निमिषा सिंघल
जन्म:15/08/76 बुलंदशहर उत्तर प्रदेश
शिक्षा : एमएससी, बी.एड,एम. फिल,
शास्त्रीय संगीत (गायन) में प्रभाकर, विशारद,प्रवीण, प्रयाग यूनिवर्सिटी इलाहाबाद।
अनुभव:
*विद्यालयों व इंटर कॉलेज में छः साल तक अध्यापन कार्य।
*पैकेज्ड ड्रिंकिंग वॉटर कंपनी रेल नीर में तीन साल माइक्रोबायोलॉजिस्ट का जॉब।
*ताज महोत्सव आगरा व अन्य कई प्रतिष्ठित मंचों पर गजल,भजन प्रस्तुतियांँ, कविता पाठ।
*रेडियो प्लेबैक इंडिया (मुम्बई)मेंटजा एप पर हर रविवार 11:00 बजे राग लेगेसी के कार्यक्रम में
को-होस्ट, कलाकार।
प्रकाशन :
काव्य संग्रह ‘जब नाराज होगी प्रकृति’
प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं, अमर उजाला, दैनिक जागरण, बहुमत, समयांतर, छत्तीसगढ़ मित्र, आभ्यंतर, पत्रिका इत्यादि में रचनाएंँ प्रकाशित।
पुरस्कार:
*अमृता प्रीतम स्मृति कवयित्री सम्मान,
*बागेश्वरी साहित्य सम्मान,
*सुमित्रानंदन पंत स्मृति सम्मान
अन्य
यूट्यूब पर काव्य रस सरोवर नाम से साहित्यिक चैनल
निवास:
10,कुंँवर कालोनी,सिविल लाइंस, चर्च रोड, आगरा (उत्तर प्रदेश) पिन- 282002
ईमेल:
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कविताएँ
"जीवनसाथी"
जीवन!
किस तरह..
अधूरा रह जाता है..
जब भी जीवन से कोई एक ….
चला जाता है।
रथ के दो पहिए हैं
जीवन साथी दोनों..
कैसे एक पहिए पर
जीवन रह जाता है!
पूरक एक दूजे के..
दोनों बंँधें डोर से..
कैसे कोई डोर तोड़..
यूँ उड़ जाता है?
हो आजाद माया बंँधों से..
दूर गगन में..
कैसे कोई चैन से
एक पल रह पाता है!
कहने की बातें हैं
जाकर एक बार फिर..
कोई वापिस
यहाँ नहीं फिर आ पाता है।
घर के कोने -कोने में
वह बसा यहांँ पर
चेहरों और आदतों में
पल-पल दिख जाता है।
बँधन तोड़ कोई भी जग से….
जाने कैसे?
प्रियजनो को छोड़..
कहीं भी जा पाता है..।
हर पल अमूल्य..है जीवन का
सोच समझ क्यों?
कैसे कोई कदम
नहीं बढ़ा पाता है!
अपने जिगर के टुकड़ों को
कैसे यूँ कोई ..
जग में बेसहारे छोड़
कहीं फिर खो जाता हैं।
माना ..
ईश्वर हैं पालक..
सभी दीन-दुखियों के
फिर भी इतना निष्ठुर.
कैसे हो पाता है।
दूर चले जाने पर
प्रिय के ..
दूजे को फिर..,
साथी का तब अर्थ ..
समझ में आ पाता है।
समर्पिता/ गर्विता
विस्थापन का दुख
पलायन करते लोगों ने ही नहीं झेला..
बल्कि संस्कृति के
प्रारंभ से स्त्रियों ने ..
ये दंश कहीं अधिक
सहा है ।
गाय, बकरियों की तरह गले में टेंग लगाकर
मालिकाना हक के साथ
बांँधी जाती रही हैं खूंँटे से..
बेआवाज जानवरों की तरह।
तंज की दो धारी तलवार से लटकी स्त्री ..
महावर लगे पैरों से गुलाबी हस्ताक्षर करती
स्वप्निल संसार में डरते, सहमते प्रवेश करती रहीं है।
अदम्य साहस से.. चुनौतियों का सामना कर
लक्ष्मीबाई बन ..
लड़तीं रहती है जीवनपर्यंत।
उलझनों को
जूड़े में लपेटती
साड़ी के पल्लू को कसकर कमर में खोंसती..
किसी भी समय तैयार खड़े युद्ध से निपटने के लिये खुद को सज्ज करती छावनी बनी रहती है।
वंश बेल आगे बढ़ाती
यह भी नहीं जानती कि
आखिर खुद कौन से वंश की हैं?
दो परिवारों के बीच पुल बनते-बनते..
चक्की के दो पाटों के
बीच अनाज की तरह
पिसती रहती है।
आंँखों में बगावत..
होंठों पर मुस्कान लिये..
दोहरा किरदार
जीते -जीते
एक मंँझी हुई कलाकार
शानदार अभिनय की जीती जागती मिसाल बन जाती है ..
और ….
आखिरकार..
परवाह करते-करते
एक दिन परवाह करना छोड़ देती हैं।
जीने लगती हैं थोड़ा सा
खुद के लिए भी..
कानों में रुई लगाना सीख जाती हैं।
अक्सर कई जवाब
मुहावरों में मुस्कुराकर खिसका देती है।
और अपनी हरकत पर
हंँसती हैं मुंँह पल्लू में छुपा।
आई हंँसी को गले में खराश के बहाने खांँसी का ठसका कह टाल जाती हैं।
खुद को संतुष्ट पाती हैं..
जैसे कोई बड़ा युद्ध जीत लिया हो..
जैसे सीने में धधकती आग पर काबू पा लिया हो।
खारे जल से भरे नैन
जो भरे भरे रहते थे
अब नहीं दिखाई देते।
स्त्री के बदलते ही
जैसे सारे समीकरण उल्टे हो जाते हो
जैसे मनचाहे पासे
चौपड़ में अपने आप लग जाते हो।
एक दिन स्त्री नहीं रहती समर्पिता
कुशल संचालन से
जिंदगी के युद्ध जीतकर बन जाती है
गर्विता।
हस्तक्षेप
1.
अपने अद्भुत ज्ञान के वशीभूत..
दूसरों का ख्याल रखते रखते
कब!
अधिकार स्वरूप उंँगली उठा
करने लगते हैं
हस्तक्षेप..।
2.
अंतर्मन में घुमड़ते हजारों संशय, हजारों सवाल
प्रत्युत्तर न मिल पाने पर
माथे पर उभरती पीड़ा की रेखाएँ
और जन्म लेता है
हस्तक्षेप..।
3.
ऊर्जा से टकराते ही ऊर्जा..
पकड़े जाना
इत्तेफाक नहीं
हस्तक्षेप है
स्वतंत्रता में।
4.
मन से मन के अनुबंँध
जीवन पर्यंत
करते रहते है
एकाकी पलों में
हस्तक्षेप..!
5.
नट की तरह संतुलन बनाते बनाते..
संतुलन खोते ही
कर बैठते हैं
हस्तक्षेप..।
6.
किसी को परेशान देख
ज्ञान बघारते..
जाने अनजाने कर ही जाते हैं
हस्तक्षेप..।
7.
दो झगड़ते..
अनजान लोगों में
अनायास बीच में पड़
करने लगते हैं
हस्तक्षेप..।
हस्तक्षेप ..
जन्मसिद्ध अधिकार है..
समझते हैं सभी,
और ..
कभी-कभी सौ सुनार की पर..
एक लोहार की पड़ते ही
करने लगते हैं भीष्म प्रतिज्ञा
कभी न करने की
हस्तक्षेप।
आहुति
अम्मा!
तुमसे कहनी एक बात..
कैसे चलीं तुम?
बाबूजी से दो कदम पीछे…
या चलीं
साथ।
कैसे रख पाती थीं तुम बाबूजी को हाथों ही हाथ?
जब मनवानी होती थी तुम्हें कोई बात..
क्या करती थी जिद!
या करती थीं प्यार से बात।
हृदय छलनी होने पर
छुपा लेती थी छालें?
या बड़बडा़कर खुद से
कर लेती थी गुस्से की आग ठंँडी…..
या लड़ झगड़ कर
खोल देती थीं
मन के जंग खाए ताले।
अच्छा सुनो!
जब नहीं मन चाहता था
घर के काम को तुम्हारा,
तब!
क्या छोड़ देती थी तुम काम सारा!
या बेमन से निपटा देती थी..
चढ़ा मन का पारा।
अच्छा बताओ!
चूल्हे में रोटियांँ सेकतीं
कुछ विचारों में डूब कर..
जब जल जाती थी तुम्हारी उंँगलियां..
तब छलक पड़े आंँसुओं को पल्लू से पौंछ कर,
खुद को डांँट कर …
फिर से काम में लग जाती थी क्या?
या हाय -हाय करके घर सर पर उठा लेती थीं..।
चूल्हे पर दूध निकल जाने पर
खुद को कोसती थी?
या खुद को तैयार करती थी कि अब “लापरवाही की हद है” का तमगा मिलने ही वाला है।
सच बताना अम्मा!
जब अपने सपनों के पंँख
नुचे हुए पाती थीं..
तो क्या नियति मानकर
चुप बैठ जाती थी?
या भाग्य रेखा को कोसती थीं?
अच्छा बताओ!
जब सपने सोने नहीं देते थे
तब क्या तुम उन्हें पूरा करने का ताना-बाना बुनती थी?
जैसे बुना करती थी सलाइयों मैं ऊन डाल नए नए स्वेटर।
अच्छा एक बात और बताना!
सिलाई मशीन पर हमारे छोटे छोटे कपड़े सिलते- सिलते…
क्या नहीं लेते थे जन्म..
नवजात सपने?
नन्हें कोंपल के समान..
अपने शौक को आगे बढ़ाने के।
क्या तुम खुद से ही नहीं लड़ती रहीं?
अपनी आत्मा से ही गुत्थम-गुत्था नही करती रहीं?
या तुमने समझा बुझा लिया था खुद को….
ढाल दिए थे अपने सपने ..
हम बच्चों में..
या तराश दिया था हमें अपने सपनों के खांँचे में..
और दे दी थी आहुति… अपनी इच्छाओं की ….
हृदय के हवन कुंड में…
स्वाहा… की ध्वनि के साथ।
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किताबें
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