डॉ. सुधा तिवारी ‘सुगंधा’ कलकत्ता विश्विद्यालय से एम. ए. और समाज के वंचित वर्ग के अधिकारों और समाचार पत्रों में उनके कवरेज पर शोध करने के बाद अध्यापन, अनुवाद एवं कविता लेखन के साथ ही आलोचना के क्षेत्र में सक्रिय हैं। इन्होंने कलकत्ता के सेठ सूरजमल जालान गर्ल्स कॉलेज में डिग्री स्तर पर अध्यापन कार्य किया है और इनकी कविताएं ‘दोआबा’ पत्रिका एवं ‘सलाम दुनिया’ में प्रकाशित हो चुकी हैं और सृजनलोक प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘समकालीन हिंदी कविता खंड -2’ में भी प्रकाशित हुई हैं । इनके शोधपरक लेख ‘शोध समवाय’ एवं
‘अपनी माटी’ में प्रकाशित हुई हैं। जन संदेश टाइम्स (लखनऊ) में इनके समसामयिक – साहित्यिक लेख प्रकाशित हुए हैं और हैं और यह सांस्कृतिक एवम सामाजिक सरोकारों से जुड़ी संस्थाओं के साथ जुड़ी हुई हैं।
वर्तमान में लेखिका भारत सरकार में राजभाषा अधिकारी के रूप में कार्यरत हैं। कविता लेखन के साथ ही विदेशी भाषाओं की कविताओं के अनुवाद कार्य में इनकी विशेष रुचि है।
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प्रेम का एकांत
हिम से ठिठुरती नदी में एक बच्ची सहमे हाथों
से रोज एक दिया रख जाती है
अल्हड़ लहरें थामे रखती है उसे अँजुरी में
पानी की वह प्यास है प्रेम.
शाख से बिछड़ते हुए पत्ते की बेक़श चाहत हो तुम
जैसे प्यासी आँखों से पुकारता हो डाली को
तुम्हें देखती हूँ मैं.
उष्णकटिबंधीय जंगलों के सूने अंधकार में
बहुत आहिस्ता ज्यों चटकी हो कोई अलबेली कली
उस सूने एकांत के सघन बाहों में
तुम्हें समेटती हूँ मैं.
हर साहिल, हर रेत के रूह पर बादलों के
खुले सिर पे लिखा बस एक ही नाम
और मौजों में बह जाते देखती रही हरबार
और क्या है पानी से छूट रहे इस घर में.
हर गुजरता मौसम थोड़ा और
रेतीलापन भरता जाए भले इस जमीन पर
एक शिशु की मासूम हँसी बोते रहना
पतझड़ के बीचोंबीच
इन पीले पत्तों के अंत से पहले
रोप देना एक आस को
जैसे किसी सूने मंदिर में जलता है
बीते शाम का बेफिक्र दिया!
-सुधा
नींद में चाँद
गाढ़े अँधेरे में टँका आधा कटा चाँद
कितना महीन उधड़ा हुआ
उतर रहा था धान की क्यारियों में
मटमैली सुनहरी पानियों में
पक रहा है अन्न
कच्चे मन की लड़की ठुनक-ठुनक
पिघलती है गंवईं दुपहरी में
अंब्रेला कट फ्रॉक में चुनती
ढेर के ढेर पत्ते मेहँदी के
नारंगी चाँद खिल-खिल आता
रंगबदलू चूड़ियों के बीच
प्यार में भीगीं आँखें
अपने साथ टहलाती हैं चाँद को
सूरज भर की मटरगश्ती
डूबा देती हैं बोगेनबोलिया के इश्क़ में
इन पाँवों तले उगती हैं बेलें
धूल भरे लटों के पेशानी पे
गुनगुने होंठ रख आती
वह प्यारी खिलखिलाहट
ये झिझकता चाँद
किसी आकाश में तेरे बोसे सा
खिल सकता है क्या!
– सुधा ‘सुगंधा’
मां
शरद की सिहरती भोर में
आलक्त पैरों की छनक में
धीमे से उतर आती हो एक दिन
अपना सोने का संसार छोड़
मिट्टी की संतानों को देखने
हे माँ! संसार तुम्हें देवी कहता है,
कुछ पिताओं की तू बेटी है
कुछ अभागों की तारिणी
और कुछ की माँ
ये सब रूप तुम्हारे और तुम इन रूपों की
आखिर अष्टमातृका जो ठहरी
अपने आगमन की पातियां
कई-कई बार भेजती हो ठिठक-ठिठक कर
जैसे कोई बात धागे सी फंसी हो उँगलियों के बीच
अँजलि के फूल हाथों में रूक-रूक पड़ते हों
खिलते कास, बरसते मेह
और किलकते पारिजात
तुम्हारी कुसुम किसलय अँजुरी से
लुका-छिपी खेलते
चू ही पड़े
आओ माँ! हरो पीर हरो क्लेश हरो तमस
पुकारती है प्रकृति
तुम्हारे पांव के रंग घुल गये
अश्रुओं में
धरा है लाल, पत्र विस्मित
भवतारिणी पहनो सुंदर कुसुमों के हार
सुनों क्रंदन
माला के फूल फिर उलझते हैं
कोमल उंगलियों में उमड़ते रक्त
नयनों से छलकते हैं
आह मेरे प्यारे शिशु
कितने सभ्य हो गये तुम!
तुम्हारी कामना है पर निर्लज्ज!
माथे का सिंदूर पसीजता है
देवी के स्वेद ललाट पर
रक्तिम हैं आँखें!
जन-मन है हर्षित तुम मानवी हुई
जौ की हरितिमा में रखा कलश
कांपता है शरद की भोर में
तुहिन कण झिलमिलाते हैं
आम के पल्लवों पर
दीए का स्नेह छलक पड़ता है
मंगल करो हे सिद्धिदात्री!
सब हैं खड़े आर्द्र नेत्रों में
लाल है तुम्हारे वस्त्र लाल कपाल
लाल हुए कपोल
विदा करती हैं तुम्हारी वंचित संतानें
लाल वस्त्रों में लिपटी, सिंदूर में
डूबी स्त्रियां
आकंठ अनुरागमय कोमल शरीर
उल्लषित हैं बेसुध कि
देखती है उन्हें भेदती आँखें
कल ये आँचल रंगे होंगे रक्त से
और आँखों में होगा भय
कामना के पुतले घेर आएंगे उन्हें प्रकृति से दूर
और प्रेम आएगा खींचने दायरे!
करती हूँ तुम्हें मैं विदा
फिर लौटा लाने को ढ़ाकी की थाप पे!
पर ठहरो इतवार को नहीं करते बेटी को विदा
मंगल को भी नहीं
पर हाँ कर ही देते हैं विदा
बेटियों को !
यह वेदी यूं ही संजो रहने दो
नहीं होगा विसर्जन
उसमें खिलें तुम्हारे प्रिय पुष्प
और जब भी सोने की खिड़की से
देखो तुम बंकिम स्मित में
जान लो कि एक मिट्टी का घर है
तुम्हारा भी!
फिर आना हे देवी !
अपनी काया में भरकर मानवीयता
और आँखों की निर्भेद करूणा
भर जाना इन मांसल नयनों में!
सुधा ‘सुगंधा’
चुप्पी
क्या दिन थे जब
जागती थी खिलखिलाहट में
सोने से डरती थी
अंधेरा होने
चुप हो जाने से डरती थी
पर जाने कैसे बदल गया सब
और मैं जागने से डरती हूं
चुप रह जाती हूं
बोलने से डरती हूं!
चुप्पियां बेआवाज ही
हो जरूरी नहीं हर बार
कभी कभी बोलती हैं
चीखती भी हैं
प्रतिरोध करती हैं – चुप्पियां!
निरर्थक आवाज़ों के पीछे
से निहारती हैं एकटक!
बातों के बीच कांधे पे
चिपक जाती हैं तेरे
आँखों के कोर में अटक
जाती हैं हँसी के दरम्यान
कविता में चू पड़ती हैं
अंतरालों के बीच
उदासी-सी!
नोहकलिकाई
खासी पहाड़ियों के
हरे भरे विस्तार से रिसता
हरे पानियों का एक संसार है
सख़्त चट्टानों के सीने पर
रेंगता घने गुल्मों में टहलता
कल कल फुहारें बिखेरता
और किसी कलपती मां
की हृदय वेदना के साथ
छलांग लगा देने वाला
एक प्यासा पथिक
कहते हैं यह लिकाई की
लूटी हुई ममता की पुकार है
एक स्त्री जो मां थी
एक स्त्री जिसने अपनी ही
जन्मी बेटी को उदरस्थ कर लिया
जो छली गई एक सत्तावान पुरुष से
एक स्वत्वाधिकारी सजातीय से
एक अधूरे प्रेम का अभिशाप लिए
कूद पड़ी वो सबसे बड़ी ऊंचाई से
और तुम झरते रहे उसके आंचल में बंधे
अजस्र वेदना की टीस -से!
सुदूर मंजिलों की तरफ
अपने कंधों पर लादे हुए अपनी लाश
शायद जानते रहे हों कि चलना फ़ैशन में
है आजकल।
जा रहा है ये साल हिलाते हुए हाथ
और मैं पलट कर देखती रही
मास्क में बंधे चेहरों को
रेत सी फिसलती जिंदगी को
कागज़ में बदलते संविधान को
और बंदी में तब्दील होते इस साल को
जा रहा है ये साल हिलाते हुए हाथ।
@सुधा ‘सुगंधा’
जाता हुआ साल
बंद दरवाजे के पीछे से चुपके से
जा रहा है ये साल हिलाते हुए हाथ
इसका नाम बंदी क्यों न रखा जाए
दुकान बंद, बाजार बंद, बंद कार्यालय
म्युनिसिपल का दफ्तर बंद, अख़बार बंद
स्कूल बंद, कालेज बंद और बंद है
तेरा मेरा मिलना भी।
इस बंदी की जकड़न से निकलने के लिए
घूम आए लोग होकर अस्पताल
डॉक्टरों को देखा हमने बंद लिफाफे में
बेबस आंखें जिनकी झिलमिलाती थीं चश्मों के पार
अस्पताल की बिस्तरें थीं कम रोग के फैलाव से
सड़कों पर गाड़ियों से अधिक थे एम्बुलेंस
नदियों में पानी से अधिक लाशें
दिलों में हिम्मत से ज्यादा थी दहशतें।
भीषण गर्मी और शहर को बहा ले जाते सावन
के बीच जमे रहे कुछ बूढ़े पांव
दिल्ली की सरहदों पर
हिंदू जागरण के दौर में जो गाते थे
परहित धर्म के गीत
भोले थे, बिल्कुल उस लाठी वाले बूढ़े की तरह
और जिद्दी भी जिनकी सांसें उखड़ी नहीं पूस की सर्द रातों में
पर रबड़ की टायरों पर चलती एक गाड़ी ने
कुचल दिया उनकी जिजीविषा को
सभ्य समाज में जिद और भोलेपन के लिए कोई जगह नहीं।
जा रहा है ये साल हिलाते हुए हाथ
गाते हैं बच्चे राष्ट्र का गान
तनी हुई मुट्ठियों में चलते हैं दाहिने -बाएं
फटे हुए गालों में अंतड़ियों की आग छुपाए
सड़कों, पटरियों पर चलते रहे लोग