Tuesday, May 14, 2024

पद्मश्री डॉ. उषाकिरण खान

 

परिचय

जन्म- 24.10.1945- लहेरिया सराय (दरभंगा)

शिक्षा- स्कूल की- एल.आर. गल्र्स स्कूल, लहेरिया सराय

उच्च शिक्षा- एम.ए. इतिहास एवं पुरातत्व, पटना विश्वविद्यालय

पी.एच.डी.- मगध विश्वविद्यालय

शिक्षण कार्य- बी.डी. काॅलेज, पाटलिपुत्रा विश्वविद्यालय

लेखन- मैथिली एवं हिंदी प्रकाशन 1977 से

 

पुरस्कार हिंदी

  1. कवि रमण पुरस्कार- 1983
  2. दिनकर राष्ट्रीय पुरस्कार- 1994
  3. बिहार राष्ट्रभषा परिषद्, हिंदी सेवी पुरस्कार- 1993
  4. बिहार राजभाषा का महादेवी वर्मा पुरस्कार- 1999
  5. कुसुमांजलि पुरस्कार- 2012
  6. पं. विद्यानिवास मिश्रा पुरस्कार- 2011
  7. ब्रजकिशोर प्रसाद पुरस्कार- 2015
  8. शरच्चंद्र पुरस्कार- 2017
  9. भूपेंद्रदेव कोसी सम्मान- 2018
  10. भारत भारती- 2019
  11. स्पंदन सम्मान (भोपाल- 2014)
  12. ढींगरा कथा सम्मान- (प्रस्तावित)- 2020

 

कविता संग्रह-

  1. विवश विक्रमादित्य- 1982
  2. दूबधान- 1984
  3. गीली पाँक- 1993
  4. कासवन- 2000
  5. जलधार- 2005
  6. जनम अवधि- 2010
  7. घर से घर तक- 2008
  8. खेलत गंदे गिरे यमुना मंे- 2020

 

कहानी संकलन

  1. दस प्रतिनिधि कहानियाँ
  2. संकलित कहानियाँ
  3. लोकप्रिय कहानियाँ
  4. मौसम का दर्द

 

कथेतर गद्य-

  1. प्रभावती: एक निष्कंप दीप- (जीवनी)
  2. मैं एक बलुआ प्रस्तर खंड- (स्त्री विमर्श)

 

बाल साहित्य-

  1. उडाकू जनमेजय- बाल उपन्यास
  2. डैडी बदल गये हैं- बाल नाटक
  3. सातभाई चंपा

 

चित्रकथा- 

  • वीर कुँअर सिंह
  • ऐसे थे गोनू झा
  • कहानी संग्रह

 

पुरस्कार-मैथिली-

  1. साहित्य अकादमी पुरस्कार- 2010
  2. प्रबोध साहित्य सम्मान- 2020
  3. सौहार्द सम्मान, उत्तरप्रदेश

 

मैथिली साहित्य

कथा संग्रह-

  1. काँचहि बाँस- 2003
  2. गोनू झा क्लब- 2014
  3. सदति यात्रा- 2021

उपन्यास

  1. अनुत्ररित प्रश्न- 1980
  2. मै उप- दूर्वाक्षत- 1988
  3. हसीना मंजिल- 1986
  4. भामतीः एक अविस्मरणीय प्रेमकथा- 2008
  5. पोखरि रजोखरि- 2015
  6. मनमोहना रे- 2020

खंड काव्य– जाइ सँ पहिने- (सियापिय कथा)

नाटक– चानो दाई, भुसकौल बला, फागुन, एक्सरि ठाढ़ि

  1. बाल महाभारत
  2. राधोक खिस्सा

अनेक भाषाओं में अनुवाद– उडिया, बांग्ला, उर्दू एवं अंग्रेजी

…………….

…………….

हमके ओढ़ा द चदरिया हो, चलने की बेरिया

‘हह-हह’ की बोली बोलकर बैलों को खड़ा कर दिया कोकाई ने। हल की नास पहले ही सीधी कर ली थी। बैल मूर्ति की तरह खड़े हो गए। कोकाई ने सिर पर से गमछा उतारा, पसीने से लथपथ अपना चेहरा पोंछा, घनी मूँछे सँवारीं, फिर बैलों की पीठ सहलाने लगा- ‘‘बड़ी गरमी है न! तुम्हारे मुँह से फेन निकलने लगा। अच्छा बेटे, जब घर ही चलते हैं। आराम से नमना ढेर सारा पानी, नाँद पर खाना खली-भूसा, कल तक करते रहना पागुर।’’  

बैलों ने अपने कान हिलाए। मालिक का हाथ बदन पर आह्लादित कर रहा था। कोने के धूर पर खड़े कोकाई ने देखा, पूरा खेत जुत चुका है। वाह, क्या सम पर सारे सीत खड़े हैं! एक जगह भी बेउरेब नहीं। कोकाई का कमाल है। बड़े मालिक हरदम कहा करते थे, ‘‘खेत जोतना कोकाई जानता है, बीज डालना कोई इससे सीखे। जग धान का पौधा बित्ता भर का होता है, तब खेत की लुनाई देखते ही बनती है। क्या स्वाभाविक कलाकार है कोकाई!’’ उनके कहने से उत्साह बढ़ता इसका। ओह, क्या थे बड़े मालिक। सुना था कि कोकाई का पिता इसे माँ के पटे में छोड़कर ऊपर चला गया था। माँ को चाचा-चाची ने सँभाल लिया। कोकाई चाचा की गोद में पलकर बड़ा हुआ। जब पाँच साल का था तब बैल ने आँख में सींग मार दिया। बड़े मालिक पटना तक ले जाकर इलाज कराते रहे, आँखें ठीक नहीं हुईं। ताजिंदगी एक आँख के सहारे काम करता रहा। अब क्या, कट गई इतनी, आगे भी कट जाएगी। जमीन का यह टुकड़ा मालिक ने स्वेच्छा से लिख दिया था। पुराने सेवक का बाल-बच्चा था कोकाई, न लिखते जमीन तो सीलिंग में जाती। जो भी हो, यह जी उठा एकबारगी।

गाँव के लोग पहने पूरब धन कमाने जाया करते थे, अब पश्चिम जाने लगे। कोकाई अपने युवाकाल में एक बार संगी-साथियों के साथ चैमासा करने, कुछ धन कमानें पूरब गया था; पर उसे रास नहीं आया। वहाँ पाट धोने के क्रम में तलुओं में कोई धारदार वस्तु गड़ गई। दवा लेने और ठीक होने में काफी दिन लग गए। कोई कमाई भी नहीं हुई, उलटे स्वास्थ्य की हानि हुई। डेढ़ मन का बोरा अकेले पीठ पर उठाकर चल देने वाला कोकाई दो अढ़ैया भी उठा नहीं पाता। उसने कान उमेठे अपने-न, कभी ढाका-बंगाल कमाने नहीं जाएँगे। बाद के दिनों में जब बेटे पश्चिम जाने लगे तब बड़ा दबाव डाला-बाउ, पश्चिम की बात ही कुछ और है। बड़ा साफ काम है। क्या करोगे चैमासा में घर में रहकर? वहाँ धान रोपनी करना। देश देखोगे। नहीं रे, मुझे नहीं सहता पूरब-पश्चिम। हम कहीं नहीं जाएँगे और ये क्या बोलता है कि क्या करोगे? काम का कोई टोटा पड़ा है? ढेर काम है। चैमासा पर घर-छवाई का कमा है। अकेले कारीगर हम हैं। तुम लोग सब गाँव छोड़कर चले जाते हो, रह जाते हैं सिर्फ झोटिया पंच लोग। उन्हीं लोगों को खढ़ का पुल्ला फेंकना पड़ता है छप्पर पर। ‘काम नहीं है’ बोलता है। देर तब बड़-बड़ करता रहता कोकाई। बेटे सोचते, सच ही तो कहता है बाउ, इसे काम की क्या कमी है? बहुत तेज बारिश हुई और रोपनी खत्म हो गई हो तो टेरुआ लेकर सुतली कातने बैठता कोकाई। सुतली कती होती तो गोवर्धन-पूजन के वक्त गाय-बैलों के लिए रस्सी बनाने में देर नहीं होती। बरसात में ही कोकाई सुतली का जाबी बना लेते, जो धान दउनी के वक्त बैलों के मुँह पर जाली की तरह बाँधना होता। इन दिनों कुछ लोग कोकाई से बनवाने भी लगे थे। कोकाई कोई मेहनताना नहीं लेता। बनवाने वाले अपना पाट दे जाते, यह बना देता। अलबत्ता कोई अपने घर बैठाकर सुतली कतवाता और जाबी रस्सी बनवाता तो मजूरी देनी पड़ती। काम के लिए समय ही नहीं बचता और ये मूरख, लहेंगड़े कहते हैं कि चैमासा में घर पर रहकर क्या करोगे?

अरे, घर पर रहकर देखो कि क्या किया जाता है! हर साल बाढ़ में खेत-खलिहान डूब जाते हैं। गाय-बैल के लिए घास क्या अकेली और बेलसंडीवाली काटेगी? अब अलौंत ब्याई गायों को हरे चारे के बिना चंगा कैसे रखा जा सकता है? बहुओं को घस काटने भेजें? वे भी तो बच्चे वाली हैं। कोकाई यह सब सोच-विचारकर गाँव नहीं छोड़ता। ऐसा ही है यह। उस बार की सर्वग्रासी बाढ़ में जब गाँव छोड़ने की बारी आई तब कोकाई ने नावों पर ढोर-डंगर और औरत-बच्चों को ढोया था दिन भर तटबंध तक। अब भी वह दृश्य याद कर सिहर उठता है कोकाई। प्रलय था, प्रलय! गाँव के सारे नवयुवक और अधेड़ परदेस गए थे, मात्र स्त्रियाँ, वृद्ध और बच्चे थे। कौन समझदार व्यक्ति एकदम से गाँव छोड़कर चला जाएगा?

ये नई पौध दूसरे की बगिया महकाने जाती है, अपनी भूमि को छोड़ दिया। जमीन को सुला दिया है।

अचानक ठंडी हवा का झोंका आया। कोकाई को अच्छा लगा। उसने आकाश की ओर निहारा। घने काले मेघ घिर आए हैं। वाह, रोहिणी के आते ही मेघ! बड़ा अच्छा संकेत है। आज जल बरसा तो साल भर बरसेगा। फसल अच्छी होगी, साधुओं के भंडारे का इंतजाम हो जाएगा। कोकाई अपने बाहुबल की कमाई से भंडारा देना चाहता है। कबिरहा है न! खुदमुख्तार है। देखा, दोनों बेटे दौड़े आ रहे हैं। मेघ भी छाया से धरती सँवला गई थी। कैैसे जान-बेजान दौड़े आ रहे हैं छोकरे। 

‘‘बाउ, हो बाउ!’’ 

‘‘क्या है रे?’’

‘‘बाउ, घर चलो, आँधी-तूफान का रंग है।’’

‘‘चल, बैलों का मुन्ही छिटका, खोल दे। हल खेत में पार दे जल्दी कर’’ लड़के उधर दौड़े। कोकाई को हँसी आई-आँधी तो नहीं आएगी, बारिश होगी। आँधी के वक्त आकाश का रंग भूरा हो जाता है, यह तो काला कुच-कुच हो गया है। अनुभव का थोड़ा है बेटवा सब। खुद सँभलेगा, अभी तो हम हैं न आकाश बने हुए। सोचता है कोकाई।

‘‘अरे हो कोकाई! खेत से भागो, झोपड़ी में आओ। पहिला मेघ है, ठनका-उनका गिरेगा तो तुम ही…।’’ मनीजरा अपने मचान के नीचे से आवाज दे रहा था। 

‘‘आते हैं, आते हैं; बहुत गरमी थी जरा ठंडाने दो,’’ सचमुच ठनका का रंग पर गिरता है। भैंस, हाथी लोग छुपा लेते हैं। उसके बाद बचा कोकाई, पीले रंग का। कई बार चाचीजी मजाक करती हैं- ‘‘रे कोकाई, तू मेघ-बुन्नी में खेत में न जाया कर, काजा पाथर जैसा है, बिजलौटा गिर जाएगा।’’

‘‘अरे, खेल न रे; बैलों को निकाल, घर हम भी चलते हैं। ई रोहिणी के बूँद देह को हलका ही करेगी,’’ टोकरी-गैंती समेटकर छोटे बेटे को बढ़ाते हुए कोकाई रपेटता है बड़े बेटे को। बहुत गुम थी हवा, बड़ा आतप था भारी। धरती की गरमी रोहिणी मैया हरने आ रही थी। 

अम्माँ को जाने कौन जानलेवा बीमारी ने ग्रसित कर लिया था, निज कोकाई के गौने के दिन चल बसी! इसे तो टुग्गर बना ही गई, बेलसंडीवाली ने सास के सुख ही न देखा। बेलसंडीवाली पहले से टुग्गर थी। उसके माँ-बाप हैजा टुनकी से चल बसे थे। मामा-मामी के घर पली थी वो। कोकाई कम-से-कम माँ के साए के सुख तो भोग सका था। माँ का बेटा होने के नाते इसके पल्ले गृहस्थी का बड़ा ज्ञान आया। यह कायदे का खेतिहार और मितव्ययी गृहस्थ हो गया। कबिरहा होने के कारण ऊपर से स्वयं फक्कड़ और अंदर से बहता निर्मल सोता रहा। बेलसंडिवाली ने एक के बाद एक दो टेटे जने, बेटी नही। बिना किसी दवा-दारू के दो बच्चों के बाद तीसरा पैदा ही न हुआ। कोकाई को एक बेटी की चाह थी, जो पूरी नहीं हो सकी। उसने गाँव भर की छोटी बच्चियों के लिए कई बार रंगीन क्लिप और फँुदने खरीदकर अपनी साध पूरी की। 

नियम-कानून को मानने वाला कोकाई हर साल अपना बैल बदल लेता। खेती पर नया बैल खरीदता। पुराना बैल बेचकर जो पैसे हाथ में आते, उसमें और लगाकर नया बैल खरीद लेता। तीन साल पहले जो बैल इसने हाथ पर चढ़ाया था, उसका खरीदार इलाके में शिकायत करता पाया गया कि कोकाई ने बेकार बैल उसे थमा दिया है। वह खेती के काम का नहीं, वह उसे बेच देगा। कोकाई ने इस कान से सुना उस कान से उड़ा दिया। अगहन में जब गोसाई साहब गाँव ओए तो यह भी चढ़ावा लेकर साहेब बंदगी करने पहुँचा। गुरु ने पहुँचते ही आड़े हाथों लिया।

‘‘कोकाई, तूने बैल कसाई को बेचा सुना है, पराच्छित करना पड़ेगा,’’ उन्होंने फरमान जारी किया। 

‘‘नहीं गोसाई साहेब, नहीं! हम नेवला गाँव के किसान के हाथ बैल बेचकर आए थे।’’

‘‘गलत बात, तेरा बैल कसाई ले जा रहा था, दस मुंड देखा है। बोलो, कौन-कौन देखा है?’’

सचमुच कुछ लोग उछल खड़े हुए कि उन्होंने देखा है। कोकाई हक्का-बक्का रह गया। उसने कहा कि वह उस किसान को ढूँढ़ लाएगा, जिसने बैल खरीदा, पर सुनवाई न हुई। सजा सुना दी गई। सजा को काई कबिरहा नकार ही नहीं सकता। गोसाई साहब की दी हुई सजा जो थी। 

‘‘इस बार फसल नहीं हुई गोसाईं साहेब, सजा जरूर दीजिए,’’ वह गिड़गिड़ाया। 

‘‘सजा जब फसल अच्छी हो, तभी पूरी करना। समय सीमा है साहेब के पास जाने तक दी। चादर मैली लेकर जाओगे?’’ पैरों पर गिरे कोकाई से साहेब ने कहा था। 

आकाश का यह काला रंग, रोहिणी नक्षत्र की बूँदें आशा का संचार करती हैं। अपनी एक रोशन और एक निस्तेज आँख से आकाश की ओर निहारा। खुशी से लिखे चेहरे के स्वामी के पोपले मुख में एकमात्र दाँत, बिजली की अभूतपूर्व कौंध और एक गड़गड़ाहट। फेंकना-बुधना, मनीजरा कान में उँगली डाल धरती की ओर मुँह झुकाकर बकने लगा, ‘‘सहारे-सहोर।’’

पूँछ उठाकर भागते बैलों की जोड़ी थम गई। बारिश की मोटी-मोटी बूँदें भिगोने लगीं धरती को। बैल चलते हुए आकर अपने हलवाहे के पास खड़े हो गए। फेंकना-बुधना और मनीजरा दौड़कर पास आ गए। कोकाई गिरा पड़ा था झुलसे हुए पेड़ की तरह। उसके पैरों के पास एक बड़ा गढ़ा हो गया था। कोकाई की खुली आँखें आकाश निहार रही थी, शरीर का रंग काला न रहकर भूरा हो गया था। वह निस्पंसद, निस्पृह धरती पर लेटा हुआ था।

‘‘बाउ, बाउ, कोकाई का….’’ के आर्त स्वर में उसमें कोई हलचल नहीं हुई। अपने-अपने मचान और खेतों से दौड़े हुए ग्रामीण आए।

वयोवृद्ध यदु ने कहा, ‘‘ठनका यहीं गिरा है, कोकाई चपेट में आ गया। देखते क्या हो? खाट लाओ, आँगन ले चलो। आधे घंटे की बारिश ने मौसम बदल दिया था। उमस भर गई थी।’’

कोकाई के संस्कार के बाद बेटों ने, जैसा कि अकसर होता है, उधार लेकर भंडारे का आयेजन किया। भंडारा चूँकि साधुओं का था, सो शुद्ध घी का हलुआ-पूड़ी, बुँदिया-दही का प्रसाद रहा। संस्कार के वक्त ही साधू के प्रतिनिधि ने बड़े बेटे फेंकना से कहा, ‘‘तुम कोकाई को अग्नि कैसे दोगे? साँकठ जो हो, पहले कंठी धारण करो’ साधु को पैठ होगा, वरना…’’ 

रोता हुआ अबूझ-सा फेंकना कंठी धारण कर बैठ गया। बारहवीं का भोज समाप्त हुआ। गले में गमछा डालकर फेंकना-बुधना साधुओं के सामने खड़ा हुआ।

‘‘साहेब, हम ऋण से उऋण हुए कि नहीं?’’ का उऋण सुनने के लिए बेताब थे। 

साधु घी की खुशबू में सराबोर थे; कीर्तनिया झाल-मृदंग बजाकर गा रहे थे- ‘‘मैली चादर ओढ़ के कैसे द्वार तिहारे जाऊँ।’’

‘‘नहीं रे फेंकना, तेरी ऋण-मुक्ति कहाँ हुई? गोसाईं साहेब ने दो साल पहले पचहत्तर मुंड साधु का भोज-दंड दिया था। नहीं पूरा कर पाया बेचारा। यह तो तुम्हें ही पूरा करना पड़ेगा। उऋण होना है तो यह सब करना पड़ेगा।’’

‘‘पचहत्तर मुंड साधु! क्या हते हैं? हम ऐसे ही लुट गए, अब कौन देगा ऋण भी हमको?’’ रोने लगा फेंकना।

‘‘क्या? तो बाप का पाप कैसे कटित होगा?’’

‘‘आप लोग अन्याय कर रहे हैं। कबीरदास सभी रूढ़ियों के खिलाफ थे। उनका नाम लेकर रूढ़िवाद की पराकाष्ठा पर चले गए हैं,’’ गाँव के एक मैट्रिक पास युवक ने आगे आकर कहा। 

‘‘तुमसे कौन पूछता है? यह फेंकना के उऋण होने की बात है, उसे बरगलाकर पापा के भागी बनने पर मजबूर न करो।’’

‘‘बड़का पढुआ बने हो!’’ लेकिन प्रतिकार करने को भी बहुत सारे लड़के इकट्ठे हो गए। अच्छा हंगामा मच गया। फेंकना ने मेट साधु के पैर पकड़ लिए। बुधना रो-रोकर हलकान हो गया। बेलसंडीवाली को गश पर गश आने लगे।

‘‘ऐ प्राणी, अपनी माँ को बुलाओ। हम उसी से पूछेंगे, अपने आदमी को परलोक में किस स्थान पर रखना चाहती है?’’ उनकी निर्भय गर्जना ने फेकना के अंदर साहस का संचार किया। वह ग्रामीणों की ओर मुड़ा, अपने आँसू पोंछे और हाथ जोड़कर खड़ा हो गया।

‘‘कहिए चाचाजी, भैयाजी लोग। हम गरीबों की मदद कैसे करेंगे आप?’’

‘‘कहने की बात है, जाते हैं साहुजी के पास। सब सामान लिखा देते हैं, तुरंत काम होगा,’’ एक खुर्राट ग्रामीण ने कहा। साहुजी दौडत्रे हुए सामन गिरा गए। हलवाई बैठ गए बारहवीं से लेकर तेरहवीं तक सत्तर मुंड साधुओं का जीमने लगा। यह अतिरिक्त मुंड प्रायश्चित्त का था। 

कीर्तनिया अलाप ले रहे थे- ‘‘हमके ओढ़ां द चदरिया हो, चलने की बेरिया।’’

‘‘बबुआ फेंकन, इस लिस्ट पर दसखत कर दो, मेरे पास रहेगा। कमाकर देते रहना दोनों भाई। पढ़ लो ठीक से,’’ साहुजी ने कहा।

फेंकने ने टो-टा कर पढ़ लिख- ‘‘दो पैसा सैकड़ा सूद।’’ भरी आँखों से सकल समाज की ओर देखता रहा, फिर दस्तखत कर दिए।

‘‘आह, बाप का काम संपन्न हुआ। दंड भी पूरा किया। वाह बेटा!’’ खुर्राट ग्रामीण ने कहा। धीरे-धीरे अतिथि जाने लगे। फेंकना भारी कदमों से गश खाती माँ के पास आ खड़ा हुआ। धीमें-से बैठा। माँ ने उसकी ओर कातर निगाहों से देखा। 

‘‘माँ, कल भोरे गाँव से निकलना है, होश करो। बुधना खेत सँभालेगा, तुम पीठ पर रहना। बाउ के काम का कर्ज जब तक नहीं उतारेंगे, उनके ऊपर चादर कैसे ओढ़ाएँगे? बाउ यहीं कहीं रहेगा, पैठन नहीं होगा,’’ बेटे से लिपटकर जी भर रो चुकी बेलसंडीवाली फिर कभी होश नहीं खो सकी।

बनारस में डबल शिफ्ट रिक्शा चलाता फेंकन हलकान होकर कबीर चैरा पर सो जाता है कुत्ते की नींद और जागता है बिल्ली की नींद। कीर्तन के उदास स्वर हवा में तैरते रहते हैं- ‘‘हमके ओढ़ा द चदरिया हो….’’

रिक्शे पर पैडल जोर-से माने लगता है फेंकन-कर्ज की कई किस्तें बाकी हैं।

…………….

मेरे जीवन का नया अध्याय

चाचाजी यानी पं0 बहादुर खां शर्मा नदी पार के गांव मुसहरिया के निवासी थे। भरे पूरे परिवार के मुखिया थे। वे चार विषयों के स्वर्णपदकधारी आचार्य थे। प्रतिष्ठित किसान थे। बाबूजी के साथ मिलकर कोसी इलाके के उद्धार के सपने देखने लगे थे। इलाके के पुराने बाशिन्दे होने के नाते उनके अपने दोस्त दुश्मन थे। दुश्मन प्रायः निकटस्थ ही होते हैं। जो उगलत बने निगलत बने। हमारे लिये वे ही अभिभावक थे। परन्तु मेरे बाबूजी छूट देने वाले अभिभावक थे चाचाजी कठोर अनुशासनप्रिय व्यक्ति थे। हम उनसे सहमे रहते। पर उनके बच्चे स्वाभाविक रहते, उनको आदत जो थी। दोनों घरों के बच्चों में मैं बड़ी सन्तान थी तो रामचन्द्र जी अपने घर के बड़े थे। थे तो मुझसे तीन वर्ष बड़े पर उनकी चर्चा सर्वत्र होती। मेरे बाबूजी तथा उनके दोस्त मित्र सभी रामचन्द्र जी की तीक्ष्ण बुद्धि और रातदिन बड़ी बड़ी किताबों के पढ़ने के कायल थे। मैंने उनके बाद फिर अपनी ही बेटी अंशु (अनुराधाशंकर) को बचपन में उतनी मोटी मोटी अंग्रेजी, संस्कृत, हिन्दी मैथिली किताबें पढ़ते देखी। रामचंद्र जी जब 15-16 वर्ष के थे तब हम किशोरों पर उनका दबदबा खासा था। बाबूजी के नहीं रहने के बाद किशोर रामचंद्र जी हमारे सामने फ्रेंड फिलासफर और गाइड बन कर उभरे। हम तो तीन भाईबहन उनके बेहद निकट हो गये। उनके कहे पर चलते। मैं एक तो लड़की थी दूसरी मात्र तीन साल छोटी थी सो मेरे प्रति उनका कोमल भाव था जिसे वे छुपाते नहीं। मैं भी उनसे सलाह लेती। मेरे स्कूल की और मुहल्ले की लड़कियाँ भी उनसे सलाह लेतीं और वे पुरोधा की तरह गूढ़ गहन भाषण देने को सदा तैयार रहते अब विचारती हूँ तो अचरज होता है कि एक 15-16 साल का किशोर इतना विश्वसीनय कैसे था। 

हमारी स्मृत्ति में सदा से वीणापाणि क्लब का भवन एक सांस्कृतिक रूप लिए खड़ा रहता है। बाबूजी और उनके मित्र अक्सर वहाँ जुटते, सुना था कि क्रांति के दिनों में उस जुटान पर पुलिस की नजर रहती। कई बार गिरफ्तारियाँ हुई मैं जबकी बात कर रही हॅूं, देश आजाद हो चुका था, तब चित्तों बाबू और शिवानी दी के कुँआरे रह जाने के किस्से सेमल की रूई के फाहों की मानिन्द वातावरण में उड़ते रहते। वयस्क स्त्रियों के मुख से सुना था कि चित्तों बाबू को टी0वी0 हो गया है। जो उस समय असाध्य रोग था, शिवानी दी सच्ची प्रेमिका थीं शादी करना चाहती थीं पर चित्तो बाबू ने ही ना कर दिया था वे भी आजीवन कुँआरी रह गई थीं।

चित्तो बाबू वीणापाणि क्लब के दुर्गापूजन में लिप्त रहते। सुबहसुबह बाँस के कमची की खूबसूरत फुलडाली लेकर प्रथम पूजा के दिन आते और हाँक लगातें – ‘‘मिनी, गो लोक्खी कोथाय आछो?’’ – जब तक हम सॅंभलते वे अंदर जाते आंगन में, माँ से पूछतेंशुद्ध मैथिली में 

‘‘भौजी, मिनी पटना सँ आएल?’’

‘‘एतेक टा फुलडाली?’’ – माँ उनके हाथ में बड़ी फुलडाली देख चकित होतीं।

‘‘पूरा टोल के सखी बहिनपा फूल बीछत भौजी।’’ – माँ उन्हें खुशबूदार चाय पीने देतीं, वे तारीफ करते फिर अपना कप ले ट्यूबवेल पर धोने लगते, माँ बरजती।

‘‘जरूरी छै भौजी।’’

‘‘अलग छै आहांक कप डिश; खौला कै फराक राखैछी।’’ सचमुच दोनों बीमारी के कारण सावधान थे।

चार बजे सुबह हम एक बाग में जाते हरसिंगार के फूल चुनने। पूरी फुलडाली भर जाती। तब हम स्वयं के लिए भी लाते। मुहल्ले भर के बालक बालिकाओं की फौज रहती। फुलडाली देवी मंदिर में पहूँचा दिया जाता। एक दिन मैंने कोई कीड़ा देख लिया वहाँ से चीखकर भागी और सीधे आँगन आकर माँ की गोद में गिरी। वे डर गई कि मुझे हुआ क्या? मेरे पीछे पीछे दोस्तों  का हुजूम आया। उन्होंने सारी कहानी कह सुनाई फिर तो मैं फूल चुनने कभी गई। बाबूजी ने मेरी खिल्ली जरूर उड़ाई – ‘‘बेटी, मैं तो तुम्हें बहुत मजबूत देखना चाहता हॅूं तुम एक कीड़े से डर गई?’’ – जीवन के कई मोड़ पर मैंने बाबूजी की वह आवाज सुनी है, दृढ़ होती रही हॅूं।

ऐसे ही समय एक सप्तमी की शाम को गलियारे में साँप ने मुझे डॅंस लिया। घर में माँ या मामी नहीं थी। मैं और मुझसे छोटा भाई था। भाई ने चटपट मेरे टखनों को रस्सी से कस कर बाँध दिया। फिर स्वास्थ्य की किताब निकाल कर पढ़पढ़कर डॉक्टरी करने लगा। उंगली में जहाँ साँप ने काटा था वहाँ प्लस का निशान लगाकर काटा और उसमें पोटाश भर दिया तब हम माँ के पास गये जहाँ ढेर सारी चाचियाँ तथा कम्पाउन्डर चाचा थे। बड़ा शोर हुआ, भाई को एक चाँटा भी लगा। डॉक्टरी जाँच में जहर नहीं निकला पर रात भर कई गहवर घुमाई गई मैं, चाटी चली और रतजगा अलग। बाबूजी नहीं थे शहर में सो आस्थावान लोगों की बन आई। पर साँप डॅंसने के बाद का अनुभव कमाल का रहा।

बाबूजी जेल से निकलने के बाद एक बार फिर इतस्ततः में थे कि क्या किया जाय। तभी बेनीपुरी जी ने मुजफ्फरपुर बुला लिया। मैं दोढाई साल की रही होउंगी। रानी चाची ने मुझे चाँदी का पायल गढ़वा कर पहनाया बाबूजी ने निकालने कहा।

‘‘क्यों?’’ –  बेनीपुरी जी ने पूछा

‘‘भाईजीं, मैं इसमें लड़कीपन देखना नहीं चाहता, इसे विद्वान, क्रांतिकारी होना है।’’

‘‘पायल पहनने से विद्वान बनने में दिक्कत आयेगी क्या?’’

‘‘इसमें उलझकर रह जायेगी।’’

‘‘सरोजनी नायडू मोतियों की माला और कुंडल धारण करती हैं, अच्छे कपड़े बिन्दी चूड़ी पहनती हैं, वे विदुषी हैं ?’’

अब बाबूजी निरूत्तर हो गये।

‘‘चलती है तो रूनझुन का स्वर आता है, आपको नहीं भाता?’’ – चाचाजी ने कहा था। परन्तु एक दिन उस ऊॅंचे बरामदे से गिर गई, पायल टूट गई।

वहाँ बाबूजीकिताब संसारनामक प्रेस खोलकर किताबें छाप रहे थे। बाबू अनुग्रह नारायण सिंह का ‘‘मेरे संस्मरण’’ – छापा था। जिसे बाद में किसी ने छापा परन्तु उन्होंने बाबूजी के नाम का क्रेडिट दिया, क्योंकि बाबू गंगाशरण सिंह की देखरेख में छपा था। वहाँ भी क्रांतिकारी साहित्य, परचे छपते थे सो एक दिन प्रेस ध्वस्त कर पकड़ लिये गये थे। आजन्म कैद की सजा सुनाई गई थी।

ऐसे समय में जब मेरा दोटा भाई गर्भ में था तो माँ पेरौल का दरख्वास्त लेकर कमिश्नर के यहाँ गई थी। पेरौल स्वीकार नहीं किया गया पर कॉटेज माँ को दे दिया गया, दो नर्स और एक मेट ª देख रेख के लिए रख दी गई। माँ जब दरख्वास्त लेकर गई थी उस समय कमिश्नर की बेटी ने मुझे चाकलेट खाने को दिया, माँ ने मेरे हाथ से चॉकलेट लेकर उसके सामने ही फेक दिया कि विदेशी के हाथ से विदेशी कि चॉकलेट  छूना भी नहीं है। बाद में उन्होंने ही एल0आर0 गर्ल्स स्कूल की स्थापना की, लेडी रादरफोर्ड गल्र्स स्कूल जिसका नाम अब पं0 रामनन्दन मिश्र कन्या विद्यालय है। कई लोग कूट कर कहते हैंरामनन्दन मिश्र की कोई बेटी तो थी नहीं तब यह स्कूल उनके नाम पर क्यों? लोगों को यह नहीं पता कि बेटी मैं हॅूं ! और फिर सातवीं पास बहू सत्यवती मिश्र का आठवीं क्लास में नाम लिखाया गया। भाभी ने वहाँ से मैट्रिक पास किया और वहीं के सी0एम0 कॉलेज से बी00

मैं अपने सखा जो बाद में पति हो गये पर बाबूजी के जाने के बाद खासी निर्भर हो गई वैसे तो होस्टल में रहती परन्तु जब माँ आती तो घर जाती। स्कूल के पीछे ही तो मेरा घर है। थोड़ी दूर पर एक कॉलोनी थी उन दिनों, राजपूत कॉलोनी वहाँ एक लड़की रहती थी जिससे मेरे टोले की लड़कियों की दोस्ती थीं वह लड़की हम सब से थोड़ी बड़ी थी। खूबसूरत रोमांटिक लड़की थी। मेरे टोले की लड़कियाँ उसके वायवीय इश्क के किस्से विभोर होकर सुनती थी। एक दिन हमने सुना कि कहीं से अपने प्रेमी का फोटो ले आई है। किताब के सात तहों वाले जिल्द में रखी फोटो देख हम आश्चर्य से चीख उठे। वह चित्र रामचन्द्र खान जी का था। उस लड़की ने हमें भार दिया कि उसका प्रेमपत्र उन तक पहूँचाऊॅं। मैंने सबसे पहले सूखे कंठ से कहा कि ऐसा नहीं कर सकती क्योंकि वो मुझे माँ को कहकर पिटवायेंगे बाकी लड़कियों को भी दिन में तारे नजर आने लगे। रामचन्द्र जी को सब आदरणीय वाले ऊॅंचे आसन पर बैठातीं। उस घटना के तीन चार साल बाद जब मैं पटना में कॉलेज में पढ़ रही थी, तब छुट्टियों में कुछ दिनों के लिए गांव जाने की बजाय लहेयिासराय में रह गई। मेरी सहेलियाँ विमला, इन्दु, गोदावरी भूमली सब बहुत प्रसन्न हुईं। हम दिन भर मस्ती करते। सुना वो रामांटिक लड़की भी आई है। उसका विवाह हो चुका था काफी गहनों से लदी थी। आई और मेरे दूल्हे रामचंद्र जी को देखकर भड़क गई। सभी सहेलियों को खरी खोटी सुनाती रही। उसकी अमानत में खयानत जो हो गया। इन सब बातों से रामचंद्र जी अनभिज्ञ थे पर सहेलियों ने बुरा माना।

उनदिनों किशोर खासे रोमांटिक हुआ करते थे। मेरे ही टोले में प्रभास कुमार चैधरी रहते थे। वे मुझसे दो साल सीनियर थे। कुछ दिनों के लिए मुझे सरस्वती स्कूल में पढ़ना पड़ा। तब प्रभास मुझे अपनी क्लासमेट लोगों के लिए प्रेमपत्र दिया करते पहूँचाने को। मैं पहूँचा भी देती। मुझे याद है कोई बुरा मानती। एक दिन प्रभास ने मुझे एक कॉपी पकड़ाते हुए कहा – ‘‘किरण तुम हिन्दी बहुत अच्छा लिख लेती हो, वाद विवाद में अव्वल रहती हो, मेरा एक काम कर दो।मैं क्या कहती भला? उन्होंने हिन्दी कहानी लिखी थी जिसे मुझे पढ़कर सही करने को कहा। अब बताइये आठवीं में मैं और दसवीं के टॉपर प्रभास; कहानी सही करने लगी। कुछ लाल निशान भी लगाये। बाद के दिनों में प्रभास कुमार  चैधरी बड़े लेखक हुए। एकाध हिन्दी कहानी लिखी परन्तु वे मैथिली के यशस्वी लेखक हुए। प्रभास एक ईमानदार रोमांटिक व्यक्ति थे पढ़ने लिखने वाले जहीन बड़े अधिकारी। मैथिली साहित्य के लिए अभूतपूर्व कार्य किये। उन दिनों लहेरियासराय के नॉर्थब्रूक जिला स्कूल में बिहार के सभी स्कूलों का यूथ फेस्टीवल आयोजित था। एक बड़ा सर्वांगीण जमावड़ा। उस फेस्टीवल के संयोजक अध्यक्ष जिला स्कूल के ग्यारहवीं के रामचन्द्र खान जी, उपाध्यक्ष एल0आर0 गल्र्स स्कूल की श्यामली बनर्जी और सचिव एम0एल0 एकेडेमी दसवीं के छात्र प्रभास कुमार चैधरी। बहुत भव्य और चाक चैबन्द व्यवस्था थी। एक विशिष्ट कार्य के दर्शक हम हुए थे।

जब हमारा स्कूल पुराने किराये के मकान में चलता था तभी सन् 1949 में राष्ट्रपति देशरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसाद आये थे। मैं छोटी सी थी, इतनी कि गोद में लेकर टीचर ने मुझसे उन्हें खादी की माला पहनवायी। तब वे भारत के नहीं कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रपति थे। 

उसके बाद एक बहुत बड़ी सभा की याद है। वह सभा मेडिकल वाले मैदान में हुई थी। अवसर था जयप्रकाश नारायण का अभिनन्दन का, आचार्य कृपलानी वगैरह थे, गंगाशरण सिंह, बेनीपुरी जी थे। बाबूजी ने स्वागत भाषण किया था। वहाँ एक चर्चा आम थी कि पं0 रामनन्दन मिश्रा ने राजनीति का परित्याग कर दिया है। वे आध्यात्मिकता की ओर चले गये हैं। ये सारे समाजवादी धड़े के लोग थे। उन्हें रामनंदन मिश्र का विचार परिवर्तन रास नहीं रहा था। आगे इसी जुटान ने सन् 1952 के चुनाव में जो कि आजाद भारत का पहला आम चुनाव था विशाल कांग्रेस पार्टी को चुनौती दी।

            स्कूल में कितना कुछ होता था जो कमोबेश अब भी होता है। एक बात और है कि अनुशासन तो तब कड़क था पर आतंक नहीं था, सड़क पर भी माहौल आतंककारी था यह मैं लहेरियासराय के संबंध में कह रही हॅूं हमने मात्र सुना था कि महाराजा दरभंगा के छोटे भाई जो राजाबहादुर कहलाते थे का आतंक व्याप्त था। परंतु आजादी के परवाने जब समाज में सामने आये तब उन्होंने अपने हाथ पाॅंव समेट लिए।

मिथिला में जल्दी शादी की परंपरा थी। बाबूजी गुजर गये थे उनके दो निकटस्थ मित्रों को मेरी अत्यधिक चिन्ता थी। उनमें से एक उनके पुराने मित्र प्रख्यात वकील रामेश्वर प्र0 सिंह थे। लहेरियासराय में उनका दोमंजिला चेम्बर मुझे अब भी याद है। रामेश्वर बाबू काले सूट और गॉगल्स में शानदार लगते। जब उनकी गाड़ी रूकती तब टैफिक थम जाता। वे पाइप पीते। उनके चैम्बर की सज्जा भी कमाल की थी। उनका घर कटहलबाड़ी में था। चाची पढ़ीलिखी थीं और सितार बजाना जानतीं। मैंने दो चार दिन हाथ आजमाये बस। दूसरे साथी थे बहादुर बाबू जो बाद में मेरे ससुर हो गये। रामेश्वर बाबू ने उन्हें ही कहा कि वे सजातीय हैं सो मेरे लिए लड़का ढॅूंढे, ध्यान रहे कि वह लड़का कम से कम एक हजार रूपया तो महीना कमाता हो। गपशप में उन्होंने कहा कि क्यों राम बाबू से विवाह कर दिया जाय। बहादुर बाबू ने कहा ‘‘वो कौन सा एक हजार रू0 कमा रहा है, वह तो इन्टर में पढ़ रहा है।’’

‘‘बहुत मेधावी है, भविष्य अच्छा है उसका।’’ – रामेश्वर बाबू ने कहा

‘‘कहेगा कौन उनसे?’’ – बहादुर बाबू ने कहा।

‘‘मैं कोशिश करूंगा।’’ – रामेश्वर बाबू ने कहा तो पर कह पाये। परंतु मैंने मैट्रिक की परीक्षा दी और उन्होंने आई00 की और लाख ना नुकुर के बाद विवाह हो गया।

मैं पटना के मगध महिला कॉलेज में साइंस लेकर पढ़ने लगी और रामचंद्र जी पहले से ही पटना कॉलेज में थे। हम दोनों अलग अलग छात्रावास में थे जिसमें रविवार को विजिटर के रूप में मिलते। मेरी सारी मित्र साथ होतीं। कुछ सहेलियाँ खासी रोमांटिक थीं; जैसे शेफालिका मल्लिक जिसकी शादी गर्मी की छुट्टी में हो गई थी वर्मा जी के साथ। शेफालिका के पिता का घर पटना में था। वह रोमांटिक कवितायें ही नहीं, रोमांटिक बातचीत भी करती थी।

           मगध महिला कॉलेज गंगा के किनारे बसा हुआ है। वहीं एक होस्टल था जो अब जर्जर गार्गी होस्टल के नाम से जाना जाता है। शायद टूटकर नया बनने वाला है। होस्टल डॉरमेट्री टाइप था। पीछे मेस और भोजनालय आगे बेहद खूबसूरत बागीचा। बागीचा का माली चैतू बहुत जानकार और प्रयोगशील था। मैंने उससे गुलाब तथा अन्य फूलों को लगाने का गुर सीखा था। एक पौधे में चार छः रंगों के गुलाब तो वह खिलाता ही, गुलाब की पंखुड़ियों पर अनेक रंग बिखेरने का गुर भी जानता। फूलों के विषय में वह मेरा अच्छा गुरू निकला।

कॉलेज के परले सिरे पर होस्टल के पास विशाल बरगद का पेड़ था। उसकी कुछ डालियाँ गंगा की ओर झुकती थीं। पेड़ पर बन्दरों का ठिकाना था सो हमारे कॉलेज और होस्टल पर उसका खासा साम्राज्य था। कॉलेज का कैम्पस गंगा की ओर से मात्र तार से घिरा था; हम वहाँ लगे सिमेन्ट की बेंचों पर बैठ गंगा का नजारा देखते। वहीं बैठ कर दिन में हम शेफालिका की कवितायें सुनते और रात में सावित्री नेपाली से गीत सुनते। सावित्री गलत महमूद के गीत खूब गाती।

बंदर लड़कियों से खाना छीनकर खा जाता। रविवार को बरामदे में बैठकर छात्रायें होस्टल के मशीन पर अपना कपड़ा वगैरह सिलतीं। एक दिन एक बन्दर आया अधसिला ब्लाउज ले भागा। जाकर वह पेड़ की डाल पर बैठ गया। लड़कियों ने उस पर कुछ अमरूद वगैरह फेंके, ताकि वह ब्लाउज फेंक दे उसने वैसा किया भी पर गंगा में मेडिकल कॉलेज के छात्र नौका विहार कर रहे थे, वह ब्लाउज उनकी नाव में गिर गया। लड़कियाँ हक्कीबक्की। लड़कों ने इशारे से किनारे आकर ले जाने को कहा वे चढ़ने भी लगे। एक सीनियर दीदी ने कहा यह गलत है यदि आपलोग कृपा कर सामने से दे जायें तो उपकार होगा सचमुच उसी शाम को अखबार में लपेट कर ब्लाउज दे गये लड़के जो भावी डॉक्टर थे। बंदरों के तमाम सारे किस्से तत्कालीन अखबारों में छपते। अब वह वटवृक्ष नहीं है। गंगा किनारे ऊॅंची दीवारें हैं। मैदान के पूर्वी सिरे पर हॉल, लैब इत्यादि है। होस्टल भी दो और हैं। परन्तु एक विशेष स्थान जिसकी कॉलेज को जरूरत थी नहीं दी गई। वहाँ ट्रेनिंग कॉलेज है। यह सब गड़बड़ विश्वविद्यालय प्रशासन और सरकारें करती हैं। संरचना, भूगोल और सरकार का रवैया सदा से विरोधी रहा है। फिर भी कॉलेज आन बान और शान से खड़ा है। उसी की कोख से पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय की कई बढ़ियाँ संस्थायें उभरी हैं। सामने बड़ा सा गांधी मैदान है जो पहले लॉन कहा जाता था। पहले वह खुला विशाल मैदान था अब बाड़े हैं, मूर्तियाँ और बागीचे हैं। अब की तरह पहले भी पन्द्रह अगस्त तथा छब्बीस जनवरी को झंडे फहराये जाते थे। परेड होते थे आर्मी, पुलिस और स्कूली बच्चों के। उन दिनों सन् बावनतिरेपन में मैं ऐंगस गल्र्स स्कूल में पढ़ती थी। स्कूलों में गल्र्स गाइड बड़ी बच्चियों के लिए और ब्लू बर्ड्स छोटी बच्चियों के लिए संस्था थी। मैं ब्लू बर्ड्स में थी, अच्छा परेड करने के कारण मैं कैप्टन थी, सबसे आगे रहती। अंग्रेजी गीतों का अजीब सा अनुवाद हम गाते, जिसे आजतक समझ पाई

            नीली चिड़िया हॅंसती गाती है

ये तो हमारी आदत है

डाउन डाउन, वेरी वेरी डाउन

हरी पत्तियों के बीच में है।’’

एक बार छब्बीस जनवरी के समय हमें गाँधी मैदान परेड में जाना था। वहाँ निरीक्षण के समय राज्यपाल से हाथ मिलाना होता। ब्लू बर्ड को बायाँ हाथ मिलाना होता था, मैं कैप्टन थी मुझे बायाँ हाथ मिलाने का अभ्यास कराया गया। पर मैं बड़े पेशोपेश में थी। पढ़ाकू थी सो राजगोपालाचारी द्वारा संक्षिप्त बच्चों के पढ़ने लायक महाभारत पढ़ लिया था। उसमें देवयानी का बायाँ हाथ पकड़कर सम्राट ययति ने कुऍं से बाहर निकाला जिस कारण उन्हें विवाह करना पड़ा। हमारे राज्यपाल थे वयोवृद्ध माधव श्री हरिअणे। मेरे मन में था कि कहीं मेरा विवाह तो नहीं इनसे हो जायेगा? मैंने चटपट दाहिना हाथ उनसे मिला लिया। उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ा परन्तु स्कूल में मुझे सजा मिली। पर मैंने यह भेद बहुत बाद में समझने पर अपनी लहेरिया सराय की सहेलियों से साझा किया। हम उस प्रसंग को याद कर हॅंसते रहते।

लहेरियासराय से नाता छीजने लगा क्योंकि पटना पढ़ने गई। अब लहेयिासराय मात्र रास्ते का एक ठहराव भर रह गया था। मैं गाँव पकरिया चली जाती। बस से उन दिनों बिरौल सुपौल पहूँचते, नाव पर चढ़कर तीनचार कभी पाँच घंटों में गाँव पहूँचते। गाँव में घर के आगे कोसी नदी की धारा थी जो बारहो माह जल से भरी होती। बाद में जब तटबंध बना तब हम लहेरियासराय से ट्रेन पर चढ़कर घोघरडीहा स्टेशन पर उतरते, कई बार वहाँ से बैलगाड़ी में आते, कई बार वहीं बाँध के साथ बहती धारा में नाव पर आती। यात्रायें बेहद थकाऊ और खतरनाक होतीं। कई बार रात हो जाती तो नाव तट पर लगा कर छोड़ देते नाविक। नाव पर चैकी होती, बिस्तर होता और टप्पर भी होता। खाने का सामान बरतन भांडा सहित साथ होता। वे अक्सर या तो खिचड़ी पकाते और हमें खिलाते या जाल, टहुका लगाये मल्लाहों से मछली लेकर पकाते। पूरे दो दिनों की यात्रा होती। दो दिन और दो रात। छोटी छुट्टियों में हम गाँव नहीं आते। प्रत्येक यात्रा एक जंग थी प्रकृति के साथ। दो चार बानगी मैं देती हॅूं।

           हम नाव से घोघरडीहा की ओर चले। उधर जाना धारा के विपरीत जाना होता है। ऐसे में एक व्यक्ति चप्पू लग्गा चलाता है दूसरा आदमी गून (मजबूत रस्सी) से नाव को खींचता है। नाव की गति अक्सर धीमी होती। कई बार गून टूट जाती है तब नाव संकट में पड़कर डूबने लगती है। ऐसे में नाविक की सूझबूझ और सवारी का धैर्य काम आता है। मैं दो बार ऐसे संकट से गुजरी हूँ। आज भी याद कर सिहर जाती हॅूं, कलेजा मूँह को आता है। इस बार हमारे ससुर जी साथ थे और थे ससुराल के सम्मिलित परिवार के बच्चे जो लहेरियासराय में रहकर पढ़ते थे। अंधेरी रात थी गून खींचने वाले के पैरों में काँटा गड़ गया। उधर बबूल बहुत होते हैं। उसे बबूल का भयानक कांटा पैरों में गड़ गया, वह चीख उठा। ससुर जी ने टॉर्च से रोशनी की और कहा गून को वहीं झाड़ में बाँध दो मैं नीचे उतरता हॅूं। उसने वैसा ही किया। पर झाड़ में बिढ़नी का निवास था। कईयों ने बेचारे को काट लिया। वह चीखने लगा ससुर जी नीचे उतरे उसका काँटा खींच कर निकाला और चादर से झटक झटककर बिढ़नी उन्हें भगायी। टॉर्च से स्थान का मुआयना किया तो लगा कोई देवस्थली निकट है। उधर लालटेन टॅंगी थी। रास्ता देख कर वे वहाँ पहूँचे और रहने वाले से पूछा

‘‘आपलोग रात भर यहाँ ठौर देंगे क्या? हमारे साथ बच्चे हैं हम कल तड़के निकल जायेंगे। घोघरडीहा जाना है।’’

‘‘आप कहाँ के हैं सरकार?’’ – संवासिनी ने पूछा।

‘‘हम मुसहरिया जमालपुर के हैं।’’

‘‘किस मुसहरिया के? द्वारिका खाँ वाले मुसहरिया के कि बहादुर खाँ वाले मुसहरिया के?’’

‘‘द्वारिका खाँ वाले मुहरिया के हैं।’’- ससुरजी ने हॅंसकर कहा। स्थल से एक बड़ी चैकी और एक खाट दी गई। सारे बच्चे और मैं चैकी पर खुले आकाश में लेटे, खाट पर ससुर जी। नाविकद्वय नाव पर थे। तारों भरी खूबसूरत अंधेरी रात थी, बच्चे पड़ेपड़े मारामारी कर रहे थे। नींद किसी को नहीं आई। बबूल का घना जंगल, पानी का शोर और तिलस्मी दिखता देवस्थल अलग से डरा रहा था। सुबह सबेरे हम निकल गये थे। वह यात्रा अविस्मरणीय रही।

        एक बार मेरा भाई तटबंध से बैलगाड़ी लेकर घोघरडिहा की ओर मुझे लेने आया। हम ट्रेन से उतरकर चल पड़े। रास्ता लम्बा था। कुछ दूर जाने पर जोरदार बारिश होने लगी। किसी गाँव के रखवाले की झोपड़ी थी, बड़ी दो भाग में बॅंटी हुई। उसने कहा – ‘‘मैं गाँव चला जाता हॅूं। आपलोग रहिये। चूल्हा बरतन और लकड़ी है, खाना बना लीजियेगा’’ – हम उतर गये। बैलों को दूसरे खंड में बाँध कर गाड़ीवान खिचड़ी बनाने लगा। बारिश तेज होने लगी। पास में ही डोमबस्ती थी जो बाँस के सूप टोकरे बनाते थे सूअर भी पालते थे। वे डोम और उनके सूअर सारे घुस आये झोपड़े में। क्योंकि उनके झोपड़ों में पानी भर आया था। बैल सूअरों को सींगे मारने लगा। अजब समा बन गया था जैसे हुरियाहा ले रहा हो। घंटे भर बाद बारिश थमी। चाँदनी रात थी। हमलोगों ने गाड़ी जोती और चल पड़े। अपने घर के सामने जहाँ कम पानी था वहाँ से बैलगाड़ी पार हुई, हम चलते हुए नदी पार कर घर पहूँचे।

ऐसा अक्सर होता रहता हम आदी हो गये थे। ये रोमांचक यात्रायें भूलने लायक नहीं हैं। गाँव जाकर सबकुछ भूल जाते। खेत नदी और सहेलियाँ जो मजदूर वर्ग की थीं उनके किस्से कारनामे के आगे वह सब हवा हो जाता।

कई बार बाबूजी के साथ भी नाव पर कठिन यात्रायें हुई। रात अॅंधेरी होती, चप्पू का स्वर और जल का विराट क्षेत्र, समुद्र सा दीखता, परन्तु नाविक परिचित थे नदी की गति से। मुझे याद है रात को नाव पर बाबूजी ने तारे दिखाकर उनका परिचय कराया था, सतभैया के नाम बताये थे, शुक्र और ध्रुव तारे दिखाये थे। जब खलोगीय ज्ञान देते तो उसमें पौराणिक घुस पैठ नहीं होता, विशुद्ध विज्ञान होता। स्वतंत्रता आन्दोलन की ढेर सारी बातें बताते, कोई नकारात्मक चर्चा कभी नहीं थी। बंगाल के अकाल के समय वे पूर्वी बंगाल में सेवाकार्य करने गये थे। उन्होंने वहाँ की त्रासद कहानी सुनाई थी। एक वृद्धा इन्हें अपना बेटा समझने लगी थी। एक दिन इनसे पूछा – ‘‘तूभि पोछिमा मोतोन कैनो बोलचो?’’ – सच है, प्रायः दरभंगा में पश्चिम बंगाल वाले बांग्ला भाषी रह रहे थे सो हम वैसा ही बोलने समझने के आदी हैं। बाबूजी उन्हें यह कहकर निराश नहीं करना चाहते थे कि वे उनके बेटे नहीं हैं पछिमा ही हैं उनके जीवन की कई छिटफुट कहानियाँ जो उन्होंने मुझे कहीं थी और जो मेरा पाथेय है सुनाकर आप सबको यदा कदा उबाउॅंगी।

बारबार मैं बचपन की ओर लौट जाती हॅूं। पर हमारा बचपन अभी बीता नहीं था कि विवाह हो गया। एक ही भली बात थी कि हम एक दूसरे को अच्छी तरह जानते थे। गुणअवगुण अच्छा बुरा सब जानते थे। सो हम शरारतें वैसे ही करते जैसे पहले करते थे। मैं और मेरी गॅंवई सहेलियायाँ रामचंद्र जी के अत्यंत घने केश में तेल डालने का भय दिखाती, वे मुझे कीड़ा से डराते। मेरी माँ और उनके पिताजी थोड़े परेशान हो जाते। हमारे कॉलेज होस्टल वे मिलने आते रहते, मेरी सहेलियों के साथ गप्पे मारते। एक दिन सुपरिन्टेन्डेन्ट प्रो0 भाग्यवती सिंह ने बुलाकर लड़कियों को डॉंटा तथा समझाया कि वे पतिपत्नी हैं एकान्त में बातें करने दो। पर लड़कियाँ हॅंस कर टाल गईं। कुछ सीनियर लड़की और भाग्यवती दीदी ने समझाया कि — ‘‘रामचंद्र जी होली की छुट्टी में आपलोग घर नहीं जायेंगे तो क्यों नहीं राजगीर वगैरह घूम आते हैं?’’ – यह विचार जम गया हमें। हम चार दिनों के लिए राजगीर चले गये। गृद्धकूट पर्वत की तलहटी में वेणुवन नामक छोटा सा भदेस होटल था। वहाँ माड़वाड़ी थाली खाने को देते थे। समझ लीजिये कि वह हमारा हनीमून ट्रिप था। हमारे मन में स्त्री पुरूष का भाव जग गया और हम किशोर किशोरी से युवक युवती हो गये।

उन दिनों राजगीर में जैन धर्मशाला था जहाँ संवासिनियाँ सफेद हंस सी विचरण करती थीं। गरम पानी के कुंड पर नहाने वालों का तांता लगा रहता। मलमास और माघ में बड़ा मेला लगता। गृद्धकूट के रत्नागिरी पर्वत के लिए कोई रोप वे नहीं था पर लोग पत्थरों के ढोंके पर चढ़कर जाते जरूर। हम रत्नागिरी पर चढ़ने को प्रस्तुत हुए थे। मेरे पैर चढ़ाई चढ़ने से जबाव दे गये। हम आधे रास्ते पर थे। मैं बैठकर रोने लगी। रामचंद्र जी ने अपने स्वभाव के अनुसार पहले तो डाँटा कि इतनी सी दूरी पार नहीं कर सकती, बड़ी ऐथलीट बनती हो पर मैंने रोने का स्वर और ऊॅंचा कर लिया। तभी एक साधु चलता हुआ गया। वह कहने लगा – ‘‘बिटिया, मेरे कंधे पर बैठ जा मैं ले चलता हॅूं।’’ – मैंने अपने ऑंसू पोंछे और ऊपर चलने लगी। साधु आगे कूदकूद कर चले गये मैं रूकरूक कर चलती ऊपर शिखर तक पहूँच गई जहाँ एक जापानी साधु साधना लीन थे, बैठे थे। उन्होंने शीतल जल पिलाया। थोड़ी देर बैठकर हम उतर आये। राजगीर में बहुत कुछ नया जुड़ गया है पर पुरानी मान्यतायें जस की तस हैं। कुछ दूकानें जो मनके मोती बेचा करती थीं अब भी हैं हमारे जैसे लोगों के श्रृंगार के शौक की गुरिया की मालायें। रत्नागिरी पर भव्य मंदिर और रोप वे पर अक्सर जाते रहे परन्तु अपना हनीमून होटल वेणुवन भूले नहीं। अब वेणुवन होटल भी भव्य है।

अब मुझे अपनी रोमांटिक दोस्तों की प्रेमकविता समझ में आने लगी। मैं कविता तो लिखती थी पर कभी रोमांटिक नहीं लिखा। हाँ अब प्रेमपत्र जरूर लिखने लगी। उत्तर भी आने लगा। होस्टल की सीनियर्स पत्र उड़ा लेतीं, पहले पढ़कर फिर चिपका कर मुझे देतीं। मैं तब समझती जब पत्रांश वे मेरे सामने बोल कर चिढ़ातीं।

बाबा नागार्जुन मेरे लोकल गार्जियन थे। वे मेरे काका थे। काका कभी कभी मिलने आते। उन दिनों वे भिखना पहाड़ी के एक मकान में रहते थे। मकान का वर्णन उनके कुम्भीपाक नामक उपन्यास में विस्तार से आया है। शोभाकान्त भी स्कूल की पढ़ाई करने को यहीं थे। तब काकी नहीं आई थीं। वे अक्सर मुझे ले जाते थे। एक दिन रामचंद्र जी रविवार को काका के आदेश पर मुझे ले गये। मछली भात बनी। हम जमकर खाये और सो गये। एक कमरा था जहाँ फर्श पर बिस्तरा था हम चारो के लिये। मैं और शोभाकान्त नींद के आगोश में थे। काका और उनके जमाता रामचंद्र जी वैचारिक गपशप कर रहे थे, गपशप उग्र बहस में तब्दील हो गया। काका ने कहामुझे तुमसे कोई बात नहीं करनी, ‘जाओ यहाँ से।’’

‘‘मैं भी आप जैसे हठी इन्सान से बात नहीं करता।’’ – कहा रामचंद्र जी ने और मुझे जगाया।

          ‘‘चलिये यहाँ एक मिनट नहीं रहना है।’’ – मैं उठकर बैठ गई हक्की बक्की। काका ने मेरा हाथ पकड़ा और कहा

‘‘मेरी बेटी है, तुम जाओ यह नहीं जायेगी। मैं इसका लोकल गार्जियन हॅूं कल होस्टल पहूँचा दॅूंगा।’’

‘‘मैं पति हूँ, मैं ले जाउॅंगा और कल सुबह होस्टल पहूँचा दॅूंगा।’’ – जाहिर है रामचंद्र जी ने कठोरता से मुझे उठाया और सीढ़ियाँ उतर गये। सामने ही एक रिक्शा वाला सो रहा था उसपर बैठा कर स्वयं बैठ गये और आर्यकुमार रोड में शायद हबीबुर्रहमान साहब का दरवाजा खटखटाया

‘‘कौन’’ – आवाज आई

‘‘मैं हॅूं कामरेड, रामचंद्र।’’ – रात के एक बजे थे। उन्होंने दरवाजा खोला। एक कमरा था, एक चैकी थी।

‘‘अमां यार बेगम भी हैं? चलो बेगम किरण चैकी पर सो जाओ।’’ – उन्होंने कारण पूछा इन्होंने कहा। मैं पड़ कर सो गई। हबीब साहब जो बुजुर्ग थे ने चटाई बिछायी और दोनों सो गये। अल्लसुबह मैं होस्टल पहूँचा दी गई उधर काकाजी ने शोभाकान्त को कहा – ‘‘उठो देखो इतनी रात गये पगले ने मिन्नी को परेशान किया। रोको उसे। शोभाकान्त जबतक नीचे आये हम रिक्शे पर बैठ निकल गये थे। शाम को लगभग पाँच बजे मिठाई की हाँड़ी लेकर काका पहूँचे। आँखों में आँसू भरे थे, प्यार से सिर सहलाया और कहा – ‘‘उस बौराहे दामाद के पास सुबह गया था। मना लिया।’’ – मैं मूँह ताकती रही। यात्री काका यानी नागार्जुन का और रामचंद्र जी का अजीब आत्मीय रिश्ता था। दोनों घंटों पुस्तकों, विचारों समाचारों का विशद् विश्लेषण करते रहते।

मैं स्नातक कक्षा में पटना कॉलेज गई, सर गणेशदत्त  के नाम पर विश्वविद्यालय होस्टल है जिसमें मैं गई। काका जी ही लोकल गार्जियन थे। वह होस्टल कृष्णा घाट पर है विश्वविद्यालय परिसर में। काका काकी और बच्चे पटना के रानीघाट में गये थे। चैकोर आंगन बरामदे और कई कमरों वाला खपरैल घर था। वहाँ में कई कई दिन रहती। रामचंद्र जी पटना विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम00 करने के बाद कोलकाला प्रेसिडेन्सी कॉलेज में लिंग्विस्टिक्स में डबल एम00 करने चले गये थे।

इस बीच पटना विश्वविद्यालय में चुनाव के लिए यूनियन गठित हो चुका था। सबसे पहले पटना लॉ कॉलेज के छात्र श्री शीलेशचन्द्र मिश्र अध्यक्ष हुए थे। शायद वह 60-61 का समय होगा। दूसरी बार मित्रों ने रामचंद्र जी को आगे किया पर ये दो वोट से हार गये। मैं तब गाँव में थी। छुट्टियाँ थीं। राजनीति का अंदरूनी रूप स्वरूप देख इन्हें अच्छा नहीं लगा। इनके परम मित्र रामगोपाल बजाज नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में चले गये, ये कोलकाता चले गये। सन् 63-64-65 तक वे कोलकाता में रहे। मैं पटना कॉलेज में प्राचीन इतिहास पढ़ती रही। मेरी बेटी अनुराधा उसी बीच पैदा हुई मैं घर पर काफी दिनों तक रही फिर बेटी को अपनी माँ के पास छोड़ भारी मन से पटना गई। मेरा पूरा मन था कि बहुत हुआ अब ग्रेजुएशन के बाद घर पर रहॅूंगी। पर ऐसा हुआ, बी00 ऑनर्स में प्रथम गईस्कॉलरशिप मिल गया और गुरू प्रो0 डॉ. उपेन्द्र ठाकुर ने कहा कि आपको एम00 कर लेना चाहिए, काकाजी ने भी कहा। मैंने एम00 में दाखिला ले लिया।

…………….

error: Content is protected !!