रंजीता सिंह “.फलक “
साहित्यिक मासिक पत्रिका ‘कविकुंभ’ की संपादक।
सम्पादक -खबरी डॉट कॉम |
चर्चित काव्य-संग्रह – ‘प्रेम में पड़े रहना’, साक्षात्कार संकलन – ‘शब्दशः कविकुंभ’ तथा ,”कविता की प्रार्थनासभा “,कविता का धागा,प्रारंभ ,एवं कई अन्य किताबों “में कविताओं पर चर्चा एवं कविता ,गज़लों , गीतों का देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन , स्पेशल न्यूज, परिचर्या, रिपोर्ताज, कविता ,गीत-ग़जलों का ,दूरदर्शन,आकाशवाणी एवं अन्य मंचों पर प्रसारण |
कई राष्ट्रीय स्तर के सम्मानों से सम्मानित |
स्त्री-पक्षधर संगठन ‘ बीइंग वुमन’ की संस्थापक अध्यक्ष। पत्रकार लेखिका एवं सामाजिक कार्यकर्ता।
अस्थायी निवास- रंजीता सिंह
देहरादून
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कविताएं
बुद्धत्व
अपने एकांत को
उत्सव बना लेना
क्या यही बुद्धत्व नहीं?
अपनी आकुलता को
परम संतोष बना लेना
क्या यही बुद्धत्व नहीं?
मिलन बिछोह से परे
एकात्म हो लेना
क्या यही बुद्धत्व नहीं?
दुःख तुम्हें सिर्फ़
दिगम्बर करता है
तुम क्यों डरते हो..
अपनी इस अलौकिक नग्नता से,
क्या तुम्हारी पीड़ाएँ
वैदिक ऋचाओं सी
उच्चारित नहीं होतीं?
फिर क्यों क्लान्त हो?
जलकर राख हुए स्वप्न
क्या भभूत सी
शांति नहीं देते?
संबंध मात्र अरण्य है
और एकांत अंतिम पाथेय
जो तुम्हें बुद्धत्व देता है।
दरअस्ल
आसक्ति का परम ही
हमें अनासक्त करता है।
तृप्ति -अतृप्ति ,मोह -विराग
घृणा -प्रेम ,सुख -दुख
के मध्य
निर्विकार हो लेना हीं
बुद्धत्व है |
अपने वक्त की तल्खियों पर उदास होना
कांपती सी प्राथनाओं में उसने मांगी
थोड़ी -सी उदासी
थोड़ी- सा सब्र
और ढ़ेर सारा साहस ,
अपने अन्दर की आग को
बचाये रखने के लिए
ज़रूरी है
अपने वक्त की तल्खियों पर
उदास होना ,
उनलोगों के लिए
उदास होना
जो बरसों से खुश नहीं हो पाये |
उनके लिए उदास होना
ज़िन्होंने
हमारी ज़रूरतों की लड़ाई में
खो दी अपने जीवन की
सारी खुशियां .
ज़िन्होंने गुजार दिए
बीहड़ों में जीवन के जाने कितने वसंत |
ज़िन्होंने नहीं देखे
अपने दुधमुहें बच्चे के
चेहरे ,
नहीं सुनी उनकी किलकारियां ,
वे बस सुनते रहे
हमारी चीखें ,
हमारा आर्तनाद
और हमारा विलाप ,
उन्होंने नहीं थामी
अपने स्कूल जाते बच्चे की उंगलियां
उन्होंने थामे
हमारी शिकायतों के
पुलिन्दे
हमारी अर्जियां ..
किसी शाम घर में
चाय की गर्म चुस्की के साथ
वे नहीं पूछ पाए
अपनों का हाल -चाल
वे बस पूछते रहे
सचिवालय ,दफतर ,थानों में
हमारी रपट के जवाब
कभी चांदनी ,अमावस या
किसी भी पूरी रात
वे नहीं थाम सके
अपनी प्रिया के प्रेम का
ज्वार
उन्होंने थामे रखी
हमारी मशालें
हमारे नारे
और हमारी बुलंद आवाज |
वे ऋतुओं के बदलने पर भी
नहीं बदले ,
टिके रहे
अडिग संथाल के पठार
या हिमालय के पहाड़ों की तरह
हर ऋतु में उन्होंने सुने
एक हीं राग
एक हीं नाद
वे सुनते रहे
सभ्यता के शोक – गीत |
उबलता रहा उनका लहू
फैलते रहे वे
चाँद और सूरज की किरणों की तरह
और पसरते रहे
हमारे द्गध दिलों पर
अंधेरे दिनों
और सुलगती रातों पर
और भूला दिए गए
अपने हीं वक्त की गैर जरूरी
कविता की तरह
वे सिमट गए
घर चौपाल के किस्सों तक
नहीं लगे
उनके नाम के शिलालेख
नहीं पुकारा गया उन्हें
उनके बाद
बिसार दिया गया
उन्हें और उनकी सोच को
किसी नाजायज बच्चे की तरह
बन्द कर लिए हमने
स्मृतियों के द्वार |
जरूरी है
थोड़ी सी उदासी
कि खोल सके
बन्द स्मृतियों के द्वार ,
जरूरी है थोड़ी सी उदासी
कि बचाई जा सके
अपने अन्दर की आग |
ज़रूरी है थोड़ा सा सब्र
हमारे आस -पास घटित होती
हर गलत बात पर
जताई गई
असहमति ,प्रतिरोध
और भरपूर लड़ी गई लड़ाई के बावजूद
हारे -थके और चुक से जाने का दंश
बर्दाश्त करने के लिए |
और बहुत जरूरी है
ढ़ेर सारा साहस
तब
जब हम हों नजरबन्द
य़ा हमें रखा गया हो
युद्धबन्दी की तरह
आकाओं के रहम पर
बहुत जरूरी है
थोड़ा सा साहस
कि कर सकें
जयघोष
फाड़ सके अपना गला
और चिल्ला सकें
इतने जोर से
कि फटने लगे धरती का सीना
और तड़क उठें
हमारे दुश्मनों के माथे की नसें
कि कोई बवंडर
कोई सुनामी तहस -नहस कर दे
उनका सारा प्रभुत्व ..
बहुत जरूरी है
ढ़ेर सारा साहस
तब
जबकि हम जानते हैं
सामने है आग का दरिया
और हमारा अगला कदम
हमें धूँ -धूँ कर जला देगा
फिर भी उस
आग की छाती पर
पैर रखकर
समन्दर सा उतर जाने का
साहस बहुत जरूरी है |
जरूरी है
बर्बर और विभत्स समय में
फूँका जाए शंखनाद
गाए जाये मानवता के गीत
और लड़ी जाए
समानता और नैतिकता की लड़ाई
तभी बचे रह सकते हैं
हम सब
और हमारे सपने
हम सब के बचे रहने के लिए
बहुत जरूरी है
थोड़ी सी उदासी
थोड़ा सा सब्र और
ढ़ेर सारा साहस |
#प्रेम में पड़े रहना #
से एक पसंदीदा कविता ..
सुनो प्रिये
सुनो प्रिये
जब मैं काकुलें खोले
आधे वृत्त सी
झूल जाऊँ,
तुम्हारे आलिंगन में,
तो उसी दम
तुम
मेरी कमर पर
बांध देना
सदी के
सबसे खूबसूरत
गीतों की कमरघनी
और देखना
बहुत धीरे से
सरक आयेगा
चाँद,
मेरी हथेली पर
और फिर
हजारों ख्वाहिशें
फूलों सी खिल उठेंगी,
सुनो प्रिय
किसी दूधिया चाँदनी रात में
मेरे चेहरे से
जुल्फों को
हटाते हुए,
तुम फिसल आना
पीत पराग सी
नरमी लिए
और मेरे गले के तिल पे
धर देना
कोई
दहकता बोसा
और फिर देखना
किसी चन्दन वन का
धू-धू कर जलना
सुनो प्रिये
मेरे अंदर उतरती है
कोई भरपूर नदी
जो दूर ऊँचे ख्वाहिशों के टीलों से
आ गिरती है किसी जलप्रपात सी
सुनो प्रिये
प्रेम में पड़ी औरत
हो जाना चाहती है
नदी से झील
और टिकी रहना चाहती है
प्रेमी के सीने पर
सदियों
सदियों
मुँह छिपाए
सुनना चाहती है
अपना ही देहगीत
सुनो प्रिये
अपनी ही तयशुदा
बंदिशों के बावजूद
संभावनाओं की आखिरी हद तक
एक-दूसरे को
इतनी शिद्दत से चाहना
अपनी ही दूरियों में
एक दूसरे को पल पल महसूस करना
और फिर तवील रात के अंधेरों को
मुस्करा कर सहते हुए
रख लेना
अपनी आँखों पर
एक वर्जित प्यार
सुनो प्रिये
यही वो प्रेम है
जिसमें पड़ी औरत
हो जाती है
खुश्बू सी लापता।
सुनो प्रिये
जब दुनिया के सारे मौसम
अपनी गति से बदलते हैं
प्रेम तब भी
बना रहता है
जस का तस
सुनो प्रिये
प्रेम कभी नहीं बदलता
टिका रहता है
अपनी जगह
एक ही लय
एक ही गति
एक ही ध्रुव पर
सुनो प्रिये
प्रेम का
न बदलना ही
उसका
सबसे बड़ा
सौंदर्य है
सुनो प्रिये
आकर ठहरो
कभी इस एकरंग मौसम में
और देखो
इसी एक रंग में खिल उठे हैं
दुनिया के सारे
रंग।
बिसराई गईं बहनें और भुलाई गई बेटियाँ नहीं बिसार पातीं मायके की देहरी। हालांकि जानती हैं इस गोधन में नहीं गाए जाएँगे उनके नाम से भैया के गीत फिर भी अपने आँगन में कूटती हैं गोधन, गाती हैं गीत अशीषती हैं बाप-भाई, जिला-जवार को और देती हैं लंबी उम्र की दुआएँ बिसराई गईं बहनें और भुलाई गई बेटियाँ हर साल लगन के मौसम में जोहती हैं न्योते का संदेश जो वर्षों से नहीं आए उनके दरवाज़े फिर भी मायके की किसी पुरानी सखी से चुपचाप बतिया कर जान लेती हैं किस भाई-भतीजे का होना है तिलक-छेंका किस बहन-भतीजी की होनी है सगाई, गाँव-मोहल्ले की कौन-सी नई बहू सबसे सुंदर है और कौन सी बिटिया किस गाँव ब्याही गई है? बिसराई गईं बहनें और भुलाई गई बेटियाँ कभी-कभी भरे बाजार में ठिठकती हैं, देखती हैं बार-बार मुड़कर मुस्कुराना चाहती हैं पर एक उदास खामोशी लिए चुपचाप घर की ओर चल देती हैं, जब दूर का कोई भाई-भतीजा मिलकर भी फेर लेता है आंखें, बिसराई गई बहनें और भुलाई गई बेटियाँ अपने बच्चों को खूब सुनाना चाहती हैं नाना-नानी, मामा-मौसी के किस्से पर फिर संभल कर बदल देती हैं बात और सुनाने लगतीं हैं परियों और दैत्यों की कहानियां।
बिसराई गईं बहनें
और
भुलाई गई बेटियाँ
नहीं बिसार पातीं
मायके की देहरी।
हालांकि जानती हैं
इस गोधन में नहीं गाए जाएँगे
उनके नाम से भैया के गीत
फिर भी
अपने आँगन में
कूटती हैं गोधन,
गाती हैं गीत
अशीषती हैं बाप-भाई,
जिला-जवार को
और देती हैं
लंबी उम्र की दुआएँ
बिसराई गईं बहनें
और भुलाई गई बेटियाँ
हर साल लगन के मौसम में
जोहती हैं
न्योते का संदेश
जो वर्षों से नहीं आए उनके दरवाज़े
फिर भी
मायके की किसी पुरानी सखी से
चुपचाप बतिया कर
जान लेती हैं
किस भाई-भतीजे का
होना है
तिलक-छेंका
किस बहन-भतीजी की
होनी है सगाई,
गाँव-मोहल्ले की
कौन-सी नई बहू सबसे सुंदर है
और कौन सी बिटिया
किस गाँव ब्याही गई है?
बिसराई गईं बहनें
और भुलाई गई बेटियाँ
कभी-कभी
भरे बाजार में ठिठकती हैं,
देखती हैं बार-बार
मुड़कर
मुस्कुराना चाहती हैं
पर
एक उदास खामोशी लिए
चुपचाप
घर की ओर चल देती हैं,
जब दूर का कोई भाई-भतीजा
मिलकर भी फेर लेता है
आंखें,
बिसराई गई बहनें
और भुलाई गई बेटियाँ
अपने बच्चों को
खूब सुनाना चाहती हैं
नाना-नानी, मामा-मौसी के किस्से
पर
फिर संभल कर बदल देती हैं
बात
और सुनाने लगतीं हैं
परियों और दैत्यों की
कहानियां।
सुनो प्रिये
लिखा जा रहा है
बहुत कुछ
पर
मैं लिखती रहूँगी सिर्फ
प्रेम
क्योंकि,
मुझे पता है
दुनिया के सारे विमर्श
प्रेम से ही उपजते हैं
और
एक खूबसूरत दुनिया को
बचाये रखने के लिए
बहुत ज़रूरी है
हमारा
प्रेम में पड़े रहना।
………………….
किताबें
………………….