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कहानी
ठोंकू गोसाईं नाच रहा था
पिया..मोरे जोबना पर लोटे सांप हो, तनि बीन बजा दअ….
1978 की वर्षा ऋतु कुछ ज्यादा जालिम थी। आकाश से छोटी मछलियां बरसती थीं। आठवीं क्लास की किशोर लड़की यानी मैं मौसम के विरुद्ध जाने पर आमादा थी। उस बरसती दोपहर में मुझे पहले ही देर हो चुकी थी, तेज तेज कदम बढ़ाती हुई घर की ओर बढ़ी चली जा रही थी। पैरो में प्लास्टिक की चप्पल थी जो छींटे उड़ाती हुई चल रही थी मेरे संग-संग।
वे मेरे गहरे दुख और अवसाद के दिन भी थे। मेरी सहेलियां बहुत पीछे गोपालगंज में छूट चुकी थीं। हम वहां से दूर कुचाई कोट जैसे कस्बे में दो साल के लिए आ गए थे। गोपालगंज छूटने का दुख इतना गहरा था कि मैं सड़को पर बौराती घूमती थी। मेरा कोई दोस्त नहीं था। किसी से मन बंधता ही न था। सरकारी स्कूल में माहौल अतना अजीब था, लड़के इतने बेढ़ब थे कि दोस्ती करते नहीं बनता था। मन होता था कि हाथ बढ़ा कर उन्हें थाम लूं। कोई हिचक थी, कोई भय था, कोई सीख थी गहरे मन में जो रोकती थी। मैंने उनकी तरफ देखा ही नहीं गौर से। जबकि मेरे भीतर बहुत कुछ बदल रहा था। देह जगने की उम्र भी यही होती है। तब देह बहुत सवाल करती है। सारे सवाल अनुत्तरित। अपने सवालों के बोझ से , दोस्तो की जुदाई से बोझिल मैं अजीब-सी तरस का सामना कर रही थी। कक्षा में कई लड़कियां थीं, उनमें एक लड़की मीना मुझे रोज स्नेह से निहारा करती थी। जब देखूं, वो टकटकी लगाए मुझे घूरे जाए। मेरे भीतर का जमा हुआ सन्नाटा दरकने लगा था। फिर एक दिन अचानक कुछ घटित हुआ। मेरे लिए पहली पहली बार था ये सबकुछ। मैं इसके लिए बिल्कुल तैयार न थी।
एक दिन स्कूल से लौटते हुए मीना कुचाईकोट के पास अपने गांव में पकड़ कर ले गई थी। वहां नजारा ही बदला हुआ था। उसकी मां ने वहां सखि लगाने की पूरी तैयारी कर रखी थी। बाकायदा मेरे कपड़े बदले गए, एक जैसे फ्रॉक हम दोनों को पहनाए गए, उपहार मिले, पैसे मिले और फिर मुझे घर आने की इजाजत मिली। बढ़िया, सुस्वादु भोजन खा कर लौट रही थी। मां गांव गई हुई थीं, वहां खेती-बाड़ी का काम देखने उन्हें बीच-बीच में जाना पड़ता था। बाबा भी वहां इनके हिस्से आए थे। सबकी पारी आती थी, पांच बहुएं बारी-बारी से एक महीना वहां रह कर बाबा और खेती देखती थीं। नौकर –चाकरों से काम लेती थीं। संयुक्त परिवार था और चाचा लोग बाहर काम पर जाते थे। दादी गुजर चुकी थीं।
गोपालगंज छूटने का गम इतना था कि मां के गांव जाने का दुख कभी हुआ ही नहीं। मैं जैसे बेसुधी में दिन काट रही थी। स्कूल जाना और आना। न सिनेमा देखना न बाजार जाना। शहर गोपालगंज और उसकी मस्ती छिटक कर दूर जा चुकी थी। बड़े भइया रोज गोपालगंज जाते-आते, बस से। बहनें अपनी दुनिया में मस्त थीं। हम दो छोटे भाई बहन थाने में कैदी से हो गए थे। बाबूजी को चोर उच्चकों से फुरसत कहां। मन बावरा हो गया था। मुझे मनोरंजन चाहिए था। सिनेमा या नाटक। कुछ तो चाहिए था। घर में एकमात्र रेडियों था जिसका सिगनल सिर्फ दीदी के हाथों के स्पर्श को पहचानता और पकड़ता था। दीदिया ससुराल में थी और बाबूजी अतिव्यस्त, इसलिए इन दोनों के सिरहाने से गुलशन नंदा गायब थे। अब सिरहाने में कोई किताब नहीं मिलती थी। किताबों के मुफ्त आपूर्तिकर्ता गौरी चाचा जो गोपालगंज में छूट चुके थे।
मेरे लिए मनोरंजन का घोर अकाल हो गया था। एक तो तन्हा जान, तन्हा मन लेकर जल बिन मछली की तरह छटपटाती घूमे।
इसी सावन का महीना था। झमाझम बारिश हो रही थी। आज सावन सूखा होता है। तब सावन बरसता था झूम के। उस दोपहर भी सावन बरसा था। मैं मीना के गांव से पैदल चलती हुई कुचाईकोट पहुंची थी। गांव के छोर तक सीधा रास्ता पकड़ाने मीना की विधवा माई आई थीं, जो रास्ता बता कर, उपहारदि पकड़ा कर लौट गईं। मैं कच्चे रास्ते पर चलती हुई, कीचड़ से सने पैर लिए, कभी रिमझिम में भींग जाऊं तो कभी झमाझम में। मुझे लगा था कि मीना के अलावा ये बारिशें भी मुझसे सखि लगाना चाह रही हैं। तब मैं इसे किस नाम से पुकारुंगी।
मीना को तो अब नाम से नहीं पुकारना था कभी। सखि ही बोलना था। यह सखि लगाने के बाद का बदलाव है। बारिशें राह रोक रही थीं और मैं बाबूजी के डर से दौड़ रही थी। आज तो पिटाई तय। पिटाई मतलब दारोगा वाला काला रुल लेकर दरवाजे पर खड़े होंगे- एक डील डौल वाले एक सुदर्शन प्रौढ़। गांव जाते समय माई मेरी जिम्मेदारी थमा गई थी जिसे बाबूजी भरसक असफल कोशिश कर रहे थे।
जैसे ही मैं पानी से लथपथ कुचाईकोट थाना से पास पहुंची। पक्की सड़क आ चुकी थी। पक्की सड़क से दाएं उतर कर एक रास्ता थाना के कैंपस में जाता था, जहां पहला क्वार्टर ही हमारा था। गेट के आसपास दो चौड़ी नालियां थीं जो बारिश में किसी नदी की तरह उफनती रहती थीं। उसी में मैं समंदर और दरिया देख लेती थी।
मैं अब लगभग दौड़ने लगी थी कि अचानक गाने की तेज आवाज ने रोक लिया। वीराने में बहार जैसा महसूस हुआ। ये कौन है, जिसकी आवाज न स्त्री जैसी है न पुरुष जैसी। दोनों को घोल कर एक अलग आवाज बनाई गयी थी। वो जो भी आवाज थी, मुझे रोक रही थी। बाबूजी का भय जाता रहा। मनोरंजन या मनोविलास की चाहत कई बार भय पर भारी पड़ जाती है।
गोपालगंज में इसका भरपूर अनुभव हम ले चुके थे। मेरे कदम उस रिमझिम में उधर बढ़ते चले गए जिधर से ये तीसरे किस्म की आवाज आ रही थी।
नया फ्रॉक गीला हो चुका था। हाथ का सब सामान भी पानी से लथपथ। किसे परवाह। मन खींचा चला जा रहा था।
गाने के बोल उभरे…
पिया ...मोरे जोबना पर लोटे सांप हो...
भोजपुरी मेरी तब मातृभाषा थी। हिंदी कम बोलते थे। बज्जिका बिल्कुल नहीं आती थी। मैं मंत्र-मुग्ध सी बढ़ती चली जा रही थी…कोई डोर खींचे जा रहा था। बीच-बीच में धमाधम की आवाज आती, पैर पटकने की, फिर गाना बंद, कोई जोर जोर से बोलता…
मैं पहुंच गई, एकदम पास। जैसे पानी पहुंचता है कंठ के पास। जैसे बिजुरी , बदरा के पास। टेंट लगा हुआ था। थोडा ऊंचा मंच बना हुआ था, उस पर कुछ साजिंदे बैठे थे। एक स्त्री नाच रही थी। कुछ लोग आधे गीले, आधे सूखे से झूम रहे थे। टेंट के खंबे से टिक कर देखने लगी। वह स्त्री नाचती हुई पास आई, हाथ वैसे नहीं लहरा रही थी जैसे सिनेमा में हीरोइने या मुजरे वाली लहराती हैं। ताजा फिल्म खिलौना देखा था जिसमें मुमताज का मुजरा याद आया….अगर दिलवर की रुसवाई हमें मंजूर हो जाए…
मैंने जरा गीली पलकों को ठीक से पोंछा और उस नर्तकी की तरफ देखा।
अरे…ये अजीब –सी क्यों लग रही है। और ये अजीब-सी हरकते क्यों कर रही हैं। ऐसे नाचता है कोई। जरा सलीके से नाचे…जब वह गाती जोबना पर सांप लोटे….तो हाथ को सांप बना कर अपनी छातियों पर फिराती और खुद ही दबा लेती…उपस्थित लोग फिस्स फिस्स करके हंस पड़ते।
गाना बंद करके वह रुकती…दो लाइन का कुछ पढ़ती…लोग तालियां बजाते…फिर वह मंच के चारो तरफ चक्कर काटती…और कूद-कूद कर नाचने लगती। उसका लंहगा लहराने लगता, कमर ठुमकने लगती। वह गोल गोल चक्कर काटता, मानो हवा में भंवर पड़ गए हों। लोग रुपये फेंकते,सिक्के उछालते। एक सहायक आता , सब बटोर कर ले जाता।
मैं खो गई थी उसके नाच में। थोड़ी देर में उसकी नजर मुझ पर पड़ी। वह पास आई- नाचते नाचते…
“क्या सुनोगी गुड़िया…हम कुछ तुम्हारी पसंद का सुनाएं…?”
मैं एकदम हड़बड़ा गई। सबलोग मुझे नोटिस करने लगे। किसी ने कहा- अरे ये तो दारोगा जी की बेटी है। नाच देखने आई है।
मैं तो सुधबुध खोकर उसके नाच में डूबी थी। कुछ कहते न बना। सच कहूं तो उस वक्त मेरी रुह नाच रही थी…। मन किया, मंच पर उसे हटा कर खुद नाचूं…
जाने कैसे बेसुधि में मुंह से निकला- हाय, हाय ये मजबूरी ….
तेरी दो टकिये की नौकरी, मेरा लाखो का सावन जाए
“आय…हाय…मेरी नन्हीं जान…क्या फरमाइश करे हो…लो सुन लो…”
उसने पलट कर साजिंदो की तरफ इशारा किया। और मंच पर कमर मटका मटका कर गाने लगी…हाय, हाय ये मजबूरी, ये मौसम और ये दूरी…तेरी दो टकिये की नौकरी, मेरा लाखों का सावन जाए…
मुझे जीनत अमान इस नाच के आगे फीकी लग रही थीं। मन ही मन मैंने उनसे क्षमा मांगी और लीन हो गई इस नाच-गान में।
एक पैरा गाकर वह रुकी- और दो लाइन कुछ पढ़ा उसने…मेरी तरफ इशारा करके…
“सागर से सुराही टकराती, बादल को पसीना आ जाता
तुम जुल्फे अगर बिखरा देती , सावन का महीना आ जाता ”
कोई भीड़ में से चिल्लाया…
“सावन का महीना त आ गईल बा हो मोरे राजा…भादो के बुला दअ…काहे आग लगावे पर उतारु बारअ हो…”
“सवनवा में मोरा जियरा तरसे…जियरा तरसे…हो जियरा तरसे…”
वो एक रसिक था जो झूम झूम कर खुद भी गाने लगा था। ठुमक भी रहा था। एक और आवाज आई-
“फिल्मी गाना छोड़ द रज्जा…विदेसिया गाव….रोई रोई पतिया…लिखले रजमतिया ….ई का तू फिल्मी गाना सुरु कर देलअ हो ठोकु गोंसाई।“
मैं चौंकी। इस स्त्री को ठोकु गोंसाई क्यों कहा इसने। मैंने आंखों को और साफ किया। थोड़ा और पास जाकर उसे देखना चाहती थी। लंबी लंबी चोटियां ऐसे लहराती कि उसके बदन से लिपट जातीं। मुझे वो कहान याद आई कि एक राजकुमारी से एक नाग को प्यार हो गया था। रोज रात को सोते समय उसके पास आता और उसके बदन से लिपट जाता। धीरे-धीरे ये बात फैल गई और लोग राजकुमारी से डरने लगे थे। कथा लंबी है….राजा ने ऐलान किया कि जो नाग को भगा देगा, उसे ही राजकुमारी से ब्याह देंगे…और फिर शुरु हुआ खेला। फिलहाल तो मुझे इसकी देह राजकुमारी-सी लग रही थी जिस पर काला नाग लिपट रहा था। मेरा मन हुआ, पास जाकर नाग को पकड़ लूं। गेट के पास उफनती हुई बरसाती नाले में कितने सांप को लकड़ी से पकड़ कर हमने घुमा कर दूर फेंका था।
मैं उस दोपहर सब भूल चुकी थी। बाद में मेरे साथ क्या होने वाला है, कुछ अहसास नहीं। तंद्रा तब टूटी जब वह स्त्री घोषणा कर रही थी- “रोज यहां इसी समय नाच होगा, आपलोग पधारे, अपनी अपनी फरमाइश लेकर। ठोकू गोसांई एवं मंडली यहीं मिलेगी…”
ठोकू…ये क्या नाम हुआ भला। मुझे शंका हुई। मैं उसे पास से देखना चाहती थी। बात करना चाहती थी। कुछ लोग मुझे पहचान रहे थे। गीले कपड़ो में मैं वैसे भी अजीब लग रही थी। असमंजस में थी , भीड़ छंटने लगी थी। मैं मुड़ी, घर जाने के लिए। अचानक नजर गई, मंच के पीछे, नर्तकी खड़ी होकर बीड़ी फूंक रही थी। मंच के एक साइड में जाकर वह लंहगा उठाया। खड़ी हो गई। मुंह में बीड़ी सुलग रही थी। अजीब लगा।
मैं भाग जाना चाहती थी। मैं पलटी कि पीछे से धर लिया किसी ने। मेरे हाथ में जो सामान था वो बिखर गया।
“कहां भाग रही हो बबुनी…डरो मत…हमको पहचानती हो…हम औरत नहीं हैं…हम हैं मरद…”
“ये देखो…”
उसके मुंह से बीड़ी की तेज गंध आई। मुझे इस गंध से अटपटा नहीं लगा, माई और रजौली वाली चाची की गप्प गोष्ठियों में ये गंध फैली रहती थी।
“रोज आना…हमारा नाच देखने…आजकल लगन की सीजन नहीं है तो हम कमाई के लिए बाजार में ही नाच करते हैं…तुम कुछ मत देना हमको…बस देखने आ जाना…ठीक हय।“
वो स्त्री , पुरुष में बदल रही थी। उसके हाथ में काले काले रोएं थें, चोटी खुल चुकी थी, बाल लंबे थे। कमर तक लंबे। उसने चोली में हाथ डाल कर कुछ बाहर निकाल, रुई के गोले जैसा, हंसता रहा..
देखते-देखते, लहंगा भी उतारने लगा। हमसे इतना न देखा गया। छूटते ही भागी। दरवाजे पर ही जाकर सांस लिया।
इस तरह का नाच देखने का पहला मौका था जहां कोई स्त्री, मर्द में बदल जाए। मर्द भी स्त्रीनुमा। उसे आंख भर देख न पाई थी।
बस उसकी आवाज कान में देर तक पीछा करती रही-
“बबुनी…ठोकु गोसांई को भूल मत जाना, आना नाच देखने…हर तरह का नाच दिखाएंगे…फरमाइशी…”
मनोरंजन के लिए तरसते मेरे किशोर मन को यह नया किस्म का मनोरंजन विचित्र सुख दे रहा था।
“लौंडा-नाच देखोगी….तुम्हारी उम्र है ये नाच देखने की, लौंडा लपारे देखते हैं ये नाच-गाना। भले घर की लड़किया नहीं देखती हैं, कोई और लड़की थी वहां,,,कोई औरत …बताओ…क्यों गई थी वहां…”
आंगन में बाबूजी का प्रलाप चल रहा था।
“आने दो माई को…उसके बाद ही स्कूल जाओगी…घर में बंद रहो…बिना बताए, सखि लगाने चली गई…कौन लोग हैं, कैसे लोग, कुछ होश है…कब समझोगी…अकेली पैदल तीन कोस गांव चली गई…हद है। हम कोई सिपाही भेज देते साथ में…हे भगवान…”
हाथ में काला रुल लहरा रहा था, मगर मेरी तरफ बढ़ा नहीं। मुझे तो गाना याद आने लगा…जोबना पर लोटे सांप…
मुझे वो काला रुल किसी काले नाग की तरह दिखाई दे रहा था जो किसी राजकुमारी की बदन से नहीं लिपटा था, हवा में लहरा रहा था…दूर कहीं बीन बजा रहा था कोई…
“देखता हूं…कौन था वो लौंडा…बीच बाजार में कैसे नाच शुरु कर दिया है…खबर लेता हूं, हाजत में बंद करेंगे न तब साला सब नाच भूल जाएगा…बड़ा मउगी बनने का शौक चर्राया है…”
गोरे-गोरे बांके छवि वाले प्रौढ़ बाबूजी का चेहरा गुस्से में कम था, उनका ध्यान लौंडे और नाच पर था। आखिर मनोरंजन से वे भी महरुम थे। शहर छूट गया तो सिनेमा भी छूटा। नाइट शो देखने के शौकीन बाबूजी खुद भी अनगिन रातों में मनोरंजन के लिए तरसते होंगे।
मुझ पर उनकी डांट का कोई असर नहीं हुआ। ठोकु गोसांई के नाच का असर ज्यादा गहरा था। वो जो गान-नाच के बीच-बीच में फकरा पढ़ता था, वो मेरे कानों को प्रिय लगा था। स्मृति में दर्ज कर लाई थी। उसका इस्तेमाल करना था कहीं। कुछ दिन उसके नाच से वंचित रहना था, सोचा गोपालगंज की सखियों को पत्र लिख कर सजा के कुछ दिन काट लूं।
फूल है गुलाब का सुगंध लीजिए, पत्र है गरीब का जवाब दीजिए
बड़े भैया गोपालगंज से दो दिन बाद लौटे। तब तक मैं तीन चार चिट्ठी लिख कर रख चुकी थी। मिकी, सीमा और हनी के नाम।
सीमा सबसे करीब थी। पहली बार मैंने पत्र में एक फकरा लिखा- “फूल है गुलाब का सुगंध लीजिए, पत्र है गरीब का, जवाब दीजिए…”
पत्र के साथ एक गुलाब का फूल भी रख दिया था। मुझे इतनी सुंदर अनुभूति हो रही थी, पत्र लिखते हुए। मुझे मेरी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए कुछ पंक्तियां मिल गई थीं। मेरा मन हो कि और ऐसी पंक्तियां मिले तो चिट्ठी में लिखूं। सहेलियों पर रोब भी जमेगा और मेरी विरह वेदना भी पहुंच जाएगी। इसके लिए ठोकु गोसाई से बेहतर कौन।
नाच देखने पर पाबंदी थी और मुझे मालूम नहीं था कहां पर रहता है ठोकु। माई के आने में समय था। धनरोपनी के बाद ही आने वाली थीं। बारिश की वजह से गांव की सड़के भी खराब हो गई थीं। दो तीन दिन के बाद बाबूजी ने स्कूल जाने के लिए कहा। उधर मीना यानी मेरी सखि पगला गई थी। सखि लगाने के बाद तीन दिन तक उसने मुझे नहीं देखा। वो अलग बाबरी-सी हुई जा रही थी। मुझे कोई खास लगाव न था। मैं तो अभी तक गोपालगंज की सखियों के मोह में पड़ी हुई थी, इस उम्मीद में थी कि एक दिन फिर वहां वापस जाना है। भैय्या वहां एक फेमस डॉक्टर की बेटी से मोहब्बत कर बैठे थे। बस पढ़ाई खत्म होने का इंतजार हो रहा था।
स्कूल में मेरे गले लग कर सुबकती हुई सखि को मैंने सारा कांड बता दिया। वह रोना भूल गई।
बोली- “अरे, तुम नही जानती, दुबौली गांव का है ठोकु गोसांई। हमारे इलाके का सबसे प्रसिद्ध लौंडा। उसका नाच देखने दूर-दूर से लोग आते हैं। लगन में उसके पास टाइम नहीं रहता। नेटुआ, पमरिया, बाई जी, सबको फेल कर दिया है…सबसे आगे है आगे…”
सखि हाथ नचा नचा कर बोल रही थी। जैसे गर्व से भरी हो।
“मुझे ठोकु से मिलना है…”
“काहे…?”
कमर पर हाथ रख कर पूछी सखि।
मैंने झेंपते हुए कहा- “मुझे उससे फकरा लिखवाना है….गाने के बीच में सुंदर सुंदर फकरा पढ़ता है…हमको चाहिए…”
“अरे…उसका त किताब भी मिलता है रे…चल बाजार…हम दिलवाते हैं…”
“नहीं, हमको ठोकु से मिलवा दो…”
“ये नहीं हो पाएगा सखि…वो बहता पानी है, आज यहां, कल वहां…कहीं नाचते हुए दिखा तो हम उसको बता देंगे, वो मिलना चाहे तो मिल लेगा।“
सखि छुट्टी के बाद हमको किताब के फुटपाथी दूकान पर ले गई। जहां हमने शीत-बसंत, तोता-मैना की कहानी, रानी सारंगा की, रानी केतकी की…किताबें खरीदीं। एक देसी दोहो, चटपटी शायरी की किताब भी मिली।
पहला पन्ना पलटा तो लिखा था-
“गुड है अच्छा, बैड खराब
वाटर पानी, वाइन शराब”
मैंने वो किताब वही फेंक दी। ये क्या बकवास लिखा है। ये मेरे किस काम का। सखि ने कहा- “रे अंदर तो देख…”
दो पन्ने के बाद मिला- प्रेमी प्रेमिका की शायरी…उनके सवाल जवाब….
उफ्फ….
फिल्मी गानों के बीच से लाइनें उठा कर शायरी बना दी गई थी। प्रेमी रुठ कर लिखता है-
“मेरी मोहब्बत, तेरी जवानी…
मिल कर करेंगे बहारो की बातें..”
प्रेमिका का जवाब-
“दिल पुकारे….आ रे आ रे…
अन्हियारे रातों में करेंगे सितारो की बातें…”
और भी जाने कितने गानों की पैरोडी थी, मेरा मन हुआ गुलशन बावरा को बोलूं कि इस किताब के लेखक पर फिल्मी मुकदमा कर दे। उस समय रेडियों पर गुलशन बावरा का फिल्मी मुकदमा प्रोग्राम आता था और जिसे मेरे घर में बड़े चाव से सुना जाता था।
ये किताब वहीं छोड़ आई। मेरे सामने अब फकरा का संकट खड़ा हो गया था। एक सुना था, फूल है गुलाब का…वो लिख चुकी थी। आगे जारी कैसे रहे। और मुझे नाच भी देखने का मन था। स्कूल से लौटते हुए उस जगह पर गई जहां तीन चार दिन पहले ठोकु नाच रहा था। पता चला कि वहां उजाड़ है, वह कहीं और तंबू गाड़ चुका है। यहां कुछ सिपाही आए थे, भगा दिए उसको। थाना के आसपास इस तरह का नाच-गाना असभ्य लगता है। माहौल खराब होता है, चोर –डाकू आ सकते हैं।
ओह…तो मेरे नाच देखने का ये इनाम मिला ठोकु को। मेरा मनोरंजन का सामान फिर से खो गया था। मुझ पर वज्रपात हुआ। सखि से मेरी दशा देखी न गई। उसने ठोकु को ढूंढना शुरु किया। वह स्थानीय थी, सारा इलाका जानती थी।
सावन अभी तक मेहरबान था और धूप आंख मिचौली खेल रही थी। सखि मेरे लिए अपन मां से गांती बनवा कर ले आई थी। खाद के प्लास्टिक का बोरा था, उसे बड़ी कलात्मक ढंग से उसकी मां ने गांती में बदल दिया था। हम दोनों गांती पहन कर बारिश में ठोकु को ढूंढ रहे थे। क्लास छोड़ दी थी। स्कूल से टिफिन के समय निकल लेते, ठोकु को ढूंढते, शाम का चोर बजे छुट्टी होती तो स्कूल की भीड़ में शामिल होकर घर की तरफ निकल आते। ऐसा लगता, हम सीधे स्कूल से चले आ रहे हैं।
उधर गोपालगंज से सीमा का पत्र आ चुका था जिसमें उसने खूब शायरी लिखी थी। एक शायरी के जवाब में तीन –चार शायरी ठोक दिए थे।
अब मेरे लिए उसके टक्कर की शायरी भेजने की चुनौती हो गई थी। ठोकु का मिलना बहुत जरुरी था नही तो मेरी प्रतिभा पर सवाल खड़े जाते ।
किसी तरह ढूंढना ही होगा। सखि ने सुझाव दिया…तब तक खुद ही क्यों न नहीं दो चार लाइन का फकरा गढ़ लेती है। गाना उठाओ…अपने हिसाब से बना लो। चल हम मिल कर बनाते हैं…
“बताओ…सखि ने क्या लिखा है तुम्हारे लिए…फिर हम लोग दिमाग चलाते हैं…”
मैंने सीमा का पत्र आगे बढ़ा दिया-
“लिखती हूं खत खून से स्याही मत समझना
मरती हूं तेरी याद में जिंदा मत समझना”
सखि ने कहा- “इसके उल्टा लिख दे।“
मैं उसके झांसे में आ गई, आज तक झांसे में आने का स्वभाव वैसे ही बरकरार है।
तो मैने शायरी इस प्रकार बनाई –
“लिखती हो खत क्यों खून से, क्या स्याही नहीं मिलती
मरती हो क्यों मेरी याद में, क्या दूसरी नहीं मिलती”
मैं उछल पड़ी कि मुझे शायरी करनी आ गई। उधर गोपालगंज से बॉबी फिल्म की गूंज आ रही थी।
“मैं शायर तो नहीं…मगर ऐ हंसी…जब से देखा, तुझको, मुझको…”
भैया गोपालगंज से हमारे लिए बॉबी प्रिंट का फ्रॉक ले आए थे। पत्र सीमा के पास पहुंचा और मेरे जबावी शायरी को पढ़ते ही उसका मुझसे मोहभंग हो गया। आज लगता है कि मोहभंग नहीं, उसका रंस-भंग हुआ होगा। उसके पत्र आने बंद हो गए। एक बनावटी शायरी ने दोस्त का दिल तोड़ दिया। मैं बहुत दिनों तक अपना गुनाह समझ ही नहीं पाई। आज भी अनजाने में कितने गुनाह किए होंगे, गुनाह अबूझ रहा।
गोदिया में बइठा के सिनेमवा दिखइअ हो करेजऊ
मेरा मन कमससाता रहता कि आखिर क्यों मैं लौंडा नाच नहीं देख सकती। हमें बाई जी का नाच भी नहीं देखने दिया जाता है। और तो और, जब बीते कार्तिक मास सोनपुर मेला में बाबूजी की डयूटी लगी तो हम सबको वहां उठा कर ले गए थे। टेंट में रहते थे, पुआल के बिस्तर पर सोते थे। वहां गुलाबबाई कंपनी की नौटंकी आई हुई थी। वहीं पर पहली बार बिजली वाली लड़की देखे थे, टिकट लगा कर लोग देखने जाते थे। गोरी, पतली नीले रंग की साड़ी में एक लड़की कुर्सी पर बैठी रहती। एक आदमी आता, उसकी देह से टयूब लाइट छुआता, बल्ब छुआता, वो भक्क से जल जाता। लोग तालियां बजाते। मैं हाथ बढ़ा कर उसे छूना चाहती। जोर से चीखता हुआ वो आदमी मुझे खदेड़ देता। खदेड़ी तो मैं नौंटकी से भी गई थी। जब चुपके से हम शो में घुस गए थे। मंच पर सचमुच पहली बार हीरो हीरोइन को नाचते देखा तो लगा परदा जीवित हो उठा है। आज की भाषा में कहूं तो लाइव सिनेमा देखा था। हरेक तरह के खुले सीन थे और सीटियां मारी जा रही थीं। बाबूजी का सहयोगी हमें वहां से खदेड़ता हुआ ले आया जैसे बच्चे गाड़ी के पुराने टायर हांकते घूमते रहते हैं। हम उसी टायर की तरह हांक दिए गए। हम चले तो आए, गाना बजता ही रहा…”एगो चुमा देले जइअह हो करेजऊ…”
अब हमारे नौटंकी देखने पर भी संकट। मेरे भीतर विद्रोह जमने लगा। तय कर लिया, देखेंगे जरुर, मगर चोरी चोरी चुपके-चुपके। और जिस दिन खुदमुक्खतार होंगे, उस दिन बाबू साहब की तरह दुआर पर ठाठ से बैठ कर देखेंगे…पैर पर पैर चढ़ा कर, पैसा फेंकेंगे। तब ऐसा सोचे थे। मन ही मन हम ठोकू गोसाई पर कितना रुपया, सिक्का फेंक चुके थे, उसका हिसाब आज तक नहीं किए हम। हिसाब रगाने बैठूं तो ठोकू पर बहुत कर्ज निकलेगा मेरा।
हां तो, हम दुखड़ा ये रो रहे थे कि मनोरंजन के तमाम साधन लड़की विरोधी, बच्चा विरोधी थे उस जमाने में।
लौंडा नाच देखने से वंचित मैं बेचारी तड़प रही थी। ठोकू के रुप में मुझे एक दोस्त नजर आ रहा था, जो मेरी मदद कर सकता था। जिसे नाचते हुए देखना सुखद अहसास था। वह नाचते हुए भरपूर मनोरंजन करता था। बदले में लोग उसे अपनी मर्जी से रुपये देते थे। वह मांगता नहीं था। सुना था कि लगन में नाचने का वह मोटा शुल्क लेता था। फिर भी बाई जी से पिछड़ जाता था। ठोकू को लोग अन्न के बदले भी नचवा लेते थे। वो उपहार भी ले लेता था। औरतें उसे सिंगार-पटार का सामान देती थीं। लगन में तो सलमा सितारा वाली साड़ी से कम कुछ न लेता था। वो खूब सजता और औरतों को दिखाने जाता। तरह तरह से मुंह बना बना कर दिखाता, औरते हंसती। उनके मर्दो को लौंडा से खतरा महसूस नहीं होता। उन्हें औरतों की तरह ही देखते थे। लौंडे भी मर्दो से ज्यादा औरतो की संगति में खिलखिलाते थे। यह सब मैने अपनी आंखों देखा जब एक दिन मेरी खोज पूरी हुई। मीना मुझसे ज्यादा आजाद थी, कहीं भी घूमने फिरने और टंडइली के लिए। उसकी मां की वह इकलौती संतान थी। लड़को की तरह उसे छूट दे रखी थी। मुझे मुक्ति का मार्ग उसी ने समझाया था। विद्रोह का पहला पाठ भी। मीना यानी सखि ने सखि धर्म का सही सही निर्वाह किया और एक दिन फिर स्कूल से पकड़ कर कुचाईकोट के ही एक टोले में ले गई। जहां औरतों की टोली के पास बैठा ठोकु ठिठोली कर रहा था। औरतें उससे फिकरा सुनती और ठठा कर हंसती। ठोकू मुझे देख कर खिल उठा था। ऐसा उसके चेहरे से मुझे लगा। वह अचानक पैंतरा बदल कर वहां से उठा और मेरे और मीना के संग संग चलने लगा। भादो आ चुका था। लगभग समाप्ति की ओर था। ठोकू के संग संग चलते हुए मैंने उसके गायब होने पर बहुत लानतें भेजीं। वह मुझसे खरी खोटी सुनता रहा। हमदोनों को साथ लेकर वह दूर खेतों की तरफ निकल आया था। वहां हम मचान पर बैठे।
खाली समय में हम यहां पहरा देते हैं…मेरा मचान है…बैठिए…वो देखो, सामने पुतला, बिजूका बोलते हैं उसको। एक हम जीवित बिजूका…इहां बैठ कर हम गाने का अभ्यास करते है।
“मुझे फकरा सुनाओ…मुझे लिखना है। मेरी सहेलियों को भेजना है…तुम बहुत सुंदर-सुंदर फकरा पढ़ते हो। कहां से लाते हो…”
“खाली लड़की को लिखिएगा…लड़को को लिखना हो तो बहते माल है अपने पास..दे क्या…?”
मैं झेंप गई।
मीना ने उसको घुड़की दी-
“तुम लड़की वाला कविता दो..छोड़ो लड़का-फड़का वाला। बूझे…”
ठोकू को मुंहजबानी सैकड़ों गाने, शायरी, फिल्मी गीत याद थे। जैसे फूल झरते हों। वो एक से एक फकरा पढ़ता गया…मैं न नोट कर पाई, न याद रख पाई। बस इतना याद है कि वह मचान से कूद गया और खेत में ही पैर पटक पटक के नाचने लगा। खेतो में पानी भरा था। छप छप करे, पानी के छींटे उड़ाए। मुझे लगा, उसके पैरो से छिटकता पानी बादलों तक पहुंच रहा है। लौटेगा पानी, साथ में कुछ मछलियां लेकर।
हम तीनों अक्सर मिलते। ठोकू फुर्सत पाकर स्कूल कैंपस में आ जाता। हमेशा अपने बाल का जूड़ा बना कर रखता। उसकी चाल में नाच की लय थी। मेरा मन करता कि मैं भी उसके साथ कभी नाचूं। नाचना-गाना सपना बन कर रह गया था। एक दिन ठोकू उदास-सा आया। हमने पूछा तो सिर्फ इतना बोला कि लोग गंदे गंदे गाने की फरमाइश करते हैं। कोई नया भोजपुरी गायक आया है, उसका गाना जोर पकड़ लिया है, उस पर लोग बोलते हैं नाचो। हमारा नाच औरतें भी देखती हैं, बच्चे भी देखते हैं, हम कैसे गाएंगे। एक छौरा है, सुंदरवा, नया लौंडा तैयार हुआ है, वह सबकुछ करने को तैयार है। अपने को औरत ही समझने लगा है। हम औरत बन कर नाचते जरुर हैं, औरत थोड़े न हैं। लेकिन औरतन को समझते हैं। जब हमको इतना छेड़ता है सब, औरतन को कितना तंग करता होगा…
मैंने उस दिन उसे अपने हाथों से बनाया हुआ सूती रुमाल उपहार दिया। बोला- “रुमाल नही देते, अशुभ होता है। इसके बदले ये चवन्नी लीजिए।“
मैं अनसुना करते हुए चवन्नी झटक कर निकल गई।
धरमेंदर से एक बार मिला द, सजन बेलबाटम सिला दअ ना
वो बरसाती रात थी। भादो बरस रहा था, घनघोर। माई अचानक लौट कर आ चुकी थी। ठोकु से मिलना छूट गया था। जिंदगी एकबार फिर झटके देने वाली थी, उसी में हम ऊब-डूब रहे थे। घर पर ये बाते चलने लगी थी कि माई हम सब भाई बहनो को लेकर कुछ महीने गांव में ही रहेंगी, वहीं ढबढब स्कूल में हम पढ़ेंगे। बाद में किसी नयी जगह पर बाबूजी हमें बुला लेंगे। किसी खास मिशन में लगे हैं, परिवार से अलग रहना होगा कुछ समय़।
सो हम गांव जाने की तैयारी में लग गए। पहले गोपालगंज, अब कुचाईकोट….और ठोकु का नाच, उसका साथ, सब पीछे छूट रहा था।
एक रात जब हम सब सोने जा चुके थे, थाने का परिसर कोलाहल से भर गया था। बरसाती रात थी। मुझे नींद नहीं आ रहा थी। मुझे बाहर बारिश के साथ जमीन पर बरसती छोटी-छोटी मछलियां याद आने लगीं। जिन्हें मैं पकड़ कर पानी में डाल देती थी। या कभी बोतल में पानी डाल कर उसमें रख ले आती थी।
बादल बूंदों के साथ तब छोटी मछलियां बरसाते थे। मुझे वो उफनती हुई दो नालियां याद आने लगीं, जिनमें कागज के नाव बहा दिए, उनमें अपने सपने लाद दिए थे। जाने कहां बिला गए होंगे।
सखि मीना याद आने लगी, जो किसी दूसरी लड़की को ढूंढ कर सखि बना लेगी। मैं करवट बदलते-बदलते उठ गई। पहले आंगन में पानी बरसते देखा। फिर खिड़की से बाहर झांके। दूर कैंपस में लाइट झिलमिला रही थी। गाने बजाने की आवाजें थीं। बाबूजी घर नहीं लौटे थे। दिन में सुना था कि निरीक्षण के लिए सीनियर आने वाले हैं। नेता लोग भी आएंगे. नाच-गाने का इंतजाम, खाने –पीने का इंतजाम हो रहा था।
घर में सब सोये पड़े थे।
मैं दबे कदमों से उठी तो हमारा सेवक मुन्ना जाग गया। मैंने इशारे से उसे चुप कराया। उसको साथ लेकर हम वहां पहुंचे जहां महफिल जमी थी।
दस बीस लोग थे। चौकी जमा कर मंच बनाया गया था। उस पर बजनिया बजा रहे थे। ठोकु गोसाई की मंडली नाच रही थी। आज ठोकु अकेला नहीं नाच रहा था, साथ में एक सुंदर लौंडा भी नाच रहा था, जिसे देख कर कोई भी मोहित हो जाए। ठोकु उसके सामने साधारण दीख रहा था। नाच में ठोकु भारी पड़ रहा था और अदाओ में वो नया लड़का।
महफिल से फरमाइशें उठ रही थीं-
“अरे…वो गाना गाओ…धरमेंदर से एक बार मिला दअ सजन बेट लाटम सिला दअ न…”
“अरे का बेकार गाना है। ई छोड़ो…दोसर गाओ, नाचो…”
“कटहल के कोआ तू खइलअ…”
उस समय ठोकु डाकू सुल्ताना पर नाच-गान कर रहा था। बीच-बीच में वही फकरा यानी शायरी पढ़ता।
बहुत शोरगुल होने पर ठोकु नाच रोक कर चिल्लाया-
“साहब लोग…हम अश्लील गाना न गायब न नाचब। बूझ जाईं रउआ लोग।“
नीचे बैठे एक सफेद कुरते वाला बोला- “हमें लैला-मजनू सुना दो…”
ठोकु बोला- “सुना देंगे हुजुर…लौंडा नाच का एक कायदा-कानून होता है सरकार। हम लोग उसके बाहर नहीं जा सकते। थोड़ा-बहुत ऊपर नीचे चलता है। एकदम्मे से एतना गंदा नहीं गा सकते।“
ठोकु ने अपने दोनों कानो को हाथ लगाया। बोलते हुए भी उसका पैर बार-बार मंच पर पटक रहा था। ये नाच का तरीका है…
हाथ खूब नचाना और पैर खूब पटकना…गोल गोल घूमना…कमर के ठुमके…
ये ठोकु के नाच की विशेषता थी। एक सिपाही उठा- “तुम बैठ जाओ ठोकुआ…ई सुंदरी है न…नई लैला…उसको नचवाएंगे हम..नाच रे सुंदर …”
बाबूजी एक कोने में बैठे, सारा तमाशा देख रहे थे। उन्हें आनंद आ रहा होगा मगर वे इसमें शरीक नहीं थे।
ठोकु अपमानित होकर एक तरफ जाकर खड़ा हो गया। सुंदर-कोमल सा लड़का उठा, जिसे सब सुंदरी सुंदरी कह कर पुकार रहे थे, उसने अदाएं दिखा कर नाचना शुरु किया। फिल्मी गाने की फरमाइश होती रही। सुंदर ठुमक ठुमक कर नाचता रहा। उसकी भी जान सांसत में रही होगी। ठोकु डर के मारे सटका हुआ था। थाना परिसर में उसकी हिम्मत न हुई कि विरोध करे। मन ही मन ठान लिया था कि अपने पांरपरिक नाच से समझौता नहीं करेगा। चाहे सुंदर नचनियां कुछ नाचे, गाए। सफेद कुरते वाला उठ कर सुंदर नचनिया से देह में देह रगड़ कर नाचने लगा था। बाकी लोग सिसकारियां भरने लगे। ठोकू सन्न अवस्था में बैठा रहा। अपने नाच की ऐसी गति की कल्पना न की होगी।
नीचे से एक सिपाही चिल्लाया-
“हुजुर , इसको लौंडा फौज में भर्ती कर लीजिए न। कोठी का सोभा बढ़ाएगा।“
“भक्क बुरबक…”
वो नशे में झूमता रहा। तालियां बजती रहीं। चुन –चुन कर गानों की फरमाइश होती। सुंदर अपनी फटी हुई आवाज में गाने की कोशिश करता। वह ठोकू जितना सुरीला न था। कोई चिल्लाया-
“अरे, ठोकुआ, गला काहे बंद करके खड़ा हो गया है रे, गाओ…”
ठोकू गाने लगा। थोड़ी देर में ठोकू लड़का बना, सुंदर लड़की और गाना गाने लगे-
“हो तेरा…रंग है नशीला, अंग अंग है नशीला….”
मेरी आंखें फटी की फटी रह गई। ऐसे नजारे की कल्पना न की थी। ऐसा तो चचेरी बहन की शादी में शामियाना फाड़ कर छेद से देखे थे। तब वे लड़कियां थीं। यहां लड़के हैं, जो स्त्रियों की तरह नाच रहे हैं। ठोकू बीच-बीच में बोलता है- ये हमारी पंरपरा है, लौंडा नाच की परंपरा। बहुत पुरान नाच है सरकार लोग…हम आज प्रस्तुत करेंगे…
“चोप्प…तुम वही प्रस्तुत करोगे जो हम कहेंगे…बंद करो ये अपना लैला मजनू, डाकू सुल्ताना का ड्रामा…”
हमारा सेवक मुन्ना फुसफुसाया- “ बबुनी, चलिए यहां से, पकड़े गए तो हम दोनों को मार पड़ेगी। हमको तो साहब हाजत में ही बंद कर देंगे।“
हम दोनों भादो की बरसात में भींग भी रहे थे। छींक आती तो भेद खुल जाता, सो हम वापस भागे। ठोकु से मिलने की लालसा मन में रह गई।
कुछ दिन बाद हमारा सामान ट्रक पर लादा जा रहा था। हमें भी सामान के साथ ट्रक पर ही बैठ कर जाना था। बैठने की अच्छी-सी जगह बनाई गई थी। लेकिन चारो तरफ से तिरपाल लगा था, बारिश से बचाव के लिए। मेरा माई को जतरा बनाने में बहुत विश्वास था। बिना जतरा के कहीं नहीं निकलती थीं।
उस दिन सुबह जतरा के लिए कुछ और निर्धारित था-माई ने कहा कि चलने से पहले रतन-चौकी जमाएंगी। बहुत सुभ होता है।
माई द्वार पर अंचरा फैला कर बैठी थी। उस पर ठोकु गुसाईं नाच रहा था। उसके लंबे, घने बाल खुले थे, हवा में लहरा रहे थे। वह भर-भर हाथ चूड़ी पहने हुए था। होठो पर गहरी लाली, काजल की मोटी लकीरें, खींची हुईं। माथे पर टिकुली, लाल-पीला लगाए। पूरा मेकअप में था।
वह देवी–गान गा रहा था। फूल बरसा रहा था। अक्षत छींट रहा था। ठोकु जब हटा तो माई वो अंचरा संभाल कर, फूल-अक्षत समेत कमर में बांध लीं। वे बहुत गदगद थीं। बाबूजी ने उनकी बात रख ली थी। ठोकु मुझे देखे जाए…गाए जाए। कभी हैरान हो, तो कभी बेचारगी दिखाए। कभी उदासी लाए तो कभी हरियाए। कभी शिकायती मुंह बनाए तो कभी दुलार भर लाए।
मैं बस एक बार उससे कहना चाहती थी- “कुछ फकरा पढ़ दो, या लिख कर दे दो…मुझे रुठे यार को मनाने के काम आएगा।“
न मैं कह सकी, न वह सुन सका। बारिश तेज होने लगी थी और पानी में छपछप चलते हुए जब ट्रक तक पहुंची तो अनेक छोटी मछलियां इधर उधर छितराई हुई, छटपटा रही थीं।
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2015, जोकहरा
वरिष्ठ साहित्यकार विभूति नारायण राय के आमंत्रण पर उनके गांव में मुझे मिला ठोकु, किसी नये रुप में, नये रंग और नाम से। देशभर से वहां साहित्यकार जुटे थे, वहां सांस्कृतिक आयोजन किया गया था। मुझे पता चला कि आज लौंडा नाच दिखाया जाएगा तो मैं बल्लियों उछल पड़ी।
ठोकु गोसाईं….तुम आ गए। तुमने मुझे ढूंढ लिया। इस बार जाने न दूंगी।
मैंने खूब फोटो खींची और अपने साथ खिंचवाई। कहीं किसी फाइल में पड़ी होंगी। आज स्मृतियों के पन्ने फड़फड़ा रहे हैं।
दिल्ली का सावन सूखा है और मछलियां अथाह जल के भीतर उतर गई हैं।
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किताबें
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