Wednesday, December 4, 2024
लेखक और पत्रकार प्रियंका दुबे बीते एक दशक से सामाजिक न्याय और मानव अधिकारों से जुड़े मुद्दों पर रिपोर्टिंग करती रही हैं. जेंडर और सोशल जस्टिस पर उनकी रिपोर्टिंग को कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सम्मान मिले हैं जिसमें 2019 का चमेली देवी जैन राष्ट्रीय पुरस्कार, 2015 का नाइट इंटरनैशनल जर्नलिज़म अवार्ड, 2014 का कर्ट शोर्क इंटरनैशनल अवार्ड, 2013 का रेड इंक अवार्ड, 2012 का भारतीय प्रेस परिषद का राष्ट्रीय पुरस्कार और 2011 का राम नाथ गोईंका पुरस्कार शामिल हैं. उनकी रिपोर्टें 2014 के ‘थोमसन फ़ाउंडेशन यंग जर्नलिस्ट फ़्रोम डिवेलपिंग वर्ल्ड’ और 2013 के ‘जर्मन डेवलपमेंट मीडिया अवार्ड’ में भी फ़ायनलिस्ट थीं. स्त्री मुद्दों पर उनकी सतत रिपोर्टिंग के लिए उन्हें तीन बार लाड़ली मीडिया पुरस्कार भी दिया जा चुका है. 2016 में वह लंदन की वेस्टमिनिस्टर यूनिवर्सिटी में चीवनिंग फ़ेलो थीं और 2015 की गर्मियों में भारत के संगम हाउस में राइटर-इन-रेसीडेंस. 2015 में ही सामाजिक मुद्दों पर उनके काम को इंटरनैशनल विमन मीडिया फ़ाउंडेशन का ‘होवर्ड जी बफेट ग्रांट’ घोषित हुआ था. साइमन एंड चिश्टर द्वारा 2019 में प्रकाशित ‘नो नेशन फ़ोर विमन’ उनकी पहली किताब है. इसे 2019 में ही इसे शक्ति भट्ट फ़र्स्ट बुक प्राइज़, टाटा लिटेरेचर लाइव अवार्ड और प्रभा खेतान विमेन्स वोईसे अवार्ड के लिए शॉर्ट लिस्ट किया गया था.
 
 
 
लम्बे समय से कविताएँ लिखकर संकोचवश छिपाती रहने वाली प्रियंका का दिल साहित्य में बसता है. इन दिनों वह अपना समय शिमला और अपनी यात्राओं के बीच बाँट रही हैं. उनसे [email protected] पर सम्पर्क करें.
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कविताएँ

लाड़

उन दिनों,
जब मुझे बहुत लाड़ आता था तुम पर
तब अक्सर मैं तुम्हें ‘प्लेटो’ बुलाती थी
‘माई प्लेटो बेबी’ की एक अनवरत रट से
बातें गूँजती थीं मेरी।
तब यह मालूम नहीं था
कि प्लेटो के सिंपोज़ीयम से निकल कर अरिस्टोफ़ेंस
सीधे यूँ मेरे जीवन में उतर आएगा
और कहेगा मुझसे कि
दरअस्ल, मैं तुमसे प्रेम नहीं करती
बल्कि एक पूरा मनुष्य हो पाने की
तड़पती सुलगती आकांक्षा में
अपने स्व का टूटा-छूटा हिस्सा
तुम्हारे भीतर तलाशती हूँ
मुझे नहीं पता कि
अरिस्टोफ़ेंस सही था या ग़लत
पात्रों की निष्ठा का प्रश्न
मेरे अवचेतन से बाहर ही रहा है।
लेकिन क्या पता
मेरी नाभि का कोई टुकड़ा तुम्हारे भीतर रह गया हो?
हम जुड़वाँ तो नहीं थे पिछले जन्म में?
प्लेटो के प्रेम संसार में तो वैसे भी
‘पूरा’ न होने की वेदना में डूबे प्रेमी
एक दूसरे में आधा-आधा रहने वाले
जुड़वाँ ही होते हैं।
सिंपोज़ीयम लिखे जाने के ढाई हज़ार साल बाद
आज, हम इतने दूर हैं।
लेकिन जब भी मुझे सवालों के जवाब नहीं मिलते
तो गूगल और किताबों से हारने के बाद
बरामदे में बैठी हुई अक्सर सोचती हूँ
कि तुमसे ही क्यों नहीं पूछ लेती!
क्योंकि तुम तो मेरे बेबी प्लेटो हो…
एंड माई प्लेटो नोज़ एवरीथिंग!

(आत्म)हत्या की नोक पर

मेरी हत्या की नोक
हिंदुस्तान और पाकिस्तान की
उस सीमा पर ठुकी हुई है
जहाँ कभी बेसुध पड़ा
टोबा टेक सिंह
बिलख-बिलखकर अधमरा हो गया था।
 
तुम्हारे प्यार में मेरे यूँ बेघर होने को
कौन समझता है,
इक टोबा टेक सिंह के सिवा?
 
बॉर्डर पर लोटता-फड़फड़ाता उसका शरीर,
और, मेरे कानों में बजता उसका सतत विलाप
मुझे जीने नहीं देता।
 
मेरे आँसू?
आँसुओं से गीली मेरी चीख़ें
उसे मरने नहीं देतीं।
 
यह और बात है कि उसे लिखने वाले को
मरे हुए भी सदियाँ बीत चुकी हैं।
 
लेकिन मंटो के मरने से
टोबा टेक सिंह तो मरा नहीं करते न!
 
टोबा टेक सिंह
प्यार के बहाने घर
और
घर के बहाने प्यार ढूँढ़ती
हर टूटी लड़की के दिल में ज़िंदा रहता है—
 
तब तक
जब तक वह लड़की
अपनी हत्या की नोक ख़ुद ढूँढ़ती हुई
अधमरी नहीं हो जाती।

हर की दून’ का कुत्ता

हर की दून’ की बर्फ़ीली घाटी में
रस्ता भटक गई हूँ।
 
युधिष्ठिर की नैतिकता भले ही न हो साथ मेरे
लेकिन शायद कभी यहीं से गुज़री
पांडवों की अंतिम यात्रा की तरह ही
आज भी एक कुत्ता ज़रूर
मेरे आगे-आगे चल रहा है।
 
तो क्या यह मेरी भी अंतिम यात्रा है?
लेकिन पांडवों के उलट
स्वर्ग की तो मुझे कभी आकांक्षा ही नहीं रही!
 
और उस पर भी
अगर द्रौपदी का अर्जुन से अतिरिक्त प्रेम पाप था
तो यह पाप मैं कितनी ही बार कर चुकी हूँ!
 
अपने सभी भले प्रेमियों को छोड़
इक तुम्हें
सबसे ज़्यादा प्यार करने का पाप!
 
अगर प्रेम पाप है
तो उनकी ही तरह
सबसे पहले मर जाने को भी तैयार हूँ!
 
लेकिन यह प्यारा पहाड़ी कुत्ता
मुझे मर जाने भर की भी
मोहलत नहीं देता।
 
दिन भर लंबे ट्रैक के बाद अब यहाँ
‘स्वर्गारोहिणी’ पहाड़ के ठीक नीचे
हमने अपना तंबू गाड़ लिया है।
 
तुम्हें याद करते हुए
हेड-लैंप की रौशनी में जब
प्रेम-कविताएँ पढ़ती हूँ
तब युधिष्ठिर का भेजा यह कुत्ता
टुकुर-टुकुर देखता है मुझे
 
ख़ामोश बर्फ़ और तारोंवाली
ठिठुरती रात के इस एकांत में
अपनी डूबी पनियल आँखों से
भोर तक
इस गहरी करुणा से
देखता ही रहा है वह मुझे
 
जैसे इसी घाटी में कभी
द्रौपदी और उनके प्रेम के साथ हुए 
अन्याय का
प्रायश्चित कर रहा हो!
 
जैसे आज युधिष्ठिर के इस कुत्ते ने भी
अंततः मान ही लिया हो
कि किसी भी मनुष्य की तरह
प्रेम में डूबी स्त्री भी
पतित नहीं
सिर्फ़ प्रेमी होती है।
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* ‘हर की दून’ की घाटी भारत के सबसे पुराने ट्रैकिंग-मार्गों में से है। कहा जाता है कि यह वही रास्ता है जिसे पांडवों से अपने अंतिम प्रस्थान के लिए चुना था।

पसलियाँ

वो ख़्वाब था शायद
जब कहा था तुमसे
जब भी मिलती हूँ
तो दिल जैसे
मेरे ‘रिब-केज’ से बाहर आने लगता है
“रिब-केज से बाहर?
अरे! कहीं तुम्हारी पसलियाँ ग़ायब तो नहीं हुईं?
या शायद कम हो गई हैं?”
यह कहते-कहते तुमने
मेरी पसलियों को गिनना शुरू कर दिया।
मैं?
मैं तुम्हारी गर्दन में बाँहें डाले खड़ी
तुम्हारी काली शर्ट में अपना चेहरा छिपा कर
हँसती रही
और फिर हँसती ही रहती हूँ यूँ सारी दुपहर
और तुम?
तुम ‘एक-दो-तीन’ की धुन पर
चुंबनों के निशान खींचते हुए
गिनते रहे मेरी पसलियाँ
सारा दिन…
मैं इतने प्रेम में हूँ
कि तुम्हारे बिना भी
काली शर्ट पहनकर
ख़ुद ही
गिनती रहती हूँ
अपनी पसलियाँ।

जीते हुए

इतनी क्रूर चीख़ें कानों में इकट्ठा कर चुकी थी
कि जब तक उसके पास पहुँचती
तब तक
आँसुओं और लार के बीच मौजूद
गालों की खाईं मिट चुकी होती थी।
लेकिन नज़दीक आ,
जब भी सिर उठाकर देखा उसे तो लगा
मेरे दुखों से कितना ऊँचा है यह देवदार!
मैंने हमेशा चाहा था उस एक लड़के को
देवदार के तने से लगाकर चूमना
तब भी लगता था जैसे सिर्फ़ देवदार ही है
जो सह पाएगा उस पर टिके
हमारे प्यार भरे जिस्मों का भार।
अब जब हम दूर हैं
तब भी लगता है
कि सृष्टि के आँसुओं का बोझ
अपनी झुकी डालों पर उठाने वाला यह देवदार
मेरे नसों पीड़ा को भी सोख लेगा।
शिमला के इस पहाड़ पर,
सैकड़ों साल पुराना यह देवदार ही मेरा हमदम है।
सिर्फ़ ढाई सौ फ़ुट नहीं,
दुखों से ऊँचा देवदार।

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किताबें

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