प्रिया वर्मा
जन्म 23/11/1983 जिला पीलीभीत
वर्तमान निवास- सीतापुर उत्तरप्रदेश
पेशे से शिक्षिका व स्वतंत्र लेखन, विचार व कविता
विभिन्न पत्र एवं पत्रिकाओं, ब्लॉग्स तथा वेबपोर्टल्स पर निरंतर प्रकाशित
कविता-संग्रह विचाराधीन
सम्पर्क:- [email protected]
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कविताएं
मैं जन्मना मज़दूर थी
कोई प्रमाणपत्र नहीं था मेरे अपने परिचय का
न आत्मा को शांत करने का
कोई श्वेतपत्र था
कोई घर था भी तो टिकाने को मेरा अपना पांव नहीं था
पांव था तो मुक्ति नहीं थी
यह बताने का एक कारण नहीं था कि इस मन की थकान का स्रोत है क्या?
केवल एक नाम जो किसी न किसी के नाम के पहले जुड़कर भारी लगता।
शक्ल की तस्वीर लिए भटक रही थी
ऊबती हुई
कोई दरवाज़ा खटखटाता तो दौड़ना मेरा काम था।
एक गिलास पानी से लेकर बाल्टियों पानी भरने का मेरा ज़िम्मा था।
कुछ छूट जाए, टूट जाए, रह जाए, मेरी जवाबदेही थी।
रुमाल से लेकर चादर तक
साफ़ करना, सुखाना, इस्तरी करना, इत्र से भिगाना
चहारदीवारी को घर कहना।
इस चौकोर घर का एक कोना सुरक्षित था मेरे लिए
जहाँ से तरह-तरह की गंध उठतीं
कइयों की स्वादेन्द्रियाँ जाग उठतीं
यदा-कदा मेरी भी राह देखी जाती थी-
लौटने के नाम पर
काम के महत्व के साथ
लेकिन मेरे पहुँचते ही जैसे लैम्प में रोशनी मन्द पड़ जाती थी
जैसे राशन में शक्कर महंगी हो जाती थी
मैं जुट जाती थी
एक मज़दूरी के बाद दूसरी मज़दूरी में
मेरे लिए दिन-रात एक से थे
रक्त से नहाए हुए भी कई-कई दिन सारे दिन श्रम किया मैंने और अनेक बार सोचा
यदि बची-खुची नींद सोते आ ही गई मृत्यु
तो बाक़ी लोगों को कैसे जगाऊँगी सुबह?
इतनी अकुशल मज़दूर थी मैं
कि मुझे पता ही नहीं था
स्थायी हूँ या संविदा पर हूँ।
बदली जा सकती हूँ या सेवामुक्त की जा सकती हूँ।
स्थानांतरण हो सकता है मेरा एक जगह से दूसरी जगह!
मेरी कोई यूनियन नहीं थी, न मेरी सेवाओं के लिए कोई ईनाम था।
मानदेय अथवा तनख़्वाह में से क्या तय था मेरे लिए?
मेरी सेवाएं समाप्त होने पर मुझे पेंशन मिलनी थी क्या?
या अपनी थकान से भरी देह और मन को
रुई की तरह
आख़िरी रेशे की बचीख़ुची ताक़त सोखने तक
धुनती रहूँगी। बिनती रहूँगी अपनी गुमनामी
क्या वह दिन भी कभी आएगा
जब मैं अपनी क़ौम के माथे से
जन्मना मज़दूर होने का भाग्य पोंछ सकूँगी
कह सकूँगी-
‘तुम आज दिन भर का आराम करो।’
असौंदर्य के पक्ष में
सुंदर स्त्रियों के लिए लिखी गई सब परिभाषाओं को लिखने की स्याही जब ख़त्म हो जाएगी
एक अट्टहास होगा- जो
फैल कर धरती पर
आकाश बनकर बिछ जाएगा
अपनी पारिस्थितिकी में
हास्य का आरोह अपने चरम पर पहुँचेगा
और पकड़ लेगा ढलान की राह
सारे बिछौनों की सलवटें एकाएक सुधर जाएंगीं
हँस रही होंगीं वे स्त्रियाँ
जिन्हें तुम असुन्दर कहकर दुत्कारते रहे।
वे त्याग देंगीं तुम्हारे बनाए कानून।
तुम्हारे क़ायदों पर उनके लिए गढ़े विशेषणों से अपने पांव धोकर करेंगी वे-
पुनः एक गृह-प्रवेश करेंगीं
अपनी परिमार्जित चेतना के साथ वे ज़मीन की लड़ाइयों में उतरेंगीं योद्धा-सी
और कल्पना में दशरथ मांझी के हाथों अपना स्वर्ग गढ़ने के लिए नहीं छोड़ेंगी बालिश्त भर की भी जगह
वे पहचान लेंगी क़ैस, रांझे और फ़रहाद के किस्से किस तरह की प्रयोगशाला में ईजाद किए गए हैं
उस दिन दुनिया के तराजू में एक पलड़ा इतना भारी हो चुका होगा कि सारी सुंदरता का सच उजागर हो जाएगा
हँस रही होंगी वे भर पेट
खाई अघाई तोंद निकली हुई स्याह रंग स्त्रियां
तमाम सैलूनों के बाहर बिखेर देंगीं अपने घर की अलमारियां
जो भरी हुई हैं सौंदर्य प्रसाधनों से।
दवा बनाम प्रेमी
नहीं होगा मुझसे
एक और अंधविश्वास का जन्म
एक और गड्ढा अपने धँसने के लिए बनाऊं
और गिरी-पड़ी हालत में रहूँ पुकारती
खोजती रहूँ ऊष्मा से मोहित हाथ
‘बचाओ मुझे
यहाँ निचाट दलदल में हूँ।’
हाँ थोड़ी ज़्यादा नींद आती है। रात के अलावा दिन में भी।
परचे पर लिखे काले अक्षरों की इबारत को
पानी के साथ निगलने के बाद
अच्छी बात है कि इस सफ़ेद कागज़ की धोक में
न ग्लानि है
न प्रतीक्षा
जितनी क्षमता है दो-चार नन्हीं गोलियों की
बारह घण्टे उतना तो बचा ले जाती है।
दवा नहीं देती एक भी दलील अपनी मज़बूरी की। होती है, तो पूरी साथ होती है।
एक घटते अधूरे गीले मन को पूरे मन से संभाले रखने की
ईमानदार ज़िम्मेदारी
दवाओं की।
{अंधविश्वास की जगह पढ़ सकते हैं आप वही
जग प्रचलित मृगतृष्णा
तेज़ धूप में सड़क पर दूर दिखती पानी की चमक
पास जाकर और दूर दिखती वह कौंध
एक अदद प्रेमी}
यह नई तरह से प्रेम करने का समय है
एक साथ दो नावों की सवारी
फ़ीका पड़ चुका एक मुहावरा है।
अब एक नहीं कई शरीर रहते हैं एक अस्तित्व में
जब जिसे जिस तरह से चाहा, खोला – मूंद लिया
जैसे चाहा मिल लिया और खुद को पोटलियों में भरकर पीठ पर लाद लिया
इतना सुविधाजनक है सब
कि रोबोटिक सायंस मशीनों को ही नहीं
इंसानी ज़ेहन को भी पहिए लगा चुका है
कैसे बनते हैं सम्बन्ध- यह भला सिखाने की बात है!
कैसे पसन्द नापसन्द होते हैं- लोग या रंग या चीज़ें!
बहुत बार गड्डमड्ड होकर चीज़ों को लोग समझ
और लोगों को चीज़ समझ बरत लेते हैं हम
रंगों की तरह।
किसी बुज़ुर्ग से बात करने लगो,
वह हाथ थामे
खींचे लिए जाता है कोई सत्तर साल पीछे
जब देसी घी दो आना सेर भर मिलता था
वह अब तक वहीं जमा है- थुलथुली देह पर जमी चर्बी-सा
यह सामने बैठा है जो मरियल बूढ़ा
कोई और ही है जो अभी
कह उठेगा घोर कलयुग की देन है भइया!
अब मक्खी मच्छर की तरह तड़प रहा है आदमी।
इतना कहते हुए केवल सुनो मत उसे
तुम झाँको उसकी आँखों में।
जैसे कुएं की जगत से भीतर को झाँक रहे हो
जैसे पानी के गहरे आईने में देख रहे हो
अपने आप को।
अपने को उन सिलेटी पुतलियों की गीली थैली में भरा हुआ पाकर
थोड़ा-सा डर जाओ।
यह जो निचुड़ा हुआ निथरा हुआ है
-तुम्हारा भविष्य है।
अब कुछ भी सम्भव है।
दो नावों की सवारी की तरह-
दुहरी ज़िन्दगी भी।
दुधारी तलवार पर चलकर सरलता से
काटी जा सकती है ज़िन्दगी।
बुज़ुर्ग की हथेलियों की कटी लकीरें कहती हैं
यह नए मुहावरे गढ़ने का समय है
यह गमले में जंगल उगाने का समय है
यह नई तरहों से प्रेम करने का समय है
यह ऐसा रास्ता है यहीं रहता है-
अपने आप से कट जाता है।
आजकल समय बिताया नहीं जाता-
आप ही आप से बीत जाता है।।
ऐसा कोई कलदार बुज़ुर्ग मिले
उसके पास बैठो
उससे याचना करो-बस एक बार
तुम्हारा माथा चूम के
पानी में तब्दील कर दे तुम्हें।
कि तुम चीज़ों, रंगों और इन्सानों में फ़र्क़ ज़ाहिर कर सको।
यहाँ पर "तुम" बहुवचन है।
हो सकता है गठरी देह पर बिखरे हुए रेशम-से हो तुम
पर अनिवार्य नहीं तुम्हारा रेशमपन पसन्द हो मेरी
तुम्हारे कण भर से मेरा रज भर हो
आकाश-भर तृप्ति का आकांक्षी
यह किसी किताब में नहीं है लिखा
जो लिखा भी है
तो किसी स्त्री ने अपनी तुष्टि की पुष्टि में अभी पूरा कुछ नहीं लिखा है
तुम अधिक से अधिक कह सकते हो मुझे वेश्या
कम से कम बदनाम कर सकते हो कहकर
अपनी पूर्व प्रेमिका
या परित्यक्त स्त्री के रूप में बार-बार रट सकते हो
मेरे प्रति अपनी लालसा
तुम त्वचा के भीतर स्वेद की तरह रह तो सकते हो
किन्तु स्फूर्ति नहीं हो सकते मेरी अंगुलियों की
वक्ष की अन्तर्गन्ध नहीं हो सकते आती हुई मेरे उतरे हुए वस्त्रों से
तुम अधिकतम से भी अधिक मुझसे जता सकते हो अपनी इच्छा
एक बार के दैहिक सम्बन्ध की-
और मैं
कम से कम एक बार हाँ कहकर खत्म कर सकती हूँ
यह किस्सा स्पष्ट
एक प्रसंग जो मेरी लिखी पँक्ति में पढ़कर
सम्भवतः मेरी सन्तान द्वारा एक दिन मेरा चरित्र निर्धारण कर दिया जाए
जो मेरी तस्वीर को धूमिल करता चला जाय
बढ़ाता चला जाए समाज के चश्मे का नम्बर
या सराहा जाय मेरी स्वच्छ विचार निमग्नता को
बस इतना बख़्श दिया जाय मुझे
कि मुझसे कभी देवी होने की उम्मीद न रखी जाय
मुझसे कभी दोहराने को न कहा जाय पिछली गली में मुझसे छूट चुके
किताबी आदर्श
पत्थर के पानी-सी उतरती हुई लज्जा की
पूरी बेशर्मी से चीरफाड़ की जाय
मेरे जाने के पीछे भले ही मुझे कहा जाय चरित्रहीन
मुझे गुरेज़ नहीं है तुम्हारे नज़रिए से
क्योंकि मैं घूंट भर कर पी चुकी हूँ मानभंग
प्रेम का नहीं
प्रेम के नाम पर रचित स्वांग का
जो तुम्हें नहीं रख पाता किसी एक का होकर
इसलिए तुम्हें मेरे हँसी ठट्ठे पर नहीं होना चाहिए ऐतराज़
तुम्हें मेरे बारे में निर्विरोध रखनी चाहिए सेक्सिस्ट राय
जान लो
तुम किसी लोक के देवता रहे भी हो
तो यहाँ मेरी आस्था नहीं है
आज तक मेरे जीवन में ‘तुम’ बहुविकल्पीय नहीं रहे।
यहाँ पर तुम “बहुवचन” है।
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