Wednesday, December 4, 2024
चंद्रकला त्रिपाठी
अवकाश प्राप्त प्रोफेसर एवं
पूर्व प्राचार्य : महिला महाविद्यालय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
किताबें : आलोचना- अज्ञेय और नई कविता 
 कविता संग्रह -वसंत के चुपचाप गुज़र जाने पर 
 शायद किसी दिन
 कथा डायरी – इस उस मोड़ पर
 उपन्यास- चन्ना तुम उगिहो
सम्मान- सुचरिता गुप्ता अकादमी सम्मान
शुकदेव सिंह स्मृति सम्मान
गाथांतर सम्मान
 
 
आलेख कविताएं कहानियां – हंस  कथादेश  पूर्वग्रह वागर्थ  रचना समय आलोचना वसुधा दस्तावेज पाखी  पल प्रतिपल वगैरह में
दूरदर्शन, आकाशवाणी के दिल्ली लखनऊ गोरखपुर वाराणसी इलाहाबाद केंद्रों से वार्ताएं साक्षात्कार वगैरह प्रसारित
 नाटकों में अभिनय और निर्देशन
 काशी कला कस्तूरी नामक संस्था की संरक्षक
यूजीसी कैरियर अवार्ड प्राप्त
 
42 वर्ष बीएचयू में अध्यापन और महिला महाविद्यालय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राचार्या पद से रिटायर
…………………….

कविताएं

1

नर्तकी 
नृत्य पूरा होना चाहिए
लय ताल अंग प्रत्यंग
लास्य विलास
रंग तरंग सब पूरा होना चाहिए 
 
सज्जा लाउड हो
काजल फैले नहीं 
कपोलों पर हो रक्त 
युवता फूटे भंगिमाओं में 
तरलता सरस करे
चमक बन कर नाचना
देखो
कुछ भंग न हो
 
रसिक देखेंगे
लय ताल भंगिमा
नूर आंखों में 
आह न ज़रा भी बस वाह बस वाह
 
नर्तकी 
नाच पूरा हो
भटकना मत
डूब कर दिखना प्रदर्शन में
डगमगाई नहीं कि लोग समझ जाएंगे कला में नहीं भय में नाच रही हो। खंडित मत करो उनका सुख
 
नर्तकी !
 
भय का भी संचारी वही है क्या 
जो प्रेम का है
 
चंद्रकला त्रिपाठी

2

रात का पक्षी
 
चंद्रकला त्रिपाठी
 
गहरे अंधेरे की फुनगी पर कांपता हुआ फूल वह
रात सुनसान थी
अंधेरे के पानी में सबका आकाश डूब चुका था
शहर के ऊंचे मकानों की खाली छतों पर गिरे पत्ते सरसराते हुए अपनी आवाज़ें सुन रहे थे
वे दिन में पके थे
रात में गल जाने वाले थे
 
बुरी चिड़िया मनहूस अंधेरे की आदी वह
ऐसा ही कहते थे उसे डरे हुए गृहस्थ
उसमें भी आवाज़ थी
पत्तों के सरकने की आवाज़ से ज़्यादा रहस्यमय
 
घरों की सीढ़ियां
छत पर नहीं
आकाश पर खुलती थीं
 
रात की आवाज़ों पर सब हैरान थे
दिलों में फूल से डरने की आदत थी
 
दिलों में प्रेम की जगह शक था
सदमें थे
नीचताएं भी बढ़ रहीं थीं
देह में खांसी थी
गठिया था
मधुमेह था
कई रोग साथ साथ भी थे और अकेले भी
 
फूल का कहीं भी होना
इत्मीनान नहीं था
जैसे कि बग़ावत का कहीं भी होना
किसी ने सोचा नहीं था कि शहर की तमाम पुरानी रवायतों में अभ्यस्त किसी कुटुम्ब में
प्रेम ऐसा रुप बदल लेगा कि जैसे कोई प्रतिशोध हो
 
किसी परछाईं को सीढ़ियों के सिरे पर पंख में बदलते देखना
रोंगटे खड़े हो जाते हैं यह याद आने पर
यह याद आने पर और कि उसने सुना कर कहा हो
यह अंत नहीं है
 
लोग करवट बदलते सोचें कि
आज बहुत मनमानी पर उतर आया है रात का पक्षी
 
चंद्रकला त्रिपाठी

3

 यह तो अच्छा न हुआ
  
चंद्रकला त्रिपाठी
 
बहुत दिनों से रुह से कोई बात नहीं हुई थी
ऐसा तो कोई झमेला नहीं था
फ़ुरसत थी आराम भी था हाथों में कोई काम नहीं था
याद है कि तुरत फुरत कहीं जाना भी नहीं हुआ बहुत दिनों से
बहुत दिनों से किसी का आना भी नहीं हुआ
 
 दिल में
दिलों में
आंधी चलने की ख़बरों में अपना कोई हिस्सा था नहीं
 
पड़ोस में बदस्तूर कोई चला आया था बूढ़े की शिकायत लेकर
मालूम था कि वह अपने बेटे के घर में रहता है मगर मुहल्ले के कुत्तों को परका कर उसने अच्छा नहीं किया है
सब डरते हैं कुत्तों से
पड़ोसियों से भी डरते हैं मगर बूढ़े से नहीं डरते
बूढ़ा निरीह दिखना नहीं चाहता था
रात थी
सड़क पर निकलता कैसे
तेज़ चलने वाली गाड़ियों से बचता कैसे 
 
ऐसी कोई बड़ी घटना नहीं थी
जवान भागते हैं तब सड़कें हादसों में इतनी नहीं होतीं
दिशाएं पुकार पुकार उठती हैं
वे जीने की उम्र हुआ करते हैं जो कि बूढ़े नहीं होते
वे सांसत होते हैं अक्सर अब ऐसे मरें चाहे वैसे मरें
छोटी सी उसकी नातिन बिलखती है कोई सुनता नहीं
रुह सुनने लग गई कि अच्छा होता जब वे तब मर गए होते जब उनके गले में कौर  फंस गया था , आंखें उबल आई थीं 
हलकान हुए घर को अपने उत्सव की यह खामी अच्छी नहीं लगी थी,सब देख रहे थे जज कर रहे थे बुराई कर रहे थे
घर वालों को अपने बरताव पर मनुष्यता चढ़ाना ज़रुरी हो गया था
तब उस मनुष्यता से काम चल जाना था
निर्ममता पर परदा पड़ जाना था
हां उस बच्ची ने इतना नहीं सोचा था
अपने प्यार का दिखावा भी नहीं सोचा था
कहा था , मैं सोच रही थी कि तुम मरने वाले हो
बूढ़े ने प्यार से थपथपाया था उसे
कुछ नहीं कहा
मौत की मुश्किल उससे कही नहीं गई
 
रुह की मुश्किल यह है कि वह किसी को पराया नहीं समझती
कितना बड़ा अज़ाब है उसके साथ रहना
 
चलो कि कई दिन बीत गए ऐसे
पिछली बार तभी कह कर गई थी कि केवल दुख समझना काफी नहीं होता
न सही किसी के कम से कम अपने तो काम आओ
रुह भर जगह तो छोड़ो अपने जीने के इलाके में
 
चंद्रकला त्रिपाठी

4

राजा को अभिनेता पसंद आता गया
उसका प्रजा पर असर ज़ोरदार दिखा
प्रजा वैसे तो कोई मुश्किल न थी
मगर ऐसे तो थी कभी और बहुत ज्यादा थी
 
राजा ने शिक्षा ली अभिनेता से मगर कहा इसे
गुप्त रखना
अभिनेता को भी दुनिया से यह रिश्ता छिपाना था
उसे प्रजा के हिए में अपनी जगह नहीं घटाना था
 
राजा ने कहा उसे प्रजा पर प्रभाव के मौके पर आंसू चाहिए
अभिनेता अचकचाया और अपना भेद बता गया
आंसू के मौके पर वह असली आंसू रोता है
अभिनय उसका इतना भी छल नहीं है कि वह रोने का
दिखावा करे
इन दिनों तो उससे हंसना हो ही नहीं पाता है
दिल में उसके मां के शव से चिपका एक बच्चा बिलखता है
इन दिनों कारोबार मंद है सबका
कोई भी कैसे भी प्रदर्शन में नहीं हिलगता
 
सुन रहा था सुकवि
उसने अपने भीतर बसे मुसाहिब को संभाला
राजा से कहा प्रभु
रोना बहुत आसान है
और प्रजा भी 
आंसू कौन देखता है
मुद्राएं संभाल लें
 
देखिए ऐसे
नहीं तो ऐसे 
सुकवि का चेहरा सिकुड़ता फैलता रहा
राजा अचरज से
चेहरे का बिगड़ना 
लटकना देखता रहा
 
आंसू पर चली बात तमाशा हुई जा रही थी
अभिनेता शर्मिंदा था
वह एक्ज़िट के बारे में सोच रहा था
 
ख़ैर
चंद्रकला त्रिपाठी

5

पड़ोस के घर में
 
 धीमें बहुत धीमें चलती दिखती हैं चींटियां 
बेसब्री दिखाने भर काया नहीं उनके पास 
 
 बहुत झुक कर नहीं उड़ते पक्षी 
हवा छितराने के लिए भी नहीं 
 
बहुत दिनों से सन्नाटा है इधर
उन्हे तो इधर का ही पता है
 
सूख चुका है बगल की बस्ती का हैंडपंप
अगल की कॉलोनी में पानी अभी बाक़ी है
 
बांध कर ले जाया जा रहा है भगेलू
उसका असली नाम भी अब यही हो गया है
पांच बजे बंद कर देनी थी अंडे की दुकान
वह आठ बजे अपने ठेले के साथ पकड़ा गया 
पीछे पीछे दौड़ती जा रही है नसीमा
चिल्ला नहीं रही है
सिर्फ़ बिलख रही है 
 
उसके पीछे कोई खोल ले जाएगा उसकी बकरी
आसपास बहुत दिनों से उपवास चल रहा है
 
नीरज को अब से आधी तनख्वाह भी नहीं मिलेगी 
सुधा को नहीं मिल रहा है साड़ियों में फाल टांकने का काम भी
पढ़े-लिखे दोनों भीख मांगने में हिचकते हैं
छ: महीने के छोटे बच्चे के लिए भी जीना नहीं चाहते
 
किसी की कुंडी खटकी तो पृथ्वी तक कांप गई
क्या है ? कोई कुरस हो कर चिल्लाया 
स्त्री ने फोंफर से देखा उस दूसरी स्त्री को
उसकी उम्र कम थी और वह कांप रही थी
 उसके हाथ में गीली हुई पर्ची कांपती इस हांथ में चली आई और वह स्त्री अदृश्य हो गई
फोन नंबर था उस पर एक
पानी से पसर गए थे नंबर मगर बाक़ी थे
 
क्या है क्या है ?
वाली आवाज़ सख़्त थी 
दूसरों के झमेले में कोई नहीं पड़ता आजकल
 
बहुत दिनों से उस घर में स्त्री के नहीं होने की आवाज़ है
बाक़ी आवाज़ें अब ज़्यादा हैं , जैसे घिसटती हुई रुकतीं है बड़ी गाड़ियां और
सन्नाटे में किसी के नहीं होने को बार बार सुना जाता है
 
स्त्री ने हिम्मत करके उस नंबर पर फोन कर दिया मगर तब नहीं किया जब 
ख़त्म होने से पहले कुछ बचा लिया जाता है
 
बचा तो वह भी नहीं
वह छ: महीने का बच्चा भी
 
चंद्रकला त्रिपाठी
…………………….

किताबें

…………………….
error: Content is protected !!