Tuesday, May 14, 2024
नीलेश रघुवंशी
 
04 अगस्त 1969 को मध्य प्रदेष के गंज बासौदा कस्बे में जन्मी नीलेश रघुवंशी का नाम हिन्दी की बहुचर्चित कवियों में शुमार होता है। ‘घर निकासी’ (1997), ‘पानी का स्वाद’ (2004), ‘अंतिम पंक्ति में’ (2008), ‘कवि ने कहा’ (चुनी हुई कविताएँ, 2016), ‘खिड़की खुलने के बाद’ (2017) की कविताएँ पाठकों और सह-लेखकों के बीच समान रूप से स्वीकृत और चर्चित हैं। कविता और उपन्यास के अलावा उन्होंने बच्चों के लिए नाटक और कई टेलीफिल्मों के लिए पटकथा-लेखन भी किया है। कई देशी-विदेशी भाषाओं में उनकी कविताओं का अनुवाद हो चुका है।
 
 
2012 में उनका पहला उपन्यास ‘एक कस्बे के नोट्स’ प्रकाशित हुआ था, जो कि हिन्दी के चर्चित उपन्यासों में से एक है। 2019 में ‘द गर्ल विद क्वेशचनिंग आईज़’ नाम से परमानेंट ब्लैक द्वारा उसे अंग्रेज़ी में अनूदित कर प्रकाशित किया गया। 2022 में उनका दूसरा उपन्यास “शहर से दस किलोमीटर’ प्रकाषित है।
 
 
लेखन के लिए नीलेश रघुवंशी को भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार (1997), आर्य स्मृति साहित्य सम्मान (1997), दुष्यंत कुमार स्मृति सम्मान (1997), केदार सम्मान (2004), शीला स्मृति पुरस्कार (2006), भारतीय भाषा परिषद कोलकाता का युवा लेखन पुरस्कार (2009), स्पंदन कृति पुरस्कार, (2012), प्रेमचंद स्मृति सम्मान (2013), षैलप्रिया स्मृति सम्मान (2014) आदि पुरस्कार और सम्मान मिल चुके हैं।
 
 
वह फ़िलहाल दूरदर्शन केन्द्र, भोपाल में कार्यरत हैं।

…………………….

कविताएं

आधी जगह

जब भी पेड़ को देखती हूँ 

आधा देखती हूँ

आधा तुम्हें देखने के लिए छोड़ती हूँ ।

हर जगह को 

आधा खाली रखती हूँ 

सिरहाने को भी

आधा छोड़ती हूँ तुम्हारे लिए ।

कभी भी 

नदी को पूरा पार नहीं कर पाती

आधा पार

जो छोड़ती हूँ तुम्हारे लिए ।

कमल के पत्ते पर पानी काँपता है  

चाँद काँपता है जैसे राहू के डर से

वसंत के डर से काँपता है जैसे पतझर

मैं काँपती हूँ आधेपन से 

आधे चाँद से जल से भरे आधे लोटे से

काँपती हूँ तुम्हारे आधे प्यार से ।

इस लोकतंत्र में

मैं जीना चाहती हूँ

लेकिन

वैसे नहीं जैसे तुम चाहते हो 

 

मैं पेड़ को पेड़ कहना चाहती हूँ

उसके हरेपन और नए पत्तों में

खिल जाना चाहती हूँ 

तुम उसके इतिहास में जाकर कहते हो

ये हमारे मूल का नहीं

त्ुाम पेड़ की मूल प्रजाति में विष्वास करते हो

मुझे पेड़ के संग हरियाने से रोकते हो।

 

जिस दिन गिलहरी ने

अपना घोंसला बनाया पेड़ में

उस दिन से मेरा मन पेड़ के भीतर रहने लगा

गिलहरी कहीं भी किसी भी जगह गाँव देष परदेष में

बना सकती है किसी भी पेड़ पर अपना घर

एक गिलहरी दूसरी गिलहरी से 

कभी नहीं पूछती- तुम्हारा पूरा नाम क्या है?

 

मैं नदी सा बहता जीवन जीना चाहती हूँ

तुम हो कि नदी को घाट से पाट देना चाहते हो

वाल्मिकी घाट पर खड़े हो झाँकती हूँ नदी में

तुमने नदी को नदी से पाट दिया ।

 

किसी एक को राष्ट्रीय बग्गी में सुषोभित करते होे

लेकिन 

हम सतरंगी सपनों के संग घोड़ी पर भी नहीं बैठ सकते

तुमने हमसे हमारे द्वीप छीने  

सारा नमक ले लिया और सबसे ज्यादा

खारेपन की उम्मीद हमीं से करते हो।

 

देष का संविधान कहता है

हमें वोट देने का अधिकार है

तुम कहोगे लोकतंत्र में ऐसा ही होता है

मैं कहती हूँ

जब नदी को नदी, पेड़ को पेड़ और

अंधेरे को अंधेरा नहीं कह सकते तो

इस लोकतंत्र में

किससे कहूँ अपने मन की बात।

बिना टिकट यात्रा करती लड़की

बिना टिकट यात्रा करती लड़की

होते हुए सबके साथ भी

सबसे बचाती है अपने को

किसी से भी आँखें नहीं मिलाती

बिना टिकट यात्रा करती लड़की।

 

छिपाती है अपनी घबराहट

जेब में हाथ डाल चुपचाप टटोलती है रूपये

टिकटचैकर को देख मुस्कुराती है

पास आता है टिकटचैकर

तो खिड़की से बाहर झाँकने लगती है

बिना टिकट यात्रा करती लड़की।

 

राहत की साँस लेती है

बिना टिकट यात्रा करती लड़की

पेड़ पहाड़ और आसमान भी तो

हैं उसी की तरह बिना टिकट 

बिना टिकट ही यात्रा करती हैं चिड़ियाँ सारे आसमान में।

पच्चीस रूपये का टिकट लो

इस महँगाई और बेरोज़गारी के दिनों में 

अखरता है कितना

इन पच्चीस रूपयों में ले जा सकती है फल पिता के लिए।

ख़रीद सकती है 

एक ज़रूरी किताब

अपनी छोटी बहन के लिए।

 

बोगी में बैठे लोग बतियाते हैं – 

चेहरा बता देता है साबह

कौन चल रहा है बिना टिकट

मन ही मन हँसती है 

और हँसी को छिपाती है

बिना टिकट यात्रा करती लड़की

पकड़े जाने की आषंका से 

अंदर ही अंदर सिहर जाती है

बिना टिकट यात्रा करती लड़की।

पानी का स्वाद

प्लेटफार्म के छूटते ही धीरे-धीरे छूटता है शहर

शहर से जुड़ी हर चीज़

 

एक चमचमाता खुलापन शुरू होता है छूटते ही शहर के 

हर प्लेटफार्म पर उतरना-प्लेटफार्म न हो तब भी

क्या हुआ? रूक क्यों गई? पिट गई क्या? जैसे अनगिनत सवालों की झड़ी

 

हर प्लेटफार्म से बोगी में कितने लोग आए, गए कितने

शहर को प्लेटफार्म की रौनक से आँकते और अपने शहर की तारीफ करते न अघाते 

लोगों को सोते देख करते कानाफूसी

जिन्हें सोने नहीं मिलता घर में, सोते हैं वे ट्रेन में 

 

बिना प्यास के भी पानी पीते प्लेटफार्म पर

पानी खरा था या मीठा, गटकते उसे भीतर तक

 

कुछ प्लेटफार्म ऐसे भी मिलते, जहाँ नल तो होता लेकिन पानी नहीं

बोगी में बैठे लोग बढ़ाते पानी 

पानी जूठा भी होगा, हमारी सोच से परे होती ये बात

 

कुछेक क्षणों की वह घोर आवारगी

धुआँ छोड़ते इंजन, प्लेटफार्म पर लगे नल, पानी के स्वाद के बारे में बताया जिन्हांेने

ट्रेन की रफ्तार की तेज़ी से बदल रहा है समय

 

एक बरस पहले का जीवन लगता है गुज़रा ज़माना

एक जीवन में ज़माने कितने ? हर ज़माने की गति अपनी, रहस्य अपने-अपने

 

प्लेटफार्म पर खड़ी गाड़ी-खिड़की से झँाकती बैठी हूँ सीट पर 

क्या गृहस्थ जीवन में आते ही कट जाता है आदमी आसपास से ?

या उसका अपना नहीं, ये संसार?

 

खिड़की से बाहर फैले खेत झिलमिला रहे हैं दीये की तरह

खेतों में लगी ये आग बनाएगी ज़मीन को और-और उपजाऊ 

जिएँगे इस जीवन को भी-कौन-सा कितना खारा, मीठा कितना

 

रफ्तार पकड़ ली है ट्रेन ने।

सुंदरियो

मत आया करो तुम सम्मान समारोहों में

तष्तरी, षाल और श्रीफल लेकर

 

दीप प्रज्वलन के समय

मत खड़ी रहा करो माचिस और दिया-बाती के संग

 

मंच पर खड़े होकर मत बाँचा करो अभिनंदन पत्र

उपस्थिति को अपनी सिर्फ मोहक और दर्षनीय मत बनने दिया करो

 

सुंदरियो,

तुम ऐसा करके तो देखो

बदल जाएगी ये दुनिया सारी ।

पहली रूलाई तक की डायरी

पहला दिन – 11 अगस्त, बुधवार

ग्यारह अगस्त, 1999, दिन बुधवार, सूर्यग्रहण है आज

कई-कई बार कहा जा रहा है मुझसे

शादी के बाद बचना चाहिए-सूर्यग्रहण से 

दिन-भर की भूखी फिर भी खाने की इच्छा, जैसे मरी हुई

सूर्यग्रहण के पहले ही घर आ गई मैं

और

मुझे ज़ोर से संतरे खाने की इच्छा हुई

रोमांच और खुषी से भीग रही हूँ मैं

डर क्यों रही हूँ इतना?

 

कल डाॅक्टर के यहाँ जाने पर ही मालूम होगा 

किसने खाए संतरे !

छिपे रहो भीतर ही

फस्र्ट अप्रैल, शनिवार, 2000, आधी रात

कुछ-कुछ हो रहा है मुझे, शायद तुम अब आने वाले हो

सारी दुनिया के बच्चे, सबके सो जाने के बाद ही, क्यों सोचते हैं आने के बारे में 

मेरे एकदम पास, तुम्हारे पापा सोए हुए हैं

क्या उन्हें जगाकर बता देना चाहिए कि तुम आने वाले हो

बहुत गहरी नींद में हैं वो- अभी उनमें एक नन्हा-मुन्ना दिख रहा है

 

परी नन्हीं-सी या नन्हा-सा राजकुमार, फिर वही बात 

पूरे नौ महीने एक ही बात, तुम हो कौन…. संुदर रहस्य

दर्द बढ़ता जा रहा है, समझ नहीं आ रहा कुछ

तुम्हारे जन्म से पहले का दर्द या यूँ ही-बस महीने जैसा दर्द हो रहा है 

तुम क्यों उत्पात मचा रहे हो, दर्द के साथ-साथ जान निकली जा रही है मेरी

ओह श्रीराज… दबी-घुटी चीख निकल ही गई

अरे रे, श्रीराज तो पसीने-पसीने हो रहे हैं, लगता है- बहुत तेज़ बारिष होने वाली है

बिजली कड़के इससे पहले ही छुप जाते हैं हम दोनों 

छिपे रहो तुम भी भीतर ही…

 

दीये की लौ की तरह जलते-बुझते-टिमटिमाते दर्द हो रहे हैं

ये दर्द हैं, या जान लेने का सुंदर सजीव तरीका

अस्पताल पहुँच ही गई मैं, आसपास मेरे डाॅक्टर्स और नर्स 

रात साढ़े बारह से शुरू हुई यह यात्रा, शाम के पाँच बजे तक 

रूकने  का नाम ही नहीं ले रही

यह तो नरक है, नरक! जन्म देना, एक यातना से गुज़रना है

यह क्या दे रहे हो तुम अपनी माँ को?

 

आँखे मुँदी जा रही हैं अब

एक-एक कर, मेरे आसपास, जो मेरे अपने थे, कमरे में रह गए

डाॅक्टर्स और नर्सों के साथ लेबर-रूम में जा रही हूँ मैं

प्रसवपीड़ा को कोई और नाम देना चाहिए

 

ये ये ये…

तुम्हारे रोने की आवाज़ सुनाई दी

रोने की आवाज़ से मुझे लग रहा है, तुम नन्हें-से बदमाष राजकुमार हो,

इतनी ज़ोर से क्यों रो रहे हो बेटे?

 

अप्रैल फूल बनाया तुमने – दिन शनिवार, शाम छह बजकर उनचास मिनट ठीक इसी समय तो शाम आती है अपने घर की छत पर 

मुस्करा रही होगी शाम और सूरज सुस्ता रहा होगा मेरी तरह।

समाचार में शहर

दिल्ली मुंबई रेल लाइन पर बसा गंजबासौदा शहर धूल की चपेट में है 

हालात इतने बदतर हैं कि 

उड़ने वाली धूल के कारण लोग मुँह पर कपड़ा बाँधकर

घर से निकलते हैं

(होल्ड-दृष्य में धूल का उठता बवंडर और मुँह पर कपड़ा बाँधे आते-जाते लोग)

ज्ञात हो कि 

गंजबासौदा शहर में प्रदेष की सबसे बड़ी अनाज मंडी है लेकिन 

खराब सड़कों और उस पर उड़ने वाली धूल से मंडी का व्यापार प्रभावित हो रहा है

(होल्ड-दृष्य में व्यापारी और दुकानदार अपनी परेषानियों का रोना रोते एक बड़े व्यापारी की बाइट) 

सड़कों पर दिन-भर उड़ने वाली धून के कारण 

गंजबासौदा में साँस से संबंधित बीमारियों के मरीज़ बढ़ रहे हैं

(षुक्र है दृष्य में खाँसते गिरते पड़ते लोग नहीं हैं

चिकित्सक की बाइट है जो साँस की बीमारी और 

धूल का रिष्ता बता रहा है)

ज़िला प्रषासन ने 

शहर को धूलमुक्त बनाने के लिए 

राज्य शासन के पास एक प्रस्ताव भी भेजा है 

बहरहाल जब तक सड़कें नहीं बनती तब तक

गंजबासौदा के निवासी धूल फाँकने को मजबूर रहेंगे…. नमस्कार

किसानों को बाइट देनी नहीं आती अभी 

और गेहूँ तो बोलते ही नहीं हैं

हम्भाल दूर कहीं बीड़ी धौंकते पीठ सीधी कर रह होंगे

सोचो

अगर बोलने दिया जाता किसान को तो क्या बोलता वह

जनरल बोगी

अरे इते नहीं इते नहीं जगह नहीं जहाँ पे भैया

आगे… आगे के डिब्बे में जाओ

अबे भाडू हम झाँसी से इसी पे बैठ के आ रहे हैं चल उठ

चलती ट्रेन पर लटके लड़के चीखे जान लेगा क्या हमारी

मारी सीटी आधी रात में रेल ने…

ठसाठस भरी बोगी बमुष्किल उतरा एक और सवार हुए दस-बीस इकट्ठे ष्

एक सीट पर बैठे चार-चार अड़ा है पाँचवाँ बैठने के लिए 

लुढ़कते गिरते पड़ते सामान पर टेगा लगाए

कुछ लेटे पैरों में कुछ एक दूसरे के ऊपर 

बूढ़ी अधेड़ औरतें नींद में भी सँभाले पल्लू में बँधे तुड़े मुड़े नोट

सुगंध दुर्गंध से परे छिल रहे सबके कंधे टकरा रहे हैं सर 

नींद के झोंके टेªन के संग गच्छा खाते 

ऐ चलों चलो उठो…

जनरल में सबको बैठने को जगह दो बोले एक बाबूजी स्टाइल में 

यहाँ खड़े होने की जगह नहीं और तुम पसर रहे हो

सोना ही है तो …

नींद में हड़बड़ाता उठ खड़ा आदमी थोड़ी देर में झूलने लगता है फिर

जो बक-बक कर रहा थो वो भी….

नींद जब अपनी पर आती है तो कहीं भी अपना बिछौना 

बिछवा लेती है। 

देखो मूँगफली के छिलकों और चप्पलों पर ही टिकाए हैं

सब अपनी कोहनी

और वो पान मसाला बेचता बच्चा कैसा बेसुध 

चिल्लर से भरी थैली को मुट्ठी में कसे मुस्कुरा रहा है नींद में 

क्या स्वप्न देख रहा होगा वो इस समय 

कितनी गाढ़ी होती जा रही है उसकी मुस्कान

ऐसी ठेलमठेल और धक्का-मुक्की पाँव धरने की जगह नहीं आदमी को 

वहीं कितने ठाठ से बैठे हैं लकड़ियों के ये गट्ठर 

गट्ठरों के संग आदमियों और औरतों का झुंड आधे पाँव पसारे

राहत की साँस के संग जाने वाला है थोड़ी देर बाद नींद में 

लो शौचालय के दरवाजे को ही बना लिया उन्होंने अपना तकिया 

मस्ता रहे हैं लड़के लोगों को देख-देखकर

क्या दादा कहीं भी लुढ़क जाते हो तुम और अम्मा तुम भी 

घर में तो बड़ी चतुराई बघारती हो एँ…..

धड़धड़ाती ट्रेन ने मारी सीटी फिर आधी रात में 

लगा रहे हैं लड़के शर्त….

अगले स्टेषन पर जब रूकेगी ट्रेन तो कितने चढे़ंगे दस कि पचीस

हिलकोले खाए ज़ोर से ट्रेन ने, गिरे लड़के एक दूसरे पर 

नींद में चैंकी पूरी जनरल बोगी अबकी सवार हुए इकट्ठे पचार-साठ।

साईकिल का रास्ता

साइकिल चलाते हुए 

जमीन पर रहते हुए भी 

जमीन से ऊपर उठी मैं ।

अंधे मोड़ को काटा ऐसे कि

रास्ता काटती बिल्ली भी रूक गई दम साधकर

ढलान से ऐसे उतरी 

समूची दुनिया को छोड़ रही हूँ जैसे पीछे 

चढ़ाई पर ऐसे चढ़ी कि

पहाड़ों को पारकर पहुँचना है सपनों के टीलों तक ।

साइकिल चलाते ही जाना 

कितनी जल्दी पीछे छूट जाता है षहर 

षहर को पार करते हुए जाना

नदी न होती तो

षहर की साँसें जाने कब की उखड़ गईं होतीं 

पहला पहिया न होता तो

कुछ करने की जीतने की ज़िद न होती । 

 

खड़ी हूँ आज 

उसी सड़क पर बगल में साईकिल दबाए

पैदल चलते लोगों को देख

घबरा जाती हैं अब सड़कें 

रास्ता काटने से पहले दस बार सोचती हैं बिल्लियाँ 

गाय और कुत्ते भी पहले की तरह

नहीं बैठते अब सड़क के बीचों-बीच 

देखा नहीं आज तक

सड़क पर किसी बंदर को घायल अवस्था में

मृत्यु का आभास होते ही 

पेड़ की खोह में चले जाते हैं वे 

क्या साईकिल चलाते और पैदल चलते लोग भी

चले जाएँगे ऐसी ही किसी खोह में 

रौंप दी जाएगी क्या 

साईकिल भी  किसी स्मृति वन में  ।

साईकिल में जंग भी नहीं लगी और 

रास्ते पथरीले हुए बिना खत्म हो गए

फिर भी भोर के सपने की तरह

दिख ही जाती है सड़क पर साईकिल।

बेखटके

नींद इतनी कम और जलन इतनी ज्यादा कि 

सड़क किनारे 

सोते कुत्ते को देख भर जाती हूँ जलन से

इतनी कमियाँ हैं जीवन में कि 

पानी के तोड़ को भी देखने लगी हूँ उम्मीद से

अंतिम इच्छा कहंे या कहें पहली इच्छा

मैं बेखटके जीना चाहती हूँ ।

 

निकलना चाहती हूँ आधी रात को बेखटके

रात बारह का षोदेखकर

रेलवे स्टेषन पर घूमूँ जेब में हाथ डाले

कभी प्रतीक्षालय में जाऊँ तो कभी दूर कोने की 

खाली बैंच को भर दूँ अपनी बेखटकी इच्छाओं से

इतनी रात गए 

सूने प्लेटफार्म पर समझ न ले कोई ऐसी-वैसी

मैं ऐसी-वैसीन समझी जाऊँ और

नुक्कड़ की इकलौती गुमटी पर चाय पीते 

इत्मीनान से खींच सकूँ आधी रात का चित्र 

क्षितिज के भी पार जा सके मेरी आँख 

एक दृष्य रचने के लिए 

मिलें मुझे भी पर्याप्त षब्द और रंग ।

 

जरूरत न हो 

आधी रात में हाथ में पत्थर लेकर चलने की

आधी रात हो और जीने का पूरा मन हो

कोई मुझे देखे तो देखे एक नागरिक की तरह

यह देह भी क्या तुच्छ चीज है 

बिगाड़कर रख दिये जिसने नागरिक होने के सारे अर्थ ।

 

उठती है रीढ़ में एक सर्द लहर

कैलेंडर, र्होिर्डग्ंस, विज्ञापन, आइटम साँग 

परदे पर दिखती सुंदर बिकाऊ देह

होर्डिग्ंस पर पसरे देह के सौंदर्य से चैंधियाती हैं आँखें

देखती हूँ जितना आँख उठाकर

झुकती जाती है उतनी ही रीढ़

फिरती हूँ गली-गली 

रीढ़हीन आत्मा के साथ चमकती देह लिए

जाने कौन कब उसे उघाड़कर रख दे 

तिस पर जमाने को पीठ दिखाते

आधी रात में 

बेखटके घूमकर पानी को आकार देना चाहती हूँ मैं ।

…………………….

किताबें

…………………….

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