Wednesday, December 4, 2024

कात्यायनी
जन्मतिथि : 7 मई, 1959। जन्मस्थान : गोरखपुर (उ.प्र.)
शिक्षा : एम.ए. (हिन्दी), एम. फिल.।
निम्नमध्यवर्गीय परिवार में जन्म। परम्परा तोड़कर प्रेम और विवाह एक सांस्कृतिक-राजनीतिक कार्यकर्ता से। 1980 से सांस्कृतिक-राजनीतिक सक्रियता। 1986 से कविताएँ लिखना और वैचारिक लेखन प्रारम्भ। नवभारत टाइम्स, स्वतंत्र भारत और दिनमान टाइम्स आदि के साथ कुछ वर्षों तक पत्रकारिता।
हिन्दी की लगभग सभी प्रमुख पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। अंग्रेज़ी, जर्मन, स्पेनिश और नेपाली में कविताएँ अनूदित। बंगला, मराठी, पंजाबी, गुजराती, मैथिल में भी अनेक रचनाएँ अनूदित-प्रकाशित। कई विश्वविद्यालयों में इनकी कविता और गद्य पुस्तकें पाठ्यक्रम में शामिल हैं और कविताओं पर करीब दो दर्जन शोध हो चुके हैं।
पुस्तकें : चेहरों पर आँच, सात भाइयों के बीच चम्पा, इस पौरुषपूर्ण समय में, जादू नहीं कविता, राख-अँधेरे की बारिश में, फुटपाथ पर कुर्सी, एक कोहरा पारभासी (कविता संकलन)। दुर्ग द्वार पर दस्तक, षड्यन्त्ररत मृतात्माओं के बीच, कुछ जीवन्त कुछ ज्वलन्त, प्रेम, परम्परा और विद्रोह (स्त्री-प्रश्न, समाज, संस्कृति और साहित्य पर केन्द्रित निबन्धों के संकलन)। पाश की कविताओं के संकलन ‘लहू है कि तब भी गाता है’ का सम्पादन। राजकमल विश्व क्लासिकी श्रृंखला का सम्पादन जिसमें अब तक 28 विश्व प्रसिद्ध कृतियाँ प्रकाशित। आर्लीन ज़िडे के सम्पादन में प्रकाशित एंथोलॉजी ‘इन देयर ओन वॉयस’ और श्टिख्टिंग इंडिया इंस्टीट़यूट से डच अनुवाद में प्रकाशित आधुनिक भारतीय कविताओं के संकलन में कविताएँ शामिल। नेपाली के अलावा गुजराती, बंगला, मराठी, मैथिली, पंजाबी, मलयालम सहित कई भारतीय भाषाओं में विभिन्न कविताओं के अनुवाद प्रकाशित।
पुरस्कारः शरद बिल्लौरे पुरस्कार, गिरिजा कुमार माथुर पुरस्कार, अपराजिता पुरस्कार, मुकुट बिहारी सरोज सम्मान, केदारनाथ अग्रवाल पुरस्कार।
पताः द्वारा, जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ, 226020।

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किताबें

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कविताएं

इस स्त्री से डरो

यह स्त्री

सब कुछ जानती है

पिंजरे के बारे में

जाल के बारे में

यंत्रणागृहों के बारे में

उससे पूछो।

पिंजरे के बारे में पूछो,

वह बताती है

नीले अनन्त विस्तार में

उड़ने के

रोमांच के बारे में।

जाल के बारे में पूछने पर

गहरे समुद्र में

खो जाने के

सपने के बारे में

बातें करने लगती है।

यंत्रणागृहों की बात छिड़ते ही

गाने लगती है

प्यार के बारे में

एक गीत।

रहस्यमय हैं इस स्त्री की उलटबाँसियाँ

इन्हें समझो।

इस स्त्री से डरो।

 

हॉकी खेलती लड़कियाँ

आज शुक्रवार का दिन है

और इस छोटे से शहर की ये लड़कियाँ

खेल रही हैं हॉकी।

ख़ुश हैं लड़कियाँ

फि़लहाल

खेल रही हैं हॉकी।

कोई डर नहीं।

बॉल के साथ दौड़ती हुई

हाथों में साधे स्टिक

वे हरी घास पर तैरती हैं,

चूल्हे की आँच से

मूसल की धमक से

दौड़ती हुई

    बहुत

दूर

  आ जाती हैं।

वहाँ इन्तज़ार कर रहे हैं

उन्हें देखने आये हुए वर पक्ष के लोग,

वहाँ अम्मा बैठी राह तकती हैं

कि बेटियाँ आयें तो

सन्तोषी माता की कथा सुनायें

और 

    वे

अपना व्रत तोड़ें,

वहाँ बाबूजी प्रतीक्षा कर रहे हैं

दफ़्तर से लौटकर

पकौड़ी और चाय की,

वहाँ भाई घूम-घूमकर लौट आ रहा है

चौराहे से

जहाँ खड़े हैं मुहल्ले के शोहदे

रोज़ की तरह

और इधर

लड़कियाँ हैं

      कि

हॉकी

  खेल रही हैं।

लड़कियाँ

पेनाल्टी कार्नर मार रही हैं

लड़कियाँ पास दे रही हैं

लड़कियाँ ‘गोऽल-गोऽल’ चिल्लाती हुई

बीच मैदान की ओर भाग रही हैं

लड़कियाँ एक-दूसरे पर ढह रही हैं

एक-दूसरे को चूम रही हैं

और 

हँस रही हैं।

लड़कियाँ फ़ाउल खेल रही हैं

लड़कियों को चेतावनी दी जा रही है

और वे हँस रही हैं

    कि

यह ज़िन्दगी नहीं है

 – इस बात से निश्चिन्त हैं लड़कियाँ

हँस रही हैं

रेफ़री की चेतावनी पर।

लड़कियाँ बारिश के बाद की नम घास पर

फिसल रही हैं

और गिर रही हैं

    और उठ रही हैं

वे लहरा रही हैं

चमक रही हैं

और मैदान के अलग-अलग कोनों में

रह-रहकर उमड़-घुमड़ रही हैं।

वे चीख़ रही हैं, सीटी मार रही हैं

और बिना रुके

भाग रही हैं

एक छोर से दूसरे छोर तक।

उनकी पुष्ट टाँगें चमक रही हैं

नृत्य की लयबद्ध गति के साथ

और लड़कियाँ हैं कि

    निर्द्वन्द्व

  निश्चिन्त हैं

बिना यह सोचे कि

मुँहदिखाई की रस्म करते समय

सास क्या सोचेगी।

इसी तरह खेलती रहती लड़कियाँ

निस्संकोच-निर्भीक

दौड़ती-भागती और हँसती रहतीं

इसी तरह

और हम देखते रहते उन्हें।

पर शाम है कि होगी ही

रेफ़री है कि बाज नहीं आयेगा

सीटी बजाने से

और स्टिक लटकाये हाथों में

एक भीषण जंग से निपटने की

तैयारी करती लड़कियाँ

लौटेंगी घर।

अगर ऐसा न हो तो

समय रुक जायेगा

इन्द्र-मरुत-वरुण सब कुपित हो जायेंगे

वज्रपात हो जायेगा, चक्रवात आ जायेगा

घर पर बैठे

देखने आये वर-पक्ष के लोग

पैर पटकते चले जायेंगे

बाबूजी घुस आयेंगे गरजते हुए मैदान में

भाई दौड़ता हुआ आयेगा

और झोंटा पकड़कर

घसीट ले जायेगा

अम्मा कोसेगी – 

‘किस घड़ी में पैदा किया था

ऐसी कुलच्छनी बेटी!’

बाबूजी चीख़ेंगे – ‘सब तुम्हारा बिगाड़ा हुआ है’

घर

     फिर 

  एक अँधेरे में

      डूब जायेगा

सब सो जायेंगे

लड़कियाँ घूरेंगी अँधेरे में

खटिया पर चित्त लेटी हुई

अम्मा की लम्बी साँसें सुनती

इन्तज़ार करती हुई

कि अभी वे आकर उनका सिर सहलायेंगी

सो जायेंगी लड़कियाँ

और 

      सपने में

    दौड़ती हुई

बॉल के पीछे

स्टिक को साधे हुए हाथों में

पृथ्वी के

छोर पर पहुँच जायेंगी

और

‘गोल-गोल’ चिल्लाती हुई

एक-दूसरे को चूमती हुई

लिपटकर

धरती पर

        गिर जायेंगी!

सात भाइयों के बीच चम्पा

सात भाइयों के बीच

चम्पा सयानी हुई।

बाँस की टहनी-सी लचक वाली,

बाप की छाती पर साँप-सी लोटती

सपनों में

काली छाया-सी डोलती

सात भाइयों के बीच

चम्पा सयानी हुई।

ओखल में धान के साथ

कूट दी गयी

भूसी के साथ कूड़े पर

फेंक दी गयी।

वहाँ अमरबेल बनकर उगी।

झरबेरी के सात कँटीले झाड़ों के बीच

चम्पा अमरबेल बन सयानी हुई।

फिर से घर आ धमकी।

सात भाइयों के बीच सयानी चम्पा

एक दिन घर की छत से

लटकती पायी गयी।

तालाब में जलकुम्भी के जालों के बीच

दबा दी गयी।

वहाँ एक नीलकमल उग आया।

जलकुम्भी के जालों से ऊपर उठकर

चम्पा फिर घर आ गयी,

देवता पर चढ़ायी गयी

मुरझाने पर मसलकर फेंक दी गयी,

जलायी गयी।

उसकी राख बिखेर दी गयी

पूरे गाँव में।

रात को बारिश हुई झमड़कर।

अगले ही दिन

हर दरवाज़े के बाहर

नागफनी के बीहड़ घेरों के बीच

निर्भय-निस्संग चम्पा

मुस्कुराती पायी गयी।

गार्गी

मत जाओ गार्गी प्रश्नों की सीमा से आगे

तुम्हारा सिर कटकर लुढ़केगा ज़मीन पर,

मत करो याज्ञवल्क्यों की अवमानना,

मत उठाओ प्रश्न ब्रह्मसत्ता पर,

वह पुरुष है!

मत तोड़ो इन नियमों को।

पुत्र बन पिता का प्यार लो

अंकशायिनी बनो

फिर कोख में धारण करो

पुरुष का अंश

मत रचो नया लोकाचार

मत जाओ प्रश्नों की सीमा से आगे।

गार्गी, तुम जलो रुपयों की ख़ातिर

बिको बीमार बेटे की ख़ातिर

नाचो इशारों पर

गार्गी तुम ज़रा स्मार्ट बनो

तहज़ीब सीखो

सीढ़ी बन जाओ हमारी तरक़्क़ी की

गार्गी तुम देवी हो – जीवनसंगिनी हो

पतिव्रता हो गार्गी तुम

हम अधूरे हैं तुम्हारे बिना

महान बनने में हमारी मदद करो

दुनिया को फ़तह करने में

आसमान तक चढ़ने में

गार्गी तुम एक रस्सी बनो।

त्याग-तप की प्रतिमा हो तुम

सोचो परिवार का हित

अपने इस घर को सँभालो

मत जाओ प्रश्नों की सीमा से आगे

तुम्हारा सिर कटकर लुढ़केगा ज़मीन पर!

त्रियाचरित्रं पुरुषस्य भाग्यम्...

गुरु ने कहा, पहली भिक्षा अन्न की लाना

गाँव-नगर के पास न जाना।

 

लायी मैं

कटिया के बाद झरे हुए

दानों को खेतों से माँगकर।

गौरैया बन

दिन-दिन भर चुनती रही।

गुरु की भूख मिटायी।

 

गुरु ने कहा, दूसरी भिक्षा जल की लाना

कुँआ-बावड़ी पास न जाना।

 

स्वाति नक्षत्र में

बादलों से गिरी बूँदें

पीती रही सीपी बन

सँजोती रही।

उसमें भीतर का नमक घुलता रहा।

सारा खारापन उलीचती रही

लगातार

आत्मा से बाहर।

कामना की सारी मिठास सँजोकर

गुरु की प्यास बुझायी।

 

गुरु ने कहा, तीसरी भिक्षा नींद की लाना

सुख-आराम के पास न जाना।

मख़मल के गद्दे-सी

बिछ गयी।

कोहरे के फाहों से

तकिया बनाया,

आसमान का चँदोवा

ताना,

पलकों से पंखा झलती रही

गुरु को तुष्ट किया।

 

गुरु ने कहा, चौथी भिक्षा में सेवा लाना

तर्क-प्रश्न के पास न जाना।

 

आँख-कान मूँदकर

सोचना भी छोड़कर

सेवा जो की गुरु की तो ऐसी कि

तीनों लोकों के स्वामियों के

सिंहासन हिल उठे।

देवों के हृदय में ईर्ष्याग्नि धधक उठी।

गुरु को ख़ुश किया।

तब फिर गुरु ने कहा, अन्तिम भिक्षा प्रेम की लाना

हृदय चीरकर उसे दिखाना।

 

हे ईश्वर! यह कैसा अनर्थ?

क्या छिपा न रह सकेगा

यह मेरा एकमात्र रहस्य?

गुरुवर! यह जो मैंने

आपकी भूख-प्यास मिटायी,

सुख-आराम की नींद दी,

तन-मन से सेवा की,

यही तो है एक स्त्री का प्रेम एकनिष्ठ।

गुरु लेकिन ताड़ चुके थे

मेरा स्वाँग,

सदियों से जो छिपा रखी थी

आख़ि‍री उम्मीद

और अपना अन्तिम अमोघ अस्त्र भी,

उसे छीनने के लिए

गुरु झपटे।

मुझे दबोचकर तेज़ चाकू से

उन्होंने मेरी छाती चीर दी।

पर जड़ीभूत हो गये वे

परम आश्चर्य से,

वहाँ मेरा हृदय न पाकर।

क्या थी वह सेवा,

वह निष्ठा, वह लगन,

वह श्रद्धा

आख़ि‍र क्या थी?

त्रियाचरित्र नहीं जान सके गुरु,

स्त्री को नहीं पहचान सके।

प्रेम का स्वाँग तो ताड़ गये

पर प्रेम न पा सके गुरु।

तड़पते रहे लगातार उसे पाने को।

दीक्षा तो अधूरी रही मेरी

लेकिन प्रतिशोध पूरा हुआ।

तपस्या व्यर्थ हुई मेरी

पर गुरु की भी।

मुक्त नहीं हो सकी मैं

पर गुरु भी

सन्देह की आग और प्यार की प्यास में

जलते रहे, भुनते रहे

पकते रहे, सिंकते रहे

धुँआते रहे, झुलसते रहे

और 

उनकी आत्मा राख होती रही

और

तमाम सारी तरक़्क़ि‍यों के बावजूद,

दुनिया 

बद से बदतर होती रही।

एक असमाप्त कविता की अति प्राचीन पाण्डुलिपि

स्त्री हूँ, अज्ञान के अन्धकार में भटकने को पैदा हुई – यह जानने में ही उम्र का एक बड़ा हिस्सा ख़त्म हो गया। पशु नहीं थी फिर भी। या बन नहीं पायी। जो अपरिचित रह जाती ज्ञान से।

गुरु बिना ज्ञान नहीं सम्भव। यह जाना। सुना। गुरु मिले। उम्र का एक और बड़ा हिस्सा ख़र्च करने के बाद। ‘पेड़ बनकर फल और छाया दो’ – गुरु ने कहा। बतलाया मुक्ति-मार्ग। आज्ञा शिरोधार्य। वैसा ही किया मैंने। बहुत सारे लोग आये भूख मिटाने। मेरी छाया में करने आराम। कुछ ने मेरी टहनियाँ तोड़ डालीं। मसल डालीं फुनगियाँ। कुछ ने काट दी डालियाँ। और कुछ ने तनों की ख़ाल खुरचकर अपने नाम लिख डाले।

फिर गुरु ने कहा – ‘धरती बनो।’ धरती भी बनी मैं। सर्वसहा। सदियों वे चीरते रहे मेरी छाती और जो कुछ भी पैदा किया उसके लिए लड़ते रहे। उनका ख़ून जज़्ब होता रहा मेरी खुली छाती में। दूध नहीं, सिर्फ़ ख़ून ही चूस सकते थे वे मेरे स्तनों से। और मातृत्व की महानता पर रच सकते थे अनगिन कविताएँ।

तब गुरु ने कहा – ‘एक विशाल, हवादार, रौशन घर बन जाओ।’ तत्क्षण किया ऐसा ही। शीत-आतप की चिन्ता किये बिना। पर उन्होंने मेरी सारी खिड़कियाँ बन्द कर दीं। मूँद दिये सभी रोशनदान। दरवाज़ों पर वज़नी ताले डाल चाभियाँ तेज़ाब की एक नदी में फेंक दीं। और मेरी रूह को घुप्प अँधेरे में क़ैद कर दिया।

इस बार गुरु ने कहा – ‘एक किताब बन जाओ।’ सो बन गयी मैं। पर उन्होंने सीधी-सादी बातें कहतीं मेरी तमाम लाइनों को तरह-तरह की रोशनाइयों से अण्डरलाइन कर दिया। जटिल व्याख्याओं के पेपरवेट से मुझे कुचल दिया। फिर तकिये के नीचे दबाकर सो गये।

आख़ि‍री राह सुझायी गुरु ने – ‘धरती छोड़ उड़ जाओ आकाश में। ग्रह बन जाओ। रात के अन्धकार में चमकती रहो सूर्य के प्रकाश से। और फिर उसे भेजती रहो धरती पर।’ टिमटिमाती भर रही मैं। थोड़ी-सी रोशनी से अपनी पहचान कराती। धरती पर रोशनी न भेज पाने के असन्तोष को झेल भी लेती शायद अपनी अस्मिता की मान्यता के सुख में जीती हुई। पर आवारा उन्मुक्तमना उल्कापिण्ड लगातार टकरा-टकराकर मुझे लहूलुहान करते रहे। तब जाना कि उड़कर इस पृथ्वी से दूर जा सकते हैं सिर्फ़ महान कवि। कोई आम आदमी नहीं। स्त्री क़तई नहीं।

लौटी फिर गुरु की शरण में। वहाँ मौन था मेरे लिए। चतुर्दिक एक निरुपाय नितान्त नीरवता। सहना – कुछ न कहना। जाहि बिधि राखे राम ताहि बिधि रहना। पर हालात इस क़दर बुरे थे और मन इस हद तक बेचैन कि रह पाना सम्भव ही न था अकेले चुपचाप या जी पाना स्वान्तःसुखाय। फिर जब जीना ही था मरना तो चार युगों, चौरासी करोड़ योनियों का दुख झेल, तैंतीस करोड़ देवताओं का कोप झेल, ऋषियों-मुनियों-यतियों-यक्षों से शापित, उतर पड़ी उस काले जल वाले सरोवर में जिसके तल में था रसातल। वहाँ वे रसातलवासी लगातार बकते रहे गालियाँ। सुनाते रहे उलटबाँसियाँ। पर अन्तिम ठौर था मृत्यु से भी आगे यह। फिर जाती कहाँ मैं? वहीं भटकती रही। तब फिर बरसों बाद अर्थ खुले उन तमाम उलटबाँसियों के। चीज़ों को जानना हुआ एक हद तक। और यह कि चीज़ों को बदलने की प्रक्रिया में लोग ख़ुद को भी बदल लेते हैं। और यह कि स्त्री के लिए भी पहली ज़रूरी चीज़ यह जानना है कि एक बेहतर दुनिया के वास्ते कविता लिखने की हद तक जीना एक बेहद बुरी दुनिया की बुनियादी बुराइयों और उन्हें बदलने की इच्छा और उद्यम को शब्द देने और शक्ति देने के बाद ही सम्भव हो सकेगा।

तब मैंने वह करने की सोची। और जो भी ज़रूरी था इसके लिए, वह करना शुरू किया। पर समय अब बहुत कम ही बचा था मेरे पास। इतना कम कि लिखने से पहले, लिखने की शर्त पूरी करने में ही ख़तम होने को आ गया। और तब आने वाली दुनिया के तमाम लोगों के लिए मैंने एक लम्बा प्रेम पत्र लिखा। रहस्यपूर्ण और तमाम रहस्यों को खोलता हुआ। और फिर उस रहस्य को लिये हुए साथ, क़ब्र में जा लेटी।

वहाँ से भेज रही हूँ यह एक कलाहीन कविता दुनिया के तमाम सुधी आलोचकों-सम्पादकों के नाम। मेरी क़ब्र के ऊपर नहीं बना है कोई पक्का चबूतरा। कोई पहचान नहीं उसकी। न कोई नामपट्टी, न कोई समाधि-लेख जिससे कि आप मेरे सफ़र के आख़ि‍री मुक़ाम की शिनाख़्त कर सकें अपने तमाम सम्पादकीय अनुभवों और आलोचनात्मक विवेक के बावजूद। यदि यह कविता बन सकी एक थकी हुई मगर अजेय स्त्री की पहचान तो यह कविता रहेगी असमाप्त। और यह दुनिया जब तक रहेगी, चैन से नहीं रहेगी।

एक भूतपूर्व नगरवधू की दुर्गपति से प्रार्थना

सिर्फ़ एक बार दुर्ग के द्वार खोल दो, दुर्गपति!

प्रार्थना मुझ दुखियारी की सुन लो

नगराधिपति!

मैं अदृश्य परकोटों-बुर्ज़ोंवाले इस महानगर से

बाहर जाना चाहती हूँ,

ध्वनि और प्रकाश के अहर्निश जारी क्रम में

मैं एक अनुगूँज या छाया तक भी

नहीं बनना चाहती,

अब इस शोर और चौंधियाती रोशनी से

मैं दूर जाना चाहती हूँ।

इस मीनाबाज़ार में मेरा दम घुट रहा है।

मुझे मुक्त कर दो दुर्गपति,

वैसे भी मेरा यौवन अब ढलान पर है।

इस नन्दन-कानन के मदनोत्सवों के लिए

राजपुरुषों-श्रेष्ठियों-अभिजनों के आमोद-प्रमोद के लिए,

प्रशस्त राजमार्ग या नगर की जनसंकुल वीथियों से

पुष्पसज्जित यान पर आरूढ़ गुज़रते हुए

अपनी मात्रा एक झलक से कामातुर नागरिकों के हृदय को

उन्मत्त कर देने के लिए,

तुम्हारे पुष्पक विमानों में यात्रा करते

महाजनों की सेवा के लिए,

तुम्हारी सजी-धजी दुकानों के सम्भ्रान्त ग्राहकों को

प्रसन्न करने के लिए,

तुम्हारी मधुशालाओं के लिए और

रात्रि-आमोद-गृहों के लिए

मैं अनुपयोगी हो चुकी हूँ।

वह चपलता नहीं रही पैरों में कि

विद्युत गति से थिरककर नृत्यशालाओं में

या कि चित्रापट पर

झंकृत कर सकूँ कुलीन कलावन्तों के हृदय के तार,

तृप्त कर सकूँ उनकी सौन्दर्य-पिपासा

पूरी कर सकूँ उनकी कला-साधना की कामना।

अब इतनी सकत नहीं रही

कि दिन भर मुस्कुरा सकूँ, अदाएँ दिखा सकूँ,

निर्माता-निर्देशकों को रिझा सकूँ

या दूरदर्शन पर सौन्दर्य-प्रसाधनों का विज्ञापन कर सकूँ।

होंगे दुर्ग के बाहर घेरा डाले हुए तुम्हारे शत्रु,

मैं तो उनके लिए भी वैसे ही एक स्त्री-शरीर हूँ

जैसे तुम्हारे नागर-जनों के लिए।

उनके शिविरों से मैं पार निकल लूँगी

कुछेक वर्षों का नर्क झेलकर

मैं जीवित रहूँगी

क्योंकि अभी भी मैं जीवित रहना चाहती हूँ।

नहीं, यह कहना उचित होगा कि

अब मैं जीवित होना चाहती हूँ दुर्गपति,

मुझे जाने दो

मैं अपनी पहचान तक जाना चाहती हूँ

अपनी आत्मा तक

अपनी अस्मिता तक जाना चाहती हूँ मैं।

मेरे शरीर के ही तो तुम स्वामी हो,

वह तो अब लुंज-पुंज मांस का एक लोथभर है

इसे तिरस्कृत कर दो स्वामी

फेंक दो दुर्ग से बाहर।

देखो, मेरे स्तनों से बहता हुआ दूध

उस अप्रितम सौन्दर्य के अवशेषों को भी

मटियामेट कर रहा है

जो कभी पागल बना देता था तुम्हारे लोगों को।

मुझे इन स्तनों को

प्यासे विकल शिशु अधरों तक ले जाने दो,

इस जन-अरण्य से दूर

मुझे उन फ़सलों तक जाने दो,

अपने यौवन को अमरत्व प्रदान करने के लिए

जिनका रस निचोड़कर तुम पीते हो,

मुझे उन पौधों तक जाने दो

जिनके कण्ठ फूटने को हैं,

उन विशाल सघन वृक्षों तक जाने दो मुझे

जिनके पत्तों से फूटती मर्मर ध्वनि

यहाँ, सीधे मेरी आत्मा तक आ रही है।

ऐसे ही एक वृक्ष के तने से पीठ टिकाकर

कम से कम एक बार,

भले ही वह ज़िन्दगी में आख़ि‍री बार हो,

अपने मन से एक गीत गाना है मुझे

जिसकी कभी किसी ने फ़रमाइश न की हो।

जलते रेगिस्तान में ही सही,

कम से कम एक बार मैं

अपने लिए नृत्य करना चाहती हूँ।

मुझे अपने लिए एक बार

खुले आसमान के नीचे जाने दो

तारों से टपकती ओस-सनी रोशनी में भीगने दो।

आख़ि‍र तुम इस बात से डरते क्यों हो दुर्गपति

कि मैं उस गाँव को ढूँढ़ लूँगी जहाँ से

कंचे खेलते समय मुझे उठा लाया गया था

बचपन में, मौर्यवंश या गुप्तवंश के

शासनकाल में, या उससे भी पहले कभी।

सहस्त्राब्दियाँ बीत चुकी हैं,

मैं अब थक चुकी हूँ दुर्गपति।

तुम्हारे कि़ले की अदृश्य दीवारों से टकरा-टकराकर

मेरा सिर लहूलुहान हो रहा है,

उनमें गवाक्ष या द्वार टटोलते-टटोलते

मैं निढाल हो चुकी हूँ।

ये दीवारें कहाँ तक फैली हैं दुर्गपति,

कहाँ हैं द्वार?

और ये जो मेरी उँगलियाँ स्पर्श कर रही हैं

ये दुर्ग की दीवारों में पड़ी

दरारें ही हैं न दुर्गपति?

औरत और घर

कविगण कहते रहे घर के बारे में

बहुत मासूम और कोमल

प्यार भरी बातें,

शताब्दियों-सहस्त्राब्दियों से रचते रहे वे

ऋचाएँ, गीत और कविताएँ

घर लौट चलने, घर में होने,

कचोटते दिल से घर से बाहर जाने

और घर की उदासी भरी यादों के बारे में।

वहाँ एक औरत रहती रही

घर को हिफ़ाज़त के साथ घर बनाये हुए,

उसे भूतों का डेरा बनने से जतनपूर्वक बचाते हुए,

घर में सुरक्षापूर्वक

होने का अहसास वह एक

बेहद नशीली शराब की तरह पीती रही।

वहाँ गैस थी, मिक्सी और मसालदानी थी,

सिंक, वाशबेसिन,

सैनिफ़्रेश-ओडोनिल और मेंहदी थी,

नहाने-कपड़े धोने के साबुन,

सिंगारदान, झाड़ू, कुर्सियाँ-दिवान, कैलेण्डर, पेण्टिंग्स

स्वर्गीय पिताजी की माला सजी तस्वीर

और शादी के समय की

उसकी अपनी तस्वीर पति के साथ।

बिस्तर था, बच्चे थे,

बेडस्विच से जलने वाला नीला बल्ब भी था,

शब्दकोश भी कई थे और कविताओं की पुस्तकें भी।

एकदम भरा-पूरा था घर,

हृदय की पूरी उदारता और विशालता के साथ उसने

अपना लिया था औरत को प्यार से,

अपना एक हिस्सा बना लिया था।

एक सख़्त अनुशासनप्रिय अभिभावक भी था घर,

लगातार पीछा करता था,

जब भी औरत निकलती थी बाहर सड़क पर।

जानता था वह, औरत का आना सड़क पर

ख़तरनाक होता है औरत के लिए

और पूरे समाज के लिए भी।

जादूगर था घर – देखते ही देखते

अपने ठोस वजूद को उसूल में बदल लेता था,

ज़िन्दा और बेजान चीज़ों के समुच्चय के बजाय

संस्कार और मूल्य बन जाता था

और फिर पलक झपकते ही

पहले जैसा बन जाता था

जैसा कि

लोग देखते-जानते हैं उसे

आम तौर पर।

मसखरा भी था शायद घर,

औरत के सपने में दूसरे रूप धरकर आता था

और उसे डराता था – 

आता था कभी वह उचाट पठारी मैदान बनकर,

रेत का टीला बनकर

या चट्टानों की तरह लुढ़कता था

इधर-उधर।

दफ़्तर में भी बना रहता था वह

जच्चाघर और रसोईघर की तरह ही

साथ-साथ औरत के।

घर का एक टुकड़ा होने का अहसास लिये

जो औरत थी – 

बस, उसने एक ही मासूम-सा सवाल किया था

एक दिन अचानक कि

औरत क्या एक घर के बिना भी हो सकती है

या फिर क्या कोई और भी चौहद्दी हो सकती है

सुखपूर्वक रहने-खाने-जीने के लिए

घर के अलावा

जिसमें रहते हुए औरत औरत बनी रहे और

घर घर भी बना रहे,

यानी वह न हो घर का हिस्सा,

बल्कि उसकी एक बाशिन्दा हो?

बस इतनी-सी बात हुई थी कि

उसका पासपोर्ट ज़ब्त कर लिया गया

और दुनिया के हर घर की

नागरिकता के लिए उसे अयोग्य घोषित कर

दिया गया।

घर से अलग होकर

एक लम्बा सफ़र तय किया औरत ने

पागलख़ाने तक का। लेकिन आश्चर्य!

आख़ि‍रकार उसे क्षमादान मिल ही गया।

उसने पाया कि यह भी एक घर था

तीमारदारी, चौकसी

और हिदायतों के साथ,

फ़र्क़ सिर्फ़ इतना था कि

यह उनका घर था

जिनके लिए दुनिया में नहीं था

कोई और घर!

आम आदमी का प्यार

जब भी इस पृथ्वी पर कहीं

कोई एक बेहद आम आदमी

किसी से कहता है : “मैं तुम्हें प्यार करता हूँ,”

तो दरअसल वह ख़ुद को ही

विश्वास दिला रहा होता है

कि वह अभी भी प्यार करने की कूव्वत रखता है,

कि वह प्यार कर सकता है

दुनिया की तमाम विपत्तियों, तमाम सन्देहों,

तमाम युद्धों, तमाम अनिश्चय

और तमाम बेगानापन के बावजूद।

उस समय वह ख़ुद को

विश्वास दिला रहा होता है

कि वह सिर्फ़ ख़ुद को ही नहीं

किसी दूसरे को भी चाह सकता है

और शायद इतना चाह सकता है

जितना कि ख़ुद को भी नहीं 

या शायद इतना चाह सकता है

कि ख़ुद को भूल सकता है।

जब भी कोई साधारण आदमी

कहता है, “मैं तुम्हें प्यार करता हूँ,”

तो वह ख़ुद से कह रहा होता है

कि वह अच्छाइयों से

प्यार करने की कूव्वत रखता है

(क्योंकि एक बुरा आदमी भी

बुराइयों से कभी प्यार नहीं करता,

वह उनका ग़ुलाम होता है

और एक ग़ुलाम

मालिक को कभी प्यार नहीं करता,

बल्कि अवश होता है उसके सामने)

और इसलिए,

जब भी इस पृथ्वी पर कहीं

कोई एक बेहद आम आदमी

किसी से कहता है : “मैं तुम्हें प्यार करता हूँ,”

तो दरअसल वह ख़ुद को ही

विश्वास दिला रहा होता है

कि वह अभी भी प्यार करने की कूव्वत रखता है,

कि वह प्यार कर सकता है

दुनिया की तमाम विपत्तियों, तमाम सन्देहों,

तमाम युद्धों, तमाम अनिश्चय

और तमाम बेगानापन के बावजूद।

उस समय वह ख़ुद को

विश्वास दिला रहा होता है

कि वह सिर्फ़ ख़ुद को ही नहीं

किसी दूसरे को भी चाह सकता है

और शायद इतना चाह सकता है

जितना कि ख़ुद को भी नहीं 

या शायद इतना चाह सकता है

कि ख़ुद को भूल सकता है।

जब भी कोई साधारण आदमी

कहता है, “मैं तुम्हें प्यार करता हूँ,”

तो वह ख़ुद से कह रहा होता है

कि वह अच्छाइयों से

प्यार करने की कूव्वत रखता है

(क्योंकि एक बुरा आदमी भी

बुराइयों से कभी प्यार नहीं करता,

वह उनका ग़ुलाम होता है

और एक ग़ुलाम

मालिक को कभी प्यार नहीं करता,

बल्कि अवश होता है उसके सामने)

और इसलिए,

ज़रूरत पड़ी तो

अच्छाइयों पर आने वाले हर संकट के ख़ि‍लाफ़

तनकर खड़ा भी हो सकता है।

जब भी इस पृथ्वी पर

तमाम अन्याय-अत्याचार

शोषण-असमानता, ग़रीबी-बेरोज़गारी

और महँगाई के बीच जीने वाला

कोई एक निहायत मामूली आदमी

किसी से कहता है, “मैं तुम्हें प्यार करता हूँ,”

तो वह इस जाती हुई अनाचारी सदी द्वारा

उपस्थित की गयी चुनौतियों को

स्वीकार कर रहा होता है

(अब यह एक दीगर बात है 

कि कब तक वह

अपने संकल्प पर क़ायम रहता है

पर कम से कम उस समय

वह अपने हृदय की सच्ची भावनाओं को

प्रकट कर रहा होता है

और सच्चे विश्वास के साथ

अपने समय के अँधेरे को

चुनौती दे रहा होता है)

जब भी कोई आम आदमी

अपने दिल की गहराइयों में छिपे

प्यार का इज़हार करता है 

तो वह बेहतर भविष्य के प्रति ख़ुद को

आश्वस्त कर रहा होता है

या फिर वह अपने घुटनों की ताक़त

आज़मा रहा होता है कि वह अभी भी

कभी उठ खड़ा हो सकता है

हत्यारे की आँखों में झाँकता हुआ।

एक निहायत मामूली आदमी

जब खोलता है अपना हृदय

तो वह विस्मृति के विरुद्ध

संघर्ष कर रहा होता है

या फिर शब्दों के सही अर्थों तक

बेहद बेचैनी के साथ

पहुँचने की कोशिश कर रहा होता है।

 

औरत और घर

कविगण कहते रहे घर के बारे में

बहुत मासूम और कोमल

प्यार भरी बातें,

शताब्दियों-सहस्त्राब्दियों से रचते रहे वे

ऋचाएँ, गीत और कविताएँ

घर लौट चलने, घर में होने,

कचोटते दिल से घर से बाहर जाने

और घर की उदासी भरी यादों के बारे में।

वहाँ एक औरत रहती रही

घर को हिफ़ाज़त के साथ घर बनाये हुए,

उसे भूतों का डेरा बनने से जतनपूर्वक बचाते हुए,

घर में सुरक्षापूर्वक

होने का अहसास वह एक

बेहद नशीली शराब की तरह पीती रही।

वहाँ गैस थी, मिक्सी और मसालदानी थी,

सिंक, वाशबेसिन,

सैनिफ़्रेश-ओडोनिल और मेंहदी थी,

नहाने-कपड़े धोने के साबुन,

सिंगारदान, झाड़ू, कुर्सियाँ-दिवान, कैलेण्डर, पेण्टिंग्स

स्वर्गीय पिताजी की माला सजी तस्वीर

और शादी के समय की

उसकी अपनी तस्वीर पति के साथ।

बिस्तर था, बच्चे थे,

बेडस्विच से जलने वाला नीला बल्ब भी था,

शब्दकोश भी कई थे और कविताओं की पुस्तकें भी।

एकदम भरा-पूरा था घर,

हृदय की पूरी उदारता और विशालता के साथ उसने

अपना लिया था औरत को प्यार से,

अपना एक हिस्सा बना लिया था।

एक सख़्त अनुशासनप्रिय अभिभावक भी था घर,

लगातार पीछा करता था,

जब भी औरत निकलती थी बाहर सड़क पर।

जानता था वह, औरत का आना सड़क पर

ख़तरनाक होता है औरत के लिए

और पूरे समाज के लिए भी।

जादूगर था घर – देखते ही देखते

अपने ठोस वजूद को उसूल में बदल लेता था,

ज़िन्दा और बेजान चीज़ों के समुच्चय के बजाय

संस्कार और मूल्य बन जाता था

और फिर पलक झपकते ही

पहले जैसा बन जाता था

जैसा कि

लोग देखते-जानते हैं उसे

आम तौर पर।

मसखरा भी था शायद घर,

औरत के सपने में दूसरे रूप धरकर आता था

और उसे डराता था – 

आता था कभी वह उचाट पठारी मैदान बनकर,

रेत का टीला बनकर

या चट्टानों की तरह लुढ़कता था

इधर-उधर।

दफ़्तर में भी बना रहता था वह

जच्चाघर और रसोईघर की तरह ही

साथ-साथ औरत के।

घर का एक टुकड़ा होने का अहसास लिये

जो औरत थी – 

बस, उसने एक ही मासूम-सा सवाल किया था

एक दिन अचानक कि

औरत क्या एक घर के बिना भी हो सकती है

या फिर क्या कोई और भी चौहद्दी हो सकती है

सुखपूर्वक रहने-खाने-जीने के लिए

घर के अलावा

जिसमें रहते हुए औरत औरत बनी रहे और

घर घर भी बना रहे,

यानी वह न हो घर का हिस्सा,

बल्कि उसकी एक बाशिन्दा हो?

बस इतनी-सी बात हुई थी कि

उसका पासपोर्ट ज़ब्त कर लिया गया

और दुनिया के हर घर की

नागरिकता के लिए उसे अयोग्य घोषित कर

दिया गया।

घर से अलग होकर

एक लम्बा सफ़र तय किया औरत ने

पागलख़ाने तक का। लेकिन आश्चर्य!

आख़ि‍रकार उसे क्षमादान मिल ही गया।

उसने पाया कि यह भी एक घर था

तीमारदारी, चौकसी

और हिदायतों के साथ,

फ़र्क़ सिर्फ़ इतना था कि

यह उनका घर था

जिनके लिए दुनिया में नहीं था

कोई और घर!

आम आदमी का प्यार

जब भी इस पृथ्वी पर कहीं

कोई एक बेहद आम आदमी

किसी से कहता है : “मैं तुम्हें प्यार करता हूँ,”

तो दरअसल वह ख़ुद को ही

विश्वास दिला रहा होता है

कि वह अभी भी प्यार करने की कूव्वत रखता है,

कि वह प्यार कर सकता है

दुनिया की तमाम विपत्तियों, तमाम सन्देहों,

तमाम युद्धों, तमाम अनिश्चय

और तमाम बेगानापन के बावजूद।

उस समय वह ख़ुद को

विश्वास दिला रहा होता है

कि वह सिर्फ़ ख़ुद को ही नहीं

किसी दूसरे को भी चाह सकता है

और शायद इतना चाह सकता है

जितना कि ख़ुद को भी नहीं 

या शायद इतना चाह सकता है

कि ख़ुद को भूल सकता है।

जब भी कोई साधारण आदमी

कहता है, “मैं तुम्हें प्यार करता हूँ,”

तो वह ख़ुद से कह रहा होता है

कि वह अच्छाइयों से

प्यार करने की कूव्वत रखता है

(क्योंकि एक बुरा आदमी भी

बुराइयों से कभी प्यार नहीं करता,

वह उनका ग़ुलाम होता है

और एक ग़ुलाम

मालिक को कभी प्यार नहीं करता,

बल्कि अवश होता है उसके सामने)

और इसलिए,

जब भी इस पृथ्वी पर कहीं

कोई एक बेहद आम आदमी

किसी से कहता है : “मैं तुम्हें प्यार करता हूँ,”

तो दरअसल वह ख़ुद को ही

विश्वास दिला रहा होता है

कि वह अभी भी प्यार करने की कूव्वत रखता है,

कि वह प्यार कर सकता है

दुनिया की तमाम विपत्तियों, तमाम सन्देहों,

तमाम युद्धों, तमाम अनिश्चय

और तमाम बेगानापन के बावजूद।

उस समय वह ख़ुद को

विश्वास दिला रहा होता है

कि वह सिर्फ़ ख़ुद को ही नहीं

किसी दूसरे को भी चाह सकता है

और शायद इतना चाह सकता है

जितना कि ख़ुद को भी नहीं 

या शायद इतना चाह सकता है

कि ख़ुद को भूल सकता है।

जब भी कोई साधारण आदमी

कहता है, “मैं तुम्हें प्यार करता हूँ,”

तो वह ख़ुद से कह रहा होता है

कि वह अच्छाइयों से

प्यार करने की कूव्वत रखता है

(क्योंकि एक बुरा आदमी भी

बुराइयों से कभी प्यार नहीं करता,

वह उनका ग़ुलाम होता है

और एक ग़ुलाम

मालिक को कभी प्यार नहीं करता,

बल्कि अवश होता है उसके सामने)

और इसलिए,

ज़रूरत पड़ी तो

अच्छाइयों पर आने वाले हर संकट के ख़ि‍लाफ़

तनकर खड़ा भी हो सकता है।

जब भी इस पृथ्वी पर

तमाम अन्याय-अत्याचार

शोषण-असमानता, ग़रीबी-बेरोज़गारी

और महँगाई के बीच जीने वाला

कोई एक निहायत मामूली आदमी

किसी से कहता है, “मैं तुम्हें प्यार करता हूँ,”

तो वह इस जाती हुई अनाचारी सदी द्वारा

उपस्थित की गयी चुनौतियों को

स्वीकार कर रहा होता है

(अब यह एक दीगर बात है 

कि कब तक वह

अपने संकल्प पर क़ायम रहता है

पर कम से कम उस समय

वह अपने हृदय की सच्ची भावनाओं को

प्रकट कर रहा होता है

और सच्चे विश्वास के साथ

अपने समय के अँधेरे को

चुनौती दे रहा होता है)

जब भी कोई आम आदमी

अपने दिल की गहराइयों में छिपे

प्यार का इज़हार करता है 

तो वह बेहतर भविष्य के प्रति ख़ुद को

आश्वस्त कर रहा होता है

या फिर वह अपने घुटनों की ताक़त

आज़मा रहा होता है कि वह अभी भी

कभी उठ खड़ा हो सकता है

हत्यारे की आँखों में झाँकता हुआ।

एक निहायत मामूली आदमी

जब खोलता है अपना हृदय

तो वह विस्मृति के विरुद्ध

संघर्ष कर रहा होता है

या फिर शब्दों के सही अर्थों तक

बेहद बेचैनी के साथ

पहुँचने की कोशिश कर रहा होता है।

 

किरणों के बीच भूमिगत

शताब्दी की ढलान के इस अन्तिम छोर पर

दुर्वह गर्भभार सँभाले

चिन्ताओं और स्वप्नों को लिये साथ-साथ

सोचती है माँ

अपने अजन्मे शिशु के बारे में।

नहीं है अनिश्चित

पर कठिन है जो निश्चित ही

ऐसे उसके भविष्य के बारे में

माँ सोचती है चिन्तापूर्वक।

वह गाती है और सोचती है।

थककर वह हाँफती है और सोचती है।

धौंकनी की तरह चलती हैं उसकी साँसें,

भीतर कहीं मच रही है

एक आत्मीय पीड़ादायी उथल-पुथल।

ढलान पर फिसलन से सचेत

माँ जो धारण करती रही है जीवन बार-बार

अपनी कोख के रहस्यमय अँधेरे में,

सोचती है वह अपने अजन्मे शिशु के

भविष्य के बारे में।

एक रण का रोर कहीं

राग बन रहा है

गीत कहीं ढल रहे हैं

पौधे कहीं सयाने हो रहे हैं

वृक्ष बनने को मचल रहे हैं।

माँ मुस्कुराती है,

हँसती है दुनिया की सबसे कठिन

और दुर्लभ हँसी।

श्रम के स्वेद-बिन्दुओं के खारेपन में

छलकती है सागर की आत्मा ममता बनकर।

सोचती है माँ

कंस के हाथों मारे गये शिशुओं के बारे में।

आत्मा को लहूलुहान करती स्मृतियाँ सँजोये

सोचती है माँ उन हाथों के बारे में

जिन्होंने निःस्तब्ध रात्रि में काट दी थीं

जेल की सलाख़ें और

उसकी हथकड़ियाँ खोल कहीं

अँधेरे में ओझल हो गये थे।

बन्दीगृह से बाहर

पक्षियों के कलरव और

उन्मत्त पशुओं की आकुल गर्जनाओं के बीच

इस रहस्यमय वन में

निश्चिन्त माँ

थककर बैठी है

शताब्दी की ढलान के इस अन्तिम छोर पर

एक बूढ़े बरगद के तने से पीठ टिकाये।

महसूस करती है वह

स्तनों में उतरते दूध का दबाव,

अजन्मे शिशु की अँगड़ाइयाँ,

उसकी नन्हीं मुट्ठियों का तनाव

और क्षण भर के लिए

बन्द कर लेती है अपनी आँखें।

l

कहाँ गयी?

आख़ि‍र गयी कहाँ वह औरत?

पहरेदारों को किसने बेहोश किया?

पूछते हैं बौखलाये हुए एक-दूसरे से

अपने वज़नी जिरहबख़्तरों के नीचे

बदबूदार पसीने से लथपत हाँफते हुए

दुनिया के सबसे मारक और सबसे सुरक्षादायी

हथियारों से लदे-फँदे

शहंशाहों की परिषद के सभी सदस्य।

एक स्वर से

चीख़ते हैं वे।

एक रहस्यमय मुस्कान लिये होंठों पर

एकदम मौन जन-संकुल के बीच

सिर झुकाये भयाक्रान्त सिपहसालारों के

कन्धे ि‍झंझोड़ते हैं वे – 

खोजो उसे फिर से फ़्रेम के जंगलों में,

नील से लेकर दज़ला-फ़रात तक की घाटियों में,

खोजो उसे रोम के आसपास के गाँवों में

किसानों के घरों में ढूँढ़ो।

मध्य-पूर्व के अनन्त चमकते विस्तार में देखो

अमेज़न के घने गहरे जंगलों में तलाशो

हिमालय की घाटियों-वन प्रान्तरों में,

उसकी सदानीरा नदियों के पुरबहार मैदानों में,

अफ़्रीका के अँधेरे में

लातिनी विश्व के जादुई यथार्थ में,

वहाँ की बिन्दास ज़िन्दगी में,

माच्चू-पिच्चू से लेकर एण्डीज़ की तलहटी तक में,

सब जगह ढूँढ़ो,

खोजो,

बिना पाये वापस न लौटो।

बड़ी चीमड़ है यह औरत।

ढूँढ़ो हरामज़ादो, उसे खोजो।

किताबों के सफ़ों के बीच फैली दूरियों में – 

एक-एक पन्ने देख डालो – कहीं

किसी मील के पत्थर से पीठ टिकाये

शायद बैठी हो विक्षिप्त-सी

अपने अतीत को याद करती

वह बेवक़ूफ़ औरत।

या शायद वह आगे कहीं निकल गयी हो,

उधर उस ढलान की तरफ़ देखो।

डरो मत बेवक़ूफ़ो – 

लगातार निर्देश दिये जा रहे हैं परस्पर विरोधी

शहंशाहों की परिषद के सदस्य

एक-दूसरे पर क्रोध में दोषारोपण करते हुए

काँप रहे हैं बदहवास।

वे विराट भीड़ के चेहरे पर

रहस्यमय मुस्कान में

कुछ खोजने की कोशिश कर रहे हैं।

वे अपने थूथन उठाकर

हवा में हर दिशा से आ रही

गन्ध को सूँघने की

कोशिश कर रहे हैं।

वे लगातार 

दुर्ग की बुर्जियों को मज़बूत करने का

उन पर नयी-नयी तोपें चढ़ाने का

निर्देश दे रहे हैं।

शताब्दी की ढलती साँझ में

वे

आने वाली रात की

रहस्यमय भयावहता के बारे में

लगातार सोच रहे हैं – 

सुबह तो अभी दूर है,

वे आने वाली रात से ही डरे हुए हैं

जिसकी अँधेरी गोद

न जाने कितनी

रोशनी की किरणों का

पनाहगाह बनी हुई है

और वह औरत शायद

उन्हीं किरणों के बीच कहीं

अन्तर्ध्यान होकर छिप गयी है

 – सोचते हैं

डरे हुए,

सभी शहंशाह,

सुल्तानों के सुल्तान!

………………………..

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