…………………………
कविताएं
आसान नही था औरत होना
औरत…
आसान नही था औरत होना
इसलिये रचा गया भ्रम
हव्वा के नाम पर
और मढ़ दिया गया
सारा दोष स्त्री के सिर
उन्हें पता था कि ऐसे
तमाम इल्ज़ाम लेकर भी
बचा ले जायेगी वो अपना अस्तित्व
जिसका धर्म जीवनदान हो
वो किस प्रकार दोषी हो गयी
इस सृष्टि में मरणशीलता लाने की !!
आसान नही था औरत होना
आसान नही था …विषम परिस्थितियों में हाथ बांधे रखना
इसलिये परमात्मा ने दिये
स्त्री को दस हाथ
जिससे वे थामे रखे दसों दिशायें
और संतुलित रहे ये धरा !!
आसान नही था औरत होना
आसान नही था …पिता, भाई, पति, पुत्र
सबके हिस्से की गलती अपने हिस्से में लेना
अपने जीवन के पुरुषों के हक़ में
ये इल्ज़ाम लेते रहना
कि सारे झगड़े का केंद्र स्त्री होती है!!
आसान नही था औरत होना
आसान नही था …स्त्री होकर भी
स्त्री विरोध में खड़े हो जाना
स्त्री में स्त्रीत्व की कमी होना
पुरूषों में स्त्रीत्व की छवि होना
औरत से भावुकता ग्रहण करने में
कहीं कहीं स्त्री क्यों चूक गयीं ?
कहीं कहीं पुरुषों ने उनकी संवेदनशीलता
पूर्णतः आत्मसात की !!
आसान नही था औरत होना
आसान नही था …ऐसी दुनिया में रहना
जिसकी जीविका स्त्री से चलती हो
जिसका संचालन स्त्री करती हो
जिसे स्त्री पोषित करती हो
फिर भी
ये सुनती रहती हो कि
तुम दिन भर करती ही क्या हो ?
आसान नही था घोषित रूप से
कमजोर स्त्री का
इस पृथ्वी को अपने कंधों पर टिकाये रखना !!
मार दो इन्हें कि ये इंक़लाब गायेंगी
(क)
ये जन्म से ही दौड़ में हैं
ये जन्म से ही होड़ में हैं
दुआ उठी कि बेटा ही हो
चाह उठी कि बेटा ही हो
दुनिया की फ़िर दौड़ भाग की
दुनिया की फिर अनैतिक चाल की
पैसा फूंका रुपया फूंका
बेटा ही हो मंतर फूंका
बेटी ना हो सास कह रही
बेटी होगी जाँच कह रही
हाय! अनहोनी ना हो, ये धन सारे घर का खा जायेंगी
मार दो इन्हें कि ये इंक़लाब गायेंगी !!
(ख)
गर बच निकली तो फिर पढ़ने को जायेंगी
पढ़ लिख कर हक़ में लड़ने को जायेंगी
ना हक़ मिलेगा ना अधिकार मिलेगा
उलटे लांछन और अपमान मिलेगा
सिर्फ़ जाति पाती की खिचड़ी पकती
चलते रहने से पर वो ना थकती
एक महकमा जाल बिछाये रहता
ना कह कर भी है बहुत कुछ कहता
चुप्पी तोड़े ना टूटेगी इनकी, बुलबुल खुद चलकर जाल में फंस जायेंगी
मार दो इन्हें कि ये इंक़लाब गायेंगी।
(ग)
आगे बढ़ी ही थी कि गिद्धों का मेला था
झुण्ड था पूरा का पूरा वो ना कहीं अकेला था
कर रहे थे बिसात बिछा कर विस्तार अपना
संग देख रहे थे हरखुआ की छोकरी का सपना
फिर से गुज़र पड़ी वो अपनी वाचाल चाल में
लो फँस गयी वो फिर गिद्धों के जाल में
कोई हाथ जकड़े है कोई शिकार कर रहा है
ज़िंदा है वो पर उसी की नीचता से कोई मर रहा है
मुँह दबा कर रख वरना ये चीखें हवा में घुल जायेंगी
मार दो इन्हें कि ये इंक़लाब गायेंगी
(घ)
फिर पीट कर सीना कोई बाप रो रहा है
भाई खड़ा है न्याय के बीज बो रहा है
सत्ता का तराजू संग बाट लिये सब जोह रहा है
पुलिस का डंडा उसी तराज़ू पर तोल रहा है
रात है,
सर्द सन्नाटा गर्म आँसू लिये रो रहा है
हुआ था जो पहले भी वो फिर हो रहा है
बेख़ौफ़ होकर वो फिर से जल रही है
एक एक कर कितनी लड़ाइयां वो लड़ रही है
कह रही अकड़ी हुई एक लाश मुझसे
मत मांगो मेरा इंसाफ इनसे
पगली ! तुम भी इन बांटों के बीच पीस दी जाओगी
मार देंगें वो तुम्हें कि तुम इंक़लाब गाओगी।
फिर नहीं चुभती हैं वो नज़रें
फिर नहीं चुभती हैं वो नज़रें
जिनकी नज़रों में नज़रें डाल
आपने बुन डालें हो मन के ज़हर के ताने बाने
एक दूजे के मन का ज़हर पी लेना
मन को तो हल्का कर देता है
पर जीवन को भारी ।
ज़हर का भी अपना विज्ञान है
ख़ुद ज़्यादा मात्रा में पीने से
दूजा आपको कमज़ोर समझता है
दूजे को ज़्यादा मात्रा में पिलाने से
आप बन जाते हैं और भी ज़हरीले
बराबर मात्रा में ज़हर का स्वाद
दोनों की स्तिथि को कर देता है एक लावारिस लाश सा
जिनके दोबारा नज़रों में डूबने का समय हो चुका है पूर्ण
वे हमेशा लहरों में उतरा कर बहेंगे
उनका यूँ सतह पर उतराते बहना
देता रहता है चीलों को कौओं को निमंत्रण
कि वे भी आयें और
नोच नोच कर, कर दें उस बदन में इतने घाव
कि उन घावों से निकल वो ज़हर
कर दे पूरी नदी को ज़हरीला
ज़हर का अपना दर्शन भी है
विद्या प्राप्ति के लिये ज़हर पीना
ज़रूरी नही कि आपको अर्जुन ही बनाये
आप बन सकते हैं एकलव्य और कर्ण
कट सकता है अगूंठा, विस्मरण हो सकता है विद्या का
सम्मान प्राप्ति के लिये ज़हर पीने से
ज़रूरी नही आप बन जाये विभीषण और
प्राप्त हो जाये सोने की लंका
आप बन सकते हैं सीता
देनी पड़ेगी अग्नि परीक्षा, काटने होंगे वन में दिन
समाना होगा धरती में
आत्म सम्मान के लिये ज़हर पीने पर
ज़रूरी नही आप बन जायें भीष्म पितामह
प्राप्त कर लें इच्छामृत्यु का वरदान
आप बन सकते हैं द्रौपदी
घसीटा जा सकता है आपको सभा में
हो सकती है महाभारत
अपनों के हित के लिये ज़हर पीने से
ज़रूरी नही आप बन जायें गोविंद
रच डाले नारायणी सेना
आप बन सकते हैं अभिमन्यु
घिर सकते हैं चक्रव्यूह में
रथ का टूटा हुआ पहिया हाथ में उठाये !!
जो जितने कठोर रहे दूसरों के प्रति
जो जितने कठोर रहे दूसरों के प्रति
अपने प्रति उससे अधिक कठोर रहे
कठोर देखने वाला कठोरता महसूस कर पाता है
कठोरता करने वाला
कठोरता को जीता है।
जितनी कम बातें उन्होंने की
उनको उतनी बातें सुननी पड़ी
शब्दों की कमी सुनने वाले के
घंटे खराब करती हैं
और कहने वाले का सारा जीवन।
दूसरों को दुःख देते वक़्त
दुःख सहने वाले को पीड़ा हुई
दुःख देते वक़्त
देने वाले को पीड़ा संग अवसाद हुआ
देने वाले का मन ज़्यादा दुखा।
सही की राह पर चलने वाले
हमेशा गलत साबित होते रहे
सही की राह में गलती करना
गलत से भी ज़्यादा गलत हो जाता है।
न्याय देना चाहते थे वो
अन्याय के भागीदार बने रहे
सबको एक नज़र और एक समानता चाहिये
पर सिर्फ तब तक जब तक वो पंक्ति से बाहर खड़े हो।
दूसरे की टूटन जोड़ने की सोच
उनके मन को खुरचती रही
जीवन भी काँच सा है
टूटन छूने पर लहू बहेगा ही
जीवन लकड़ी की फांस सा है
ज़्यादा सहलाने पर कहीं धसेगा ही।
सबको माफ करने वाले को
कभी माफी नही मिलती
अपने कर्तव्य के प्रति अंधभक्ति
आपके हिस्से में उम्मीदें भर देती है
एक उम्मीद पर खरा ना उतर सकना
आपको माफ़ी के काबिल नही रखता।
वो माफी माँगने में शर्म महसूस करते हैं
उनकी शर्म उन्हें घमंडी बनाती है
उम्मीद पूरी करने वालों को
ये अधिकार नही कि
वो एक बार बिना माफ़ी माँगे
माफ़ किये जा सकें।
प्रेम बसता है उनके मन में
जो अपमान सहना जानते हैं
दया जानता है वो मन
जो अपमान भूलना जानते हैं
अगर वो कुछ नही जानते हैं
तो सिर्फ़ इतना कि
लोगों को पीछे छोड़ आगे बढ़ जाना।
आँखें भीड़ देख नही बहती
उनकी स्तिथि उस गाय सी होती है
जो अपना बच्चा जनना चाहती है
पर एकांत ढूंढ रही है
पीड़ा में एकांत सबको नसीब नही होता
कुछ आँखे भी एकांत चाहती हैं
आँखों का सबके सामने ना बहना
कम इंसानियत का प्रमाण है।
अपनी नज़र से जो जाते देखता है अपनों को
वो अपने तक कभी नही लौट पाता
जाने वाले का मुड़ कर ना देखना
उसके मन का एक हिस्सा बांध ले जाता है
आत्मा के टुकड़े होते हैं
दिखते नही पर होते हैं
कुछ लोग ऐसे भी मरते हैं
कुछ लोग ऐसे भी मरते हैं !!
धरती के पुरुष!
धरती के पुरुष!
आख़िर क्यों बने रहना चाहते हो देवता?
तुम इतने मुखर रहे अपने अधिकारों को लेकर
तुमने जो चाहा वही हुआ
इस दुनिया में
किसी देश विशेष में
किसी शहर विशेष में
किसी घर विशेष में
किसी रिश्ते विशेष में
फिर भी तुम अकेलेपन के शिकार रहे
तुम्हें तुम्हारी मिलकियत ने
नही होने दिया इतना सहज
कि तुम स्वीकार कर सको
कि तुमको स्त्री की ज़रूरत
उससे कही अधिक रही
जितनी किसी स्त्री को तुम्हारी
तुम रहे उनकी चीख़ों के कारण
किन्तु वो ही रहीं तुम्हारी चीखों का निवारण
तुमको पाला माँ ने
तुमको साथ मिला बहन का
तुम्हारी अर्धांगिनी बनी पत्नी
तुम्हारे हर संकट में खड़ी रही बेटी
बुढ़ापे में बहू ने ख़ूब सेवा की
फिर भी पाली तुमने इतनी चिंता
इतना रहस्य
इतनी असुरक्षा
इतनी असवेंदनशीलता
प्रभुत्व था तुम्हारे पास
पर तुम ना बांट सके अपने दर्द
अपने रहस्य और असुरक्षा
उन तमाम स्त्रियों से
जो तुम्हारे प्रेम में थी
तुम्हारे प्रति स्नेह में थी
क्यों बनते हो यूँ कठोर
डरते हो कि
वो स्त्रियां तुमको
मारेगी ताने
जिनके शोषण में रहे तुम भागीदार
आँसुओ की समान ग्रंथियों
का वितरण किया था परमात्मा ने
स्त्री और पुरूष के मध्य
रोने से यूँ डरना
तुमको मार रहा है
और तुमको यूँ घुट घुट करके
मरते देखना मार रहा है
उस समग्र स्त्री समूह को
जो जन्म से मृत्यु तक
बनी रही तुम्हारी माँ
माँ कुढ़ रही है ममता के ममत्व से
बहन सच्चे साथी की करुणा से
पत्नी स्त्री के हर पहलू का स्नेह आँचल में भर
बेटी अपने हर उस वादे पर
जो किया था उसने खुद से
अपने अभिनेता के सम्मान के प्रति
तुम कितने खुशकिस्मत रहे पुरुष
तुमको थामने के लिये
हर डगर पर मौजूद रही स्त्री
तुम अपना ख्याल रखो
कभी नरम हो कर
कभी सहज हो कर
कभी रो धो कर
कभी विनम्र हो कर
हे! धरती के देवता
घबराओ मत
हर मुश्किल में
हर हार में
हर असुरक्षा में
तुम्हारे जीवन की हर स्त्री
तुमको थाम लेगी !!
–नेहा अपराजिता
…………………………
किताबें
…………………………