Monday, May 13, 2024

प्रतिभा चौहान

जन्म-10 जुलाई , उत्तर प्रदेश 

शिक्षा : रुहेलखण्ड विश्वविद्यालय, बरेली, उत्तर प्रदेश से एम० ए०( इतिहास ) एल0 एल0 बी0

प्रकाशन: प्रतिष्ठित राष्ट्रीय/अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ, कविताएँ (हिन्दी व अंग्रेजी), बाल कहानियाँ / कविताएँ, समीक्षा, आलेख का नियमित प्रकाशन । राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की संचयिका एवं जर्नल में लेख।

कृतियां : 

 1.”जंगलों में पगडंडियाँ”(भारतीय ज्ञानपीठ से आदिवासियों एवं जंगलों को समर्पित कविता संग्रह) , 

  1. “पेड़ों पर हैं मछलियाँ” (कविता संग्रह),
  2. “बारहखड़ी से बाहर” (कविता संग्रह)

 4.”चुप्पियों के हज़ार कंबल” कविता संग्रह    (प्रकाशाधीन)

 5.”कीथू”, (प्रकाशाधीन कहानी संग्रह)

  1. “स्टेटस को” (प्रकाशाधीन कहानी संग्रह)

पुरस्कार/ सम्मान

1.लक्ष्मीकान्त मिश्र स्मृति सम्मान, 2018 , 

2.राम प्रसाद बिस्मिल सम्मान, 2018, 

3.स्वयंसिद्धा सृजन सम्मान, 2019, 

4.तिलकामांझी राष्ट्रीय सम्मान, 2020, 

5.IECSME वुमन एक्स्लेन्सी अवॉर्ड- 2021, 

  1. निराला स्मृति सम्मान, 2022 

अन्य:

महिला एवं बाल अधिकारों के संरक्षण हेतु कार्य, शांति व सौहार्द के लिए विश्व स्तरीय संस्था गांधी ग्लोबल फैमिली के आइये कार्य,  देश की विभिन्न भाषाओं में कविताओं का अनुवाद। राष्ट्रीय         मानवाधिकार आयोग एवं गांधी स्मृति दर्शन समिति के लिए लेखन, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार में सहभागिता और पत्र वाचन 

संप्रतिः अपर जिला न्यायाधीश, बिहार न्यायिक सेवा

ईमेल: [email protected]

……………………..

कविताएं

वर्चस्व

अँधेरा होने को चला है 

भीड़ भी नहीं रोक पायी 

अस्त होते हुए सूर्य को…

 

न वे अब किसान हैं 

न मज़दूर हैं 

अब वे सिर्फ़ मजबूर हैं 

स्वप्नों और  सवालों से दूर हैं 

और वे 

जो कहते हैं 

उन्होंने बनाए हैं पेड़ 

आसमानों को दिया आसमानी रंग 

चाँद और सूरज उन्हीं की मेहरबानी से 

उगते और अस्त होते हैं 

अब तो 

स्वर्ग में भी उन्हीं के बनाए नियमों से विनियमित

ऐसा वे कहते हैं 

 

यही वजह है 

कि अब मैं इतिहास,जड़ों और आग में 

दिलचस्पी छोड़ रहा हूँ।

तुम्हारे लिए एक सुबह लानी है

कल जब समझा जाएगा तुम्हें

अपनी ही ज़मीनों का गुनहगार

कर दिया जाएगा बलिदान

विकास के नाम पर

अपने ही देश से तड़ी पार होते हुए

तुम ले जाओगे अपने हिस्से की शाम

और स्याह काली रातें

अनगिनत अनवरत

चलता रहेगा

यह शीत युद्ध…

सुनो

ठहरो

तुम्हारे लिए एक सुबह लानी है

छीन कर अंधेरे से

और बुननी हैं सूरज की किरणें

इस तरह मुझे

कई कई दिन

और कई कई शामें

उगानीं हैं

एक बेहतर कल के लिए

या कल की बेहतरी के लिए।

सर्वश्रेष्ठ

उन्होंने रास्ते में आयी हर एक चीज़ को

अपने हिसाब से बदलना चाहा

और बदल डाला

वे और आगे बढ़े

उन्होंने अपने समूहों को सर्वश्रेष्ठ कहा

ख़ुद को किया ईश्वर घोषित

नियम विनियम बनाए

जिन्हें तोड़ने की चाबी रखी अपने पास

वे और आगे बढ़े

उन्होंने नदियों को अपने हिसाब से मोड़ा

पर्वतों के सिर उठाये रखने को ग़ुस्ताख़ी माना

और तोड़ दिए कई सिर और शाखाएँ

वे और आगे बढ़े

उन्होंने प्रकृति को दुत्कारा और ललकारा

और जंगलों को कर दिया आग के हवाले

पहाड़ को खाई और खाई को पहाड़ बनाने लगे

वे और आगे बढ़े

वे श्वेत को काला और काले को श्वेत करना

कला का हिस्सा मानने लगे

सुना है

अब वे दिमाग़ बनाने वाले हैं

ऐसे दिमाग़ जो उनके इशारों पर चलें

ऐसे दिमाग़ जो समय से पहले बताएँ किसी आने वाली मुसीबत के बारे में

और जो दूसरे दिमाग़ों को पढ़ने की कला जानते हों

एक बटा दो संसार के ख़्वाब

चाँद के चेहरे से 

थोड़ी ताज़गी उधार ले लो

उजाला चुटकी में भरकर 

बढ़ा दो रौनक़ें इस शहर की 

उदास धूप कौन देखेगा अगले दिन  

हमें इसी शाम की किरचों से सजाने हैं 

अलबत्ता ये नाख़ुश चेहरे 

 

कल्पना में गुम होकर याद करना 

कि सिरहाने उग आयी है नींद की बेल

हाथों में मल लो रात की गहराई

और एक बटा दो संसार के ख़्वाब 

आओ चलो जीते हैं

दुनिया का बटबारा करके 

रात डाल दो मेरी झोली में 

ख़्वाबों भरी डाली तुम ले लो

बुद्ध या बुद्धू

एक धूप के टुकड़े से 

मैंने बनाए हैं कई रंग 

टाँगा है उदासी को उपेक्षा के हैंगर पर 

पोंछ दिया है तनाव चेहरे से 

 

बेवजह हँसने का सलीक़ा सीखा है

अतीत को देखता हूँ दूर से ही बिना ओढ़े हुए 

मनचाही जगह रोक देता हूँ ज़िन्दगी की गाड़ी 

करता हूँ जी भर के मस्तियाँ

 

चिंता की चिता बनाकर कबका मार दिया मैंने 

बिन बारिश के भीगता हूँ 

सब मुझे बुद्धू कहते हैं 

और मैं मुस्कुराता हूँ

 

मैं बुद्ध तो नहीं बन सकता 

पर बुद्धू बनना चाहता हूँ

क्योंकि किसी ने कहा था 

कि 

या तो बुद्ध सुखी हैं , 

या बुद्धू ।

हज़ार हज़ार चुप्पियों के कम्बल

असभ्यता के ख़िलाफ़ खड़े होने के वक़्त 

ओढ़े गए 

हज़ार हज़ार चुप्पियों के कम्बल

उगी हुई घासों को 

दिया गया ज़हर 

अमन की हवाओं पर चलायीं गयीं गोलियाँ

मृत्यूदंड देने से पूर्व 

नाटक का किया गया आकलन

मंचन से पूर्व ही 

ये जो सूरज हैं 

अत्याचारों के कम्बलों में डूबते हुए दर असल 

फिर उग आते हैं 

कुकर मुत्तों की तरह 

उनके पैरों के बीच

कौन तोड़ेगा उन ज़ंजीरों को 

जिनमें क़ैद की जानी है एक आदमी की आज़ादी

बेदम हुए वक़्त की 

शक्ल है कि हवा के रूख के साथ बदल रही है

पेड़ों पर हैं मछलियाँ

पेड़ों पर हैं मछलियां 

क्योंकि हमने छीन लिए हैं उनके समुद्र

हमने भेद दिए हैं,

उनकी आंखों में तीर

हम ने छीन ली है उन की सिसकियां 

जिससे वह अपने दर्द कहा करती थीं…

 

पेड़ों की पत्तियां हरी नहीं हैं

बादलों की रंगोली

अब -दृश्य मात्र

जिनसे बनते हैं सिर्फ रंगीन चित्र 

वे नहीं भर सकते तुम्हारी दरारों में नमी

क्योंकि तुमने  भेज दिए हैं  

सीने में जख्म 

 

जो भर चुके हैं दर्द के भारी बोझ से

अब वे बरसते नहीं

फट पड़ते है।

वह आदिवासी है

आसमान में 

चमकते हो सूरज की तरह 

 

तुम्हारी गोद में पलती है 

धरती की आदिम सभ्यता 

 

कौन मिटाएगा उसे 

जो है  समस्त सागर ,भू और आकाश में 

विद्यमान 

सृष्टि का पहला हस्ताक्षर 

 

तैरती हैं हजारों स्मृतियाँ शाखों पर 

जो रहते हैं 

सम्मान में सदा सिर झुकाए 

हरेपन की कहानी लिए 

 

जिसकी आत्मा में रचा बसा जंगल 

और जंगल में रचा बसा जिसका अस्तित्व 

 

शांत ,सुदृढ़, पूर्णतः प्राचीन 

आदिम सृष्टि के पटल पर 

न अस्त  होने वाला अविनाशी है 

सुनो 

वह  आदिवासी है।

नदी

नदी

अब न वो नदी है

न तितलियाँ

न फूलों के अंबार

नदी को चीरती हुई कोई मजबूत चीख

रोक देती है

उस का बहना

चलना मचलना

एक अक्षय दीवार देती है उसे फिक्र

 

वह छुपाती है अपनी आँखों का पानी

और उमड़ती है

भीतर ही भीतर

 

एक भारी दर्द के शोक को मनाने से पहले

बन जाती है

हरे हरे आकाश की पंछी

स्वच्छंद मगन मस्त

 

तोड़ देती है गुनाहों का पिंजर

फूटती है ज्वाला सी

प्रवल वेग सी बह उठती है

करती है तहस-नहस

तोड़ती है सारी बेड़ियाँ

 

एक निरीह मनुष्य की जोड़ी भर आँखें

देखती हैं बस

दम भर तबाही को।

स्वतंत्र या स्वच्छंद

जंगल उनके हैं

वे घने जंगलों के हैं

इतने घने कि

उनमें पगडंडियाँ नहीं जातीं

परंतु ढलान तक जाते हैं नदियों के रास्ते …

बसती है एक दुनिया

एक पूरी दुनिया

शहर से हज़ारों कोसों दूर

वे स्वतंत्र हैं

स्वच्छंद नहीं

पीते हैं स्वच्छ जल

पाते स्वच्छ हवा

नहीं मिलती किसी चीज़ में मिलावट

मसलन- आदमी में भी नहीं

वे जानते हैं प्रकृति में अपना हिस्सा

जंगलों से लेते हैं

दुलारते हैं

उजाड़ते नहीं ईश्वर की बनाई हुई चीजों को

आधुनिक आदमी की तरह …

कविताएं

……………………..

error: Content is protected !!