदलने में उन्हें दिक्कत न हो, सबसे बड़ी बात यह है कि शादी न करने के कारण उनके पास कोई बीवी भी नहीं, जो आम दुनियावी औरतों की तरह एक जगह टिके पड़े रहने की कायल हो और प्रोविडेंट फंड, ग्रैच्युटी आदि के नुकसान की बातें उन्हें समझा सके । नतीजा यह कि जगन्नाथ बाबू मानो कहानी–किस्से बटोरने के लिए ही दफ्तर–पर–दफ्तर बदलते जाते हैं । कहीं न टिकना जैसे उनका स्वभाव है । न जाने कैसे उन्हें समझ में आ जाता है कि यहाँ काम पूरा हो गया और अब जिंदगी को दूसरे खाँचे में डाल देना है । उन्हें अपनी जिंदगी के सारे टुकड़े अलग–अलग नौकरियों में काटी जिंदगियों की तरह पूरे–पूरे याद हैं और वे अक्सर अपनी बात इसी तरह शुरू करते हैं कि ‘यह उन दिनों की बात है जब मैं फलाँ जगह काम करता था ।’
इसी तरह कलकत्ते में जब दिल की बाइपास सर्जरी करनेवाला पहला–पहला अस्पताल खुला, तभी कंप्यूटरों के बटन दबाती, चमकीली आँखोंवाली तन्वंगी लड़कियों को देखकर ही हमें समझ में आ गया था कि अस्पतालवालों का सौंदर्य–संग्रह–बोध रंग लाएगा । सुना है कि वहाँ बाइपास सर्जरी कराने के लिए कई बार महीने–महीने इंतजार करना पड़ता है क्योंकि अक्सर बहुत लंबी ‘क्यू’ लगी होती है ।
संभवत: कहानी सुनाने की इच्छा भी और–और दूसरी आदतों की तरह रक्त में अपने पूर्वजों से चली आती है–कम–से–कम जगन्नाथ बाबू के साथ तो यही सच है । दरअसल जगन्नाथ बाबू की कहानियों में उनके अपने जीवन की कहानी भी बार–बार चली आती है और उन्हें सुनते–सुनते उनके नजदीक के लोग अब उन बातों को एक फिल्म के हिस्से की तरह देख सकते हैं । जगन्नाथ बाबू के ऐसा कुछ कहते ही सब लोग अपनी–अपनी फिल्में देखने लगते हैं । सबने जगन्नाथ बाबू की बातों से अपनी–अपनी कल्पना में अलग–अलग शक्ल–सूरतों के पात्र अलग–अलग मकानों–इलाकों में बैठा रखे हैं और यह कोई कैसे जान सकता है कि सबकी फिल्म एक–दूसरे से कितनी अलग है–भले ही वह एक ही कहानी के आधार पर बनी हो ।
 
सबकी फिल्मों में जगन्नाथ बाबू के पिता कलकत्ता के श्यामबाजार के इलाके में एक बंद गली–या अंधी गली, जिसके आगे कोई रास्ता नहीं फूटता और वहीं से वापस लौट आना होता है–के अंतिम मकान में एक व्हील–चेयर पर बैठे हुए कहानियाँ बुनते रहते हैं । वे हर आनेवाले को देखकर प्रसन्न होते रहते हैं, जबकि उनकी माँ सिर झुकाए आम की गुठलियाँ सुखाती रहती है । उनकी माँ के चेहरे पर कभी हँसी का लेश भी नहीं रहता । वह एक कड़े चेहरेवाली मर्दाना–सी औरत है, जो अपने संकल्प की बिलकुल पक्की है । अपने जीवन में आ पड़ी दरिद्रता, बीमारी और अपाहिजपन से लड़ने का उसका संकल्प ऐसा दृढ़ है कि वह एक मिनट खाली नहीं बैठती । हर वक्त काम में जुटी रहती है । उसके लिए पति–सेवा– और वह भी एक अपाहिज पति की सेवा–एक ऐसा कर्त्तव्य है जो मानो खुद ईश्वर ने उसके हाथों में थमाया है । उसके पालन में वह एक क्षण का आलस नहीं करती, एक क्षण के लिए भी नहीं थकती और कभी किसी काम में एक क्षण की देर नहीं करती । संभवत:–जैसा कि जगन्नाथ बाबू ने एक बार कहा–अपाहिजपन से जूझनेवाले लोग बहुत बार जिंदगी को एक घोर कर्त्तव्य की तरह ही जी पाते हैं ।
 
जगन्नाथ बाबू की दोनों बड़ी बहनें हर समय नाच–गान के ट्यूशन देने और सिलाई–बुनाई में लगी रहती हैं । इन दोनों कामों से फुरसत मिलने पर वे एक चौकी पर चॉक से हिंदी की सारी वर्णमाला अ, आ, से क्ष, त्र, ज्ञ तक लिखकर–यानी एक प्लेनचेट बनाकर–उस पर एक कटोरी को उलटाकर उस पर अँगुली रखकर न जाने किस–किस की आत्मा का आह्वान करती रहती हैं । उन्हें खासतौर से गाँधीजी की आत्मा को बुलाने का शौक है, हालाँकि उन्हें ठीक समझ नहीं पड़ता कि गाँधीजी की आत्मा कटोरी में इतनी चुप क्यों बैठी रहती है । वह जैसे हमेशा कुछ सोच में डूबी निस्पंद पड़ी रहती है । लेकिन वह महात्मा–यानी एक महान आत्मा–होने के कारण दोनों बहनों को कभी डराती नहीं । उन्हें मालूम है कि वह उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुँचाएगी । एक बार बड़ी बहन ने एक अखबार में कहीें एक लेख देखा था जिसका शीर्षक था–‘गाँधीजी की आत्मा आज रो रही है’ । तब जाकर उन्हें समझ में आया था कि गाँधी की आत्मा चुप क्यों रहती है । उस दिन व्हील–चेयर पर बैठे जगन्नाथ बाबू के पिता ने इसी शीर्षक की एक कहानी बुनी थी ।
 
कई बार आत्माएँ हिंसक होती हैं और वे बुलानेवाले के शरीर में कुछ तकलीफ पैदा कर देती हैं–गला घुटने लगता है, कान सूँ–सूँ करने लगते हैं, आदि–आदि । तब ऐसे मौकों पर आत्मा से हाथ जोड़कर बहुत दीन होकर प्रार्थना करनी पड़ती है कि वह उन्हें माफ कर दे और अपने स्थान पर वापस लौट जाए । कई बार आत्माओं को–खासकर नजदीकी लोगों की आत्माओं को–इतना संसार से मोह हो आता है कि वे वापस जाना नहीं चाहतीं । जगन्नाथ बाबू की बड़ी बहनें ऐसे मौकों पर रो–रोकर माँ का डर दिखाकर इन आत्माओं से लौट जाने की प्रार्थना करती हैं ।
 
हम लोगों की फिल्मों में जगन्नाथ बाबू के परिवार से जुड़े ऐसे और बहुत सारे अद्भुत ब्यौरे हैं, जिन्हें कहने से हमें बचना पड़ेगा क्योंकि कहानी का पहले से लगा शीर्षक फिर हमें याद दिला रहा है कि यह कहानी का मूल कथ्य नहीं है । न कभी जगन्नाथ बाबू के साथ ऐसा हुआ और न कभी व्हील–चेयर पर बैठे–बैठे कहानियाँ बुनते–सुनाते उनके पिता के साथ–कि उन लोगों ने कहानी कुछ सुनानी शुरू की हो और सुना कुछ और गए हों । वे हमेशा ठीक–ठीक कहानी कहनेवाले लोग रहे हैं और उन्हें हमेशा मालूम रहता है कि कहानी कितनी सुनानी है, किस तरह सुनानी है और सबसे बड़ी बात कि कहाँ क्या कहना है और किस तरह कहना है ।
 
 
हाँ, तो जगन्नाथ बाबू इस पिछली नौकरी में पूरे–पूरे छह वर्ष टिके । सब कोई हैरत में थे कि क्या जगन्नाथ बाबू को कोई साँप सूँघ गया है या उन्होंने ही किसी साँप को सूँघ लिया है । अब देखिए, साँप का बिंब भी हमारी कथा में जगन्नाथ बाबू के कारण ही चला आया है । दरअसल जगन्नाथ बाबू की छोटी बहन सर्प–नृत्य में बहुत कुशल थी और कहते हैं कि वह नाचते समय बिलकुल साँप की तरह ही लचीली और गति–थिरकन से युक्त हो जाती थी । ऐसे लगता था कि उसमें किसी नागिन की आत्मा प्रविष्ट हो गई हो । उसने इस नृत्य में न जाने कितने पुरस्कार जीते थे । अंत में यही नृत्य करते–करते एक दिन उसकी एक पसली टूटकर उसके फेंफड़ों में घुस गई और वह स्टेज पर ही मर गई ।
 
बहरहाल, कहने का आशय यह था कि जगन्नाथ बाबू का एक नौकरी में छह साल तक टिक जाना उन्हें जाननेवालों को अचंभे में डालने के लिए बहुत था और सब समझ सकते थे कि इसका कारण कुछ–न–कुछ अद्भुत ही होगा । क्या जगन्नाथ बाबू किसी स्त्री के प्रेम में पड़ गए थे  ? – सबसे पहले लोगों को ऐसा शुबहा हुआ । आखिरकार स्त्रियाँ दफ्तरों में खिले हुए कमल के फूलों की तरह होती हैं जिन पर पुरुष भँवरों की तरह मँडराने के लिए मजबूर होते हैं । अभी हाल में कलकत्ते में बैंक ऑफ अमेरिका ने अपनी शाखा खोली है और वहाँ कटे हुए छोटे–छोटे झूलते रेशमी बालोंवाली लड़कियों को देखकर ऐसा लग ही रहा था कि कलकत्तेवालों के सारे खाते यहीं खुल जाएँगे कि दो बड़े पुराने विदेशी बैंकों के अपना कार्यालय बंद करने की घोषणा अखबार में आ गई । इसी तरह कलकत्ते में जब दिल की बाइपास सर्जरी करनेवाला पहला–पहला अस्पताल खुला, तभी कंप्यूटरों के बटन दबाती, चमकीली आँखोंवाली तन्वंगी लड़कियों को देखकर ही हमें समझ में आ गया था कि अस्पतालवालों का सौंदर्य–संग्रह–बोध रंग लाएगा । सुना है कि वहाँ बाइपास सर्जरी कराने के लिए कई बार महीने–महीने इंतजार करना पड़ता है क्योंकि अक्सर बहुत लंबी ‘क्यू’ लगी होती है ।
 
जगन्नाथ बाबू के एक दफ्तर में टिके होने का कारण किसी सुंदरी की उपस्थिति होना इसलिए भी समझ में आ रहा था क्योंकि जगन्नाथ बाबू का यह दफ्तर एक ‘पॉश’ इलाके की एक बहुमंजिली इमारत के नौवें तल्ले पर था और वहाँ ऐसे किसी आकर्षण के उपस्थित होने की संभावना आमतौर से कहीं अधिक थी । आखिर पैसे का आकर्षण ही तो सुंदरता के लिए चुंबक का काम करता है । लोगों का यह सोचना कि जगन्नाथ बाबू प्रेम में पड़ गए हैं, और भी पक्का हो चला, जब जगन्नाथ बाबू अचानक चिड़ियों की बातें करने लगे । लोग ‘चिड़ियों’ का अर्थ लड़कियाँ लगाते और जगन्नाथ बाबू की बातों पर बड़ी भेद–भरी मुसकराहट लिये मुसकराते । खासकर जगन्नाथ बाबू एक लाल चोंचवाली पीली–काली चिड़िया की जब बातें करते, जो ‘क्या कहूँ’ ‘क्या कहूँ’ बोलती है, तब लोगों के लिए हँसी दबाना मुश्किल हो जाता ।
 
जगन्नाथ बाबू के व्यक्तित्व में कुछ ऐसा तत्त्व था कि लोग उनकी ओर सहज आकर्षित होते थे । शायद यह जिंदगी को एक कहानी की तरह देख पाने से अन्तस् से उपजी प्रसन्नता ही होगी जिसकी तरफ आदमी खिंचे बिना नहीं रहता था । जगन्नाथ बाबू को कभी किसी ने दुखी नहीं देखा था–यहाँ तक कि अपने अपाहिज पिता, आम की गुठलियाँ सुखाती माँ और स्टेज पर मर जानेवाली बहन की बातें भी वे इस तरह बताते थे जैसे जीवन को रहस्य की तरह देख पाने के कारण भीतर–ही–भीतर बहुत आनंदित हों । अलबत्ता उनकी बड़ी बहन का क्या हुआ, यह बात उन्होंने कभी किसी कहानी में नहीं बताई । उनकी माँ ने विधवा होने के बाद अनाज, नमक और चीनी खाना और चप्पल पहनना छोड़ दिया था । जिस लगन से उन्होंने अपने पति की सेवा की थी, उससे भी अधिक दृढ़ता से उन्होंने अपने कुल की कई सौ साल पहले हुई एक सती–जमुली सती–के प्रचार–प्रसार में अपना जीवन लगा दिया था । वे उनका जुलूस लेकर सैकड़ों मीलों की कई बार पैदल यात्राएँ कर चुकी थीं और उनका यह साध्वी रूप इतना प्रभावशाली था कि जमुली सती दादी की तसवीरें घर–घर में लग गई थीं और उनका मंदिर भव्य से भव्यतर होता चला गया था । एक बार जगन्नाथ बाबू ने ही बताया कि जमुली सती दादी के आदेश से ही उनकी माँ ने अपने इकलौते बेटे–यानी जगन्नाथ बाबू–की शादी न करने की इच्छा को भी सहर्ष स्वीकार कर लिया था ।
 
जगन्नाथ बाबू में छिपी एक विचित्र आकर्षण–शक्ति को जाननेवाले लोगों को इस बात में कोई पोल नहीं लगी कि कोई काली–पीली साड़ी पहननेवाली लड़की इस कदर उनके प्रेम में पड़ गई है कि ‘क्या कहूँ’, ‘क्या कहूँ’ कहती रहती है । लोग भीतर–ही–भीतर बहुत प्रसन्न हुए । कहीं तो इस आदमी के अंदर अकेलापन और उदासी छिपी होगी–क्या ऐसा संभव है कि कोई ऐसा आदमी हो, जिसके अंदर यह सब न हो और वह धरती पर साँस लेता हो  ? चलो, इस उम्र में ही सही, इसने मनुष्य का शरीर धारण कर मिलनेवाली इस अमूल्य वस्तु यानी प्रेम का अनुभव तो किया । क्या पता इसीलिए यह शख्स दफ्तर–दर–दफ्तर भटकता रहा कि इस अनुभव से गुजर सके । जगन्नाथ बाबू ने ही एक बार एक कहानी में बताया था कि प्रेम ही आदमी की एकमात्र ऐसी सच्ची अनुभूति है जिसमें उसका ‘स्व’ किसी दूसरे के सामने विलीन हो जाता है और उसका अहंकार लुप्त हो जाता है । वे अपनी माँ के लिए अपने पिता की मृत्यु के बाद जमुली सती की उपस्थिति की जरूरत के बारे में बताते हुए कह गए थे कि धर्म के सारे नकली कर्मकांड और ताम–झाम किसी सच्ची–मुच्ची के प्रेम–पात्र के न होने पर पैदा होते हैं । आदमी के अंदर ऐसे अनुभव की गहरी चाह कभी मरती नहीं, जहाँ उसका अहंकार मटियामेट हो जाए । और कुछ नहीं होता, तो वह धर्म की शरण में जाता है ।
 
जगन्नाथ बाबू की इस तरह की बातों को सुनकर, उनकी कहानियाँ सुनते हुए लोगों के दिल में एक शूल–सा चुभ जाता था कि क्या जगन्नाथ बाबू अपने जीवन में इस तरह की कमी नहीं महसूस करते  ? क्या वे आदमी मात्र की इस चरम अभीप्सा के परे हैं  ? इसलिए अब लोगों के दिल में उनकी ‘क्या कहूँ’, ‘क्या कहूँ’ कहनेवाली ‘चिड़िया’ के प्रति एक सच्ची सदाशयता जागी और उनके कलेजे ठंडे पड़ गए कि जगन्नाथ बाबू के जीवन की यह अपूर्णता तो मिटी । जगन्नाथ बाबू न जाने लोगों की समझ के बारे में क्या समझ रहे थे । न उन्होंने लोगों की भेद–भरी मुसकराहट पर प्रकट रूप से कोई ध्यान दिया और न अपने तौर–तरीके बदले । वे पूरे उत्साह से दूसरी ‘चिड़ियों’ के बारे में भी लोगों को बताने लगे कि एक लंबी पूँछवाली काली–सफेद–भूरी–मटियाली रंगवाली चिड़िया इस तरह बोलती है जैसे कोई दरवाजा खुल और बंद हो रहा हो; लाल सिरवाली हरी चिड़िया हुड़ुक–हुड़ुक बोलती है और नीली चिड़िया खाली तभी नीली दिखती है जब वह उड़ने के लिए अपने पंख खोलती है ।
 
जगन्नाथ बाबू की इन बातों ने लोगों के दिल को धक्का–सा पहुँचाया । उन्हें यह काली–पीली साड़ीवाली प्रेमिका के प्रति गैर–वफादारी का रुख लगा और उनके दिलों में जगन्नाथ बाबू के प्रति किंचित् रोष भी उत्पन्न हुआ । इधर जगन्नाथ बाबू ने अचानक चिड़ियों की बातें करनी कम कर दीं, जैसे अब उनकी दिलचस्पी कहीं और मुड़ गई हो और पेड़ों की बातें करने लगे । वे गुलमोहर, अमलतास, पलाश, सेमल आदि पेड़ों के नाम इस तरह लेते, जैसे ये सब उनके कितने पुराने बंधुओं के नाम हों । उनकी हर कहानी में घूम–फिरकर कोई–न–कोई पेड़ चला आता । कभी वे बहाने से कहते कि यह उस समय की बात है कि जब पलाश फूल रहा था; कभी कहते कि उम्र बीत चली और अब जाना कि हर पेड़ का पतझड़ और वसंत अलग समय पर होता है । फिर एक दिन अचानक वे सबको भूलकर एक पेड़ की बात करने लगे, जिसका कोई नाम नहीं था ।
 
जगन्नाथ बाबू ने बताया कि उनका वह पेड़, जिस पर वे चिड़ियों को देखा करते हैं, वसंत के मामले में सबसे ढीला है । उसमें तब वसंत आता है, जब और सारे पेड़ों के पत्ते पुराने पड़ जाते हैं । उसका नाम उन्होंने ‘चिड़ियोंवाला पेड़’ रख दिया क्योंकि उन्हें किसी तरह उस पेड़ का नाम पता नहीं चल रहा था । न जाने कैसे उनमें यह परिवर्तन आया कि उन्होंने कहानियाँ तक बुननी–सुनानी छोड़ दीं और दफ्तर के बाद वृक्षों पर लिखी हुई ढेर सारी किताबों को लाकर उनमें मगजमारी करने लगे । लोग हैरान थे कि उन्हें क्या हो गया है । अब जाकर लोगों को मानना ही पड़ा कि जगन्नाथ बाबू की चिड़ियाँ सचमुच की चिड़ियाँ थीं और उनके पेड़ सचमुच के पेड़ हैं ।
 
जगन्नाथ बाबू वृक्षोंवाली किताबों के पन्ने इस कदर उलटते–पलटते रहते, जैसे न जाने किस पन्ने में कोई चीज दबाकर भूल गए हों और उसे ढूँढ़ रहे हों । जब लोगों ने बहुत बार पूछ लिया कि वे क्या खोज रहे हैं, तो जगन्नाथ बाबू ने जैसे मजबूर होकर बताया कि दरअसल वह पेड़, जिस पर सब नीली–पीली–हरी–कत्थई चिड़ियाँ आती हैं, एक विचित्र पेड़ है, जिसका नाम कहीं खोजे से भी नहीं मिल रहा है । वह पेड़ सौ साल पहले अंग्रेजों के द्वारा कलकत्ते में बनाई गई सैकड़ों एक–जैसी पीले रंग की एक–मंजिली कोठियों में से उनके दफ्तर के पिछवाड़े में बनी एक ऐसी ही कोठी में न जाने किसके द्वारा कहाँ से लाकर लगाया गया पेड़ है । इस पेड़ का नाम उन्हें शहर के सबसे जानकार वनस्पति–शास्त्री भी नहीं बता सके हैं । यह पेड़ बहुत पुराना है और ऐसा मालूम होता है कि सब चिड़ियों को पीढ़ी–दर–पीढ़ी इस पेड़ के बारे में मालूम रहता है । इस पेड़ में दूर–दूर से आनेवाली चिड़ियों के लिए जैसे एक आकर्षण है । न जाने कहाँ–कहाँ से यह चिड़ियों को अपनी ओर खींच लेता है और उस पेड़ पर बैठने के लिए ही शायद वे दूर–दूर का सफर तय करती हैं ।
 
जगन्नाथ बाबू की इन बातों से लोग बहुत चकित हुए । चकित ही नहीं, मुग्ध भी हुए । कितनी सुंदर बात है कि कोई ऐसा पेड़ हो, जो पीढ़ी–दर–पीढ़ी चिड़ियों को अपने पास बुला सकता हो । ऐसा पेड़ तो शायद स्वर्ग की कल्पना में ही कभी किसी ने देखा–सोचा हो । असलियत में ऐसा पेड़ हो सकता है, यह तो कल्पना के परे है । लेकिन जगन्नाथ बाबू की कहानियाँ सुननेवाले लोगों में हर तरह के लोग थे, जैसे कि दुनिया में हर जगह हर समय मौजूद रहते हैं । उनमें से कुछ को यह बात नितांत असंभव लगी कि एक भीड़–भाड़वाले शहर में बहुमंजिली इमारतों से घिरे एक पुराने मकान में ऐसा कोई अद्भुत, अनोखा पेड़ मौजूद हो, और जगन्नाथ बाबू के सिवाय किसी और को उसके बारे में पता तक न हो । यदि सचमुच कोई ऐसा पेड़ होता, तो क्या अब तक सारे संसार में यह खबर सुर्खियों में नहीं आ जाती  ? क्या अब तक अमेरिका के वैज्ञानिक हाथ–पर–हाथ धरे बैठे रहते, और इस पेड़ के रहस्य का पता न लगा लेते  ?
 
बाकी लोगों ने सहज रूप से जगन्नाथ बाबू की बातों को सच ही नहीं माना, बल्कि उतनी ही सहजता से उस पेड़ को देखने की इच्छा व्यक्त की । जगन्नाथ बाबू ने तब उन्हें सालिम अली नामक एक चिड़िया–विशेषज्ञ की किताबों में उन नीली–पीली–हरी–कत्थई चिड़ियों की तस्वीरें भी दिखार्इं, जिन्हें वे उस पेड़ पर देखते आ रहे थे । उन्होंने बताया कि अब सालिम अली के सहारे वे न सिर्फ उन चिड़ियों के नाम जान गए हैं, बल्कि उन चिड़ियों को उनकी बोली से भी पहचानने लगे हैं । बिना देखे भी उन्हें पता चल जाता है कि उस पेड़ पर फलाँ चिड़िया आई है । जगन्नाथ बाबू ने सब लोगों को आश्वासन दिया कि एक–एक करके ‘लंच’ के समय उनमें से हरेक व्यक्ति को दफ्तर बुलाकर वह पेड़ दिखा देंगे–अलबत्ता मुश्किल यह रहेगी कि उस बेला में प्राय: चिड़ियाँ दिखाई नहीं पड़तीं । वे अक्सर दोपहर तीन बजे के आसपास आनी शुरू होती हैं ।
 
जगन्नाथ बाबू के ‘पॉश’ इलाके के शानदार दफ्तर में उनके सारे लोग एक–एक करके अपने सबसे अच्छे कपड़े धारण करके पहुँचे और वहाँ उपस्थित शानदार लोगों के बीच अपने–आपको निहायत घटिया महसूस करते हुए वह पेड़ देख आए । लेकिन इस ‘देखा–देखी’ ने उनके और जगन्नाथ बाबू के बीच जैसे कुछ बदल डाला । यों तो जगन्नाथ बाबू के सुदर्शन व्यक्तित्व और आंतरिक प्रसन्नता के कारण उनके सभी साधारण वस्त्र हमेशा असाधारण रूप से शानदार दिखते थे, पर अब उनके दफ्तर में जाकर लोगों के मन में यह भ्रम पैदा हो गया कि जगन्नाथ बाबू ने उन लोगों पर मानो तरस खाकर ही उन्हें अपना मित्र बना रखा है । क्या हैसियत का इतना बड़ा फर्क मन को आच्छादित होने से रोक सकता है  ? लोगों ने पहली बार पाया कि जगन्नाथ बाबू के प्रति उनके हृदय में गाँठ–सी पड़ गई है । इसी गाँठ के चलते लोगों ने पाया कि उन्हें वह पेड़ कलकत्ता शहर के हजारों–लाखों पुराने पेड़ों की तरह एक मामूली पेड़ लगा, जिस पर न उनकी कल्पना के ‘कल्पतरु’ की तरह कोई अद्भुत रंग के फूल खिले थे और न ही उनसे कोई दिव्य सुगंध उठ रही थी । दोपहर के वक्त रंगीन चिड़ियों की जगह एकाध कौवे, गौरैया और मैना जैसी आम और मामूली चिड़ियाँ ही वहाँ बैठी नजर आर्इं ।
 
आश्चर्य को नियोजित करना प्रकृति का शायद एक खेल है, जिसे एक खेल की तरह से न देख सकनेवाले ‘संयोग’ कहकर पुकारते हैं । इसी संयोग से जगन्नाथ बाबू की इस अद्भुत पेड़ की कहानी पर रत्ती–भर भी विश्वास न करनेवाले हमारे ही इलाके के बैरिस्टर निमाईसाधन घोष ठीक तीन बजे जगन्नाथ बाबू के दफ्तर की उसी इमारत की छत पर दरबान को दस रुपए घूस खिलाकर अकेले पहुँचे और उन्होंने अपने साथ ली हुई दूरबीन से न सिर्फ नीली–पीली–हरी–कत्थई चिड़ियाँ देखीं, बल्कि आधे शरीर में जेबरा जैसी धारियों और आधे शरीर में गेरुआ रंगवाली एक शानदार किलंगीवाली चिड़िया भी देख ली ।
 
उस शाम हमारे इलाकेवालों को एक अद्भुत दृश्य दिखाई पड़ा । बैरिस्टर निमाईसाधन घोष जगन्नाथ बाबू के पैरों के पास जमीन पर बैठे थे और किसी तरह उनके बगल में सोफे पर बैठने को तैयार नहीं हो रहे थे । उन्होंने जगन्नाथ बाबू को अपना गुरु घोषित कर दिया था और सालिम अली की किताबों के पन्ने इस कदर धीरे–धीरे पलटकर श्रद्धापूर्वक उस किलंगीवाली चिड़िया को खोज रहे थे, जैसे किसी वेद–उपनिषद के पन्ने उलट रहे हों । अंतत: उन्होंने एक किलकारी–सी मारी और सबको पता चला कि उस चिड़िया का नाम ‘हूपू’ है । इस चिड़िया को आज तक जगन्नाथ बाबू ने भी नहीं देखा था । बाद में किसी विशेषज्ञ से पता चला कि उस चिड़िया का कलकत्ते में दिखाई पड़ना भी अपने–आप में एक आश्चर्य है क्योंकि यह चिड़िया प्राय: अधिक सूखे प्रदेशों में दिखाई पड़ती है ।
 
आगे की कथा पेड़ों, चिड़ियों और अद्भुत किस्सों से दूर जिंदगी के यथार्थ की कथा है । जगन्नाथ बाबू, जो खुद किसी दफ्तर में आज तक इतने बरस नहीं टिके थे, अब एक पेड़ के प्रेम में बँधे हुए उसी दफ्तर में टिके रहना चाहते थे । लेकिन अचानक दफ्तर के मालिक ने उन्हें सारे दिन खिड़की के बाहर देखते रहने के कारण दफ्तर के हिसाब में हुई भूलों के कारण बरखास्त कर दिया । यह तो लोगों को बाद में ही मालूम पड़ा कि जगन्नाथ बाबू को इसके पहले कई बार चेतावनी दी जा चुकी थी । प्रेम का सबसे बड़ा दुर्गुण यह है–जगन्नाथ बाबू ने यह कहानी सुनाते हुए कहा–कि वह व्यक्ति के जीने के ढंग को उलट–पलटकर रख देता है । आदमी अपने पर नियंत्रण खो बैठता है और चकरघिन्नी हो जाता है । उसके संस्कार, उसकी मान्यताएँ, उसकी धारणाएँ और उसकी आदतें–सब रातोंरात हवा हो जाते हैं । ‘‘लेकिन’’–जगन्नाथ बाबू ने एक लंबी साँस छोड़कर कहा–‘‘यह कोई नहीं कह सकता कि यह कोई फायदेवाली बात है या नुकसानवाली । सच तो यह है कि कोई नुकसान सचमुच कोई नुकसान नहीं है और यह फायदे–नुकसानवाली भाषा ही गड़बड़ है ।’’
 
 
यह सब कहने के बावजूद लोगों ने देखा कि जगन्नाथ बाबू उदास रहने लगे । तीन दिन तक दफ्तर के क्रम से निजात पाकर उनके पास काफी समय था कि वे पच्चीसों कहानियाँ बुन लेते, लेकिन वे जैसे किसी गम में घुले जा रहे थे । अंत में उनके शिष्य बने हुए निमाईसाधन वकील बाबू ही उनके काम आए । निमाई बाबू ने उनके घुलने का कारण ढूँढ़ने के क्रम में–क्योंकि उसके बिना जगन्नाथ बाबू का पहले जैसा हो जाना संभव नहीं था–बंगाल के वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र बोस की ‘अव्यक्त’ नाम की पुस्तक प्राप्त की और जगन्नाथ बाबू को उसमें से पढ़कर सुनाया––––वृक्ष क्या कभी बोलते हैं  ? लोग बोलेंगे कि भला यह क्या प्रश्न है  ? लेकिन गाछ मूक भले ही हो, क्या यह निस्पंद है  ? नहीं, यह तो हमारा मूक संगी है जो जीवन के गंभीर मर्म की कथा हमारे लिए भाषाहीन करके लिपिबद्ध कर रहा है । मैंने कभी यों ही बिना सोचे–समझे लिखा था कि वृक्ष–जीवन मानव–जीवन की छाया है, आज देख रहा हूँ कि मेरा वह स्वप्न आज जागरण में भी सच हो गया है–––
 
निमाई बाबू ने देखा कि जगन्नाथ बाबू यह सुनकर कुछ प्रकृतिस्थ हुए हैं और उनकी प्रसन्नता कुछ वापस लौटती–सी लग रही है । निमाई बाबू ने पुस्तक बंद कर दी और कहीं से भी वकील जैसी न लगनेवाली भाषा और स्वर में बोले– ‘‘जगन्नाथ बाबू, बचपन में कहानी सुनी थी कि बुद्ध को एक पीपल के वृक्ष के नीचे निर्वाण प्राप्त हुआ था–तब समझ में नहीं आया था कि इस बात का उस वृक्ष से क्या संबंध है । लेकिन अब सोचता हूँ तो लग रहा है कि हम सभी एक ही अस्तित्व के तो हिस्से हैं–ये वृक्ष ऑक्सीजन छोड़ रहे हैं, तो हम श्वास ले रहे हैं; हम श्वास छोड़ रहे हैं, तो उसी कार्बन–डाइऑक्साइड से ये वृक्ष श्वास ले रहे हैं; और हमारे अंदर वही तो रस है जो इनमें है–जो घास में है–जो फूल में है । आपने हमारे और इनके बीच की लय का अनुभव कर लिया है, जगन्नाथ बाबू  ।’’
 
जगन्नाथ बाबू का चेहरा दमक उठा । न जाने वकील बाबू ने ऐसा क्या कहा और न जाने जगन्नाथ बाबू ने क्या समझा, लेकिन लगा कि जगन्नाथ बाबू अपने में लौट आए हैं । अब निमाई बाबू लगभग एक तीर्थयात्री की तरह जगन्नाथ बाबू को साथ लेकर ठीक तीन बजे दोपहर अपने उसी परिचित दरबान की मारफत उसी दफ्तर की इमारत की छत पर पहुँचे । लेकिन वहाँ जाकर उन दोनों को ऐसा धक्का पहुँचा कि उनकी बोलती बंद हो गई । वहाँ कोई पेड़ ही नहीं था । वह पेड़ इस तरह गायब हो गया था, जैसे वह कभी वहाँ था ही नहीं ।
 
जगन्नाथ बाबू के मन में इस पेड़ की मौत ने एक ऐसा सवाल खड़ा कर दिया, जिसका उत्तर शायद किसी के पास कभी नहीं होगा–क्या वह पेड़ भी उनसे प्रेम करता था और उनके वियोग में देह–त्याग का संकल्प करके उसने तीन दिनों में ही अपने को कटवा दिया  ? क्या वह पेड़ बरसों से–दशकों से किसी का इंतजार कर रहा था  ? चूँकि यह कोई मनगढ़ंत कथा नहीं है, जैसा कि जीवन में सहज विश्वास करनेवाले जान रहे होंगे, निश्चय ही वे भी इस अबूझ प्रश्न से जगन्नाथ बाबू की तरह ही जूझेंगे ।
 
जगन्नाथ बाबू ने उस पेड़ की द्वादशी का श्राद्ध किया । इस संसार में प्रियजनों की मौतें होती हैं तो हमारे यहाँ बारह दिन की बैठकें होती हैं, जिनमें मातमपुरसी करनेवालों की आवभगत, घर की सफाई, पूजा, विधि–विधान और भोजन का प्रबंध करने में सब मशगूल रहते हैं । जगन्नाथ बाबू ने इन बारह दिनों में न कुछ खाया, न पीया । उनकी आँखें एक क्षण के लिए भी सूखी नहीं दिखीं । जगन्नाथ बाबू के साथ के लोगों ने भी मौन रहकर उनके दुख में उनका साथ दिया । सभी जगन्नाथ बाबू के प्रश्न से ही जूझ रहे थे और किसी के पास कोई उत्तर नहीं था । यदि वह पेड़ कटना ही था, तो पिछले छह वर्षों के दो हजार दिनों में क्यों नहीं कटा  ? वह उन्हीं तीन दिनों में क्यों कटा, जब जगन्नाथ बाबू को वहाँ से निकाल दिया गया । क्या वह पेड़ भी जगन्नाथ बाबू को देखा करता था अपने को देखते हुए  ?
 
बहुत सारे लोग इक्कीसवीं सदी के मुँह पर वृक्ष–पूजन जैसी इस तरह की आदिम बातों से कुढ़ सकते हैं । वृक्षों में संवेदना है, यह तो विज्ञान भी मानता है । यह बात और है कि हमें पता नहीं कि वह किस हद तक जीवित और क्रियाशील है । बहरहाल, जगन्नाथ बाबू इन पक्ष–विपक्ष के तर्कों से आगे निकल आए हैं । उनके नए दफ्तर के दो तल्ले से बिलकुल सटा हुआ एक सेमल का वृक्ष है । जगन्नाथ बाबू का मानना है कि वे सारी चिड़ियाँ, जो उस अनाम पेड़ से उसी तरह बँधी हुई थीं जैसे कि वे खुद, अब इसी सेमल के वृक्ष पर उनके बिलकुल नजदीक आती हैं ।

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उपन्यास अंश

उपन्यास अंश 
‘कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए’
(वाणी प्रकाशन २०२०)
 
 
[ ब्लर्ब;डेढ़ चप्पल पहनकर घूमता यह काला, लम्बा, दुबला शख़्स कौन है? हर बात पर वह इतना ख़ुश कैसे दिखता है? उसे भूलने का बटन देनेवाला श्यामा धोबी कहाँ छूट गया? कुलभूषण को कुरेदेंगे, तो इतिहास का विस्फोट होगा और कथा-गल्प -आपबीती-जगबीती के तार निकलते जाएँगे।कुलभूषण पिछली आधी सदी से उजड़ा हुआ है। देश-घर-नाम-जाति तक छूट गया उसका, फिर भी अर्ज़ कर रहा है, माँ-बाप का दिया कुलभूषण जैन नाम दर्ज कीजिए।एक लाइन ऑफ़ कंट्रोल, दो देश, तीन भाषाएँ, पाँच से अधिक दशक.. कुलभूषण ने सब देखा, जिया, समझा है! अपने बड़े भाई के बंगले में ‘केयरटेकर’ की नौकरी करना उसकी उतनी ही मजबूरी है जितनी अपने मोहल्ले में कुलभूषण जैन की जगह गोपाल चंद्र दास बनकर रहने की।]
 
 
अध्याय ७
 
कुलभूषण :कौन कहता है नाम में क्या रखा है?
 
“पसीना और पसीने की गंध”-कुलभूषण  ने रिफ्यूजियों पर किताब लिखनेवाले पत्रकार को कहा-“कलकत्ता में बस कंडक्टरी करने वाले दिनों को याद करता हूँ, तो बस यही याद आता है।” पत्रकार चुपचाप उसका मुँह देखता रहा।बस कंडक्टरी के दिनों के अनुभव पूछने का मक़सद यह था कि उन्नीस सौ अड़सठ का साल कलकत्ता में नक्सल आंदोलन के चरम का साल था।ऐसा हो ही नहीं सकता था कि कलकत्ता के उत्तर में दक्षिणेश्वर काली मंदिर से शहर के बीचोबीच चौरंगी के बस रूट पर उसने कोई कांड न देखा हो।”अरे हाँ, चरमराती हुई, बजती हुई, पुरानी जर्जर बस का काला-काला धुँआ”- कुलभूषण फिर कहने लगा-“रात में घर आकर जब खाँसकर बलगम निकालता, तो वह पूरा काला होता था। कपड़े काले, बाल चिटचिटाते हुए”- कुलभूषण हँसते हुए कह रहा था-“लेकिन काम बुरा नहीं था। परिवार का पेट पाल लेता था।आप तो जानते हैं, उन दिनों बेकारी और हड़तालों का ज़माना था।रोज़ ही बस किसी न किसी नारे लगाते जुलूस में फँस जाती-“गली गली में शोर है, जी.एम. शाह चोर है… देखिए एक नारा भी याद आ गया!”
 
“तो आप भी बेकारी से बचने के लिए कंडक्टर बने?”- पत्रकार ने हँसकर अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरते पूछा।कुलभूषण ने कहा-“वैसे तो रिफ्यूजियों के लिए नौकरियां थीं—कलकत्ता में लोग ख़ासकर रिफ्यूजियों को नौकरी पर रखने के लिए इश्तेहार देते थे।—इश्तिहार में साफ लिखा रहता था कि घर में बच्चों को पढ़ाने वाले टीचर को घर के और सारे काम भी करने होंगे-” बात पूरी करते-करते कुलभूषण के  पत्रकार  खिलखिलाकर हँस पड़ा।उनके दिमाग़ में शर्ट-पैंट पहने, चश्मा लगाए एक भद्र बंगाली का चेहरा उभर आया था, जो बच्चों को पढ़ाने के बाद घर में झाड़ू लगा रहा था।
 
“आपने बताया कि आप दंडकारण्य कैम्प से लौटकर सबसे पहले एक साड़ी प्रिंटिंग कारख़ाने में काम सीखने गये थे।उसका क्या हुआ?”-पत्रकार के सवाल पर कुलभूषण की हँसी ग़ायब हो गई।”होना क्या था? वही हुआ, जो मेरे साथ होता आया है।चोरी करे कोई, भरे कोई।कारख़ाने का मैनेजर एक नंबर का चोर था।उसने प्रिंटिंग के लिए आयी साड़ियों की कई गाँठें चुरा लीं।इल्ज़ाम लगाया मुझ पर।साड़ी पर प्रिंट करवाने वाली कंपनी ने पुलिस भेजी। मुझे चार दिन जेल की हाजत में रखा।कोर्ट में पेशी हुई, तब मुझे छोड़ दिया गया।मैंने कोर्ट में अंग्रेज़ी में बताया कि मैं पूर्व बंगाल के एक धनी घर का रिफ्यूजी हूँ, जो काम सीखकर अपना कारख़ाना खोलने के मक़सद से वहाँ गया था।मेरी बात सुनकर जज क्या और वक़ील क्या, सब हक्केबक्के रह गये।मैंने कहा-साहब शक्ल पर मत जाइए।यह शक्ल आपकी भारत सरकार की दी हुई है, जिसने बिना किसी सुरक्षा की गारंटी के अपने ही लोगों को मारे और लूटे जाने के लिए एक दूसरी सरकार के हवाले कर दिया।” 
 
पत्रकार ने कुछ अचरज के साथ कहा-“आप तो अच्छी अंग्रेज़ी बोल लेते हैं।क्या ईस्ट बंगाल की स्कूलों में अंग्रेज़ी की पढ़ाई अच्छी थी?” कुलभूषण कुछ शरमाकर बोला-“आपको शायद मैंने नहीं बताया कि मैं एक साल नैनीताल की एक बोर्डिंग स्कूल में पढ़ने गया था।वैसे मैंने कोर्ट में यह बात बोलने की प्रैक्टिस चार दिन की जेल में कर ली थी।एक से एक पढ़े-लिखे लोग जेल में मिलते हैं”-कुलभूषण के साथ पत्रकार भी फिर खिलखिलाकर हँस पड़ा। 
 
कुलभूषण चुप होकर पत्रकार को कुछ देर ग़ौर से देखता रहा-“आपको रिफ्यूजियों में इतनी दिलचस्पी कैसे हुई?इधर के बंगाली तो रिफ्यूजियों को खटमल,चूहे या तिलचट्टों से ज़्यादा कुछ नहीं समझते थे।” पत्रकार ने कहा-“सच कहूँ? आपकी तरह मेरी पत्नी भी ईस्ट बंगाल के रिफ्यूजी परिवार से है।उसकी माँ की कहानी सुनते-सुनते मुझे लगा कि मुझे इस पर काम करना चाहिए।जो रिफ्यूजी पिछले पचास सालों में ईस्ट बंगाल से कलकत्ता आए थे, उनकी कहानियाँ क्या हैं? इक्कीसवीं सदी में तो ये कथाएँ सुनानेवाले प्राय: इस दुनिया से जा चुके होंगे।” कुलभूषण मुस्कुराया-“अच्छा! तो अपनी सास की कहानी कहने के लिए यह योजना बनी है?” पत्रकार ने झेंपकर कहा-“शुरुआत वहीं से हुई।वैसे आपको बता दूँ कि जब भी मेरी सास अपने पूर्व बंगाल में बरिसाल के दिनों की बातें करती हैं, वे मानसिक अवसाद में चली जाती हैं।” कुलभूषण ने कहा-“समझ सकता हूँ।चार दिन की जेल में मुझे बहुत से रिफ्यूजी मिले।आश्चर्य की बात थी कि वे लोग प्राय ऊँचे कुल-गोत्र के परिवारों से थे, जिनके पास वहाँ काफ़ी ज़मीन-जायदाद थी।समीर घोष की बात कहूँ? वह अपनी दादी और माँ-बाप के साथ गोद में उन्नीस सौ पचास में कलकत्ता आया था। जब सोने का अंतिम छल्ला भी बिक गया, तो उन्हें अपने परिवार का इतिहास भूलकर पेट भरने के लिए रिफ्यूजी कैंप में जाना पड़ा।कैंप में बहुत सी पार्टियां थीं जो समाज में क्रांति लाने की दावेदार थीं।गुंडों के दल भी थे, जो उनके उद्धार के लिए मौजूद थे।रेल का वैगन तोड़कर चोरी करना, छुरा चलाना, पॉकेटमारी सीखने में आपत्ति न हो, तो पेट भरने का इंतज़ाम तुरंत हो सकता था।जेल जाना पहली बार बहुत बुरा लगता है। बाद में आदत हो जाती है।”
 
पत्रकार ने चौंककर कुलभूषण को देखा-“तो आप भी कई बार जेल घूम आए?” कुलभूषण को अचानक महसूस हुआ कि वह बहुत सी ऐसी बातें बोल गया है जो एक पत्रकार को नहीं बोलनी चाहिए थीं।उसने कहा-“नहीं।मैं सिर्फ़ एक बार झूठे मामले में जेल गया। वही चार दिन। लेकिन मेरे परिवार में किसी को इस बारे में पता नहीं है।आपको अपनी किताब से यह बात हटानी होगी।वरना आप और मैं दोनों मुश्किल में पड़ सकते हैं।” पत्रकार के चेहरे का रंग उड़ गया। बात-बात में हँसनेवाला यह आदमी ख़तरनाक हो सकता है! “बेशक़! बेशक़! आपका नाम इस तरह की किसी केस-हिस्ट्री में कभी नहीं आएगा।आप मुझे कोई भी बात बता सकते हैं। मैं किताब छपने के पहले अपना लिखा हुआ आपको पढ़ाकर ही प्रकाशक को दूँगा।” कुलभूषण मुस्कराया-“आप तो समझ ही सकते हैं।आदमी अपने परिवार का सम्मान अपने मरने के बाद भी बचाना चाहता है। मेरे जेल जाने का घर में किसी को पता नहीं चला, क्योंकि मैं जब-तब घर से कुछ दिनों के लिए ग़ायब होता ही रहता था।मेरे परिवार की इज़्ज़त मुझसे बढ़ने वाली नहीं है।फिर भी उन्हें यह नहीं लगना चाहिए कि मैं कोई आए दिन जेल काटनेवाला शातिर चोर या अपराधी था।”
 
“वह समय सिर्फ़ कलकत्ता में ही उथलपुथल का समय नहीं था”-पत्रकार बोला-“अमेरिका में, पेरिस में सब जगह सड़कों पर लोग उतर रहे थे।उन्नीस सौ अड़सठ में हर जगह विद्यार्थी आंदोलन कर रहे थे। पुलिस की टियर गैस खा रहे थे।बसें जला रहे थे।” कुलभूषण फिर हँस पड़ा और हँसता चला गया।पत्रकार उसका मुँह देखता रहा कि उसने कौन सा चुटकुला सुना दिया है।कुलभूषण अपने को रोककर बोला-“देखिए, दुनिया का तो मुझे मालूम नहीं है।मुझे तो बस अपना समय याद है।मेरा बचपन से ही स्वभाव है कि मैं हर काम को अच्छे से करता हूँ और दूसरे लोगों की भरसक मदद करता हूँ।कहीं लोग बस जला रहे हों और ऐसा करने में मुश्किल हो रही हो, तो मैं उनकी मदद कर दूँगा।मुझे पता है कि वे अपना ग़ुस्सा निकाल रहे हैं। लेकिन मेरा विश्वास कीजिए, मैंने कभी किसी पर ग़ुस्सा नहीं किया। एक बार अपने भाई को रास्ते से हटाने के लिए धक्का ज़रूर दिया था।ऐसा नहीं कि मुझे ग़ुस्सा नहीं आता।पर मेरे पास एक जादू की पुड़िया है।उसे खाते ही मैं ख़ुश हो जाता हूँ।ग़ुस्सा ख़त्म हो जाता है।यह भूल ही जाता हूँ कि किस बात पर ग़ुस्सा आया था।”
 
पत्रकार का चेहरा बदल गया।जैसे सोच रहा हो, अच्छा, तो यह बात है! उसने कुलभूषण को अजीब सी निगाहों से देखा और पूछा-“गाँजा-अफ़ीम की लत आपको कहाँ से कब लगी?” कुलभूषण हँसने लगा-“अरे नहीं भाईसाहब।मुझे ऐसी कोई लत नहीं है।मैं एक अच्छा पति और अच्छा पिता हूँ।इस देश का एक अच्छा नागरिक हूँ।अच्छे परिवार का हूँ। क्या आपको इस बात पर कोई श़क है? मेरी मुश्किल यह है साहब,  कि मेरी ज़िंदगी में दो और दो चार नहीं होते।लोग कहेंगे कि कुलभूषण जैन गोपालचन्द्र दास कैसे हो सकता है? या कि मारवाड़ी होते हुए बस-कंडक्टर कैसे हो सकता है? लोग मेरी कहानी पर यक़ीन नहीं कर पाते। या नहीं करना चाहते।सच मानिए, मुझे ख़ुश रहने के लिए, सारी बातों को भूलने के लिए गाँजा या अफ़ीम की ज़रूरत नहीं पड़ती।”
 
“जी, मुझे यक़ीन है कि आप जो कह रहे  हैं, वह सच है।हर आदमी के अंदर हर हाल में ख़ुश रहने की, किसी भी तरह ज़िंदा रहने की ताक़त नहीं होती, तो हज़ारों लोग रोज आत्महत्या न कर लेते? मेरी जानकारी में रिफ्यूजियों में सुसाइड के केस नहीं के बराबर हैं।-पत्रकार ने कहा।उसकी बातें सुनकर कुलभूषण फिर मुस्कराने लगा।पत्रकार को अब तक उसकी मुस्कराहट से कुछ चिढ़-सी होने लगी थी।”ऐसा है भाई साहब, रिफ्यूजियों को आत्महत्या करने की नौबत ही कम आयी।बहुत से परिवारों में लोग दंगों में मारे गए।कई  बचने के लिए भागकर बॉर्डर तक आने के रास्ते में लूटपाट या तकलीफ़ों से मरे।कई कैंपों में बीमारियों से मरे।आधे पेट खाने से मरे।कई रेल के वैगन तोड़ने या बम फेंकने के दौरान मरे।कई नक्सली बनकर पुलिस की गोली से मरे।जेल में पिटाई से मरे।आत्महत्या करने की नौबत कहाँ से आती?” कुलभूषण ने मुस्कुराते हुए कहा जैसे कि कोई परी-कथा सुना रहा हो।पत्रकार ने बात बदलते हुए कहा-“साड़ी प्रिंटिंग का काम तो आप सीख नहीं पाए? उसके बाद आपने क्या किया? सीधे बस कंडक्टर बन गए?”
 
“जेल से लौटकर मैं घर आया, तो बड़े भाई ने बहुत लानत-मलानत की।उसे पता चल गया था कि मुझे चोरी के श़क में वहाँ से निकाल दिया गया है।बहुत मुश्किल से उसे मैंने यक़ीन दिलाया कि मैंने चोरी नहीं की थी। उसने कह दिया कि वह मेरे लिए अबसे कुछ नहीं करेगा। इस तरह वापस मैं बेकार हो गया।
 “अच्छा, तो फिर बस कंडक्टरी के अलावा कोई रास्ता नहीं था आपके पास?”-पत्रकार ने बात आगे बढ़ायी।”अरे नहीं, तब तक मेरी पत्नी रीमा से मेरा ‘लव’ काफ़ी आगे बढ़ चुका था। हम दोनों ने कालीघाट में एक दूसरे को माला पहनाकर शादी कर ली। उसके पिता के घर नॉर्थ कलकत्ता के तेलीपाड़ा पहुँचे, तो उसके माँ-बाप मुझे ने मेरी बहुत ख़ातिर की। धीरे-धीरे मैं उनके घर का एक हिस्सा बन गया। नीचे से बाल्टियों में पानी भर लाता।घर का सौदा-सुलुफ कर देता।घर में एक जवान आदमी होना बूढ़े-बुढ़िया के लिए वरदान जैसा था।”
 
“तो आप घर जमाई बन गये”-पत्रकार ने हँसकर पूछा।”
-“आप रिफ्यूजियों पर किताब लिख रहे हैं।आपको पता ही होगा, कलकत्ता शहर में जहाँ भी रिफ्यूजी रहने आये, आसपास के लोगों ने उनका बहुत विरोध किया। मेरे ससुर को निकालने के लिए मकानमालिक ने केस तो किया ही, बिजली-पानी बंद कर दिया।नीचे लाल मिर्च जलाकर रोज़ धुँआ करते, जिससे वे लोग खाँसते-खाँसते मर जाएं।आस-पड़ोस के लोग उनके घर में मरे चूहे-छिपकली फेंक देते। उन्हें देखते ही बांगाल-कंगाल का जाप करने लगते।”
 
पत्रकार ने अपना चश्मा नाक पर ऊँचा करते हुए कहा-“थोड़ा तो जानता हूँ।ज़बरदख़ल कॉलोनियों में तो रोज़ मारपीट-गुंडागर्दी आम बात थी।मेरी सास ने पूर्व बंगाल के बरिसाल में रहते हुए घर के अंदर भी कभी सिर से पल्ला नहीं उतारा था।।लेकिन रिफ्यूजी कॉलोनी में वे रोज़ झाँसी की रानी बनकर औरतों का दल बनाकर मकानमालिक के गुंडों से पंगा लेती थीं।।” 
कुलभूषण सिर हिलाता रहा।ये कहानियां तो शहरी रिफ्यूजियों की कहानियां हैं।पत्रकार को क्या मालूम कैंप के रिफ्यूजियों के अपार कष्ट की कहानियाँ? वहाँ रमाकांत की बीवी की तरह वे आधे पेट खटती-खटती घिस जातीं। धूप और धूल से बेरंग हो जातीं।जवान होती लड़कियों के लिए पैसा कमाने के लिए अपने शरीर को बेचने का रास्ता था।रमाकांत की चौदह साल की बेटी तक उस रास्ते पर चल पड़ी थी। 
 
“आपको बताऊँ, मेरी सास को सबसे बड़ा दुख किस बात का था?”-पत्रकार ने पूछा।जाने कौन से बड़े दुख की बात बताने वाला है यह, कुलभूषण ने सोचा।पूर्व बंगाल के ज़मीन्दारों के दुःख रईसी की यादों में हैं; दुकानदारों और व्यापारियों के दुःख हैं मकान-दुकान और ज़मीन में गड़े सोने को नहीं ले आ पाने के।धोबी, नाई, कुम्हार, चमार, खेतिहर मज़दूर-के दुखों की तो कोई बात भी नहीं करता।कितने कालेपानी अंडमान गए, कितने दंडकारण्य के जंगलों में, कितने वहाँ से भागकर सुंदरवन गए और पुलिस की गोलियों से मार गए।औरतों के दुखों की सूची तो अनंत है-कभी ख़त्म नहीं होती।कहीं इज़्ज़त गयी, तो कहीं परिवार छूटकर बेसहारा हुईं।जाने कितनी औरतों का बलात्कार हुआ।सारी लड़ाइयाँ जैसे उसकी देह पर ही लड़ी जाती हैं।तभी पत्रकार बोला-“मेरी सास को सबसे बड़ा दुःख इस बात का है कि अगर वह अपने बंगाल की ज़मीन पर अंतिम साँस लेती, तो चंदन के काठ की चिता पर चढ़कर जाती।जानते हैं न, हज़ार बूटोंवाली मयूर किनारी की टांगाईल साड़ी से सिर पर पल्लू ढके और चाभी के भारी गुच्छे को अाँचल के कोने से पीछे लटकाकर घूमने वाली गृहस्वामिनियों को कैसी मौत मिली? उनकी अस्थियां रेल की पटरियों के पास कूड़े के ढेर में या दंडकारण्य के जंगलों में कहाँ फेंकी गईं, किसी को पता तक नहीं है।” पत्रकार अपनी बात कहकर अपने  काग़ज़ समेटने लगा था।
 
कुलभूषण उसे देखता रहा।अभी तो न जाने कितनी कहानियां वह इस बंदे को और सुना सकता है। लेकिन असली कहानी तो वह इसे बतानेवाला नहीं है।वह कहानी जब-जब कुलभूषण को याद आएगी, वह भूलने का बटन दबा देगा।पत्रकार तभी बोल उठा-“आप चाहें तो अपनी पत्नी के बारे में भी बताएँ।आप पहली बार उनसे सिलाई क्लास के बाहर मिले थे।वे क्या सिलाई करके अपना घर पर चलाती थीं? उनके परिवार में और कौन कमानेवाला था? कोई भाई नहीं था क्या?” उसकी बात सुन कुलभूषण हर बार की तरह मुस्कराया-“मेरी पत्नी रीमा मेरी तरह अपने घर में सबसे छोटी थी।मेरी ही तरह उसकी तरफ़ किसी ने कभी ध्यान नहीं दिया।तेलीपाड़ा के घर में रहते हुए उसका भाई बम बनानेवालों के साथ लग गया।।बाद में उसका कुछ पता नहीं चला।बम बनाते समय मरा या पुलिस की गोली से—कुछ पता नहीं चला।” पत्रकार ने कहा-“ओह! कितना दुखद अंत हुआ होगा। माँ-बाप तो टूट ही गए होंगे?” 
शादी के पहले से ही घर मेरी पत्नी सिलाई-कढ़ाई करके चलाती थी।बड़ाबाज़ार में किसी साड़ी की दुकान में जरी के बेल-बूटे बनाने का काम करती थी।अंधेरे में उठकर खाना-बनाना, झाड़पोंछ, कपड़े धोना वग़ैरह काम कर डालती, जिससे रोशनी रहते सिलाई-कढ़ाई करती रह सके।अंधेरा होने पर बस पकड़कर बड़ाबाज़ार की दुकान में पूरा हुआ काम लौटा देती और अगले दिन का काम ले आती।फिर खाना बनाकर सबको खिलाकर सो जाती।दिन-महीने-साल ऐसे ही गुज़रते रहे।उसका हाथ मैंने जब पहली बार पकड़ा, तो उसकी अंगुलियों में छेद-ही-छेद थे।”
 
पत्रकार में कहा-“हाँ, बहुत सी रिफ्यूजी लड़कियाँ, जो अच्छे परिवारों की थीं,इसी तरह बिनब्याही रह गयीं।।भीड़ भरी बसों में धक्के खातीं-कहीं ऑफिसों में, तो कहीं सेल्सगर्ल बनकर, कहीं टीचर, तो कढ़ाई-बुनाई करके वे अपना परिवार पालती रह गयीं।” कुलभूषण ने कहा-“एक बात किंतु आप भूल गए।।कम्युनिस्ट पार्टी की रैलियों में धूप, धूल, बारिश,ठंड में सड़क पर अपने अधिकारों की माँग करती जुलूस में चलती औरतें भी  ये ही थीं।मेरी पत्नी रीमा सरकार के साथ इन जुलूसों में मैंने भी हिस्सा लिया-“ कुलभूषण फिर हँसने लगा था-
 
“अरे वाह! तो आप सड़कों पर अपनी पत्नी के साथ ‘आमार दावी, मानते हौबे, मानते हौबै’ के नारे लगाते कलकत्ता में रोज़ निकलने वाले जुलूसों में भी घूम रहे थे? इसका मतलब आप पूरी तरह गोपाल चंद्र दास बन गये।आपने अपने कुष्टिया के पड़ोसी का किरदार अपने ऊपर पूरी तरह ओढ़ लिया? कौन मानेगा कि कुलभूषण जैन ने अपने बनिएपन को पूरी तरह छोड़ दिया और सर्वहारा के साथ हो गया!” कुलभूषण की हँसी एक क्षण के लिए एकदम ग़ायब हो गई-“मैंने जब रीमा सरकार को बिना किसी उम्मीद के सुबह से रात तक खटते-मरते देखा तो मुझे लगा कि मैं इस धरती पर किसी एक प्राणी की आँखों का सपना तो बन सकता हूँ।एक जवान, बदसूरत, ग़रीब रिफ्यूजी लड़की के लिए क्या एक पत्नी बनने का, माँ बनने का सुख वर्जित है? पत्रकार ने देखा था कि जब-जब वह अपनी पत्नी का ज़िक्र करता, कुलभूषण की मुस्कान ग़ायब हो जाती थी।
 
“कुलभूषण, आपकी पत्नी की कहानी सुनकर मुझे ऋत्विक घटक की बांग्ला फ़िल्म ‘मेघे ढाका तारा’ की याद आ रही है।इस फ़िल्म की कहानी बहुत दर्दनाक थी—कैसे एक रिफ्यूजी लड़की परिवार को पालती-पालती अंत में टीबी से मर जाती है।उसका प्रेमी उसे छोड़कर उसी की छोटी बहन से संबंध बना लेता है।परिवार के लिए वह लड़की अपनी बलि दे देती है”-पत्रकार ने कहा।कुलभूषण चुपचाप पत्रकार का मुँह ताकता रहा, जैसे फ़िल्म की पूरी कहानी जानना चाह रहा हो।पत्रकार ने कहा-“सिर्फ़ कहानी बताकर किसी फ़िल्म को जाना नहीं जा सकता।पूरी तरह से जानने के लिए, उसके मर्म तक पहुँचने के लिए आपको फ़िल्म देखनी होगी।अंतिम ‘सीन’ में वह लड़की पहाड़ों पर टीबी के सेनेटोरियम में मरते हुए अपने भाई को कहती है-वह मरना नहीं चाहती।वह जीना चाहती है।आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं उस दृश्य को याद करके।”
 
कुलभूषण बोलने लगा ”मेरे बड़े भैया ने एक दिन सुबह-सुबह मुझे चौरंगी-एस्प्लेनेड के बस अड्डे पर आकर पकड़ा।प्राइवेट बस में मेरी ड्यूटी सुबह छह बजे से रात दस बजे तक होती थी।जब चौरंगी से सुबह बस में निकलना होता, तो मुझे रात को बस में ही सोना पड़ता था। बड़े भैया को हमारे चचेरे भाई के लड़के से पता चल गया था कि मैं कंडक्टरी कर रहा हूँ”-
 
पत्रकार ने कहा-“बड़े भैया ने क्या मना कर दिया कंडक्टरी करने से?”कुलभूषण हँसा-“मना कर दिया? भैया सुबह पाँच बजे मुझे खोजते-खोजते बत्तीस नंबर बस पर पहुँच गए। शायद विक्टोरिया मैदान में टहल कर आ रहे थे। उन्होंने सफ़ेद जूते पहन रखे थे।मैं बस अड्डे पर नहा-धोकर अपनी खाकी वर्दी पहनकर तैयार हुआ ही था।दस पैसे वाली टिकटें अपने बैग में लेकर रख ली थीं और पचास रुपये की रेजगारी भी, जैसा कि नियम था।र लड़ाई करने लगते थे।
 
“बड़े भैया मुझे देखकर एक पल के लिए तो खड़े के खड़े रह गए।फिर उन्होंने आगे बढ़कर मुझे दो झापड़ लगाए।मेरा बैग छीनकर ज़मीन पर फेंक दिया। सारी टिकटें और रेज़गारी ज़मीन पर बिखर गई।फिर भैया चिल्ला-चिल्ला कर जूतों से टिकटों को रौंदते हुए मुझे हमारी ख़ानदानी गालियाँ सुनाने लगे।ग़नीमत थी कि सुबह-सुबह पैसेंजर कम थे। तभी मेरी बस का मालिक आया और उसने भैया को ज़ोर से धक्का देकर कहा-“बाबू! इतनी गर्मी यहाँ मत दिखाइए।कोई झगड़ा है तो बाहर जाकर करिए।कंडक्टर से क्या झगड़ा है आपका?” बड़े भैया ने कहा-“मेरा भाई है यह साला।” बस के मालिक ने आश्चर्य से एक बार उन्हें ऊपर से नीचे मॉर्निंग वॉक की सजधज में देखा और फिर मुझे। अब तक भैया रोने लगे थे।
 
उनके आँसू देखकर मुझे होश आया।।बड़े भैया को साथ लेकर मैं बस-अड्डे से बाहर आ गया।भैया फिर मुझे गरम होकर अंटशंट बकने लगे।ख़ानदान की इज्ज़त, माँ-बाप की इज़्ज़त वग़ैरह वग़ैरह।फिर अचानक उन्होंने मुझे कॉलर से पकड़ लिया और मारवाड़ी में कहा-“बीन्न छोड़ दे।” मतलब कि ‘उसे छोड़ दे।’ एक सैकेंड में मुझे समझ में आ गया कि वे मुझे मेरी पत्नी रीमा को छोड़ने के लिए कह रहे हैं।मैंने अपनी कॉलर छुड़ाते हुए उन्हें बांग्ला में जवाब दिया-“संसार छोड़ दूँगा।उसे नहीं छोड़ूंगा।बड़े भाई का फ़र्ज़ निभाने आए हो? तुम तीन-तीन बड़े भाइयों ने क्या किया मेरे लिए? अब मेरे जीवन में जो प्रेम-भालोबाशा है, उसे भी ख़ानदान के नाम पर छीन लेना चाहते हो?” बड़े भैया का मुँह उतर गया,अपनी भर आई आँखों को पोंछते हुए उन्होंने कहा-“अच्छा ठीक है।पर यह काम छोड़ना होगा।तुम ख़ानदान को मानो ना मानो, रहोगे तो हमारे ख़ानदान के ही।मुझसे वादा करो कि कभी यह काम नहीं करोगे।कभी भी कोई तुमसे पूछे कि तुमने बस कंडक्टरी की है क्या, तो तुम एक ही जवाब दोगे कि यह बात एक अफ़वाह है।मैंने उनके आँसुओं की परवाह करते हुए यह वचन दे दिया।” 
 
पत्रकार मुँह बाए पूरा क़िस्सा सुन रहा था।उसने कहा-“आपकी इजाज़त हो तो एक दिन आपके घर आकर आपकी पत्नी का भी इंटरव्यू करना चाहूँगा।” कुलभूषण इस बात पर जैसे ख़ुश होकर  मुस्कराता हुआ उठ खड़ा हुआ-“अच्छा अब चलता हूँ।” दरवाज़े तक जाते हुए उसने कहा-“आप कुलभूषण जैन का नाम दर्ज कीजियेगा।गोपाल चंद्र दास का नहीं।” पत्रकार ने सिर हिलाया।वह पूछने जा रहा था कि कुलभूषण के घर वह कब आ सकता है कि तभी कुलभूषण ने फिर कहा-“आप कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए।” पत्रकार ने फिर सिर हिलाया और कहा-“आपकी पत्नी से बातचीत..।” कुलभूषण मुस्कराया और उसने कहा-“ज़रूर।पर आप कुलभूषण जैन का नाम तो दर्ज कीजिए।” पत्रकार के अंदर ग़ुस्सा उठने लगा था।उसने अपने को रोकते हुए कहा-“बिलकुल।आप चिंता न करें।”  कुलभूषण हँसते हुए बोला-“पत्रकार लोग सुनते कुछ हैं, लिखते कुछ और हैं। इसलिए बार-बार कह रहा हूँ, कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए।” पत्रकार का मन हो रहा था कि वह अपने बाल नोच ले।पर वह किसी तरह अपने पर क़ाबू किए रहा।कुलभूषण दरवाज़े से बाहर निकल गया और घूमकर उसने दरवाज़ा बंद करते हुए जैसे ही मुँह खोला, पत्रकार ने ज़ोर से कहा-“कुलभूषण का नाम दर्ज कर लिया है।कुलभूषण एक पल के लिए बिना हिलेडुले खड़ा रहा।फिर वे दोनों अपनी-अपनी हँसी हँस पड़े।
 
कुलभूषण पत्रकार के घर से निकलकर पैदल चलता रहा।उसने भाई के घर जाने के लिए बस नहीं पकड़ी।चौरंगी से बालीगंज भाई के घर पहुँचने में आधा घंटा-चालीस मिनट लगेंगे।पर उसे लगा कि बस में वह अपने आपसे बात नहीं कर सकेगा।एक भीड़ होती है जो आपको एकदम अकेला कर देती है।यह है राह चलते लोगों की भीड़।कुलभूषण ने देखा है कि रास्ते पर चलते हुए अपने से बात करनेवालों में वह अकेला नहीं है। बहुत से लोग ऐसा करते चलते हैं।उन्हें कोई पागल समझे तो समझे। कुलभूषण को फ़िलहाल पता नहीं है कि अगले बीस साल बाद ऐसा करना फ़ैशन हो जाएगा।लोग अपने कानों में बिना तार का इयरफ़ोन लगाए अपनी पॉकेट में पड़े दिखाई न देते हुए मोबाइल के ज़रिए सड़कों पर हँसते-बोलते-मुँह बनाते-इतराते चलेंगे।न कोई उन्हें बहरा समझेगा और न पागल।अभी मोबाइल फ़ोन शहर में कुछ अमीरों के पास ही आए हैं।बाक़ी के पास उन्हें जल्दी-से-जल्दी ख़रीदने का सपना है।बड़े भैया के छोटे बेटे विनायक के पास पहली बार मोबाइल फ़ोन देखकर कुलभूषण को बहुत आश्चर्य हुआ था।पुलिसवालों को बड़ा सा वॉकी-टॉकी लिए बात करते तो उसने देखा है, पर छोटे से फ़ोन पर चाहे जिससे बात करते विनायक को देख वह हैरान रह गया था।
 
कुलभूषण अपने से बात करता आराम से चलता रहा।नहीं, पत्रकार को वह अपनी सारी कहानियाँ बतानेवाला नहीं है।अपनी पत्नी रीमा सरकार से भी उससे मिलानेवाला नहीं है।इस पत्रकार को उसने जितनी कहानियां सुनाई है, वैसी केस-हिस्ट्री बतानेवाले उसे और कहाँ मिलेंगे? दंडकारण्य कैंप तक पहुँचने वाले रिफ्यूजी कलकत्ते में मुश्किल से एकाध होंगे। जो कहानी उसे पत्रकार से हर हाल में छिपाकर रखनी है, वह है मल्ली यानी मालविका के उस तक पहुँचने की गाथा। अपनी बेटी को उसने कभी रिफ्यूजी नहीं समझा। ना उसने किसी को उसे ऐसा मानने दिया। उसने हमेशा अपना पेट काटकर मालविका को  सबसे अच्छा खाने और पहनने दिया है। इतना ध्यान उसने अपने बेटे प्रशांत का कभी नहीं रखा।शुरू-शुरू में रीमा सरकार के मन में मालविका के माँ-बाप को लेकर बहुत सन्देह थे।कहीं कुलभूषण कुष्टिया में अपनी संतान तो नहीं पैदा करके छोड़ आया था? कहीं झूठ बोलकर उसे लाकर अब रीमा सरकार को मजबूर तो नहीं कर रहा कि वह दुनिया को बताये कि मालविका उसकी चचेरी बहन की लड़की है।साथ में यह कहानी गढ़े कि उसके माँ-बाप बांग्लादेश की लड़ाई में मारे गए।
 
 
 धीरे-धीरे रीमा सरकार मालविका के जादू की गिरफ्त में आ गई थी।मालविका पहले दिन से उसे ‘माँ’ कहकर उससे चिपक गई थी।कुलभूषण ने रीमा सरकार को यक़ीन दिला दिया था कि उसकी असली माँ अमला का रूप-रंग, कद-काठी बिलकुल रीमा सरकार से मिलता है।वरना छह साल की लड़की कोई पागल तो नहीं है कि किसी और को अपनी माँ समझती? मालविका का रंग कुष्टिया से रिफ्यूजी कैंप तक पहुँचने के  मीलों के सफ़र में एकदम काला पड़ गया था।अगर कुलभूषण ने अमला की आँखें मालविका के चेहरे पर लगी हुई न देखी होतीं, तो वह ख़ुद विश्वास नहीं कर पाता कि वह अमला की बेटी है।
 
 
कुलभूषण अप्रैल के महीने में एक दिन माँ से मिलने ढाकापट्टी चला गया था।उस साल अप्रैल की चार तारीख़ को चैत्र महीने की नवरात्रि पड़ी थी।कुलभूषण को मालूम था कि आज माँ नौ दिनों बाद कलश पर आम के पत्तों के बीच हरा नारियल बैठाकर बनाई दुर्गा की पूजा की समाप्ति करेगी।उसके मन में छोटे से हवनकुंड में हलवा-पूड़ी-घी की समिधा की ख़ुशबू भर गई थी।माँ के हाथ की पूड़ी-रायता-चने की सब्ज़ी खाने को उसका मन ललच उठा था।माँ उसे अचानक आया हुआ देखकर एक बार चौंकी थी।फिर उसका लाड़ लड़ाते हुए उसे अपने कमरे में बैठाकर पूड़ी-सब्ज़ी-रायता खिलाया था।वह देख रहा था कि माँ बार-बार दरवाज़े की तरफ़ देखती थी कि कहीं उसके बेटे-बहू दरवाज़े पर खड़े होकर उसकी बातें न सुन रही हों।कुलभूषण को देखते ही सबका मुँह फूल गया था जैसे कि वह कोई रोग फैलानेवाला कीटाणु हो।
 
 वह खा रहा था कि छोटे भैया आकर माँ को बाहर से आवाज़ देकर कह गए कि वे दोनों मंदिर जा रहे हैं। सुनकर माँ की ख़ुशी और राहत कुलभूषण से छिपी नहीं रही थी। पूड़ी का अंतिम कौर चाटकर खाते हुए कुलभूषण माँ की घुटी हुई रोने की आवाज़ से चौंक गया था।”क्या हुआ माँ”-कहते हुए उसने वह कौर निगल लिया था।माँ ने रोते-रोते इशारा किया कि भूषण उठकर दरवाज़ा बंद कर दे।माँ के रोने की तीव्रता बढ़ती जा रही थी। माँ की पीठ पर हाथ फेरते हुए वह बार-बार रोने का कारण पूछता रहा।अचानक माँ ने रोना बंद कर दिया और कहा-“तुमको पता है कि ईस्ट पाकिस्तान में लड़ाई-झगड़ा चल रहा है?” कुलभूषण ने सिर हिलाया।बंगाली मोहल्ले में रहते हुए बांग्ला अख़बार आसानी से मुफ़्त में पढ़ने मिल जाता है।तेलीपाड़ा में रविवार शाम को लगने वाले अड्डे में लोग चिंता कर रहे थे कि उधर से ‘बांगाल’ रिफ्यूजी बॉर्डर पार करके हज़ारों की संख्या में वापस आने लगे हैं।
 
“जिस बाप के चार बेटे हों, उसकी कोई खोजख़बर लेने वाला नहीं है”-माँ ने हिचकियाँ लेते हुए रुक-रुककर कहा।कुलभूषण को आश्चर्य हुआ कि माँ पिताजी को लेकर अचानक इतनी चिंता क्यों कर रही है।पिताजी दो-तीन महीने पहले वीज़ा बनवाकर कलकत्ता आकर गए थे।यह बात उसे मालूम थी।वह कई बार कलाकार स्ट्रीट में कपड़े की दुकान पर नौकरी करते हुए जाते-आते ढाकापट्टी की गलियों में छिपकर वहाँ से उनलोगों को देखता था।पान की दुकान पर लक्ष्मण सिंह ख़ुद उसे देखते ही पटर-पटर सारे समाचार सुना देता।बड़े भैया ने उसे ढाकापट्टी के पास ही एक साड़ी की दुकान में काम दिलवा दिया था।”माँ, तुम तो जानती हो कि पिताजी कुष्टिया छोड़नेवाले नहीं हैं, चाहे कुछ भी हो।उनकी चिंता क्यों बेकार कर रही हो? जब शांति हो जाएगी वे ख़ुद ही आ जाएंगे”-भूषण ने कहा। 
 
माँ ने तड़पकर उसे देखा-“मुझे तुमसे यह आशा नहीं थी कुलभूषण।मुझे पता है कि मेरी सब संतानों में तुझे ही सबसे ज़्यादा दुख मिले।लेकिन एक तू ही है जिसे मेरा दर्द सबसे ज़्यादा पता चलता है।कुलभूषण को बड़ा आश्चर्य हुआ।ज़िंदगी में आदमी कुछ बातों से एकदम अनजान रहता है जबतक कोई उसके मुँह पर ही बोल कर न बता दे।तो माँ को याद है कि जब वह रोती थी, तो वही उसकी पीठ पर हाथ फेरने के लिए उठता था।माँ ने उसका हाथ पकड़ लिया-“कुलभूषण, यह लड़ाई पहले जैसी हिंदू-मुसलमान वाली लड़ाई नहीं है। मैंने सुना है कि पाकिस्तान की सेना लोगों को हवाईजहाज़ से बम गिराकर, टैंक से गोले बरसाकर और बंदूकों से दनादन मार रही है।कुष्टिया का सराफ परिवार रातोरात भाग पर चला आया है। यह भी कह रहे हैं कि ढाका में सेना ने हज़ारों लोगों को एक रात में मार डाला है।लोग जो कुछ बटोर सके,उसे सिर पर गठरियों में रखकर गिरते-पड़ते दौड़े चले आ रहे हैं।” 
 
“लेकिन माँ पिताजी तो वहीं रहने वाले हैं।तुम यह बात अच्छी तरह जानती हो।फिर भी इतना रोना गाना कर रही हो।अगर सराफ लोग भाग आए हैं, तो पिताजी क्यों नहीं आए? उन्हें क्या पता नहीं होगा कि वहाँ क्या हो रहा है? यह कहते-कहते उसे श्यामा का ध्यान आया-“माँ, उनलोगों ने क्या बताया? कुष्टिया में भी कुछ हुआ है क्या?” कुलभूषण की बातों से माँ का चेहरा उतर गया था-“हाँ, बताया तो।कहते हैं कि जिस दिन ढाका में सेना ने खूनखराबा किया, उसी रात कुष्टिया में भी सेना ने सारे थानों और सरकारी मकानों पर क़ब्ज़ा कर लिया था।अगली सुबह से कर्फ्यू लगाया गया।इससे अनजान कई किसान-मज़दूरों को सुबह-सुबह गोली मार दी।अड़तालीस घंटे बाद जैसे ही कर्फ़्यू उठा, सराफ लोग सैनिकों को दो हज़ार ‘टाका’ घूस देकर वहाँ से निकल आए।उसके बाद की ख़बर तो उनलोगों को भी क्या मालूम?” माँ की बातों से कुलभूषण सोच में पड़ गया-”तो माँ, तुम क्या चाहती हो? मैं कुष्टिया जाकर पिताजी का पता लगाऊँ? पर मेरे पास पासपोर्ट नहीं है।अगर वहाँ सेना का डर नहीं होता, तो अब तक मैं क्या एक बार भी कुष्टिया नहीं जाता? गोराई गंगा, हमारा घर, सब कितना याद आता है मुझे।” माँ कुछ नहीं बोली।शायद समझ गई थी कि कुलभूषण का वहाँ जाना बहुत ख़तरनाक है।
 
अप्रैल महीने के अंत में एक दिन बड़े भैया का फ़ोन दुकान पर आया-“माँ की तबियत ख़राब है। तुम्हें याद कर रही है।” कुलभूषण समझ गया कि माँ पिताजी की चिंता में घुली जा रही होगी।अब तक सबको पता चल चुका था कि पूर्व पाकिस्तान में सेना आम लोगों को अंधाधुंध गोली मार रही है।जवान औरतों का अपहरण कर उन्हें सैनिक छावनी और बैरकों में ले जा रही है।अब तक बंगाल में दस लाख रिफ्यूजी आ गए थे।वे हर जगह हर किसी को दिखाई पड़ रहे थे।कोई ऐसी गली नहीं होगी जहाँ वे नज़र न आ रहे हों। कुलभूषण साड़ी की जिस दुकान में काम करता था, उनकी लड़की के ससुराल वाले फ़रीदपुर से अनाज लादनेवाली बड़ी नौका में छिपकर आठ दिन में पद्मा नदी से होते हुए बनगाँव बॉर्डर से आए थे। उन आठ दिनों में उन्हें कई बार मौत का सामना करना पड़ा था। कभी नदी में डूबने से बचे, कभी साँप के डसने से बचे।मिलिटरी की नदी में गश्त लगाती गनबोट से बचने की कहानी रोंगटे खड़े करनेवाली थी।गनबोट दिखते ही सारे मारवाड़ी पुरूषों ने धोती-कुर्ते की जगह माँझियों के कपड़े पहने, औरतों को बुरक़े पहनाकर अनाज के बड़े-बड़े गट्ठरों में डालकर बाँधा गया।पर गनबोट उनकी तरफ़ न आकर आगे चली गयी थी।उनलोगों ने मशीनगन से बेबात गोलियाँ चलाकर उनकी नौका को नहीं डुबाया, यह एक चमत्कार ही था।
 
कुलभूषण माँ के पास गया तो माँ बहुत देर तक कुछ नहीं बोली।उसकी आँखों से लगातार आँसू गिर रहे थे।आख़िर कुलभूषण ने कहा-“माँ, मैं कल ईस्ट पाकिस्तान की बॉर्डर पर जा रहा हूँ।कुष्टिया से आने वाले लोग दर्शना तक पैदल आ रहे हैं। पिताजी अगर आएंगे तो वहीं से आएँगे।” माँ ने कुलभूषण का हाथ पकड़ लिया और कहा-“बेटा भूषण! अब तुम्हारी माँ ज़्यादा दिनों तक रहनेवाली नहीं है। पति की गोद में मेरे प्राण जायें, बस यही इच्छा बाक़ी है।”
 
माँ की आख़िरी ख़्वाहिश पूरी हो गई थी।पिताजी सिर्फ़ पसली रह गए बदन पर सिर्फ़ गमछे को लुंगी की तरह लपेटे माँ के पास आए, उसके दो महीने के अंदर ही माँ चली गई।जिस पूर्णिमा की रात माँ गुज़री, उसके पहले दिन कुलभूषण ने एक सपना देखा कि माँ अपने दमकते हुए माथे पर बड़ी सी लाल बिंदी लगाए एक नौका में बैठी नदी को पार कर रही है। आकाश में ललाई लिए हुए उगता हुआ पूरा गोल चाँद माँ को टकटकी लगाये देख रहा है।कुलभूषण कभी चाँद को देखता तो कभी माँ की बिंदी को।तभी माँ मुस्कराई और कहा-“देखा कुलभूषण! मेरे सिंदूर की पुकार को देखा? मेरे सिंदूर की आग को देखा?” कुलभूषण भी मुस्करा दिया था।कम-से-कम माँ की अंतिम इच्छा तो वह पूरी कर पाया था।
 
 कुलभूषण पिताजी को खोजने अगले ही दिन सुबह-सुबह लोकल ट्रेन पकड़कर रानाघाट चला गया था।वहाँ स्टेशन पर उसने जो रिफ्यूजियों की भीड़ देखी, उसका सिर चकरा गया।इतनी भीड़ तो उसने ज़िंदगी में पहले कभी नहीं देखी थी।तिल धरने की भी जगह न हो, ऐसे आदमियों की भीड़ दिख रही थी।अगर पिताजी इस भीड़ में होंगे तो भी उन्हें देख पाना नामुमकिन होगा।कुलभूषण स्टेशन पर उतरकर एक जगह खड़ा हुआ लोगों को देखता रहा।बूढ़े-बच्चे-औरतें-आदमी और उन सबके माथे पर, हाथों में सामान की गठरियाँ ही गठरियाँ।ज़मीन पर बैठे कुछ लोगों से उसने बात करने की कोशिश की।उनकी बातें सुन उसे अपनी पुरानी रेल यात्राएँ याद आ गईं जो उसने सात साल पहले ढाका मेल से सियालदह और बाद में रिफ्यूजी स्पेशल ट्रेन से रायपुर के माना कैंप तक की थीं।न जाने कब तक दुनिया में इस तरह झुंड-के-झुंड आदमी अपने घरों से भगाए जाते रहेंगे।
 
माँ ने जो कहा था वह वाक़ई सच था।यह लड़ाई पिछली लड़ाइयों की तरह आपसी ख़ूनख़राबे की नहीं थी।इस बार एक पूरी तरह से हथियारों से लैस सेना बम और ऑटोमैटिक बंदूकें लेकर हज़ारों-लाखों लोगों को एक ही दिन में मार रही थी; बंगाली औरतों का अपहरण कर उन्हें कैंपों में रखकर उन पर अमानुषिक अत्याचार कर रही थी।बंगाली जाति विद्रोह कर अपना बांग्लादेश बनाने का फ़ैसला कर चुकी थी। कलकत्ता में थियेटर रोड पर उनकी सरकार चल रही थी।हज़ारों बंगाली छात्र और आम आदमी ‘ईस्ट बंगाल राइफ़ल्स’, ‘अंसार वाहिनी’ और बंगाली पुलिसवालों के साथ मिलकर सेना से लड़ रहे थे।”अब मुसलमान ही मुसलमान से लड़ रहा है”- कुलभूषण ने आश्चर्य से अपने आपको कहा। उसे मोहम्मद इस्लाम का ख़याल आया।अच्छा हो कि उसे भी वही भुगतना पड़े जो उसने भुगता है।अपना घरबार छोड़कर दर-दर भटकने की सजा उसे भी मिलनी चाहिए।”लेकिन इस बार भी हिन्दू ही ज़्यादा भाग रहे हैं।उन्हें इंडिया का दलाल बताकर मिलिट्री मार रही है”-फरीदपुर से आए एक शख़्स ने इसे बताया-“फरीदपुर में हिंदुओं के घरों के बाहर पीले रंग से अंग्रेज़ी का ‘एच’ लिखकर वहीं के रजाकार ख़बरिये सेना को उन्हें पहचानने में मदद कर रहे हैं।”
 
 रानाघाट से आगे की रेल पकड़कर कुलभूषण दर्शना बॉर्डर तक जा पहुँचा।पूरे रास्ते पर रिफ्यूजियों के सरकारी कैंप नज़र आ रहे थे।स्कूलों और सरकारी इमारतों को कैंप में बदल दिया गया था।बाँस, खपच्ची और होगल घास से घर बनाकर सरकार उनके रहने का इंतज़ाम कर रही थी।फिर भी खुले आकाश के नीचे हज़ारों भूखे-नंगे लोग बैठे-सोते-चलते नज़र आ रहे थे। हर रोज़ साठ हज़ार नए रिफ्यूजी आ रहे  थे।कुलभूषण को समझ में नहीं आ रहा था इस महाजुलूस में वह पिताजी को कैसे खोजेगा? कुष्टिया ज़िले से आनेवाले लोगों की भरमार थी।वह जिससे बात करता, वहीं के किसी गाँव का नाम लेता।कुष्टिया के एक आदमी ने बताया-“एक अप्रैल को मुक्तिवाहिनी ने कुष्टिया पर क़ब्ज़ा करके घर-घर पर बांग्लादेश का हरा-लाल झंडा फहरा दिया था।पर सोलह अप्रैल को आर्मी ने फिर कुष्टिया को छीन लिया।एक-एक गाँव और शहर के एक-एक मोहल्ले में सेना आग लगा रही है।भागते हुए लोगों को बंदूक की गोली मार देते हैं और जवान औरतों और लड़कियों को उठाकर ले जाते हैं।कई का तो उनके घरवालों के सामने ही बलात्कार करते हैं।” कुलभूषण को यह सब सुनकर श्यामा की बड़ी चिंता हुई।क्या श्यामा भागकर इधर आया होगा? उसे तो कुलभूषण हज़ारों की भीड़ में भी पहचान लेगा।
 
क्या पिताजी सत्तर किलोमीटर की दूरी पैदल तय कर यहाँ पहुँच सकेंगे? उसने सुना कि सैकड़ों लोग रास्ते में थकान से मर गए थे; सैकड़ों पतला पाख़ाना होते-होते शरीर का सारा पानी निकल जाने से मर गए।काश़ कि पिताजी नौका में गोराई और पद्मा नदी से होते हुए आए हों।गंगा जब बहकर ईस्ट पाकिस्तान में चली जाती है, उसका नाम पद्मा हो जाता है।वहाँ कई रिफ्यूजी पद्मा नदी से जालंगी गाँव में आकर वहाँ से दर्शना की तरफ़ आये थे। पिताजी जाने कहाँ से, किस तरह इंडिया आये होंगे, यदि उन्होंने सचमुच कुष्टिया शहर और अपने मकान को छोड़ने का फ़ैसला किया होगा।
 
 
 तभी कुलभूषण को वहाँ कुष्टिया में अपने साथ स्कूल में पढ़नेवाला शशिकांत साहा दिखाई पड़ा।कुछ देर तक वे दोनों एक दूसरे को देखते खड़े रहे।पहले शशिकांत ने कहा-“अरे! कुलभूषण?” कुलभूषण ने तब एकबारगी उसे नाम सहित पहचान लिया-“पिताजी को ढूंढने आया हूँ।तुमको कुछ ख़बर है उनकी?”-उसने नाउम्मीदी से पूछा।शशिकांत ने तुरंत कहा-“अरे हाँ।हम एक साथ ही तो आए थे।मैंने तुम्हारे पिताजी को बड़ी मुश्किल से आगे चलकर एक बैलगाड़ी में बैठाया।उन्हें बार-बार पाख़ाना हो रहा था।उनमें चलने की बिलकुल ताक़त नहीं बची थी।उनके साथ कुष्टिया का ही एक आदमी और उसकी छोटी सी लड़की भी थी।”
 
 
कुलभूषण इस सूचना से अवाक रह गया।इसका मतलब यह है कि पिताजी सचमुच पाकिस्तान में अपनी ज़मीन-जायदाद का मोह छोड़कर निकल आए हैं।माँ का डरना सही था।उनके साथ ज़रूर श्यामा ही होगा।उसने शादी कर ली होगी और उसकी बीवी-लड़की साथ होंगी।शशिकांत ने कहा-“वे लोग यहाँ पास में कोई विजयनगर कैंप में चले गए।लोगों ने कहा, कैंप में जाने से डॉक्टर और दवा मिल जाएगी।कुछ दिन आराम किए बिना वे कलकत्ता जा नहीं सकते थे।बहुत कमज़ोर हो गए थे।” कुलभूषण का कलेजा मुँह को आ गया।माँ का रोना ठीक ही था कि चार-चार लड़कों के रहते बाप की ख़बर लेनेवाला कोई नहीं है। जब भी पिताजी ईस्ट पाकिस्तान से आते, सब कोई सपरिवार उनसे जल्दी से जल्दी मिलने पहुँच जाते।इंडिया में जो विदेशी चीज़ें देखने भी नहीं मिलती थीं, वे पाकिस्तान में धड़ल्ले से बिकती थीं।पिताजी हर बार खिलौने, घड़ियां, पेन, रेडियो लाकर सबको देते।वहाँ सोना भी सस्ता था।माँ को कई बार सोने की चेन लाकर देते।माँ हर बार रूठकर कहती कि उसे वहाँ की कोई चीज़ नहीं चाहिए।फिर उसे उठाकर अपने ब्लाउज़ में दबा लेती।
 
विजयनगर कैंप ज़्यादा दूर नहीं था।कुलभूषण ने देखा कि शाम होने लगी है।अब रात को पिताजी को लेकर रेल नहीं पकड़ सकेगा।उसे रात यहीं गुज़ारनी होगी।वह लंबे-लंबे क़दम रखता बताए हुए रास्ते पर चल पड़ा।उसे दूर से ही टीन की दीवार और टीन की ही छत से बनी हुई झोपड़ियाँ दिखाई पड़ीं।दोनों तरफ़ खेतों के बीच ऊँची सी जगह पर, जो शायद कोई स्कूल का मैदान रहा होगा, बहुत सी झोपड़ियाँ लाइन से बनी हुई थीं।उनके पीछे सैकड़ों तंबू ज़मीन में कुछ दूरी पर गड़े नज़र आ रहे थे।यह दृश्य दिखाई देते ही एक अजीब सी दुर्गंध ने कुलभूषण को जकड़ लिया।जैसे-जैसे वह आगे बढ़ता गया, वैसे-वैसे दुर्गंध बढ़ती जा रही थी।तभी उसे रास्ते में एक कटा हुआ आधा हाथ दिखाई पड़ा जिसमें एक लोहे का कड़ा और शंख की बनी बंगाली सुहागिनों की सफ़ेद चूड़ी थी।वह एक मिनट के लिए ऐसे ठिठककर खड़ा हुआ जैसे उसने प्रेत देख लिया हो। अचानक उसे एहसास हुआ कि शाम गहराती जा रही है और कैंप के चारों तरफ़ सियार बोल रहे हैं।उसे यह भी समझ में आ गया कि वह हाथ कच्ची मिट्टी में दफ़नाई किसी औरत का है, जिसे सियारों ने खाने के लिए निकाल लिया है।
 
वह दौड़ता हुआ झोपड़ियों की तरफ़ बढ़ने लगा।दुर्गंध को वह जैसे भूल गया।झोपड़ियों के पास आकर उसने देखा कि वह कैंप के कर्मचारियों का दफ़्तर था।रायपुर के माना कैंप की तरह यहाँ भी लोगों की भीड़ लगी हुई थी और नाम पुकार कर चावल, गेहूं, दाल, तेल और कुछ रूपये दिए जा रहे थे।कुलभूषण को लगा जैसे हूबहू यही दृश्य उसके जीवन में पहले घट चुका है। इस दृश्य और उस पहले वाले दृश्य में रत्ती भर भी अंतर नहीं था।वह भीड़ के पीछे खड़ा होकर उचककर आगे देखने लगा।किसी से कैसे पूछा जाए कि उसके पिता गिरधारी लाल जैन किस तंबू में मिलेंगे? जब उसे लगा कि वहाँ आगे तक पहुँचना नामुमकिन है, तो वह तंबुओं की तरफ़ चल पड़ा।एक तम्बू में कई परिवारों के लोग भरे थे। चारों तरफ़ गंदगी ही गंदगी थी।उल्टी, मलमूत्र, जूठन फेंकी हुई थी।कई लोग तंबू के बाहर बैठे सिर पर हाथ रखे जाने कहाँ देख रहे थे।कोई औरत अपने बच्चे को दूध पिला रही थी।कोई अपने बच्चे के सिर पर हाथ बार-बार रखकर उसका बुख़ार देख रही थी। बच्चे एकदम नंगे थे। बूढ़े अधनंगे से कमर पर गमछा या लुंगी लपेटे थे।ज़्यादातर औरतें अधेड़ उम्र की थीं जो अपनी गोद के बच्चों की दादी या नानी लग रही थीं।ये सारे बेसहारा लोग जाने कितने भरे-पूरे अनाज के खेतों और घरों को छोड़कर इस गँधाते नरक में आ पड़े हैं। 
 
कुलभूषण ने देखा कि एक अधेड़ औरत कच्ची लकड़ी जलाकर एलुमुनियम की हांडी में चावल पकाती उसे हर तंबू में जाते घूर रही है। वह रुक गया। ईस्ट बंगाल की बांग्ला में उसने पूछा-“कहाँ से आ रही हो माँ?” “कुष्टिया के दौलतपुर से”-उस औरत में छोटा सा जवाब दिया और वापस हांडी में उबलते पानी को देखने लगी।”साथ में कौन है माँ?”-कुलभूषण ने फिर पूछा।औरत ने कहा-“बूढ़ा ससुर है।घर जला दिया।मेरे आदमी को गोली मार दी।बहू को उठा ले गए।बेटा मुक्तिवाहिनी में चला गया।” कुलभूषण चुप रहा।औरत चावल को चम्मच से चलाकर देख रही थी।उसकी आँखों में आँसू का नामोनिशान नहीं था।”मैं अपने पिता को खोज रहा हूँ।उनका नाम गिरधारी लाल जैन है”-कुलभूषण ने एक गंदे आवारा कुत्ते को दुरदुराते हुए कहा जो उसके पैंट पर अपना मुँह लगा रहा था।”अच्छा वो मारवाड़ी! तभी तो कहूँ।देखने में ठीक तुम्हारी तरह है ना!  वही तो उधर, उस तंबू में है।उल्टी-टट्टी कर रहा है दो दिन से”-औरत ने बिना सिर उठाये अंगुली से एक तंबू की ओर इशारा किया।
 
कुलभूषण धड़कते दिल से उस तम्बू की ओर बढ़ा।क्या सचमुच उसमें पिताजी और श्यामा होंगे? उसने तंबू का पर्दा हटाया तो देखता का देखता रह गया।मोहम्मद इस्लाम सात सालों बाद भी वैसा का वैसा लग रहा था।उसकी गोद में पिताजी का सिर था और वह उनकी छाती पर हाथ रखे हुए कुछ बुदबुदा रहा था।तंबू के एक कोने में छह-सात साल की एक लड़की मैली फ़्रॉक पहने बड़ी-बड़ी आँखों से यह दृश्य देख रही थी।कुलभूषण को देखते ही उस छोटे से तंबू में जैसे भूकंप आ गया।पिताजी उठकर बैठ गए और ज़ोर-ज़ोर से “बेटा आ गया।मेरा बेटा आ गया”-दोहराते हुए रोने लगे।उनकी आवाज़ में इतना दम देखकर कुलभूषण को तसल्ली हुई कि वे मरनेवाले नहीं हैं।किसी तरह उसने पिताजी को चुप कराया।सबके कुशल-मंगल की सूचना दी।पता चला कि तीन-चार घंटों से पिता जी को उल्टी-दस्त होना रुक गया है।उनके बग़ल में दवा-पानी का इंतज़ाम और तंबू के अंदर किसी तरह की गंदगी न देखकर कुलभूषण ने आँखों ही आँखों में मोहम्मद इस्लाम का शुक्रिया अदा किया।कोने में बैठी लड़की अब उसे एकटक देखने लगी थी।कुलभूषण ने उसकी तरफ़ देखा और एक पल में ही अमला की आंखें पहचान लीं।उसने मोहम्मद इस्लाम की तरफ़ सवालिया निगाहों से देखा।
 
मोहम्मद इस्लाम ने लड़की को आवाज़ दी-“मल्ली।” वह उठ खड़ी हुई और उसने आगे आकर कुलभूषण के गले में बाँहें डाल दीं और कहा-भूषौन काका!उसकी आवाज़ की मिठास से कुलभूषण सराबोर हो गया।फिर उस छोटी सी लड़की ने कहा-“मेरे बाबा का नाम श्यामा है और मेरी माँ का नाम अमला है।माँ ने कहा है कि जब आप मिल जाएंगे तबसे मैं आपको बाबा बोलूँगी और पुरानी सारी बातें भूल जाऊँगी।” इसके बाद उसने अपने गले में पड़ा कपड़े में बंधा ताबीज़ दिखाया और कहा-“माँ ने कहा है कि यह आपने बाबा को दिया था। इसे आपके सिवाय किसी को नहीं देना है।” कुलभूषण के शरीर का एक-एक रोम उस लड़की के प्रति प्रेम से भींग रहा था।उसने उसे अपनी गोद में बिठा लिया और पीछे से उसका उलझे हुए बालों का माथा चूमता रहा।अचानक उसने देखा कि पिताजी उसने ग़ुस्से से घूर रहे हैं, ठीक वैसे ही जैसे वे किसी गरीब-गुरबे से बातें करते हुए उसे देखते थे।इसका मतलब है कि उनकी तबियत बिलकुल ठीक है।यह सोचकर वह बेमौसम हँस पड़ा।
 
मोहम्मद इस्लाम उठ खड़ा हुआ-“तुम मिल गए हो कुलभूषण, तो मैं आज रात ही वापस लौट जाऊँगा। श्यामा और मैं दोनों मुक्तिवाहिनी की तरफ़ से लड़ रहे थे।हमने कुष्टिया पर बांग्लादेश का झंडा भी फहरा दिया था, पर बाद में पाकिस्तानी सेना ने हम पर बहुत बुरी तरह से हमला किया।आधे शहर को जलाकर राख कर दिया।हर घर में किसी न किसी की गोलियों से मौत हुई होगी।न जाने कितने जवान लड़कियों और औरतों को उठा ले गए।श्यामा सबके मना करने के बावजूद अमला को छुड़ाने कुष्टिया चला गया।यह ख़बर है कि उन दोनों को सेना ने गोली मार दी।” कुलभूषण सकते में आकर बोला-“यह ख़बर ग़लत भी तो हो सकती है। तुम तो यहाँ आ गए थे। तुम्हें क्या मालूम?” मोहम्मद इस्लाम समझ गया कि भूषण श्यामा और अमला के मरने को स्वीकार नहीं करना चाहता।उसने कहा-“हम ऐसी लड़ाई लड़ रहे हैं जैसे कि कोई चींटी हाथी से लड़ने चली हो। हमारे पास बस सही ख़बरों की ताक़त है।श्यामा ने मुझे यह काम सौंपा था कि अगर उसे कुछ हो गया तो अमला और मल्ली को मैं तुम तक पहुँचा दूँगा।उसे मुझ पर यह भरोसा था।मैंने उसे बताया था कि तुम्हारे पिताजी को मुस्लिम लीग की अनाम चिट्ठी मैंने नहीं, बल्कि मेरे चाचा ने लिखी थी।चाचा ने ही यह अफ़वाह फैलायी थी कि तुम लोग हमेशा के लिए कुष्टिया छोड़कर भारत जा रहे हो। उसे उसके किए का दंड पाकिस्तानी सेना ने दे दिया है।पंजाबी मुसलमान ही बंगाली मुसलमान को मार रहा है। हम सब इन्सानियत के गुनहगार हैं।” 
 
भूषण ने मल्ली को पहले दिन से मालविका कहकर पुकारा।कैम्प से निकलते समय मोहम्मद इस्लाम ने अमला और अली के संबंध और श्यामा के गर्भवती अमला को स्वीकार करने की कहानी सुना दी थी। कुलभूषण ने कभी अपनी पत्नी रीमा सरकार तक को इस बारे  नहीं बताया।आदमी के मन का कोई भरोसा नहीं है। वह किसी को अपना मान लेता है तो सोचता है कि वह अपने-पराए के भेद से, हिन्दू मुसलमान या छोटी जाति-बड़ी जाति के भेदों से ऊपर उठ गया है।पर जाने कब उसके मन में कितने साल बाद कोई बात सिर उठाकर खड़ी हो जाए।भूषण ने सबके मन में बसी क्षुद्रताओं को देखा है।मालविका के जीवन पर वह किसी बात की कोई आँच नहीं आने देगा।आज भी जब मालविका इस दुनिया में नहीं है, उस पत्रकार को वह उसका नाम तक बताने तैयार नहीं है।क्या पता वह पत्रकार कहानी की खोज में मालविका के जीवन की उस तह तक पहुँच जाए, जिसके बारे में मालविका शायद ख़ुद भी नहीं जानती थी? 
 
श्यामा ने शायद उसे भूलने के बटन के बारे में बता दिया होगा।तभी उसने कभी कुलभूषण के सामने अपने असली माँ-बाप का एक बार भी नाम नहीं लिया।अचानक कुलभूषण को कुछ याद आया।मालविका के जाने के बाद उसने उसकी सारी किताबें-कापियां निकालकर पढ़ने की कोशिश की थी।क्या पता उसके मन में कुछ रहा हो, जो वह कह नहीं पायी हो।कहीं कुछ लिख कर रख गयी हो।पर उसे ऐसा कुछ नहीं मिला था।हाँ, रवींद्रनाथ टैगोर की किसी किताब में उसने कुछ पंक्तियों के नीचे काले पेन से मोटी-मोटी लाइनें खींच रखी थीं।फिर उसने उसमें से कुछ पंक्तियों को मालविका ने बार-बार एक कागज पर लिख रखा था जैसे उन्हें किसी नाटक के लिए याद कर रही हो-‘गोरा के सामने उसका जीवन एक क्षण में ही जैसे सपना हो गया।वह क्या है, इसे जैसे समझ ही नहीं पाया।उसकी माँ नहीं, पिता नहीं, देश नहीं, जाति नहीं, नाम नहीं, गोत्र नहीं, देवता नहीं।’ भूषण की आँखों के सामने ये शब्द ऐसे चले आए, जैसे वह उन्हें अभी पढ़ रहा हो। उसके सीने में ऐसा दर्द उठा, जैसे उसे किसी ने छुरा मार दिया हो।क्या मालविका को अपना बचपन याद था? क्या उसे रवीन्द्रनाथ की वह किताब पढ़कर कुछ याद आ गया था? क्या उसे याद था कि अमला उसे कैसे गाना सुनाकर सुलाती थी? कैसे श्यामा उसे कंधे पर बैठाकर मेले में घुमाने ले जाता होगा? कैसे श्यामा के माँ-बाप उसका लाड़ लड़ाते रहे होंगे? क्या वह कुछ भी नहीं भूली थी? क्या वह भूलने का एक लंबा नाटक कर रही थी? 
 
कुलभूषण को दर्द सहन नहीं हुआ, तो वह एक मकान की चहारदीवारी पर लगी लोहे की रेलिंग को पकड़कर खड़ा हो गया।जाने वह कितनी देर वहाँ खड़ा गाड़ियों, बसों और मिनीबसों के हॉर्न सुनता सड़क का धुआँ खाता रहा। फिर होश आने पर उसने भूलने का बटन दबा दिया और वापस अपने से बात करता चलने लगा—इस तरह तुमको रास्ते में एक मकान की दीवार से पीठ टिकाए खड़े हुए किसी ने देख लिया तो जाने क्या कहेगा। यह जगह बड़े भाई के घर से ज़्यादा दूर नहीं है।उस ‘आत्मकथा’ नाटक के मुख्य किरदार कुलभूषण को अपनी कहानी दुनिया को सुनाने दो।तुम्हारी आत्मकथा न कभी लिखी जाएगी और न कोई उसे पढ़कर तुम्हारे सारे राज़ जानेगा।वैसे भी कौन आत्मकथा में सारी बातें सच लिखता होगा या सारी की सारी बातें लिखता होगा! तुम्हें मालविका को दुनिया की निगाहों से बचाए रखना है।वह मर गयी तो क्या, आज भी वह सिर्फ़ तुम्हारी बेटी है। श्यामा और अमला की अमानत नहीं, तुम्हारी बेटी है।यह पत्रकार बहुत चालाक क़िस्म का प्राणी है।उसने सारी बातें खोद-खोदकर पूछ ली हैं। कौन जाने उसकी क्या मंशा है? कहता है कि वह रिफ्यूजियों पर किताब लिख रहा है -यह बताने कि उनकी ज़िंदगियां पिछले पचास साल में कहाँ से कहाँ पहुँचीं।बोलता है कि -“भूषण बाबू आपकी ज़िंदगी यूनिक है क्योंकि आप सिर्फ़ कुलभूषण जैन ही नहीं हैं, उसके साथ गोपाल चंद्र दास भी हैं।” इसीलिए उसे बार-बार कहना पड़ा कि वह कुलभूषण जैन का नाम दर्ज करे। जाने वह अपनी किताब में कौन सा नाम दर्ज करेगा? आदमी की पहचान तो उसको जन्म देनेवाले माँ-बाप से ही होती है, भले ही उससे जीने में कोई सहूलियत हो न हो।कल एक बार फ़ोन करके पत्रकार को फिर कह देगा ठीक रहेगा, आप कुलभूषण का नाम ही दर्ज कीजिएगा।

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किताबें

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