मृदुला सिंह
जन्मदिन- 4 जून
जन्म स्थान- रीवा , मध्य प्रदेश
शिक्षा- एम .ए.एम .फिल. पीएचडी ,सेट
▪️.पूर्व प्रकाशन- वागर्थ, हंस ,सांस्कृतिक पत्रिका लोकबिम्ब, जन संदेश, , छपते छपते, छतीसगढ़ आस पास, मड़ई, पाठ, प्रेरणा, लोक सृजन ,कविता विहान,
जनपथ , छत्तीसगढ़ मित्र, समकालीन जनमत तथा रचनाकार आदि में लेख,कविताएँ लघुकथा का प्रकाशन
▪️कोरोना काल विशेष .’ दर्द के काफिले ‘ कविता संकलन (सं कौशल किशोर) में कविताएँ प्रकाशित।
◾जिंदगी जिंदाबाद (सं. रीमा चड्डा दीवान) में कहानी ‘ताले ‘का प्रकाशन।
▪️मराठी, और अंग्रेजी भाषा मे कविताओ का अनुवाद और प्रकाशन।
प्रकाशित पुस्तक
▪️1.सामाजिक संचेतना के विकास में हिंदी पत्रकारिता का योगदान ( संपादन)
2 मोहन राकेश के चरित्रों का मनोविज्ञान ( पुस्तक)
3.पोखर भर दुख (कविता संग्रह) 2021 में प्रकाशित
4. अंधेरे के उस पार (मुक्तिबोध पर केंद्रित (संपादन)
5. तरी हरी ना ना (संपादन) (छत्तीसगढ़ की स्त्री कहानीकारों की कहानियों का संकलन )
▪️आकाशवाणी अम्बिकापुर से वार्ताएं और साक्षात्कार का प्रसारण
▪️ रायपुर दूरदर्शन से कविता पाठ का प्रसारण
,▪️महत्वपूर्ण मंचो से कविता पाठ
▪️प्रलेस अध्यक्ष ,सरगुजा इकाई
▪️संप्रति – होलीक्रॉस वीमेंस कॉलेज, अम्बिकापुर, छत्तीसगढ़ में सहायक प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष( हिंदी)
ईमेल- [email protected]
मो. 7581968951
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1.लड़कियां लौटेंगी एक दिन
उनकी खनकदार हंसी से खिलखिलाता था
समूचा कैम्पस
रुई के गोले से सफेद बादल
उड़ा करते थे
बिना मौसम
वे पानी सी तरल लड़कियां
महामारी में चली गईं अपने गांव
वे गईं हैं खिलाने फूल जंगलों में
कछारों में
बो रही हैं गर्मियों की धान
गा रही हैं चैती
चुन बिन रही हैं
महुआ चार तेंदू इमली
सरई में फूल उमग आये हैं
इनके जुड़ों में उतरने के लिए
पिता के श्रम में हिस्सेदार बनी
सोख रही हैं उनके माथे का पसीना
साध रही हैं एक साथ
कलम और हँसिया
सपने देख रही हैं लड़कियां
ठगी के खिलाफ
चेता रही हैं पूरे जबार को
ढाक के पातों पर
लिखती हैं अर्जियां
बाकायदा!
कि दर्द लड़की को होता है
तो जंगल भी रोता है
वे उसी दिन गईं
जब हमें पढ़ाना था
उन्हें अंतिम अध्याय
हल करने थे कई सवाल
खोलनी थी कुछ गांठे
वे जाकर भी बची रह गई हैं
हमारे पास
उपस्थित होती हैं अक्सर
कॉलेज के नीरव पटल पर
खिड़की के उस पार
बॉलीबॉल कोड के नेट में
टंगी है उनकी सपनीली आंखें
ग्राउंड में कबड्डी की उठापटक में
व्यूह तोड़ पार जाती
ठहरी हैं उसी जगह
उनकी मजबूत कत्थई टांगे
असाइमेन्ट की फाइलों में
उगा गई हैं वे हरे गुलाबी फूल
बची रह गई हैं उस कलम में
जिसे हड़बड़ी में भूल गई हैं डेस्क पर
उसकी नीली स्याही में उनका सपना धड़क रहा है
गेट के किनारे खिली बोगनवेलिया
तक रही है उनका रास्ता
कि सरगुजिहा लाल मिट्टी की कालीन पर
चल कर आएंगी एक दिन लड़कियां
खुल जायेगा ताला
भर जाएगी रिक्तता
चमक उठेंगे काले आखर
जी उठेगा उजाड़
2..बापू के चश्मे के पार की नायिकाएं
कल सड़क पर देखा मैने
सच का करुण चेहरा
स्वच्छता मिशन की खाँटी नायिकाएँ
ठसम ठस्स कचरे से भरे रिक्शे
खीचते चल रही थी जांगर खटाते
क्या यह सबका पाप धोने वाली
पुराणों से उतरी गंगाएँ हैं?
नहीं ये औरतें हैं
इसलिए लोग इन्हें
कचरावाली कहते हैं
मां कहलाने के लिए तो
नदी होना जरूरी है
दीवार पर बना है बापू का चश्मा
वे देख रहे हैं सब
कहते हैं-
मैं ईश्वर के सबसे करीब बैठता हूँ
देखता हूँ कि ईश्वर के काम करने का ढंग
ठीक इनके जैसा है
स्वच्छता का
राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है शहर को
उसमें इनके ही पसीने की चमक है
पर पसीने की चमक से
पेट की भूख
और सम्मान का उजाला नही बढ़ता
इंसान गुजरते जाते हैं किनारे से
पर गौरव पथ के बीच लगे पौधे
करते हैं यशोगान इनका
चमचमाती सड़क
स्वागत करती है बाहें फैला कर
अरे देखो!
चौक की हरी बत्ती भी अब बोल पड़ी
जाओ, जल्द निकलो
मांगो अपना वाजिब हक
कि दुनिया सिर्फ
महंगे रैपरों, ब्रांडेड चीजों के कवर
और बचा हुआ खाना फ़ेंकने वालों की नही है
3.फाइनल ईयर की लड़कियां
मुस्कुराती हैं
खिलखिलाती हैं
स्कूटी के शीशे में
खुद को संवारती
कॉलेज बिल्डिंग के साथ
सेल्फी लेतीं है
फाइनल ईयर की लड़कियां
ग्राउंड स्टाफ से सीखती हैं
जीवन का पाठ
विषमताओं से जूझने की कला
उनके मन के सपने
नीली चिड़िया के साथ
उड़ जाते हैं दूर आसमान में
भूगोल के पन्ने पलटते
कर लेती हैं यात्राएं असंभव की
सेमिनार और असाइंमेंट में उलझती
कविता की लय में
तिनके सी बहती
वर दे, वीणावादिनी वर दे
की तान में
सबसे प्यारा हिंदुस्तान की
लय के साथ
रस विभोर हो जाती
जी लेती है क्षणों को
निबंध और पोस्टर लेखन मे
नारी जीवन का मर्म अंकित करती
ये फाइनल ईयर की लड़कियां
अंतिम साल को जी लेने की
कामना से भरी
विदा के मार्मिक क्षणो में मांगती हैं
बिन बोले आशीष गुरुओं का
वे
खुश रहो ! के मौन शब्द
पढ़ लेती हैं और मुस्कुरा देती हैं
नीले पीले दुपट्टों वाली
गाढ़े सपनो वाली
तीन सालों की पढ़ाई के बाद
जाने कहाँ चली जाती हैं
फाइनल ईयर की लड़कियाँ
4 शाहीन बाग की औरतें
शाहीन बाग की औरतें बिकाऊ नहीं
ये पितृसत्ता के भय का विस्तार हैं
मुक्ति का यह गीत बनने में
सदियां लगीं है
अब जान गईं हैं, जाग गई हैं
जाने कितने शाहीन बाग खिलेंगे अब
ये रास्ते हैं भविष्य का
यह मुखरता
लोकतंत्र की अभिव्यक्तियाँ हैं
इन औरतों ने
आँचल को बना लिया है परचम
और लहरा दिया है पीढ़ियों के हक में
सीखा है यह प्रतिरोध
चूल्हे की मध्यम आंच पर
भात पकाते पकाते
ये बिकाऊ नही हैं
ये जातियां नही हैं
ये साधनारत समूह हैं
इतिहास बनाती ये औरतें
निर्बंध नदी की धार की ध्वनियां हैं
ये मनुष्यता के पक्ष का
जीवित प्रमाण हैं
सीखें इनसे इंसान होनें का मंत्र
ताकि बचा रहे
हमारी नसों का नमक पानी
5. रोपी गयी पौध
लोकोक्तियों मिथकों आख्यानों
और धार्मिक कथाओं के हवाले से
स्त्रियों को
पुरुष सत्ता ने दिये हैं
न जानें कितने ही अघोषित
उजले दीखने वाले बंदी गृह
हर बार घटी हैं वह
कहा गया जब उसे देवी !
वस्तु में बदलती गई बारहा तब
प्रतिरोध में कुनमुनाई
जब कभी उसकी देह की भाषा
जख्मी कर लौटा दी गई
अंतहीन चुप्पियों की खोह में
गुलाम स्त्री की परंपरा की इबारतें
दबी हैं इतिहास के धूसर शिला लेखों पर
वह छद्मवेशी पसार रही है अपने पांव
वर्तमान स्त्री अस्मिता तक
हमसे पार हो वह बढे आगे
हमारी बेटियों तक
इसकी हम किर्च भर
गुंजाइश नही छोड़ेंगे
हम बनाएंगे उन्हें मजबूत
थमाएँगे उनके हाथों संविधान!(स्वविधान)
तोड़ेंगी वे युगों की
बेड़ियां सांकलें
गलीज परम्पराओ के इशारों पर
बेटियां नही नाचेंगी
खूंटे से बंधी गलत निर्णयों की
नही करेंगी जुगाली
वे धरती पर उपज आई खरपतवार नही हैं
वे धरती पर रोपी गई
प्रकृति की जरूरी पौध हैं
कोख हैं
मनुष्य के जीवित इतिहास का