जब भी कोई अजनबी मिलता है तो कहता है, धर्मयुग में आपकी कहानियाँ पढ़ा करते थे। मैं भी सुनीता जैन के लिए यह कह सकती हूँ, फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि अब हम एक-दूसरे के लिए अजनबी नहीं रहे। यूँ ठीक-ठीक अजनबी बरसों से नहीं थे। दिल्ली में रहते, कभी-कभार गोष्ठियों या दूरदर्शन पर आमना-सामना हो जाया करता था। पर निजी तौर पर, परिचय जैसा कुछ नहीं था। जो था, कहानी के नाम पर। और कहानी का नाम लो तो धर्मयुग, क्योंकि मैं जिस समय की बात कर रही हूँ, वह धर्मयुग-साप्ताहिक हिन्दुस्तान-सारिका का ज़माना था। दरअसल दिल्ली मैं बाद में आई, कहानी के माध्यम से सुनीता को पहले जाना। जो लोग सुनीता को रचनाशील कवयित्री की तरह जानते हैं, वे शायद इस बात पर अचरज करें कि उस ज़माने में, वे अपने गद्य के लिए ज़्यादा जानी जाती थीं।
तो सत्तर के दशक में, मैंने, सुनीता जैन की एक कहानी या कहें गद्य का मुखड़ा, धर्मयुग में पढ़ा था। उनसे मेरा वही पहला साक्षात्कार था। झील की बतखें नाम था और झील की ही तरह, वह निर्वेग रूप से मेरे भीतर उतर गया था। उन दिनों मैं दिल्ली से बाहर, कर्नाटक प्रदेश के एक छोटे-से कस्बे में रहती थी। हिन्दी से ताल्लुक बनाए रखने का कोई उपाय था तो वही, धर्मयुग और सारिका का आस्वादन।
मैंने तब तक हिन्दुस्तान के बाहर क़दम नहीं रखा था और सुनीता की कहानी थी, ठेठ न्यू यॉर्क के बारे में। विदेश से मेरा तब तक साबका, ज़्यादातर साहित्य के माध्यम से रहा था। इसीलिए उसके तमाम यथार्थ के ऊपर फंतासी की झीनी-सी चादर पड़ी रही थी। अब जो झील और सुदर्शन युवक समेत, विदेशी पृष्ठभूमि पर, अपनी देशवासिनी की हिन्दी में संस्मरणनुमा कहानी पढ़ी तो वह झीनी चादर, झर्र से उतर गई। और पलटा खाकर फर्र से दुबारा यथार्थ पर चढ़ गई। एक अलग अंदाज़ लिए हुए फंतासी-युक्त यथार्थ, आँखों के सामने आ गया। सुनीता का धीमा, हल्का, काँपता-सा रोमानी अंदाज़, उस विदेशी को हिन्दुस्तानी बनाए दे रहा था और आख़िर में वह फलसफ़ा। अपने यहाँ रिश्तों की कई अनाम परतें होती हैं, जिन्हें करीब से करीबतर लाने का मतलब है, उन्हें खोना या कमतर बनाना, जिसकी पेशकश न करें तो बेहतर है। कहानी का मर्मस्पर्शी अन्त, बरसों मेरी याददाश्त में टंका रहा। हाल में सुनीता की कहानियाँ और अन्य गद्यांश दुबारा पढ़ने का मौका मिला तो वह गद्य का टुकड़ा भी पढ़ा। और तब पता चला, अरे इसे तो मैं कभी भूली ही न थी।
उस पहले पाठ और अबके बीच पूरा जीवन बीत चुका, यानी यौवन बीत चुका। विदेश का तिलिस्म भी टूट चुका। हल्के-काँपते रोमान्स के दिन आए और बीत गए। यादों में शुमार हुए और भूल चले… मैं और सुनीता अजनबी नहीं रहे। कभी-कभार हँस-बोल लेने के औपचारिक रिश्ते की कुछ परतें छीलकर, एक-दूसरे को हमने, बीसवीं सदी के अंतिम दशक में जाना। जब मैं इस अर्थ में बूढ़ी हो चुकी थी हँसने-बोलने के प्रति खास लगाव नहीं रहा था और सुनीता भी एकदम जवान होने का दावा नहीं कर सकती थी। हालांकि वह तब तक रिटायर नहीं हुई थी और ज़िन्दगी को शिद्दत से जी रही थी। उन दिनों वह कविता में रमी थी। हिन्दी-अंग्रेज़ी दोनों में लिख रही थी। कहानी-उपन्यास से काफ़ी कुछ किनारा किए थी। वह उन थोड़े से लेखकों में से है, जो आज भी कविता के लिए सरस्वती शब्द का इस्तेमाल करते हैं। पर मैंने पाया कि रचनाकार से इतर भी, सुनीता के पास एक रचनाशील बुद्धि और पारखी मन है, जो उससे रचना का सारगर्भित अनुशीलन करवाता है और उसे उसकी तह तक पहुँचने का बल देता है।
उसकी तीक्ष्ण बुद्धि और प्रबन्धन की समझ को देखते हुए, मुझे काफ़ी बार ख़्याल आता था, विदुषी और कार्यदक्ष महिला, आई.आई.टी में प्रोफेसर, ह्युमेनिटीज विभाग की अध्यक्षा; व्यावसायिक क्षेत्र में भरी-पूरी पहचान लिए; आख़िर वह किस मोह जाल में फँस कर साहित्य के दुखदाई क्षेत्र में विचरने आई होगी? शायद यह प्रश्नोत्तर ही, “साहित्य क्यों पर साहित्य ही”, हमें एक-दूसरे के क़रीब लाया होगा, क्योंकि हम दोनों, एक-दूसरे से बिना पूछे, उसके निदान तक पहुँच लेते हैं।
अपने अनुभव से मैं जानती थी कि साहित्य ही सुनीता का वास्तविक क्षेत्र है और हमेशा रहा है। उसके अलावा, जो-जो उसने किया, वह समय की माँग थी, जीवन की ज़रूरत और थोड़ी-बहुत, जीवन को भव्य तरीक़े से जीने की लालसा। पर जब उसने अध्यापन या प्रबन्धन के क्षेत्रों को चुना तो उन्हें हाशिये में नहीं डाला। जो उनकी माँग थी, हमेशा पूरी की। उनका स्वधर्म, निष्ठा से निभाया, फिर भी अपना कुछ बचाकर रखा, जो वह साहित्य को अर्पित करती रही।
मुझे लगता है, सुनीता के चरित्र का मूल सत्व यही है कि वह किसी चीज़ को हाशिये में नहीं डालती। जिसे, अन्य जन अपना प्रयोजन सिद्ध करने लायक न मान, डाल रहे होते हैं, उसे भी नहीं। उन विषयों को भी नहीं, जिनकी तरफ़ से, ज़्यादातर होशियार लोग उदासीन हो चुके हैं। इसलिए सुनीता, करीब-करीब हर विवादास्पद विषय पर सोचते और बोलते पाई जा सकती है। इस तरह का आचरण यानी हाशियों को निरन्तर मुखपृष्ठ पर खींच लाने का उपक्रम, जीवन में अनेक जटिलताएँ पैदा करता है। और कर्ता के चरित्र में भी। विरोधाभास और विसंगतियाँ चारों तरफ़ से घेराबंदी करने लगते हैं। सब तरह की विडम्बनाओं के बीच आडम्बर और अपेक्षित आचरण की माँग के हमलों से, अगर किसी चीज़ को बचाने का हौसला बना रहता है तो इसीलिए कि जिसे बचाया जाएगा, वही अपना वास्तविक जीवन-केन्द्र होगा। तो जो बचा रहता है, वह होता है, लेखन।
सुनीता का परिष्कृत, आभरण-युक्त, सजीला रख-रखाव देखती हूँ और देखती हूँ उसके लेखन की स्फूर्त सहजता को। कहीं कोई तालमेल नहीं बैठता। हर हाल वह लेखन, उस बाहरी व्यक्त्तिव का प्रतिबिम्ब नहीं ही है। फिर आन्तरिक व्यक्ति का होगा? व्यवहारिक और आन्तरिक का अंतर हर व्यक्ति के भीतर होता है। सुनीता के यहाँ कुछ ज़्यादा है, इसलिए उसे जानना ज़्यादा समय लेता है और अधिक मेहनत की माँग करता है। उसका लेखन उसके आन्तरिक व्यक्तित्व का दर्पण है या कहें उस सरस्वती का दर्पण है, जिसे उसने अपनी तरफ़ से अपने लेखन का पर्याय बना रखा है।
सुनीता ऐसे लिखती है जैसे पात्रों और पाठकों से संवाद कर रही हो और उसी तरह, हम उसे संप्रेषित भी करते हैं। पर इसका यह मतलब नहीं है कि वह लेखन का आधार, केवल भावनाओं को बनाती हैं, विचार को नहीं। असल में, यह आसपास के जीवन को जितना महसूस करती है, उतना ही उस पर सोचती भी है। तभी कविता, कहानी, उपन्यास के इतर, वैचारिक लेख उसके समग्र लेखन के अंश है। उन्हीं को उसके समग्र लेखन में विविधा के अन्तर्गत संयोजित भी किया गया है।
कभी-कभी हम विविध का अर्थ, वह खुरचन मान लेते हैं जो समग्र लेखन की हांडी के तले में बची रहती है। पर असलियत वह नहीं है। असल में विविध, घी का वह बघार है, जो रचना की सारी सुगन्ध को सोख कर, ऊपर उतरा लाता है। रचना में विचार का प्रस्फुटन होने पर ही, आलोचना की सम्भावना पैदा होती है। दरअसल विचार, साहित्य-पठन की अनिवार्य शर्त है। लेखकीय कथ्य का सार्थक पाठ तभी किया जा सकता है, जब उसमें अन्तर्निहित सब उप-पाठों को तलाश कर, उन्हें आत्मसात किया जाए। उनका विवेचन-विश्लेषण करके, उनके परिप्रेक्ष्य में, समग्र पाठ को रख कर देखा जाए। तभी उसके सब आयाम खुल सकते हैं। वह जो ज़ोर-शोर के साथ कहा गया है, वह जो धीमी आवाज़ में आधा-पौना कहा गया है; और वह जो अनकहा छूटा रह गया है या छोड़ दिया गया है। यह काम सचेत पाठक भी कर सकता है और सचेतन आलोचक भी। पर दोनों में से एक भी होने के लिए ज़रूरी है, रचनात्मक होना। रचनाकार नहीं, रचनात्मक। रचना कभी-कभी होती है। हर अनुभव, अनुभूति या कल्पना की उड़ान को रचना में नहीं बाँधा जाता। चाह कर भी नहीं। पर जब हम रचना नहीं कर रहे होते, अपने भीतर उसकी पदचाप नहीं सुन रहे होते, तब भी हम रचनात्मक बने रह सकते हैं। दूसरे के अनुभव को संवेदना के साथ देखने-परखने के लिए, रचनात्मकता की ज़रूरत होती है। उतनी ही तब होती है, जब दूसरे के लिखे को हम आँकते हैं। विचार, का प्रस्फुटन आलोचना की सम्भावना पैदा करता है तो संवेदना और ईमानदारी, उसे सार्थक आकार देती है। सुनीता रचनाकार तो है ही, जीवन और साहित्य के प्रति रचनात्मक भी है। इसलिए जब वह किसी रचना का विश्लेषण और आकलन करती है तो बौद्धिक ऊर्जा, भावात्मक लगाव और चारित्रिक बेबाकी के साथ करती है। हमारे यहाँ साहित्य के विवेचन में अनेक खाली स्थल हैं; अनायास या सायास छोड़ी दरारें हैं। दरारों से परे हाशिये हैं। सुनीता का वैचारिक लेखन, उन दरारों को भरने का काम करता है।
यह सोच कर दुख होता है कि इतना सब करने के बाद भी सुनीता उदास है और लोगों की उदासीनता से, खिन्न। हिन्दी साहित्य-जगत, रचनाकारों की अलग-अलग आवाज़ों को, उनके अलगाव के वैभव में पहचानने का क़ायल कभी नहीं रहा। लेखक के जीवन में घुसपैठ किए बग़ैर, उसके लेखन को परखने में भी वह विश्वास नहीं करता। इसलिए शायद सुनीता के लेखन की वैसी पड़ताल नहीं हुई जैसी होनी चाहिए। उसकी आलोचनात्मक पड़ताल को भी, “महिलाएँ आलोचना नहीं लिखतीं” की पिष्टोक्ति से बाहर निकाल कर सराहा नहीं गया। पर सराहा जाए या नहीं, लेखन अपने पढ़ने वालों के भावबोध को समृद्ध करता ही है और वही उसकी सही पहचान है। कभी वह विवेक को उकसाता है, कभी सौन्दर्यबोध को गहराई और मॉसलता देता है तो कभी भूले-बिसरे अतीत के जीवन्त पात्रों का पुनर्सृजन करके, उन्हें फिर एक बार हमारे क़रीब ले जाता है।
सुनीता के तीन खण्ड काव्यों, क्षमा, माधवी और गांधर्व पर्व में अतीत से पात्र उठाकर उनकी पुनर्रचना की गई है। उसके अलावा कुछ कविताओं में भी उन्होंने अछूते प्रसंग उठाये हैं जैसे माँ पर बेटी द्वारा लिखी कविताएं(जाने लड़की पगली), या प्रेम में स्त्री के अनगिन रूपों की ऐसी रसमय प्रस्तुति, जिसमें अपनी संस्कृति को बचाए रखने की भावना प्रबल है।
पर सबसे प्रभावी रूप में यह तत्व, उसके हाल में प्रकाशित खण्ड काव्य क्षमा में फलीभूत हुआ है। उसकी प्रवक्ता, गोस्वामी तुलसीदास की विस्मृत व तिरस्कृत, कवि-पत्नी रत्नावली है। गोस्वामी तुलसीदास के स्त्री-आसक्त युवक से असाधारण राम भक्त कवि बनने की घटना, सर्वज्ञात है। सदियों से उन्हें उसके लिए, साहित्य रसिकों तथा आम जनता की अपार श्रद्धा प्राप्त होती रही है। विडम्बना यह है कि जिस तन्मय भक्ति का काव्य लिखने के लिए तुलसीदास श्रद्धेय बने, उसी भक्ति से प्रेरित हो, सत्य वाचन कर, तुलसीदास के भीतर उसका आह्वान करने के लिए,रत्नावली श्रद्धेय नहीं, कटुभाषी खलनायिका बना दी गई, और सदा तिरस्कृत होती आई। खण्ड काव्य क्षमा ने रत्नावली और तुलसी की कथा को अनूठे भाव और शैली में अभिव्यक्ति दी है। रत्नावली को ऐसे पात्र की तरह गढ़ा है, जिसके साथ इतिहास ने शताब्दियों तक अन्याय किया पर जिसने इतिहास का घटनाक्रम ही नहीं, भविष्य का भावबोध भी निर्धारित किया। रत्नावली स्वयं एक कवि थी। जब उसने पति से कहा कि इतनी लौ ईश्वर से लगाते तो जन्म सार्थक हो जाता तो उसकी जिह्वा से वही आध्यात्मिक कवि मानस बोल रहा था, जिसके लिए तुलसीदास को ख्याति मिली। पर सुनीता का मन्तव्य केवल इतना भर सिद्ध करना नहीं है, हालांकि उन्होंने रत्नावली की कुछ रचनाएं भी खोज निकाली हैं। क्षमा काव्य का सबसे प्रखर और मार्मिक पक्ष यह है कि मृत्यु शैया पर, जब तुलसीदास रत्नावली से क्षमा माँगते हैं तो वह अपने पारस्परिक प्रेम का साक्ष्य तो देती है पर अतुलनीय गरिमा के साथ, उनसे मिलने की कोई चेष्टा नहीं करती। पाठक सोचने पर बाध्य हो जाता है कि, क्या रत्नावली की कथा, युगों से चली आ रही हर प्रतिभाशाली स्त्री की व्यथा-कथा नहीं है? किसी भी लेखक के लिए यह कर पाना दुर्लभ उपलब्धि है।
यह संयोग ही है कि सुनीता जैन ने साठ बरस की वय पूरी करने के बाद क्षमा लिखा। जैन समुदाय छिमा वाणी दिवस के नाम से एक अनोखा पर्व मनाता है। हर बरस एक दिन, जैन धर्म के अनुयायी, बरस भर में जाने-अनजाने किये गये अपने अपराधों के लिए दोस्तों-रिश्तेदारों से ही नहीं, परिचितों और अल्प परिचितों से भी क्षमा माँगते हैं। ऐसा अद्भुत पर्व कोई और नहीं मनाता। हो सकता है इसी ऐतिहासिक स्मृति से प्रेरित हो कर, सुनीता ने गोस्वामी तुलसीदास से अपनी तिरस्कृत पत्नी से क्षमा मँगवा दी हो। प्रेरणा कहीं से मिली हो, उससे तुलसीदास और रत्नावली के साथ सुनीता का क़द भी कुछ ऊँचा हुआ है मैं उम्मीद करती हूँ क्षमाशील भी।
यह समझना ज़रूरी है कि विवेक को उकसा कर,सौन्दर्यबोध को गहराई दे कर और अतीत के जीवन्त पात्रों को पुनर्सृजित करके, कोई लेखन, हमें उस तरह जीने को बाध्य नहीं करता, जैसे उसका लेखक जी रहा हो। वह सबको अपनी तरह जीने की प्रेरणा देता है, बस पहले से कुछ अधिक सचेतन हो कर। सुनीता का लेखन यह बखूबी करता है। उससे भी बड़ी ख़ूबी यह है कि वह दूसरों के लेखन के उच्छेदक तत्वों को भी पहचानती है। मेरे उपन्यास अनित्य की पड़ताल और उसके अंग्रेज़ी अनुवाद होने के दौरान मेरी सृजन यात्रा या कहूँ यातना में, सुनीता ने जो संवेदनशील और सकारात्मक भूमिका निभाई थी, वह हमेशा याद रहेगी।
मैंने बहुत-से उदास क्षण उसके साथ गुजारे हैं। कुछ यात्राएँ भी साथ की हैं। वह एक दक्ष, चौकन्नी यात्री हैं। मैं एकदम नकारा। इसीलिए यात्रा में उसकी प्रबन्धन कुशलता की हमेशा प्रशंसक रही हूँ। आभारी भी।
सुनीता के भीतर दोस्त बनाने की उत्कट लालसा है, जो बहुत बार, उसे चोट खाने पर मज़बूर करती है। दोस्त मान लेने से ही कोई दोस्त नहीं बन जाता। मैं समझती हूँ कि दोस्ती निभाना प्यार निभाने से ज़्यादा विकट होता है। इसलिए जो दोस्त चाहता है, जिसके लिए दोस्ती करना ज़रूरी होता है; उसे हमेशा चोट खाने के लिए तैयार रहना पड़ता है। आप दोस्त इसलिए चाहते हैं कि अपने को खोल सकें, संवाद कर सकें, भावनाओं को प्रश्रय मिले। पर दोस्त बनाने का मतलब यह भी होता है कि आप उसके नकार के अधीन हो जाते हैं। दोस्ती बनी रहे और दोस्त से उसे निभाने की ज़हमत भी न उठवानी पड़े। वरना डर होता है कि वह दोस्ती से कट कर भाग न ल। इस कशमकश में आप वही सब खोने लगते हैं, जिसे पाने के लिए दोस्त बनाया था। यानी संवाद से कन्नी काटने लगते हैं; अपने को खोलने से कतराने लगते हैं। पर जिसे दोस्त चाहिए, उसे चाहिए ही। जीवन की अनेक विडम्बनाओं की तरह इसे भी झेल लेगा। अपना स्वधर्म कौन छोड़ता है? फिर रचनाकर्म तो है ही। दोस्त दोस्ती न निभाएँ, न सही। रचना में दोस्ती ढूँढ़ी जा सकती है। असंगत दीखते पाठ में संगति ढूँढ़ी जा सकती है। विविध तरीकों से विविधा रची जा सकती है।
11 दिसम्बर 2017 की शाम हिन्दी की इस प्रख्यात कवयित्री सुनीता जैन का 76 वर्ष की आयु में निधन हो गया। वे छह माह घातक रूप से बीमार रहीं पर बहुत कम लोगों को पता चला। वे लोगों की हमदर्दी नहीं चाहती थीं, बस अन्त तक रचनाशील बने रहना चाहती थीं,इस विश्वास के साथ कि लिखा शब्द व्यर्थ नहीं जाता। वाक़ई एक अचम्भा ही था, अपार कष्ट में,अन्त तक उनका लिखते रहना। तर्क सम्मत है उनके अंतिम कविता संग्रह का नाम ,”ऐसे जाने देना।”
उसकी एक कविता की ये पंक्तियाँ अंतिम समय में उनकी मनोदशा का रचनात्मक और आध्यात्मिक रूप दोनों दर्शाती हैं।
आज और कल में सिमट जाएगा
तेरा मेरा नाम, साधो
नहीं किसी को याद आएगा
दो दिन पीछे नाम, साधो
फिर भी कर तू
जो भी तेरा काम, साधो।
नहीं हम याद रखेंगे। मुझे विश्वास है कि उनके दोस्त रचनाकर्म की सही पड़ताल ज़रूर होगी और उसमें अन्तरनिहित अस्मिता बोध को समझा जाएगा।
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