Wednesday, December 4, 2024

यशस्विनी पांडेय
युवा कवयित्री आलोचक एवम फ़िल्म समीक्षक
गोरखपुर विश्विद्यालय से हिंदी में पीएचडी ।कुछ साल एक कॉलेज में अध्यापन।कविताआलोचना की की एक किताब और सिनेमा में स्त्री पर एक पुस्तक।सभी प्रमुख पत्रिकाओं में कविताएं लेख।आजकल इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र से पोस्ट डाक्टरल ।आई सी सी आर फेलो। सम्प्रति बड़ोदरा में।

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यशस्विनी पांडेय की पांच कविताएं

1.कैसे हो सके

कैसे हो सके कि
हो सके यह संसार सुंदर
न द्वेष हो न विराग
न लोभ हो न अप्रेम
सब तरफ सुख हो शांति हो
प्रमुदित हो सबके चेहरे
पर प्रश्न यही है
कि कैसे हो सके यह
तुम उतर आओ धरती पर
खोल दो अपनी केश राशि
झरने दो पराग
बरस उठने को आतुर
मेघ हैं छाए
हो घनघोर बारिश
तुम लकदक अपनी प्रभा में
अवतरित हो उठो
मेरी मानो
यह धरती हो उठेगी नई
और शायद हो सकेगा
यह संसार सुंदर भी
उतर आओ धरती पर
अब विलंब न हो
अब प्रतीक्षा न रहे।

2. बड़ी होती लड़की

लड़की बड़ी हो रही है
बड़ी हो रही हैं चिंताएँ
बड़ा हो रहा है समाज का भय
और लड़की
ज्यों-ज्यों बढ़ती है
अपने में होती जाती है बहुत छोटी
और एक दिन
अनंत में उड़ती आकांक्षाएँ
सपने अनंत उसके
समा जाते हैं देह में उसके
वह हो जाती है देह सिर्फ
देहरी के पार, न सपने, न आकांक्षाएँ
बस मृत्यु है
पल-पल प्रतीक्षा करती!

3. इन सर्दियों में

इन सर्दियों में
कभी सूरज ढक जाएगा
कोहरे की चादर से
कभी कोहरा अँधेरों में समा जाएगा
सब तरफ दिखेगा धुंआ-धुंआ
दिल्ली की सर्दी में होता है यह
अक्सर
इस बार भी होगा
हर बार की तरह
भूख से बेजार असंख्य लोग
भटकेंगे खुले आसमान के नीचे
कोहरे में ढकेगा उनका अस्तित्व
भीड़ में नहीं दिखेगा कोई
सिर्फ जत्था होगा
जो किसी सड़क के किनारों के
सूनसान को आबाद
कर देगा
और हम देखेंगे
गरीब तंग हाल बेसहारा आदमी
कैसे यातना पाता है
इस बेदिल दिल्ली में
और कुछ नहीं होता उनके लिए
सिर्फ खोखले दावों के।

4. शर्मसार देश

आजाद देश में
आदर्शों के बड़े-बड़े फलसफों के बीच
एक लड़की है तार-तार होती
घूरती आँखें
हवस में लिप्त आत्माओं के बीच
भय के बीच जीती लड़की
कौर होती जा रही दरिंदों की
जिन्हें न समाज का भय है
न कानून की परवाह
लड़की की चीख में
गुम हो रही संविधान की धाराएँ
गाँधी का सुराज
और शर्मसार होती जा रही मानवता
कटें कैसे यह रातें काली
कैसे उगे निकले सूरज
शर्म है शर्मसार देश!

5. एक दिन ऐसा होगा

एक दिन ऐसा होगा
जब झर जाएँगे नीम के पत्ते
हमारी सज्जनता की तरह
सूख जाएँगे तालाब
हमारी विनम्रता के जैसे
चलेगी हवा पुरजोर
जैसे चलता है अहंकार
हमारे स्वत्व को दबाकर
उखड़ेंगे झाड़-झंखाड़ पेड़-छूट
न होगा कहीं कुछ
तब भी हम होंगे
तुम्हें पुकारते अहरह
क्योंकि जब तुम हो
नीम पर आएँगी कोंपलें
उगेंगे नए पत्ते
बरसेंगे मेघ
भर उठेगा तालाब
थमेगा हवा का अंधड़
फिर से जागेगी मनुष्यता
होगा शुरू एक बार
नया संगीत
एक दिन ऐसा होगा
जब सब कुछ होगा।

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आधुनिक युग के संदर्भ में प्रसाद की स्त्री-दृष्टि

यशस्विनी पांडेय
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 आधुनिक युग की तमाम समस्याओं और संघर्षों के साथ स्त्री की स्वाधीनता और शोषण मुक्ति की समस्या समाज के केन्द्र और विमर्श में है। स्त्री अधिकारों की मांग एवं उनकी स्वाधीनता पर विचार प्रसाद आजादी से पूर्व ही कर चुके थे, जो उस युग के लिए अत्यंत कठिन था। प्रसाद के साहित्य को देखने पर ये भली-भांति आभास होता है कि उनका पूरा साहित्य ही नारी की खोयी हुई अस्मिता और गरिमा को पुनः प्रतिष्ठित करने का गंभीर प्रयत्न है। आज, इस युग में संवैधानिक तौर पर जिन अधिकारों को सरकार ने स्त्रियों के लिए दिए हैं, प्रसाद उनमें से कुछ अधिकार भारत को आजादी से पूर्व ही दे चुके थे, जो उस युग का असाधारण जोखिम था।
 
प्रसाद की स्त्री-दृष्टि आधुनिक-युग के संदर्भ में बेहद प्रासंगिक है। प्रसाद-युग के साथ-साथ आधुनिक युग में स्त्रियों के लिए राइफल चलाना, वायरलेस आदि का काम देखना, आग बुझाना, घायलों की चिकित्सा और परिचय करना, सैनिकों के लिए आवश्यक सामान व सेवाएँ जुटाना आदि आम बात हो गई है. परंतु प्रसाद के  युग में स्त्रियों को युद्ध में शामिल होना तो क्या घर से बाहर कदम रखना ही कठिन था, जो प्रसाद ने कर दिखाया। वस्तुतः प्रसाद ने गांधीजी के सुधारवादी आंदोलनों में स्त्रियों का वर्चस्व देखा, उन सबने जो छवि तैयार की, उसी से उन्हें अपने नाटकों के स्त्री-चरित्र को गढ़ने में सुविधा प्राप्त हुई। उन्होंने अपने साहित्य में स्त्रियों को स्वतंत्रचेता दिखाया है। उनकी स्त्रियाँ राष्ट्ररक्षा के लिए शत्रुओं से युद्ध करती हैं एवं अवसर आने पर तलवार से वार भी करती है। ‘राज्यश्री’ दुर्ग की रक्षा के लिए मंत्री से तलवार छीनकर देवगुप्त पर निर्भयता से चलाती है, ‘कल्याणी’ पुरुष वेश धारण कर सैन्य संचालन करती है, ‘अलका’ यवन सैनिकों पर धनुष चढ़ाकर तीर मारती है, ‘मालविका’ युद्ध में घायलों की सेवा करती है, ‘ देवसेना’ राष्ट्र के संघर्ष में विषमताओं के समक्ष कर्मण्य नारी के रूप में उपस्थित होती है। 
 
स्त्रियों पर छेडखानी, बलात्कार अथवा यौन उत्पीड़न करने वाले अपराधियों को सजा देने का प्रावधान भारतीय दंड संहिता बनने के 50-60 वर्ष पूर्व प्रसाद कर चुके थे। ऐसे अपराधियों को सजा देने के लिए उनकी स्त्री-पात्र अपने प्रेमियों की सहायता लेती है, जैसे-कार्नेलिया। अथवा कोई उपाय न रहने पर उनकी स्वयं हत्या करती है, जैसे अश्लीलता से पेश आने वाले पर्वतेश्वर की हत्या कल्याणी करती है। भारतीय दंड संहिता जैसे कानून बनने के बाद आज भी कई स्त्रियों को बलात्कार एवं यौन उत्पीड़न का शिकार बनना पड़ता है।
 
अपराधियों द्वारा धन-बल से या बाहुबल से या पीड़ित महिला के परिवार को जान-माल की धमकी से मुकदमा के लिए विवश कर दिया जाता है और इस प्रकार के हथकंडों को अपनाकर बलात्कारी साफ बच जाता है। बलात्कारी पुरुष को समाज भूल जाता है जबकि बलात्कार से पीड़ित महिला मानसिक, शारीरिक और नैतिक वेदना वर्षों तक झेलती है, यहाँ तक कि स्त्रियाँ बलात्कार के बाद स्वयं अपने को अपराधी महसूस करती हैं और आत्महत्या तक का रास्ता चुन लेती हैं। आज भी बलात्कार से पीड़ित स्त्रियाँ प्रसाद की स्त्रियों की भांति प्रतिकार नहीं कर पाती क्योंकि बलात्कृत स्त्री को समाज कलंकित मानता है इसलिए वे अपनी पीड़ा को अंदर ही समाकर रखती हैं। प्रसाद की स्त्रियाँ अपनी आत्मरक्षा के लिए आत्महत्या नहीं करती बल्कि परिस्थितियों से जूझती हैं।
 
    क्लीव पति से मुक्ति एवं पुनर्विवाह कोई आधुनिक अवधारणा नहीं है। औपनिषदिक युग में स्त्रियों के लिए इस तरह का उदार प्रावधान था। प्रसाद ने उसकी खोज की और उसका औचित्य स्थापित किया। ऐसे औचित्य को पितृसत्तात्मक समाज में प्रायः भुला दिया गया है। प्रसाद ने इस अवधारणा के बारे में तीसरे दशक में सोच लिया था जब तलाक एवं पुनर्विवाह को समाज में मान्यता नहीं मिली थी। हिन्दू कोड-बिल तो बड़ी कठिनाई से छठे दशक में हिन्दू-स्त्री को तलाक और पुनर्विवाह का संवैधानिक अधिकार देता है। ‘ध्रुवस्वामिनी’ का महत्व इसीलिए है कि इसमें पुनर्विवाह एवं नारी की जो समस्या खड़ी हुई है उसमें भी आधुनिकता ध्वनित होती है। प्रसाद ‘ध्रुवस्वामिनी’ को रामगुप्त से मुक्ति दिलाकर ‘चन्द्रगुप्त’ से पुनर्विवाह कराते हैं। प्रसाद विवाह के शस्त्रसम्मत मंत्र को व्यर्थ मानते हैं और अंततः पुरोहित द्वारा यह भी घोषित कराते हैं कि पति गौरव से नष्ट और आचरण से पतित हो तो पत्नी उससे संबंध तोड़ भी सकती है। आधुनिक कानून में भी किसी स्त्री को इस आधार पर तलाक नहीं मिल सकता यदि उसका पति हत्यारा, डकैत या बलात्कारी हो, किन्तु ‘ध्रुवस्वामिनी’ इससे आगे जाती है।
 
    प्रसाद ‘ध्रुवस्वामिनी’ जैसे स्त्री-पात्र की वाणी में क्रांति को आमंत्रण दे रहे थे। उनके सामने प्रश्न नारी के समान अधिकार का था, जिसे पुरुष नकारता आया है। नारी की पुकार है कि धर्म के नाम पर उसे पुरुष का पराधीन न बनाकर उसे पुरुष के समान ही अधिकार प्रदान किए जाए। अयोग्य और दुराचारी पति से संबंध-विच्छेद कर उसे पुनर्लग्न का अधिकार प्राप्त हो। विवाह के समय नारी से उसके विवाह की सहमति ली जाए।
 
‘तितली’ उपन्यास में भी प्रसाद का स्त्रीवादी दृष्टिकोण उभरकर सामने आता है। इस उपन्यास में मूर्तिमान नारीत्व, आदर्श भारतीय पत्नीत्व जागृत हुआ है। तितली प्रसाद की वह नारी पात्र है जिसमें स्वाभिमान का तीव्र भाव है। उसके पति मधुबन को सजा हो जाने पर एवं उसके पूर्वजों का शेरकोट बेदखल हो जाने पर तथा बनजरिया पर लगान लग जाने पर, इतनी दुरवस्था में भी वह किसी से सहायता की भीख नहीं माँगती बल्कि वह खुद मेहनत करके लड़कियों का पाठशाला चलाती है और अपने पुत्र को पालती है। अपनी दुरवस्था में अपने ही अवलम्ब पर वह स्वाभिमानपूर्वक जीना चाहती है। अपने अस्तित्व को वह बनाये रखने में समर्थ होती है। उसमें स्वाभिमान इतना है कि वह दूसरों के उपकार को नहीं लेना चाहती वह कहती है-“मुझे पहले ही जब लोगों ने यह समाचार नहीं मिलने दिया कि उनका मुक़दमा चल रहा है, तो अब मैं दूसरों के उपकार का बोझ क्यों लूँ?” अंततः वह अपने पुरुषोचित्त साहस से चौदह बरसों तक बिना किसी के सामने झुके अपने बल पर अपनी सारी गृहस्थी बनाने में सफल होती है। उसके गरिमामयी व्यक्तित्व को देखकर इन्द्रदेव भी सोचता है—“मैं तो समझता हूँ कि उसके जन्म लेने का उद्देश्य सफल हो गया है। तितली वास्तव में महीयसी है, गरिमामयी है।”। तितली प्रसाद की वह नारी पात्र है जिसमें आत्मबल प्रबल है, जो अपनी पति से विरहित होकर भी विचलित नहीं होती बल्कि विषम परिस्थितियों को झेलती हुई समाज में सगर्व मस्तक उठाये अपने लिए सम्मानित स्थान बनाती है जो तत्कालीन समाज में अत्यंत कठिन था परंतु प्रसाद ने इसे कर दिखाया।
 
    उपन्यास ‘इरावती’ की नारी पात्र इरावती एक अज्ञातकुल शीला बालिका है, जिससे महादंड-नायक पुष्यमित्र का पुत्र अग्निमित्र प्रेम करता है। परंतु गुरुजनों के विरोध के कारण एक बार अग्निमित्र उसे छोड़कर चला जाता है तब से इरावती, महाकाल मंदिर की देवदासी का जीवन व्यतीत करती है। कई बार वह कामुक वृहस्पति मित्र की कुदृष्टि का शिकार बनती है। वह अपनी जीवनव्यापी कष्टों को अपने हृदय पर दबाकर रखना चाहती है तथा उसे किसी के सम्मुख प्रकट नहीं करना चाहती और न ही किसी की सहानुभूति का पात्र बनना चाहती है। इरावती का जीवन विडम्बनापूर्ण है। पूरे उपन्यास में वह विभिन्न षड्यंत्र एवं कुचक्र का सामना करते हुए दिखाई देती है।
 
प्रसाद के कहानियों की स्त्री पात्र विभिन्न सामाजिक दायरों से ग्रस्त है परंतु फिर भी वह स्वाभिमानी, त्यागशीला, संघर्षशीला, स्वावलम्बी एवं प्रेम और कर्तव्य का निर्वाह करने वाली है। 
 
 
‘पुरस्कार’ कहानी की मधूलिका में स्वाभिमान का भाव प्रबल है। मधूलिका अपने पितृ पितामहों की भूमि को बेचना नहीं चाहती, इसलिए वह राजा का दिया हुआ मूल्य यंत्र स्वीकार नहीं करती l महाराज मधूलिका को कुछ स्वर्णमुद्राएँ खेत के लिए पुरस्कार स्वरूप देता है परंतु मधूलिका उस पुरस्कार को वापस महाराज पर न्यौछावर कर देती है। वह अपने पितामह की भूमि को बेचना अपराध समझती है इसलिए मूल्य स्वीकार नहीं करती। मधूलिका में स्वाभिमान का भाव इतना प्रबल है कि उस खेत के अतिरिक्त कोई जीविका का साधन न होने पर भी उसका मूल्य नहीं लेती और यह जानते हुए भी कि राजकोप हो सकता है, वह मंत्री की तीखी बात पर निर्भयता से उत्तर देती है। मधूलिका पिता के मृत्यु पश्चात स्वयं कृषि कार्य करके इस भाव का परिचय देती है। यही नहीं, जब उसका खेत राजा द्वारा ले लिया जाता तब भी वह उनसे दान न लेकर स्वयं दूसरे खेतों में काम करके अपना जीवन निर्वाह करती है।
 
    ‘ममता’ कहानी में ममता एक ब्राह्मण-विधवा है उसका वृद्ध पिता पुत्री की स्नेह में विह्वल है। पिता स्वर्ण में उसके मन को उलझाकर उसकी वेदना को धीरे-धीर विस्मृत करना चाहता है, इसलिए वह शेरशाह से उत्कोच स्वीकार कर लेता है, किन्तु स्वाभिमानिनी ममता को वह ‘अर्थ’ नहीं ‘अनर्थ’ प्रतीत होता है। वह उस धन को भविष्य के लिए एवं विपन्नता के लिए भी नहीं संचय करना चाहती। वह कहती है—“क्या भीख न मिलेगी? क्या कोई हिन्दू भूपृष्ठ पर न बचा रह जाएगा, जो ब्राह्मण को दो मुट्ठी अन्न दे सके।” यह उसके त्याग एवं सात्विकता का परिचय है।
 
    ‘सालवती’ कहानी की सालवती अत्यंत दरिद्र है परंतु दरिद्रता उसके स्वाभिमान को मिटा नहीं सकती। जब वैशाली का उपराजा अभयकुमार उसे उपहार स्वरूप अपने कंठ की मुक्ता की एकावली देता है, तो वह उसके दान को ग्रहण करने में अस्वीकार करता है। प्रसाद की नारी उनकी कहानियों में अपनी स्वावलम्बी रूप का भी परिचय देती है।
 
‘आँधी’ कहानी की कंजर युवती साथिया मजदूरी करके जीने में ही सुख का अनुभव करती है। वह मुचकुंद के फूल इकट्ठे करके बेचती है, सेमर की रुई बीतनी है एवं लकड़ी के गट्ठे बटोर कर बेचती है, वह भी बिना किसी सहायक के।
 
    प्रेम और कर्तव्य का द्वन्द प्रसाद ने ‘पुरस्कार’ कहानी की मधुलिका में तथा ‘आकाशदीप’ कहानी की चम्पा में दिखाया है। मधूलिका की मानसिक द्वंद्व को प्रेम नामक एक ही मूल भाव के दो रूपों के बीच उन्होंने दिखाया है। वे दो रूप है- अरुण से व्यक्तिगत प्रेम और पितृ-पितामहों की भूमि से प्रेम। अंततः प्रबल व्यक्तिगत प्रेम पर स्वदेश प्रेम की विजय होती है और अंत में मधूलिका अपने प्रेमी के प्रति नारी सुलभ उत्तरदायित्व का भी निर्वाह करती है।
 
‘आकाशदीप’ की चम्पा भी मानसिक द्वन्द्व को झेलती है। वह कभी जलदस्यु बुद्धगुप्त से प्रेम करती है तो कभी उसे अपने पिता का हत्यारा समझकर घृणा भी करती है। अंततः वह बुद्धगुप्त को स्वदेश लौटने की प्रेरणा देती है और स्वयं द्वीप के भोले-भाले प्राणियों की सेवा करने का संकल्प लेती है एवं मातृ-पितृ भक्ति के याद में उस दीप-स्तंभ में आलोक जलाती है।
 
    प्रसाद के साहित्य में नारी-पात्र जहाँ एक ओर भावुक, त्यागशीला, कर्तव्यपरायण, सेवा-परायण, कोमल, उदार इत्यादि है वहीं दूसरी ओर उनमें आत्मसम्मान का भाव प्रबल है। ‘जनमेजय का नागयज्ञ’ की सरमा एक स्वाभिमानी स्त्री है। मनसा द्वारा किए गए जातिगत अपमान को वह सह नहीं पाती इसलिए नागकुल के अपमानपूर्ण राजसिंहासन को वह ठुकरा देती है। परंतु, इतने पर भी वह नागों का अनिष्ट नहीं चाहती, यह उसके उदारता का ही परिचय है। वस्तुतः प्रसाद के स्त्री पात्रों में गंभीरता, भाव संपन्नता, साहस आदि भाव तो है ही साथ ही साथ देश, समाज एवं परिवार के प्रति दायित्व एवं कर्तव्य का भी बोध है। ये स्त्रियाँ नेतृत्वकारिणी भी हैं और राजनीति में पूर्णरूपेण सक्रिय भी हैं। वे उदात्त आदर्शों को स्थापित करने वाली हैं तथा पुरुषों की प्रेरक शक्ति भी हैं जो प्रसाद के युग की एवं उस युग की नारी की विशेष आवश्यकता थी। 
 
स्त्रैण समझे जाने वाले गुणों- करुणा, संवेदना, मानवीयता व इंसानियत को प्रसाद इतिहास, समाज और राजनीति का समन्वय कर अपनी बात रखते हैं l वरना जिस तरह से राजनीति हमेशा पुरुषों का क्षेत्र रहा है, वहाँ भाषा से लेकर सोच-व्यवहार तक में स्त्रीत्व के लिए कोई खास जगह नही । सेंटर स्टेज तो एकदम नहीं है। राजनीति में मर्दाना ही नहीं स्त्रैण गुणों की भी सख़्त ज़रूरत है। एक समाज को स्त्रियों से यह करुणा, कंपैशन, कमिटमेंट व संवेदना ग्रहण करनी ही चाहिए। दुखी को गले लगा लेना, हमदर्दी जताना, सांत्वना देना, हिंसा से दूर रहना, सड़कों पर लट्ठ लेकर अपने ही देशवासियों को खदेड़ने को ख़राब कहना, गाली-गलौज से बचना, हिंसा से डरना, युद्ध का विरोध करना अगर कमज़ोर होने के गुण हैं, तो आज के समय और संदर्भ में इन्ही की जरुरत है । राजनीति को जल्द से जल्द इन्हें अपनाने की ज़रूरत है। वरना, अपने ही देश में किसी के घर में गुंडे बेख़ौफ़ होकर पीटेंगे एक परिवार को, देश तमाशा देखेगा और दुनिया नफ़रत और युद्धों की आग में भस्म हो जाएगी l ताकत और हिम्मत की जरुरत हिंसात्मक कदम के लिए नहीं होती बल्कि संवेदनापूर्ण, शांतिपूर्ण व संतुलित दृष्टि से युक्त नेता बनने के लिए होती है l 
 
  प्रसाद के साहित्य में ऐसे स्त्री-पात्र भी है जिन्होंने अपनी करुणा, माया, ममता, सेवा,त्याग, कर्तव्य एवं बलिदान से अपने चरित्र को स्पृहणीय बना दिया है जैसे श्रद्धा, मल्लिका,तितली, देवसेना, देवकी, वासवी इत्यादि जिनकी क्षमामयी मूर्ति के सामने पुरुष भी नतमस्तकहोते हैं और उसकी छाया में विश्रान्ति पाते हैं। यद्यपि प्रसाद स्त्रियों से इन्हीं कोमल स्वभाव की अपेक्षा रखते हैं जैसे कि ‘अजातशत्रु’ में प्रसाद उनकी कोमलता का समर्थन करते हुए कहते हैं- “स्त्रियों के संगठन में, उनके शारीरिक और प्राकृतिक विकास में ही, एक परिवर्तन है” जो स्पष्ट बतलाता है कि वे शासन कर सकती हैं, किन्तु अपने हदय पर। वे अधिकार जमा सकती हैं उन मनुष्यों पर- जिन्होंने समस्त विश्व पर अधिकार किया है। परंतु यदि पुरुष उनके कोमल वृत्तियों यथा-त्याग, बलिदान, करुणा इत्यादि से अनुचित लाभ उठाता है तो उनसे हर संभव विद्रोह करने को भी कामना प्रसाद करते हैं। वस्तुतः स्त्रियाँ करुणा, कोमलता, सहिष्णुता आदि कोमल वृत्तियों द्वारा ही समस्त अधिकार की अधिकारिणी हैं।
 
अतः यह कहा जा सकता है कि प्रसाद जिस युग में अपनी साहित्य की रचना कर रहे थे, उस समय नारी की स्थिति शोचनीय थी। पुरुषों ने उन्हें समस्त अधिकारों से वंचित रखा था। प्रसाद ने उन लोगों को ललकारा और उनके सामने नारी के विराट व्यक्तित्व को इस प्रकार रखा-
 
“तुम भूल गए पुरुषत्व मोह में कुछ सत्ता है नारी की।
 
समरसता है संबंध बनी अधिकार और अधिकारी की।
 
    प्रसाद के समक्ष जहां नारी कोमल, भावुक, उदार, त्यागशीला आदि समस्त  भारतीय आदर्श गुणों से परिपूर्ण है उसी प्रकार वह अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए स्वाभिमानी, आत्मनिर्भरशील, स्वावलंबी, संघर्षशील, आपने अधिकारों के प्रति जागरूक, स्वाधीन चिंतनशील है, जो आधुनिक भारतीय नारी का ही परिचायक है। वस्तुतः प्रसाद की नारीवादी दृष्टिकोण आधुनिक है। अतः कहा जा सकता है कि उनकी स्त्री-दृष्टि आज के युग में भी प्रासंगिक है।
 
स्त्री पात्रों से प्रसाद की स्त्री अलग खड़ी होती है। निराला की भांति प्रसाद की स्त्रियां समाज द्वारा शोषित, पुरुषों द्वारा प्रताड़ित, लांछित, अधिकारों से वंचित होते हुए भी आत्म-निर्भरशील, स्वाभिमानी, स्वावलम्बी है। परंतु प्रसाद की स्त्रियाँ जिन बुलंद आवाज तथा हौसलों के साथ अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ती हैं, उतना निराला के स्त्री-पात्र नहीं। यद्यपि राज्यश्री एवं कल्याणी की भांति निराला की प्रभावती तलवार हाथ पर लिए जंग के मैदान पर उतरती है परंतु अपनी आत्मरक्षा के लिए जिस तरह प्रसाद की कल्याणी पर्वतेश्वर की हत्या करती है उस तरह निराला की अलका नहीं। वह तो केवल अत्याचारी मुरलीधर पर सिर्फ पिस्तोल ही दाग पाती है। प्रसाद की स्त्रियां पुरुषों के बराबर अधिकारों की मांग करती हैं। ‘अजातशत्रु’ की शक्तिमती पति द्वारा तिरस्कृत एवं अधिकारों से वंचित होती है। वह अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिए पति की हत्या करने के लिए भी उदृत होती है। पुरुषों द्वारा उपेक्षित होने पर निराला की स्त्री पात्र ‘कनक’, ‘कमला’, ‘ज्योतिमयी’ आदि में बदले की आग नहीं धधकती परंतु प्रसाद की कल्याणी, मनसा, शक्तिमती, मगंधी आदि स्त्रियाँ हर संभव उनसे संघर्ष करती हैं, चाहे जिस तरह से भी हो। प्रसाद ने तो उसे अधिकारों के लिए लड़ते हुए प्रत्यक्ष दिखाया है। 
 
प्रसाद ने प्रेम को स्त्रियों का जन्म सिद्ध अधिकार माना है। उनकी दृष्टि में वह विवाह भी कैसा विवाह है जहाँ पति-पत्नी में आपसी स्नेह न हो। इन भावनाओं के अभाव में विवाह-विच्छेद ही श्रेयस्कर है। नाटक ‘ध्रुवस्वामिनी’ इसका ज्वलंत उदाहरण है। ध्रुवस्वामिनी भी अत्याचारी पति रामगुप्त द्वारा प्रताड़ित होने पर ही उससे अपना संबंध-विच्छेद करती है एवं राज्य हित के लिए चंद्रगुप्त से पुनर्लग्न करती है। प्रसाद भी मानते हैं कि यदि विवाह के बाद भी नारी पुरुषों द्वारा अपमानित एवं पददलित हो तो यह उनसे संबंध-विच्छेद कर पुनर्विवाह भी कर सकती है। अतः ध्रुवस्वामिनी भी समग्र पुरुष जाति को नारी वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में चेतावनी देती है कि युगों-युगों से अधिकार प्रवंचित नारी अब भविष्य में पुरुषों द्वारा प्रताड़ित न होगी और स्वरक्षा हेतु स्वयं आत्मबल जागृत करेगी। अतः जिस तरह प्रसाद के स्त्री-पात्र विद्रोह करने में समर्थ है उस तरह से अन्य छायावादी कवियों के स्त्री-पात्र नहीं, वह एक दायरे में बंद है। परंतु प्रसाद के स्त्री-पात्रों ने समस्त बंधनों को तोड़कर समाज को चुनौती दी है।

 

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सिनेमाई स्त्री का विकास और इतिहास

यशस्विनी पांडेय
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भारतीय सिनेमा की शुरुवात 1896 में फ्रांस के लुइस और अगस्त लुमिरै ने छह मूक फिल्मों का प्रदर्शन 7 जुलाई को बम्बई के वाटसन होटल में किया था।पर ये फिल्में अपनी भाषा में नहीं थीं अर्थात सामान्य जनता की भाषा से दूर थीं |.भारतीय सिनेमा का विकार्स ढुंडीराज गोविन्द फाल्के जो दादा साहब फाल्के के नाम से अधिक जाने जाते हैं उन्हें भारत की प्रथम स्वदेश निर्मित फीचर फिल्म राजा हरिश्चन्द्र बनाने का श्रेय जाता है।भारत में बनने वाली पहली फीचर फिल्म दादा साहब फाल्के ने बनाई जो भारतेंदु हरिशचंद्र के नाटक ‘हरिशचंद्र’ पर आधारित थी।दादासाहब फालके ने अपने लंदन प्रवास के दौरान ईसा मसीह के जीवन पर आधारित एक चलचित्र देखा। उस फिल्म को देख कर दादा साहेब फालके के मन में पौराणिक कथाओं पर आधारित चलचित्रों के निर्माण करने की प्रबल इच्छा जागृत हुई। स्वदेश आकर उन्होंने राजा हरिश्चंद्र बनाई जो कि भारत की पहली लंबी फिल्म थी और 03 मई 1913 में प्रदर्शित हुई। ध्वनिरहित होने के बावजूद भी उस चलचित्र ने लोगों का भरपूर मनोरंजन किया और दर्शकों ने उसकी खूब प्रशंसा की।  14 मार्च 1931 को इस चमत्कार में एक सम्मोहन शामिल हो गया और वह सम्मोहन था ध्वनि का। अब पर्दे पर दिखाई देने वाले चित्र बोलने लगे। 1931 में पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ से आज तक सर्वाधिक फिल्में हिंदी भाषा में ही बनाई गईं हैं।
 
फिल्म मे राजा हरिशचंद्र का किरदार दत्तात्रय दामोदर, पुत्र रोहित का किरदार दादा फाल्के के पुत्र भालचंद्र फाल्के जबकि रानी तारामती का किरदार रेस्टोरेंट मे बावर्ची के रूप मे काम करने वाले व्यक्ति अन्ना सालुंके निभाया था। ये है १९३१ में भारत में सिनेमा के क्षेत्र में स्त्री की स्थिति जब कोई स्त्री सिनेमा जैसे कलात्मक मनोरंजनात्मक उपदेशात्मक विधा में आने को और अपनी कला और प्रतिभा दिखाने को तैयार नही थी |
 
फिल्म राजा हरिश्चंद्र की अपार सफलता के बाद दादा साहब फाल्के ने वर्ष 1913 में मोहिनी भस्मासुर का निर्माण किया। इसी फिल्म के जरिये कमला गोखले और उनकी मां दुर्गा गोखले जैसी अभिनेत्रियों को भारतीय फिल्म जगत की पहली महिला अभिनेत्री बनने का गौरव प्राप्त हुआ था। इसी फिल्म में पहला डांस नंबर भी फिल्माया गया था। कमला गोखले पर फिल्माए इस गीत को दादा फाल्के ने नृत्य निर्देशित किया था।दुर्गाबाई पार्वती की भूमिका में हमारे सामने आयीं और कमलाबाई मोहिनी की भूमिका में |दुर्गाबाई का फिल्मों में आना कोई पारिवारिक स्वीकृति या उनके अभिनय की इक्षा न होते हुए एक विवशता थी अर्थोपार्जन की विवशता मात्र थी ,अपने पति से अलगाव की स्थिति में उनके पास तीन ही विकल्प थे पहला ,किसी के घर में काम करना ,वेश्यावृति का काम ,तीसरा फिल्मों में जाकर अभिनय करना |सामाजिक दृस्टि से ये तीनो काम ही समान रूप से  निंदनीय थे |
 
ये सिनेमा में काम करने वाली स्त्रियों के प्रति समाज का नजरिया था |पर दुर्गाबाई ने अपने और अपनी पुत्री के जीवनयापन के लिए ये रास्ता चुना और एक नई क्रांति का जन्म दिया |कोई भी क्रांति विरोधों में ही पनपती है और फूलती फलती है |
 
आज सिनेमा में नायिका की ये स्थिति है की नायिका बनने की होड़ लगी है |अच्छे से अच्छे संभ्रांत परिवार से लड़कियां आ रही हैं अपने अभिनय का लोहा मनवाने के लिए ,कोई घर से विरोध करके चल पड़ा किसी ने घर ही छोड़ दिया ,कोई प्रशिक्षण लेकर आ रहा ,तो कोई विरासत में अभिनय लेकर आ रहा |
 
प्रतियोगिता बढ़ गयी है अभिनय से लेकर ,नृत्य ,शारीरिक बनावट ,फिटनेस ,भाषा ,से लेकर हर क्षेत्र में अलग चाहिए ,अपार प्रतिभा चाहिए |
 
ये हुआ नायिका का हिंदी सिनेमा में आगमन और कारन और उसके प्रभाव ,इसी समय वर्ष 1926 मे प्रर्दशित फिल्म बुलबुले परिस्तान पहली फिल्म थी जिसका निर्देशन महिला ने किया था।बेगम फातिमा सुल्ताना इस फिल्म की निर्देशक थीं। फिल्म में जुबैदा, सुल्ताना और पुतली ने मुख्य भूमिका निभाई थीं।
 
सन 1931  कें कुछ समय उपरांत ही भारतीय समाज में प्याप्त नारी जीवन की विडंबनाओं को लेकर कर्इ फिल्में बनार्इ गर्इ जिनमें ‘दुनिया ना मानें’ (1937), ‘अछूत कन्या’ (1936) ‘आदमी’-(1939), ‘देवदास’-(1935), ‘इंदिरा एम.ए.’ (1934) बाल योगिनी’ (1936) प्रमुख रूप से सम्मिलित है ।
 
इस तरह की फिल्मों में नारी जीवन से संबंधित जिन समस्याओं को उजागर किया गया उनमें ‘बाल विवाह’, ‘अनमेल विवाह’, ‘पर्दा प्रथा’, ‘अशिक्षा’ आदि थें |दरअसल उस समय के समाज में यही समस्याएं हावी थीं ,देश आज़ाद नहीं हुआ था ,तमाम प्रकार की सामाजिक सुधार वाली संस्थाएं अपना काम कर रही थीं ,देश में हर जगह आंदोलन की स्थिति थी ,सामाजिक कुरीतियों को उखाड़ फेंकने की हर जगह कवायद चल रही थी |ऐसे में इन्ही समस्याओं को केंद्रित कर सिनेमा को बनाना स्वाभाविक था |
 
सामाजिक परिवेश से जुडे रिश्तों को महिलाओं के किरदारों में बखूबी उतरा जाने लगा। 1935 में ‘औरत’, ‘हंटरवाली’, ‘डाकू की लडकी’, ‘मिस 1933’, 1936 में ‘अछूत कन्या’, 1950 में ‘जोगन’, ‘बडी बहन’, ‘छोटी भाभी’, ‘हमारी बेटी’, ‘मधुबाला’, ‘नई भाभी’, ‘सती- नर्मदा’, समाज के रुढीवादी होने पर भी कुछ नायिकाओं ने फिल्म की कहानी के अनुरूप किरदारों के शिद्दत से निभाने का साहस दिखाया। नायिका देविका रानी ने 1933 मे बनी फिल्म “कर्मा “मे ऐसा बोल्ड द्रश्य अभिनीत किया जो उस समय के समाज की सोच के अनुरूप अच्छा नहीं कहा जा सकता था। पर ऐसी हिम्मत उस समय नायिका देविका रानी के दिखाई जिस के परिणामस्वरूप उन्हें तारीफ और बुराई दोनों मिली।
 
ये तो हर क्षेत्र में होता है जब समाज के नियमों से अलग कुछ होता है ,कोई नया परिवर्तन नई क्रांति ,तो उसका विरोध होता ही है ,बल्कि इन विरोधों का कभी अंत नहीं होता| ये विरोध अभी भी जारी हैं जब सिनेमा में स्त्री की समस्याओं को नए ढंग से समाज के सामने लाया जाता है उन पहलुओं को समझने की कोशिश की जाती है जो सब जानते तो हैं पर उन पर कोई बात नहीं करना चाहता ,उसे चर्चा का मुद्दा बनाने में अहम को और नैतिकता को ठेस लगती है |
 
 महिलाओं की अद्भुद जिजीविषा और लगन को प्रत्यक्ष रूप से साकार करने के लिये 1950 के दशक में के।ए। अब्बास, बिमल रॉय और गुरुदत्त जैसी निर्देशको ने खूब काम किया।इन सशक्त और सामाजिक सरोकारों में रुचि रखने वाले निर्देशको ने अपनी फिल्मों में मजबूत महिलाओं को चित्रित किया ।महबूब खान की ‘मदर इंडियाँ’ ऐसी ही कालजयी फिल्म थी जिसमें एक महिला के संघर्षशील जीवन को बारीकी से दिखाया है कि वह विपरीत हालातों में भी हिम्मत नहीं हारती और तमाम सादगी के साथ अपने बच्चों की परवरिश करती है। इसी समय में आयी थी ‘लाजवंती’, ‘अराधना’ जिसमें महिलाओं के व्यकितगत, पारिवारिक जीवन के बदलते रूपों को दिखाया गया था।
 
1964 में बिमल राय की कालजयी फिल्म “बंदनी” आयी, अपरिष्कृत महिला के रूप में नूतन ने भावपूर्ण अभिनय किया फिर 1960 में आयी बेहद मकबूल और एतेहासिक फिल्म ” मुगल-ए-आज़म” जिसमें अपने प्यार के लिये अपने आप को बलिदान कर देने वाली मज़बूत इच्छाशक्ति वाली नायिका का किरदार मधुबाला ने निभाया और इसी वर्ष “दिल अपना और प्रीत परायी’ में प्रेम की नैसर्गिक भावना को आत्मसात करती युवती की गाथा को किशोर साहू ने बडे परदे पर उतारा। 1962 में बनी फिल्म “मै चुप रहूंगी” में पितृसत्तात्मक समाज में नारी की दशा का सटीक चित्रण किया गया।
 
महिलाओं का सुधारवादी रूप फिल्मों में दिखाया जाने लगा । 1963 में आई ‘मुझे जीने दो’ जिसमे वहीदा रहमान ने और 1981 में “ज्योति” फिल्म में हेमामालिनी ने महिलाओं का सशक्त अभिनय को जीवंत किया।
 
1940 से 1960 को सिनेमा का स्वर्णिम युग माना जाता है। 1970 में “कटी पतंग” में परम्परागत भारतीय विधवा के जीवन की त्रासदी को दर्शाया, पंजाब के हरियाली इलाके के अमर प्रेम युगल “हीर राँझा” पर चेतन आनंद ने 1970 में फिल्म बनायी , और हीर का अमर पात्र पर्दे पर सांस लेने लगा ।इसी दौर में बेमिसाल नायिका हेमामालिनी को लेकर सुबोध-मुखर्जी ने ‘अभिनेत्री’ फिल्म बनाई। सामाजिक परिस्तिथियों की तरह ही फिल्मो मे भी महिलाएं न्याय और समानता जैसे विषयों पर पीछे ही रही, बिमल राय की “परिणीता” में पारम्परिक रिवाज़ों की बलि चढी, पर कमोबेश जायदातर फिल्मो मे नारी का सुधारवादी रूप ही दिखाया गया। “मुझे जीने दो” में वहीदा रहमान और “ज्योति” में हेमामालिनी इस रूप के सशक्त उदहारण है।
 
1960 में महिलाओं का लुहावना रूप दिखाया गया। फिर अगले दौर में दशकों को देखने को मिली सीधी- साधी 1971 में हृषिकेश मुख़र्जी ‘गुड्डी’, 1972 में ‘परिचय’ और ‘कोशिश’।अगले ही साल यानी 1973 से निर्देशक प्रकाश महरा की फिल्म ‘जंजीर’ में एक नायक का एंगी यंग मैंन के रूप में उदय हुआ और तभी से फिल्मों में नायिकायें महज एक आभूषण के तरह प्रस्तुत की जानी लगी। उसी समय उदय हुआ हिंदी सिनेमा की गैलमरस नायिकाओं का जिनमें परवीन बाबी, जीनत आमान और पूनम ढिल्लों , पद्मिनी कोल्हापुरे सबसे आगे थी। 1980 के दशक में बॉलीवुड में किरण बेदी के बुलंद व्यक्तितव से प्रभावित होकर फिल्मकारों का ध्यान महिलाओं को पुलिस के रूप में दर्शाने की तरफ गया। उसी समय स्त्री का प्रभावी किरदार चित्रपट पर नज़र आया। गुलज़ार ने 1975 में “आँधी” फिल्म तब की राजनैतिक पटल के शीर्ष पर पहुँची प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी से प्रभावित हो कर फिल्म बनाई । इन सभी फिल्मों में महिला पात्र अपने बेहतरीन रूप में थे।
 
जैसे-जैसे समाज में महिलाओं की शक्ति को आँका गया वैसे-वैसे फिल्मो में महि़लाओं की समस्यांए रखी जाने लगी। ‘फूल बने अँगारें’ में रेखा, ‘अंधा कानून’ में हेमा मालिनी और ज़ख्मी औरत’ में डिंपल कपाड़िया। इस समय मे महिलाओं के प्रति यौन हिंसा के दुरुपयोग की घटनाओं की संख्या बढ़ने लगी थी। 70 और 80 के दशक से, नायिकाओं को केवल महिलाओं के स्थापित रूप में नहीं दिखाया गया है बल्की अब वह पूरे परिवार की जिम्मेवारी अपने कंधों पर उठा सकती है, ये महिलाएं अपने काम के माध्यम से कई सामाजिक लड़ाइयां लडती है।
 
70 के इस दौर मे जब महिलायें अपने आप को खोज रही थी तो सही मायने में उस दौर को संस्कारी दौर कहा जा सकता है जब तक आधुनिकरण की विषैली आँधी पश्चिम की ओर से भारत में नहीं पहुँची थी। माँ की रूप मे कामिनी कौशल, निरूपा रॉय, दुर्गा खोटे खूब सराही गयी, जिस तरह का ढोंगी नज़रीय आम जीवन मे भी समाज का है की एक तरफ तो वो नारी को देवी माँ बना कर पूजते है और दुसरी तरफ अपने ही घर मे नारी को अपमानित करते है उसी तरह माँ को सबसे ऊँचा दीखाया गया और हीरोईन को बलात्कार का शिकार तक होते देखाया जाता है यह विडम्बना भी फिल्मो मे हमें देखने को मिलती है, तभी फिल्मो को समाज का आईना भी कहा जाता है ।
 
बी आर चोपड़ा हिंदी फिल्मों में सामाजिक सुधार और सामाजिक चेतना को आधुनिक संदर्भों में व्याख्यायित करने वाले सफलतम निर्माता निर्देशक हुए हैं। विधवा विवाह को सामाजिक मान्यता दिलाने के लिए उन्होंने ‘एक ही रास्ता’ (1958) बनाई। यह एक त्रिकोणात्मक कहानी है। सुनील दत्त और मीनाकुमारी पति-पत्नी हैं जब एक हादसे में सुनील दत्त की मृत्यु हो जाती है तो अशोक कुमार एक मित्र के रूप में मीना कुमारी की देखभाल करने लगते हैं। लेकिन यह स्थिति एक विधवा स्त्री को बदचलन घोषित करने के लिए समाज में पर्याप्त थी। बी आर चोपड़ा ने साहस के साथ फिल्म में विधवा स्त्री का विवाह (अशोक कुमार के साथ) करवाकर सुधार की एक नई परंपरा को स्थापित किया। इसके बाद समाज में विधवा स्त्रियॉं के लिए एक नए जीवन को स्वीकार करने का साहस पैदा होने लगा। बी आर चोपड़ा एक निर्माता और निर्देशक के रूप में हमेशा से ही भारतीय स्त्री जीवन की विसंगतियों के प्रति संवेदनशील रहे हैं और इसीलिए उनकी फिल्में व्या व्यावसायिक होने के साथ समस्यामूलक भी बन पड़ी हैं।
 
सन् 1959 में ही अविवाहित मातृत्व की समस्या से जूझने वाली स्त्रियों के जीवन के बिखराव और उसकी परिणति को दर्शाने वाली सशक्त फिल्म ‘धूल का फूल’ बी आर चोपड़ा के ही निर्देशन में आई। अविवाहित मातृत्व के परिणामस्वरूप जन्म लेनी वाली संतान अवैध घोषित की जाती है और उसका जीवन नारकीय हो जाता है। यह एक बहुत ही संवेदनशील विषय है जिसे फिल्म द्वारा समाज के सम्मुख लाने का साहस बी आर चोपड़ा ने किया है। ये फिल्में समाज को ऐसी विषम स्थितियों से बचने के लिए आगाह करती हैं और उन स्थितियों के पर्यवसान को बेबाकी से प्रस्तुत कर स्त्रियॉं के पक्ष में समाज को खड़े होने का साहस प्रदान करती हैं। बी आर चोपड़ा अपनी एक और फिल्म ‘इंसाफ का तराजू'(1959) बलात्कारित पीड़िता को न्याय दिलाते हैं। बलात्कारित स्त्री पीड़िता के रूप में समाज के सम्मुख आने से आज भी डरती है इस विषय पर बहुत कम फिल्में बनी हैं इसलिए इसे एक नई साहसपूर्ण प्रस्तुति के रूप में स्वीकार किया गया। हिंदी फिल्में प्रारम्भ से मूलत: स्त्री प्रधान ही रहीं हैं। हिंदी फ़िल्मकारों ने भारतीय स्त्री के सभी रूपों को फिल्मों में प्रस्तुत किया है। घरेलू स्त्री, कामकाजी स्त्री, किसान स्त्री, विवाहित और अविवाहित स्त्री आदि। जुझारू स्त्री, संघर्षशील स्त्री और अन्याय – अत्याचार से लड़ने वाली स्त्री आदि रूप हिंदी फिल्मों में प्रमुख रूप से आते रहे हैं। राजकपूर द्वारा निर्मित ‘प्रेमरोग’ (1982) में आभिजात्य परिवार की विधवा युवती ‘मनोरमा'(पद्मिनी कोल्हापुरी) का विवाह सामान्य वर्ग के युवक ‘देवधर’ (ऋषिकपूर) से करवाकर वर्ग वैषम्य को मिटाने की पहल की है की गई है। इस फिल्म में एक ओर वर्ग-संघर्ष है तो दूसरी ओर आभिजात्य परिवारों में प्रच्छन्न रूप से प्रचलित स्त्री शोषण का घिनौना रूप भी अनावृत्त हुआ है। ये फिल्में उपदेशात्मक और संदेशात्मक फिल्में हैं। इसी श्रेणी में आर के फिल्म्स के बैनर तले बनी फिल्म ‘प्रेमग्रन्थ’ भी आती है जो कि बलात्कारित स्त्री के उत्पीड़न और तद्जनित परिणामों को दर्शाती है। इस फिल्म के माध्यम से ऐसी लांछित स्त्रियों को समाज में स्वीकार करने की पहल की गयी है।
 
उसी समय में बॉलीवुड की मुख्यधारा में 1980 में ‘आशा’, ‘माँग भरो सजना’, ‘थोडी सी बेबफाई’, ‘ज्योति बने ज्वाला’ बनी, फिल्मकार बी आर चोपडा ने उस समय जिस विषय को चुना वह बेहद बोल्ड था, फिल्म थी “इंसाफ का तराजू” किस तरह बलातकार की शिकार महिला अपनी लडाई अकेली लडती है इसे लोगों ने पहली बार बारे परदे पर देखा, इसके बाद “सौ दिन सास के” और रेखा अभिनीत फिल्म “खूबसूरत” जैसी फ़िल्मी आई, 1982 में राजकपूर ने विधवा विवाह जैसे महतवपूर्ण समाजिक मुद्दे पर ‘प्रेम रोग” बनाई1990 तक आते-आते समाज में कई राजनैतिक और आर्थिक परिवर्तन हुये जिसकी छाया फिल्मों में भी साफ दिखाई देने लगी। मुक्त बाज़ार ने देश में पशचिमी चीज़ों के लिये दरवाज़े खोल दिये गये। फलस्वरूप स्त्री को एक ब्रांड के रूप मे प्रस्तुत किया जाने लगा ।
 
कल्पना लाज़मी ने 1993 मे “रुदाली” बनाई, बाद मे तनुजा चन्द्र, रीता कागती, फरहा खान, अनुषा रिज़वी, मेघना गुलज़ार आदि इस दिशा मे आगे आई। 
 
हिंदी फिल्मों में महिलाओं की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। भारतीय समाज के रुढिवादीरूख के बावजूद जिन फिल्मों में नारी शक्ति का अदभुत देखने को मिला वे फिल्में थी, देवदास,‘बंदिनी’, ‘साहब-बीवी और गुलाम’, ‘अर्थ’, ‘अंकुर’, ‘भूमिका’, ‘मंडी’,’स्पर्श’,’आँधी’, ‘पाकिज़ा’, ‘उमराव जान’, ‘गुड्डी’, मिली’, ‘जीवन धारा’, ‘आखिर क्यों’, ‘मासूम’, ‘जुबैदा’, ‘मम्मों’, ‘परिणता’, ‘लज्जा’, ‘चकदे इंडिया’ आदि हिंदी फिल्मों में महिलाओं की भूमिकायें उल्लेखनीय मानी जाती रहेंगी। कई प्रतिभाशाली फिल्म निर्माताओं ने आग्रहपूर्वक और सम्मानजनक यथार्थवादी बन कर अपनी फिल्मो में महिलाओं को सही और मजबूत पक्ष चित्रित करने की कोशिश की है, इस शैली मे सत्यजीत रे, मृणाल सेन, महबूब खान, ऋषिकेश मुखर्जी, महेश भट्ट, अमोल पालेकर आदि का नाम होंसले के साथ लिया जा सकता है।
 
हिंदी फिल्में हर युग में बदलते परिस्थितियों के साथ भारतीय समाज के हर रूप और रंग को किसी न किसी रूप में प्रस्तुत करने में सफल हुई हैं। आज का दौर फिल्मों का ही दौर है। फिल्में ही मुख्य मनोरंजन और ज्ञान-विज्ञान को संवृद्ध करने काकारगर साधन है। फिल्म प्रस्तुतीकरण की शैली में बदलाव अवश्य दिखाई देता है किन्तु इसके केंद्र में व्यक्ति और समाज के अंतर्संबंध ही रहे हैं। निश्चित रूप से फिल्में समाज को एक नई सोच दे सकती हैं।
 
भारतीय सिनेमा तीन मई 2013 को अपने सौ साल पूरे कर चुका है। इन सौ सालों में उसने कई यात्राएँ की हैं, कई पड़ावों को पार किया है। समाज में जितने आंदोलन, परिवर्तन हुए सभी को हिंदी सिनेमा ने अपने कथ्य का आधार बनाया फिर स्त्री जो कि परिवार,राष्ट्र की धुरी है उसको कैसे अनदेखा कर दिया जाता। सिनेमा ने अपनी ज़िम्मदारी पूरी तरह निभाई है। उसने कभी भी स्त्री और उसके सरोकारों से अपना पल्ला नहीं झाड़ा अपितु वह स्त्री के साथ सजग रहकर खड़ा रहा है।
 
 
पूर्ण कहीं कुछ नहीं होता ,जो है वो गति में है ,प्रवाहः में है |हिंदी सिनेमा, नायिकाओं के विभिन्न पक्ष ,समस्याओं .प्रतिभाओं ,को लेकर अपनी गति में आगे बढ़ रहा है और बढ़ेगा |ये प्रवाह कहाँ तक जाएगा कुछ पता नहीं ,प्रवाह की दिशा तय नहीं ,कुछ निश्चित लक्ष्य नहीं ,बस जो जैसा है ,जैसा चल रहा है ,जो परिवर्तन आ रहे हैं उन्हें दिखाना सिनेमा का काम है |समाज चाहे तो सीखे ,सोचे ,समझे न चाहे तो सिनेमा को केवल मनोरंजन का साधन समझे |पर सच तो यही है की एक निर्देशक ,या किसी भी प्रकार के लेखक का अपना एक लक्ष्य होता ही है ,एक सोच होती ही है ,अब उनकी सोच उनका नजरिया हमारे नजरिये से कितना मेल खाता है इस पर निर्भर करता है हमारे साहित्य या सिनेमा को पसंद किया जाना |

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