कविताएँ
लाड़
उन दिनों,
जब मुझे बहुत लाड़ आता था तुम पर
तब अक्सर मैं तुम्हें ‘प्लेटो’ बुलाती थी
‘माई प्लेटो बेबी’ की एक अनवरत रट से
बातें गूँजती थीं मेरी।
तब यह मालूम नहीं था
कि प्लेटो के सिंपोज़ीयम से निकल कर अरिस्टोफ़ेंस
सीधे यूँ मेरे जीवन में उतर आएगा
और कहेगा मुझसे कि
दरअस्ल, मैं तुमसे प्रेम नहीं करती
बल्कि एक पूरा मनुष्य हो पाने की
तड़पती सुलगती आकांक्षा में
अपने स्व का टूटा-छूटा हिस्सा
तुम्हारे भीतर तलाशती हूँ
मुझे नहीं पता कि
अरिस्टोफ़ेंस सही था या ग़लत
पात्रों की निष्ठा का प्रश्न
मेरे अवचेतन से बाहर ही रहा है।
लेकिन क्या पता
मेरी नाभि का कोई टुकड़ा तुम्हारे भीतर रह गया हो?
हम जुड़वाँ तो नहीं थे पिछले जन्म में?
प्लेटो के प्रेम संसार में तो वैसे भी
‘पूरा’ न होने की वेदना में डूबे प्रेमी
एक दूसरे में आधा-आधा रहने वाले
जुड़वाँ ही होते हैं।
सिंपोज़ीयम लिखे जाने के ढाई हज़ार साल बाद
आज, हम इतने दूर हैं।
लेकिन जब भी मुझे सवालों के जवाब नहीं मिलते
तो गूगल और किताबों से हारने के बाद
बरामदे में बैठी हुई अक्सर सोचती हूँ
कि तुमसे ही क्यों नहीं पूछ लेती!
क्योंकि तुम तो मेरे बेबी प्लेटो हो…
एंड माई प्लेटो नोज़ एवरीथिंग!
(आत्म)हत्या की नोक पर
हर की दून’ का कुत्ता
पसलियाँ
वो ख़्वाब था शायद
जब कहा था तुमसे
जब भी मिलती हूँ
तो दिल जैसे
मेरे ‘रिब-केज’ से बाहर आने लगता है
“रिब-केज से बाहर?
अरे! कहीं तुम्हारी पसलियाँ ग़ायब तो नहीं हुईं?
या शायद कम हो गई हैं?”
यह कहते-कहते तुमने
मेरी पसलियों को गिनना शुरू कर दिया।
मैं?
मैं तुम्हारी गर्दन में बाँहें डाले खड़ी
तुम्हारी काली शर्ट में अपना चेहरा छिपा कर
हँसती रही
और फिर हँसती ही रहती हूँ यूँ सारी दुपहर
और तुम?
तुम ‘एक-दो-तीन’ की धुन पर
चुंबनों के निशान खींचते हुए
गिनते रहे मेरी पसलियाँ
सारा दिन…
मैं इतने प्रेम में हूँ
कि तुम्हारे बिना भी
काली शर्ट पहनकर
ख़ुद ही
गिनती रहती हूँ
अपनी पसलियाँ।
जीते हुए
इतनी क्रूर चीख़ें कानों में इकट्ठा कर चुकी थी
कि जब तक उसके पास पहुँचती
तब तक
आँसुओं और लार के बीच मौजूद
गालों की खाईं मिट चुकी होती थी।
लेकिन नज़दीक आ,
जब भी सिर उठाकर देखा उसे तो लगा
मेरे दुखों से कितना ऊँचा है यह देवदार!
मैंने हमेशा चाहा था उस एक लड़के को
देवदार के तने से लगाकर चूमना
तब भी लगता था जैसे सिर्फ़ देवदार ही है
जो सह पाएगा उस पर टिके
हमारे प्यार भरे जिस्मों का भार।
अब जब हम दूर हैं
तब भी लगता है
कि सृष्टि के आँसुओं का बोझ
अपनी झुकी डालों पर उठाने वाला यह देवदार
मेरे नसों पीड़ा को भी सोख लेगा।
शिमला के इस पहाड़ पर,
सैकड़ों साल पुराना यह देवदार ही मेरा हमदम है।
सिर्फ़ ढाई सौ फ़ुट नहीं,
दुखों से ऊँचा देवदार।