Tuesday, May 14, 2024

मेधा

नई दिल्ली

मोबाइल नंबर 9910203639

ई मेल – [email protected]

परिचय

मेधा

शिक्षा

बाबा साहब भीमराव अंबेडकर बिहार विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में आनर्स

जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली से हिन्दी साहित्य में एम. ए., एम. फिल. और पी. एच. डी. 

भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली से हिन्दी पत्रकारिता में पी.जी. डिप्लोमा

गुरू जम्बेष्वर तकनीकी विश्वविद्यालय, हिसार से जनसंचार में एम. ए. 

भारतीय मनोविज्ञान संस्थान, पांडिचेरी से भारतीय मनोविज्ञान में सर्टिफिकेट कोर्स 

प्राणिक हीलिंग में एडवांस कोर्स 

कार्य अनुभवः दैनिक हिन्दुस्तान, नई दिल्ली में काॅपी एडिटर

सामायिक वार्ता ( मासिक पत्रिका ) की एसोसिएट एडिटर

आउटलुक ( हिन्दी ) ‘ दूसरा पहलू’ नाम से स्तंभ -लेखन 

श्री अरबिन्दो सेंटर फॅार आर्टस एंड कम्युनिकेशन, नई दिल्ली में हिन्दी पत्रकारिता की पाठ्यक्रम निदेशक

दिल्ली के विभिन्न स्कूल के बच्चों के लिए ‘‘ भारतीय साहित्य कार्यशाला ’’ का आयोजन

एन सी ई आर टी के लिए लिखे पटकथा लेखन को राष्ट्रीय पुरस्कार 

सावित्री बाई फुले शिक्षा सम्मान से सम्मानित 

 भक्तिवर्सिटी ( सांस्कृतिक संस्थान )  की संस्थापक एवं निदेशक 

आलोचना की दो पुस्तकें अनामिका प्रकाशन , दिल्ली से प्रकाशित – ‘भक्ति आंदोलन और स्त्री- विमर्श’

तथा ‘आधुनिकता और आधुनिक काव्य- विमर्श’

विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित 

राधाकृष्ण प्रकाशन से प्रथम काव्य-संग्रह ‘‘ राबिया का ख़त ’’ शीघ्र प्रकाश्य

विभिन्न राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में निरन्तर लेखन 

संप्रतिः सत्यवती महाविद्यालय ( सांध्य ), दिल्ली विष्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर 

………………………..

पांच कवितायेँ

प्रतिरोध

मेरे प्रतिरोध के

गर्भ से

जनम रहा है

करुणा और क्षमा का

जुड़वा।

प्रसव की पीड़ा में

मुझसे छूटती जा रही है

मेरी देह

और देह के दरकने से

दरक रहा है

उसमें बसा दंभ।

मन में पल्लवित हो

रहा है.

धरती का हरापन

और मेरी आत्मा के राग

को गुनगुना रहा है

सकल ब्रहमांड।

ऐसे में भी

हे पुरुष!

तुम रह जाओ

उलझ कर

मेरी देह के

भूगोल में ।

अपनी कामनाओं के

कीच को

मेरे ही मन का

पाप बताओ।

तो तुम्हीं कहो.

मैं क्या करूं तुम्हारा?

अपनी उदारता के

समंदर से

ला दूं

क्षमा का कोई सीप मोती?

या आंखों से छलकती

नीरवता से दमकती

अपनी करुणा का

कोई बूंद

सौंप दूं तुम्हें इस उम्मीद में

कि तुम कर सकोगे इस बीज.बूंद से

करुणा की खेती।

और एक दिन

लहलहाएगी

तुम्हारे अंतर में

करुणा की फसल।

और कुछ हो न हो,

यह लहलहाती फसल

तुम्हारी चेतना को

ले जाएगी

देह के भूगोल से पार।

चाँद की मटकी

चाँद की मटकी

माथे पर रख

एक रोज

निकल पडूँगी मैं

आसमान की अनंत

यात्रा पर।

और उस घड़ी

तुम्हारे रोकने से

भी रुक न सकूंगी

कि मेरे भीतर 

मैं ही नहीं

उर्मिला, यशोधरा और रत्ना 

भी रहती हैं।

और इन सब की

अधूरी यात्राएं

पूरी होने को

मचल रहीं हैं

मेरे भीतर। 

यह भी 

जानती हूँ, मैं कि 

तुम्हारे भीतर 

न तो सीता जितना

समर्पण है 

न ही प्रेम ।

सावित्री सा साहस

भी कहां है, तुममें

कि तुम साथ हो 

लो, अनंत की मेरी

इस यात्रा में।

और सच तो यह है कि 

अकेले ही निकलना चाहो

तो, वह भी कहाँ है 

तुम्हारे वश में 

कि  

अब तक तुमने

बनायी नहीं

वह सीढ़ी

जिसे चढ़कर 

आसमां तक पहुंचते हैं।

क्षण

धूप की सुनहरी नदी ने 

ले लिया है

अपनी आगोश में

सबकुछ ही ।

आहर. बाहर की

ठिठुरन को

धूप की नदी ने 

समा लिया है 

अपनी तलहटी में ।

बरगद के पेड़ पर

इत्मीनान की गोद में 

बैठी,

एक गिलहरी

गा रही है, वही गीत,

जिसे  गाया था, उसने

राम के साथ 

लंका पर 

पुल बनाते हुए। 

राम का विरहा. मन

उस गीत में

अब भी 

पुकार रहा है,

अपनी प्रिया को।

पार्क की दीवार पर

बन रही है, छाया 

बचपन से यौवन में

प्रवेश करतेए पेड़ की

मानों पुराना मन 

रच रहा हो

नया छन्द।

पास की सड़क से

गुजर रही हैं,

गाड़ियां । 

गाड़ियों के हाहाकार के बीचय

भीतर …

उतर रही है

गहरी खामोशी । 

खामोशी की धुन में 

बज रहा है,

तुम्हारा ही वह प्रेम

चलो जी लेते  हैं

अभी इस क्षण को।

 

कितनी छोटी है कविता

तेज बारिश में नहाकर

बिल्कुल धुल.पुछ कर

साफ.सुथरा हो

नया.नवेला सा खड़ा है

जामुन का यह विशाल वृक्ष।

उसकी जड़ों के समीप

ठीक उसके नीचे

उसकी छांह तले

थोड़ी सी उंची जमीन पर

जो कि घिरा है, चारों ओर

बरसाती पानी से .

स्थापित है एक मिट्टी का चूल्हा

चूल्हा बचा न सका

खुद को बारिश से

हालांकि वह भी

चिंतित तो था कि

जो आयेंगे लौट

जीतोड़ मेहनत के बाद

शाम को।

कैसे भरेगा वह पेट उनका।

अपनी विवशता से विवश था चूल्हा।

लेकिन

एक नवयुवती कोशिश में है

चूल्हा जलाने की,

वह जला रही है आग

दे रही है, चूल्हे को

अपनी सारी उष्मा

फिर भी बाहर से

भीतर से

गिले चूल्हे में

सुलग नहीं रही आंच।

सुलगने की कोशिश में

वह दे पा रहा है महज

बहुत सारा धुंआ।

धुंअे से करवाई उसकी आंखें

कहां मान रही हैं हार।

वह अपने अस्तित्व की

पूरी ताकत से कर रही है हवा

कि किसी भी मानिंद जल जाए

आज यह चूल्हा।

कि मानों आज जो यह चूल्हा न जला

तो कल से सुबह.सबेरे

आसमान के पूरबी खिड़की से नहीं

निकलेगा सूरज।

बाल्कनी में खड़ी मैं

देख रही यह सारा दृश्य

और सोच रही

कि लिखूं

इस पर एक कविता।

मेरी चिन्ता है

एक अच्छी कविता लिखे जाने की।

और उसकी चिन्ता है

चूल्हा जलाने की

रोटी सेंकने की

पूरे घर को तृप्त करने की।

कितनी कोमल है

उसकी चिंता।

मैं लिख रही हूं कविता

वह सेंक रही है रोटी।

धुंअे में सनी उसकी आंखों के सामने

बौनी पड़ जाती है

मेरी कविता

धुंअे और आग से जूझती

उसकी जिंदगी के सामने

कितनी छोटी है मेरी कविता।

भरोसा

तुम्हारे ढुलमुले

शायद’ पर भी

मैंने कर लिया

ऐतबार।

और इस तरह

पृथ्वी के जूड़ें में

मैंने टांक दिया

विश्वास का

एक गुलाब।

………………………..

error: Content is protected !!