नाम —– पल्लवी प्रकाश
जन्म —– 18.01.1978, छपरा
शिक्षा ……….. बी.एससी ऑनर्स (जीवविज्ञान), (हिंदी साहित्य), एम.ए., एम.फिल., पीएच.डी., जे.एन.यू.
पीजी डिप्लोमा, अंग्रेजी पत्रकारिता, भारतीय विद्या भवन, नयी दिल्ली
प्रकाशन- 1- आलोचना पुस्तक ‘बदलता सामाजिक परिदृश्य और कृष्णा सोबती” (2013) शिवालिक प्रकाशन, दिल्ली
2 – साँझा काव्य संग्रह – वर्जनाओं से बाहर, 2020, रश्मि प्रकाशन, लखनऊ
पुरस्कार ——- विश्व हिंदी सचिवालय, मॉरीशस द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय लघुकथा प्रतियोगिता, 2014 में लघुकथा ‘मौत” को तृतीय पुरस्कार ।
एसोसिएशन ऑफ एशिया स्कॉलर्स द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय वेबिनार “रिविज़िंटिंग गांधी” (30-31 October, 2020) में पेपर गांधीयन इनफ्लुएंस ऑन मार्डन हिंदी पोएट्री” को तीसरा पुरस्कार ।
सम्प्रति ………………. असिस्टेंट प्रोफेसर, (हिंदी), पी.जी.एस.आर.,
एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, चर्चगेट, मुम्बई
1, N.T. Road, New Marine Lines, 400020
e-mail —– [email protected]
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कविताएं
उदासियों के रंग
मेरी और तुम्हारी उदासियों के रंग भी
कितने मिलते-जुलते हैं
कि तुम्हारे हिस्से के कुरेदे जख्म भी
टीस गहरी दे जाते हैं मुझे
और दर्द में भी हल्का सा अहसास होता है
इक अनकहे अपनेपन का
मेरी और तुम्हारी खामोशियों के ढंग भी
कितने मिलते-जुलते हैं
कि शाख से टूट कर गिरते हुए
पत्तों की सरसराहट
भी लगती है तुम्हारे क़दमों की आहट की तरह
और हल्की सी गरमाहट दौड़ जाती है शिराओं में
तुम्हारी नाराजगियां भी संग ही हैं
मेरी नाराजगियों के
कि माथे पर तुम्हारे आती है जब शिकन
रूठ जाती हूँ मैं खुद से,
और बिना मनाये ही मान भी जाती हूँ खुद से
जब तुम मान जाते हो
तुम्हारी यादें भी बिना इजाजत
निकल कर चोर दरवाजे से मन के,
लगाती हैं दौड़ यूँ सरपट कागजों पर
शक्ल ले लफ्जों की,
कि बन जाती है कविता सी,
और हल्की सी नरमाहट, सोंध जाती है लिहाफों में.
एकांत
मेरी और तुम्हारी उदासियों के रंग भी
कितने मिलते-जुलते हैं
कि तुम्हारे हिस्से के कुरेदे जख्म भी
टीस गहरी दे जाते हैं मुझे
और दर्द में भी हल्का सा अहसास होता है
इक अनकहे अपनेपन का
मेरी और तुम्हारी खामोशियों के ढंग भी
कितने मिलते-जुलते हैं
कि शाख से टूट कर गिरते हुए
पत्तों की सरसराहट
भी लगती है तुम्हारे क़दमों की आहट की तरह
और हल्की सी गरमाहट दौड़ जाती है शिराओं में
तुम्हारी नाराजगियां भी संग ही हैं
मेरी नाराजगियों के
कि माथे पर तुम्हारे आती है जब शिकन
रूठ जाती हूँ मैं खुद से,
और बिना मनाये ही मान भी जाती हूँ खुद से
जब तुम मान जाते हो
तुम्हारी यादें भी बिना इजाजत
निकल कर चोर दरवाजे से मन के,
लगाती हैं दौड़ यूँ सरपट कागजों पर
शक्ल ले लफ्जों की,
कि बन जाती है कविता सी,
और हल्की सी नरमाहट, सोंध जाती है लिहाफों में.
इस शहर में तुम
एक दिन ऐसा जरूर आएगा
जब तुम होगे मेरे इस शहर में
मेरी अनुपस्थिति में
यह शहर कुछ उदास सा होगा
अमलतास के कुछ कुम्हलाये फ़ूल गिरे होंगे राहों पर
समन्दर के पानी में नमक थोड़ा और घुल जाएगा
शाम कुछ ठिठक कर उतरेगी दरख्तों से
अनमनाई सी धूप जब चली जायेगी
परिंदे लौट रहे होंगे जब अपने घोंसलों में
उनकी उड़ान में मेरे इन्तजार की थकान होगी
शाम गहराते हुए जो गुनगुनायेगी
वह मेरी मायूसियों की बयान- ए- दास्ताँ होगी
एक दिन तुम यह जरूर समझ पाओगे
कि मिलना सिर्फ़ नियति ही नहीं
चाह्त भी तय करती है
कुछ बड़े उदास से दिन
कुछ बड़े उदास से दिन थें, कुछ बड़ी खामोश थीं रातें,
कुछ बड़े ठिठके से कदम थें, कुछ बड़ी झिझकी सी थीं बातें
कुछ बड़े गहरे थे अँधेरे, कुछ बड़ी सहमी सी थीं चाहें,
कुछ बड़े धुंधले थे उजाले, कुछ बड़ी तीखी सी थीं आहें,
कुछ बड़े उलझे से नयन थें, कुछ बड़ी भटकी सी थीं राहें,
कुछ बड़े नाराज़ से तुम थे, कुछ बड़ी सूनी सी थीं बाहें
……………
बौद्धिक प्रेम के कवि : राजेश जोशी
Imagination having been our theme
So also hath that intellectual love
वर्ड्सवर्थ ने अपनी पुस्तक “The Prelude” के १४वें खंड में कहा है कि कविता की दो थीम होती है. पहली Imagination (कल्पना) और दूसरी intellectual love (बौद्धिक प्रेम). Intellectual love या बौद्धिक प्रेम को “द प्रिल्यूड” के ही १३वें खंड में व्याख्यायित करते हुए वर्ड्सवर्थ ने इसे एक समाधान के रूप में देखा, उन नैतिक समस्याओं के, जो शक्ति और सत्ता प्राप्त करने की मनुष्य की इच्छाओं से उत्पन्न होती हैं. नैतिक उद्देश्यों को और अधिक शक्ति और ऊर्जा प्रदान करने के तरीकों को भी वर्ड्सवर्थ ने Intellectual love से जोड़ कर देखा है. वर्ड्सवर्थ के लिए बौद्धिक प्रेम को प्राप्त करना एक प्रकार की नैतिक विजय है और साथ ही एक परिपक्व मानसिकता की प्राप्ति की तुष्टि भी. (1)
अगर intellectual love या बौद्धिक प्रेम शब्द को मानसिक परिपक्वता से जोड़ कर देखें तो समकालीन हिंदी कविता में इस बौद्धिक प्रेम को सार्थक तरीके से उकेरने वाले कवियों में राजेश जोशी अग्रणी हैं. राजेश जोशी मुख्यत: प्रतिरोध और राजनीतिक चेतना से सम्पन्न कविताओं के लिए जाने जाते हैं, प्रेम कवितायेँ उनके यहाँ बहुत कम हैं, इतनी कि अँगुलियों पर गिनी जा सकें. लेकिन जो भी कवितायें हैं वे बड़ी जीवंत हैं, जीवन रस से भरपूर और ऐसा लगता है कि प्रेम सिर्फ़ कविताओं में नहीं व्यक्त हो रहा बल्कि ये कहानियाँ हमारे आस-पास ही कहीं घटित हो रही हैं. एक तरह की सतर्कता (एलर्टनेस) दिखती है अक्सर उनकी प्रेम कविताओं में —
“लम्बी उँगलियों वाली धूप है तुम्हारा प्यार तुम छुट्टी ले लो कुछ दिन
और धूप से बोलो एवज में ऑफिस हो आये टाइपरायटर पर बैठ जाए कुछ दिन (2)
राजेश जोशी की ये पंक्तियाँ यह बताती हैं कि कवि प्रेम में होने के बावजूद दीन-दुनिया से बेखबर नहीं है, उसे नौकरी की भी चिंता बराबर है. दरअसल आठवें दशक का कवि सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तनों के एक लम्बे दौर का प्रत्यक्षदर्शी रहा है, स्वतंत्रता के बाद जनसाधारण में व्याप्त मोहभंग से लेकर आपातकाल के दौर की निराशा को उसने अनुभूत किया है. सामाजिक, नैतिक और राजनैतिक मूल्यों के क्षरण के साथ-साथ जीवन की विद्रूपताओं को नजदीक से देखा है, यही कारण है कि छायावादी कवि की तरह वह वायवी प्रेम की कल्पना नहीं कर पाता, प्रयोगवादी कवि की अतिशय बौद्धिकता के आतंक से भी अपने प्रेम को ग्रसित नहीं करना चाहता, हाँ, प्रगतिवादी कवि की तरह साधारण, मामूली चीजों में भी सौन्दर्य खोज लेने की दृष्टि के काफ़ी करीब पड़ता है उसका सौन्दर्यबोध. आठवें दशक का कवि प्रेम को भी जमीनी यथार्थ के धरातल पर तौल कर देखता है. इसीलिए वह अपनी प्रिया से यह नहीं कहता कि नौकरी से इस्तीफ़ा दे दो, सिर्फ़ छुट्टी लेने की ही गुजारिश करता है. नौकरी की अहमियत पर अकबर इलाहाबादी ने भी कहा है-
“हर एक को नौकरी नहीं मिलने की
हर बाग़ में यह कली नहीं खिलने की (3)
राजेश जोशी दरअसल परिपक्व प्रेम के कवि हैं. प्रेम में सुध-बुध खो देना, आंसू बहा-बहा कर तकिया गीला कर देना आदि परिघटनाएं उनके यहाँ घटित नहीं होती, गलदश्रु भावुकता के कुछ छिटपुट अवशेष एकाध कविताओं में मिलते जरूर हैं, मगर वहां भी वे अत्तीत की स्मृति बन कर आते है, वर्तमान के चित्र को नहीं उकेरते. प्रेम को लेकर एक प्रैक्टिकल एप्रोच है उनके यहाँ, जो एप्रोच केदारनाथ सिंह के यहाँ भी है और फैज़ अहमद फैज़ के यहाँ भी, जहाँ केदारनाथ सिंह के व्यक्तित्व में फिर भी थोड़ी रूमानियत दिखती है, जिसकी वजह संभवत: कुछ हद तक साहित्य-अध्यापन का उनका पेशा रहा हो, वहीँ राजेश जोशी के व्यक्तित्व में ऐसी रूमानियत की जगह एक निर्विकार सी तटस्थता दिखती है, प्रेम में होने पर भी, प्रेम से परे होने का सामर्थ्य दिखता है. राजेश जोशी के यहाँ बौद्धिकता भी प्रयोगवादी कवियों जैसे अज्ञेय आदि की बौद्धिकता से अलग है. उदाहरण, अज्ञेय की यह कविता, जहाँ कवि प्रेम के मामले में एक तरह की सतर्कता बरतता है ,जब वह कहता है-
चलो, उठें अब,
अब तक हम थे बन्धु सैर को आये–
(देखे हैं क्या कभी घास पर लोट-पोट होते सतभैये शोर मचाते?)
और रहे बैठे तो लोग कहेंगे
धुँधले में दुबके प्रेमी बैठे हैं।
–वह हम हों भी तो यह हरी घास ही जाने (4)-
यहाँ कवि वैयक्तिकता और सामाजिकता के द्वंद्व में फंसा हुआ है, उसके निजी जीवन में समाज की तांक-झांक ना हो, उसकी बौद्धिकता इसी संदर्भ में आती है. लेकिन राजेश जोशी के यहाँ बौद्धिकता, वैयक्तिकता के बचाव के संदर्भ में नहीं आती, बल्कि जीवन के ठोस यथार्थ को परिलक्षित करने के संदर्भ में आती है. प्रयोगवादी कवि की बौद्धिकता और समकालीन कवि की बौद्धिकता के मूल अंतर को निरुपित करते हुए प्रभाकर श्रोत्रिय कहते हैं, “ दोनों कवि प्रेम और सौन्दर्य की काल्पनिक भावुकता के विरुद्ध हैं. लेकिन इस बीच रवैये में फर्क आया है. प्रयोगवादी कवि निषेध की उग्रता में सौन्दर्य के प्रति एक कुंठित और उग्र रूप अपनाता है जबकि आज का कवि सौन्दर्य और प्रेम की वायवीय भावुकता की चुटकी लेता हुआ उसे सामाजिक यथार्थ से जोड़ता है.” (5)
प्रसिद्ध ग्रीक आलोचक लोंजाइनस ने काव्य-वस्तु और काव्य-गरिमा का सम्बन्ध रचयिता से स्थापित करते हुए उसे महत्व प्रदान किया था. किसी कवि की रचना दृष्टि के निर्माण में उसके परिवेश की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है. कहना न होगा कि राजेश जोशी की इस कविता में भी एक बैंक कर्मचारी की चेतना मौजूद है, एक कैलकुलैटिव माइंड है, जो न सिर्फ़ दफ्तर में नफ़े-नुक्सान का हिसाब रखता है, बल्कि वास्तविक जीवन में भी प्रेम के मामले में इस हिसाब को लागू रखता है.
“कमरे में चहकती हुई चिड़िया है तुम्हारा प्यार
तुम छुट्टी ले लो कुछ दिन
और चिड़िया से बोलो
एवज़ में ऑफिस चली जाए
रजिस्टर में दर्ज़ कर आए
चिट्ठी-पत्री (6)
एक मध्यमवर्गीय परिवार के लिए गृहस्थी की तमाम जरूरतें कितना मायने रखती हैं, कवि इसे बेझिझक स्वीकार करता है, कोई दुराव-छिपाव नहीं उसके मन में, ठोस यथार्थवादी एप्रोच है प्रेम के मामले में. जीवन-संघर्ष का सामना स्त्री और पुरुष दोनों मिल कर कर रहे हैं और एक तरह का स्वीकार्य भाव है दोनों के मन में एक-दूसरे के लिए, जीवन की सम-विषम परिस्थितियों के लिए.
“कई दिन हैं अभी पगार मिलने में
और ठीक-ठाक करना है सारा घर
जुटाना है काम की कितनी सारी
छोटी-मोटी चीज़ें
एक पगार में थोड़े न जुट जाएगा सारा सामान” (7)
यहाँ बरबस फैज़ अहमद फैज़ याद आ जाते हैं “और भी गम हैं जमाने में मुहब्बत के सिवा” और “तुझसे भी दिलफरेब हैं ग़म रोजगार के” के लिए. यह प्यार जीवन को उसकी समग्रता में ग्रहण करता है, कुछ कुछ मुक्तिबोध की “गर्वीली गरीबी” की तरह. नौकरी, तनख्वाह, राशन-पानी और रसोई आदि गृहस्थी से जुडी तमाम दुनियावी चीजें इस प्रेम को और प्रगाढ़ बनाती हैं. प्रेम यहाँ साहचर्य से उत्पन्न हुआ है, लव ऐट फर्स्ट साईट वाला कोई जिक्र राजेश जोशी के यहाँ नहीं दिखता. जिस तरह शहद का गाढापन उसकी गुणवत्ता को दर्शाता है, ठीक उसी तरह यहाँ साहचर्य से उत्पन्न प्रेम भी प्रगाढ़ होकर अपनी पूर्णता को प्राप्त करता है. नायिका की सृजनक्षमता को ध्यान में रख कर कवि भविष्य के रंगीन स्वप्नचित्रों में खो जाता है और यह वर्णन अत्यंत आत्मीय यथार्थ का रूप ले लेता है – “जब पृथ्वी हो जाएगा तुम्हारा पेट जब आकाश के कान में फुसफुसाएगी पृथ्वी जब वृक्ष से आँख चुरा, चुराओगी तुम मिटटी (8)
इस कविता में प्रेम की प्रतीति के लिए पांच अनूठे उपमान रचे गए हैं, यथा-लम्बी उँगलियों वाली धूप, कमरे में चहकती चिड़िया, संतरे का पेड़, शहद का छत्ता और हरी-भरी घास. प्रेम को व्याख्यायित करने के लिए प्रयुक्त उपरोक्त सभी उपादान नितांत घरेलूपन का अहसास कराते हैं. धूप का मानवीकरण एक सुखद कल्पना सी लगती है. प्रचलित उपमानों को नकार अज्ञेय ने जब बाजरे की कलगी शब्द का प्रयोग किया था तो वह नवीन उपमानों की प्रतिष्ठा का प्रयास था, लगभग उसी तरह, राजेश जोशी की इस कविता के उपमान भी सर्वथा नवीन और ताजगी से भरे हुए हैं और प्रकृति से कवि के सामीप्य को रेखांकित करते हैं.
राजेश जोशी की अधिकाँश प्रेम कविताओं में स्त्री प्राय: संघर्षशील, नौकरीपेशा है और पुरुष के कंधे से कंधा मिला कर चलती दिख पड़ती है. अगर दोनों ही नौकरीपेशा हैं तो पति खुद रसोई के कामों में अपनी पत्नी का हाथ बंटा कर उसकी थकान दूर करने का प्रयास करता है. किसी भी तरह का पुरुषोचित अहंकार नहीं उसके अंदर. एक स्त्री मन को, कोमलता से सहला लेने का भाव है जरूर है पुरुष के भीतर– “थकी हारी लौटी है वो आफिस से अभी
टिफिन बाक्स को रसोई में रखती है
मुँह पर पानी के छींटे मारती है
बाहर निकल आई लट को वापस खोसती है
बालों में
आँखों को हौले से दबाती है हथेलियों से
उठती है और रसोईघर की ओर जाने को होती है
मैं कहता हूँ, ‘बैठो, तुम, आज मैं चाय बनाता हूँ‘
मेरी आवाज़ की नोक मुझी को चुभती है… (9)
पति यहाँ मदद तो करना चाहता है लेकिन अपनी वास्तविकता भी वह जानता है कि गृहस्थी की सभी जरूरतों के लिए वह अंतत: अपनी पत्नी पर ही आश्रित है. इस कविता का दिलचस्प पहलू यह है कि यह इस शाश्वत सत्य से हमें अवगत कराती है कि अंतत: स्त्री की मदद करने के लिए भी पुरुष को स्त्री की ही जरूरत पडती है —
गैस जला कर चाय का पानी चढ़ाता हूँ दूसरे ही पल आवाज़ लगाता हूँ सुनो शक्कर किस डब्बे में रखी है
और चाय की पत्ती कहाँ है ? (10)
पत्नी आवाज़ सुनकर आती है और उसे सलाह देती है—
जाओ, बाहर जाकर टी.वी. देखो
एक काम पूरा नहीं करोगे और फैला दोगे
मेरी पूरी रसोई….(11)
इस कविता का शीर्षक “उसकी गृहस्थी” ही गहरे अर्थ को ध्वनित करता है. सैद्धांतिक रूप से रसोई के कामों में स्त्री और पुरुष दोनों की सहभागिता होनी चाहिए लेकिन व्यवहारिक रूप में प्राय: ऐसा होता नहीं दिखता और अधिकाँश भारतीय गृहस्थियों में रसोई की पूरी जिम्मेदारी स्त्री के ही कन्धों पर आ पड़ती है. हालांकि इस कविता में पुरुष भावात्मक रूप से जरूर यह प्रयास करता है कि वह स्त्री की थकान को बाँट ले. इस कविता को पढ़ते हुए बरबस जॉन ग्रे का वह कथन ध्यान में आ जाता है, जहाँ स्त्री और पुरुष की प्रकृति के मूलभूत फर्क को रेखांकित किया गया है—
”Men are motivated and empowered
When they feel needed….
Women are motivated and empowered
When they feel cherished” (12)
इस कविता में स्त्री के प्रति सहयोग की जो भावना पुरुष के अंदर है, पारस्परिक संबंधों में समानता का जो स्वर उभर कर आता है, वह कैफ़ी आजमी की याद दिला देता है जब वो कहते हैं “उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे”.
कल्पना किसी भी कवि के लिए काव्य निर्माण की प्रेरणा होती है और इसका सम्बन्ध कवि की प्रतिभा से होता है. आचार्य मम्मट के अनुसार, “शक्ति: कवित्व बीजरूप: संस्कारविशेष:” यह कवि की कल्पना ही होती है जो उसे सुदूर, दुर्गम क्षेत्रों की सैर कराती है. “उसके स्वप्न में जाने का यात्रा वृत्तान्त” कविता, कवि की अनूठी कल्पना की ऐसी ही रूमानी दुनिया का सफ़र है जहाँ प्रेम के सभी प्रचलित मुहावरों को वह उलट देता है. आमतौर पर सभी प्रचलित प्रेम कहानियों या कविताओं में प्रेमिका ही प्रेमी के सपने में आती है, लेकिन यहाँ कवि खुद अपनी प्रेमिका के स्वप्न में प्रवेश करता है. स्वप्न में जाने से पहले वह पूरी तैयारी भी करता है. वह उसकी पसंद की शर्ट पहनता है, तमाम फूल वगैरह अपनी जेब में रखने के साथ ही समुद्र को पोलीथिन में बाँध लेता है. फैंटेसी की शक्ल में यह प्रेम कविता आगे बढती है—
“मैं उसके स्वप्न में जाना चाहता था वह हरी-हरी क़मीज़ मैंने पहन ली जो उसे ख़ूब-ख़ूब पसंद थी ————————— तोड़ लिए मैंने उसकी पसंद के फूल बिना पूछे पौधों से, और गुच्छे बना लिए! —————— पोलीथिन की विशाल थैली में मैंने समुद्र को भर लिया “ (13)
तमाम तामोझाम और मुफ्त की चीज़ों से अपनी जेब भर कर कवि प्रेमिका के सपने में जाने के लिए प्रस्थान करता है. यहाँ सबसे दिलचस्प बात है कि प्रेमिका के लिए कवि जो भी तोहफे लेकर जा रहा है वे सभी मुफ्त के हैं, और इसे जस्टिफाई करता हुआ वह कहता है—
“आख़िरी दिन थे महीने के चिल्लर की तलाश में हाथ जेबों में जब कोलंबस हो जाते हैं सो ऐसी ही फोकट की चीज़ों से भरी जा सकती थीं जेबें! (14 )
पहले भी कहा जा चुका है कि प्रेम में होने पर भी राजेश जोशी के यहाँ प्रेमी होशो-हवास में रहता है. उसे यह ध्यान है कि महीने के अंतिम दिन एक आम मध्यमवर्गीय व्यक्ति के लिए खींचतान के दिन होते हैं, तो जाहिर सी बात है कि प्रेमिका के लिए किसी महंगे तोहफे वगैरह को खरीदने का ख्याल उसे नहीं आता, लेकिन मिलने के लिए खाली हाथ जाना भी उचित नहीं लगता, इसीलिए वह बीच-बीच का रास्ता निकालता है, और फूलों, चाँद तथा सितारों से ही अपनी जेबें भर लेता है. स्वप्न में जाते वक्त और लौटते वक्त भी कवि पूरे होशोहवास में है, यही कारण है कि स्वप्न की मायावी दुनिया से निकल कर आने में भी उसे कोई परेशानी नहीं होती, और धूप का एक टुकड़ा भी उसे ऑफिस का वक्त बताने वाली घड़ी जैसा प्रतीत होता है—
“लौटा तो बस धूप का एक टुकड़ा था जो घड़ी की तरह धमका रहा था झटपट तैयार हो जाओ वरना ऑफ़िस का वक़्त बजा दूँगा। (15)
“पीठ की खुजली” एक अन्य प्रेम कविता है, जिसमें पीठ की खुजली के समानांतर प्रिया की याद चलती रहती है. किसी काम के सिलसिले में कवि जब दूसरे शहर में है और होटल में ठहरा हुआ है तो रात को सोते वक्त रह रह कर पीठ की खुजली परेशान करती है और उसे शांत करने के तमाम उपादानों पर विचार करते हुए अंतत: वह प्रिया के हाथों पर आकर रूक जाता है.
जहाँ तक जा सकता है ले जाता हूँ खींचकर पीठ पर अपना हाथ लेकिन यह नामुराद खुजली हर बार और आगे खिसक जाती है मेरे हाथ की पहुँच से मेरे हाथ की हद के आगे से शुरू होती है तुम्हारी हथेली की याद याद ने भी क्या कारण खोजा है आने के लिए घर से इतनी दूर इस गुलाबी शहर में! “ (16)
राजेश जोशी बिलकुल गैर रोमैंटिक जगहों पर भी रोमांस खोज लाते हैं, और वह भी तब, जबकि उनकी पहचान एक रोमैंटिक कवि के रूप में नहीं. पीठ की खुजली भी किसी तरह से प्रेम की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सकती है, यह इस कविता को ही पढ़ कर पता चलता है. इसी प्रकार “उसका चेहरा” कविता में, घर में बत्ती गुल होने के साथ ही प्रिया का चेहरा मोमबत्ती की रौशनी में देख कर कवि प्रेम की विगत स्मृतियों में खो जाता है—
“आधे अँधेरे और आधे उजाले के बीच उभरा उसका चेहरा न जाने कितने दिनों बाद देखा मैंने इस तरह उसका चेहरा “ (17)
यहाँ पर घनानंद की “रावरे रूप की रीति अनूप, नयो नयो लागत ज्यों ज्यों निहारिये” बरबस ध्यान में आ जाती है. प्रिया वही है, बस उसे देखने की कवि की दृष्टि बदल गयी है. “आधा वृत्त” कविता इस मायने में राजेश जोशी की अन्य प्रेम कविताओं से अलग है कि संभवत: पहली बार इस कविता में वे स्त्री सौन्दर्य को मांसल धरातल पर ले आते हैं. स्पर्श, गंध और घ्राण आदि बिम्बों का बहुत कलात्मक प्रयोग हुआ है इस कविता में —
“दोनों हाथों को पूरा फैला कर भी आधा ही वृत्त खीच पाता हूँ हाथों के बीच कि पूरे प्यार को आधा ही कह पाता हूँ हर बार ………………………………………….. वह मेरा आधा तकिया नहीं कि जिसमें तुम्हारे केशों की खुशबू बसी हो स्वर्ग से निष्काषित होने से पहले खाया गया आधा सेब भी नहीं कि जिसमें तुम्हारे होठों का कम्पन और तुम्हारे दांतों का निशान हो “ (18)
कला, साहित्य या प्रेम, इनमें से किसी में भी पूर्णता का भाव खोजना निष्फल क्रिया है क्योंकि यह अपूर्णता ही है जो मनुष्य की जिजीवषा को बचाए रखती है. अपने भावबोध में यह कविता, अज्ञेय की “कन्हाई ने प्यार किया” कविता के बहुत निकट आ खड़ी होती है. सम्पूर्ण कुछ भी नहीं होता इस संसार में, प्रेम भी नहीं, और मनुष्य को संतुष्टि कभी नहीं मिलती, यही सन्देश देती है उपरोक्त कविता.
असफल प्रेम के किस्से भी राजेश जोशी के यहाँ देखने को मिलते हैं. “रेस्त्रां में इंतज़ार” शीर्षक कविता, एक ऐसी ही इंतज़ार करती हुई लड़की की कहानी को सामने लेकर आती है जो किसी रेस्त्रां में अपने प्रेमी का इंतज़ार कर रही होती है, लेकिन वह आता नहीं. लड़की की प्रतीक्षा धीरे-धीरे निराशा का रूप ले लेती है- “वो जिससे मिलने आई है अभी तक नहीं आया है वो बार बार अपना पर्स खोलती है और बंद करती है …………………………………………………………………. वो सुनती है कहीं अपने अंदर बहुत धीमी किसी चीज़ के दरकने की आवाज ! (19)
इस कविता में लड़की की निराशा के साथ ही मानवीय सम्बन्धों में आ रही उष्णता की कमी को भी रेखांकित किया गया है. लेकिन लिजलिजी सई भावुकता का नामो निशान नहीं. “मुलाक़ात”, “जादूगरनी” तथा :चित्र में लड़की की उम्र” भी असफल प्रेम की कवितायें ही हैं, लेकिन ध्यान देने लायक बात यह है कि इनमें कहीं भी प्रेमी या प्रेमिका के कभी अचानक सामने से टकराने पर या एक-दूसरे की स्मृतियों से सामना पड़ने पर भी कडवाहट की कोई गंध दूर-दूर तक नहीं दिखती. एक प्रकार की निर्विकार सी तटस्थता जरूर दिखती है.
कुल मिलाकर कहा जाए, तो राजेश जोशी की प्रेम कविताओं के अनेक शेड्स दिख पड़ते हैं, कभी निर्विकार, निर्लिप्त सी तटस्थता तो कभी नितांत गैर रोमैंटिक जगहों पर भी रोमांस खोज लेने का भाव, और कभी भूत, वर्तमान और भविष्य के पन्नों में उकेरे जाने वाली प्रेमिल कल्पना, जिसके समानांतर चलती रहती है एक किस्म की बौद्धिक सतर्कता, शायद यही कारण है कि प्रेम में डूबे होने पर भी कवि एक पल को भी अपने होश नहीं खोता. इसलिए राजेश जोशी को बौद्धिक प्रेम का कवि कहना ही उचित प्रतीत होता है.
संदर्भ :
1- Francis Christensen, Intellectual love: The second theme of “the Prelude”, PMLA, Vol. 80, No. 1 (Mar., 1965), pp. 69-75 (7 pages), Cambridge University Press, page-69-70
2- राजेश जोशी, शहद जब पकेगा, मिटटी का चेहरा, सम्भावना प्रकाशन, दिल्ली, 1985, पृष्ठ-34
3- अकबर इलाहाबादी, रेख्ता
4- अज्ञेय, हरी घास पर क्षण भर, कविता कोश
5- प्रभाकर श्रोत्रिय, कालयात्री है कविता, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, 1993, पृष्ठ -108
6- राजेश जोशी, शहद जब पकेगा, मिटटी का चेहरा, सम्भावना प्रकाशन, दिल्ली, 1985, पृष्ठ-34
7- वही, पृष्ठ -34
8- वही, पृष्ठ-36
9- राजेश जोशी, उसकी गृहस्थी, दो पंक्तियों के बीच में, राजकमल प्रकाशन दिल्ली, 2014, पृष्ठ –40
10- वही, पृष्ठ -40
11- वही, पृष्ठ –41
12- John Gray, Men are from Mars, Women are from Venus, HarperElement, London, 2019, page-46
13- राजेश जोशी, उसके स्वप्न में जाने का यात्रा वृत्तान्त, मिटटी का चेहरा, सम्भावना प्रकाशन, हापुड़, पृष्ठ -24
14- वही, पृष्ठ-25
15- वही, पृष्ठ -28
16- राजेश जोशी, पीठ की खुजली, दो पंक्तियों के बीच में, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2014, पृष्ठ- 42
17 — वही, पृष्ठ -43
18- राजेश जोशी, चाँद की वर्तनी, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2006, पृष्ठ-62
19- राजेश जोशी, चाँद की वर्तनी, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2006, पृष्ठ-62
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