Tuesday, May 14, 2024

रजनी मोरवाल का जन्म 01 अगस्त को राजस्थान में हुआ । बचपन से ही उनकी साहित्य में गहरी रूचि रही है, उन्हें अपने पिता से साहित्य के संस्कार प्राप्त हुए और पिछले बीस वर्षों से लिखती रही हैं । रजनी मोरवाल का साहित्य-जगत में आज एक महत्वपूर्ण मुकाम है ।उनका पहला कहानी-संग्रह ‘कुछ तो बाक़ी है…’2016 में प्रकाशित हुआ, इस कहानी-संग्रह के साथ ही उनकी कहानियों ने ऊँचाइयाँ पाना शुरू किया । उनकी कहानियों को विशेष पहचान मिली जब उन्हें ‘कुछ तो बाक़ी है…’ के लिए हिन्दी साहित्य अकादमी, गुजरात द्वारा पुरस्कृत किया गया ।

हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर के बाद रजनी मोरवाल ने शिक्षिका का पेशा चुना । उन्होंने गुजरात राज्य शाला पाठ्यपुस्तक मंडल 2015 में हिंदी कक्षा-5 की पाठ्य-पुस्तक के लेखन एवं संपादन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । वे राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर की सरस्वती सभा एवं संचालिका समिति की सदस्या भी रही हैं ।  

रजनी मोरवाल स्वभाव से जितनी सरल हैं उतनी ही उनकी भाषा सहज, सुगम व पारदर्शी है । विषयों की विविधता के साथ उनकी कहानियों के पात्र अपना परिदृश्य भी पाठकों के समक्ष जीवंत करते चलते हैं ।

रजनी मोरवाल ने अभी तक कुल चार कहानी-संग्रह ( कुछ तो बाक़ी है…, नमकसार, हवाओं से आगे एवं चौकन्नी स्त्रियाँ ) साहित्य-जगत को दिये हैं । उनके द्वितीय कहानी-संग्रह ‘नमकसार’ की मुख्य कहानी ‘नमकसार’ काफी चर्चित रही । ‘नमकसार’ कहानी का नाट्य रूपांतरण भी दर्शकों के द्वारा खासा सराहा गया । कहानी “नमकसार” को एक और उपलब्धि प्राप्त हुई जब वर्ष 2019 में इसे चैन्नई के महाविध्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया । उनकी कहानियों की तरह ही उनके पहले उपन्यास गली हसनपुरा को भी पाठकों का स्नेह प्राप्त हुआ\

रजनी मोरवाल जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल (जेएलएफ़) 2017 के सत्र नारी चेतना– नए स्वर (The women voices of Rajasthan)” में अपनी उपस्थिति दर्ज कर चुकी हैं । उनकी कृतियों पर एम.फ़िल., पी. एचडी. एवं शोध-कार्य  निरंतर किए जा रहे हैं ।

रजनी मोरवाल का नया और चौथा कहानी-संग्रह “चौकन्नी स्त्रियाँ” भी अन्य कृतियों की तरह पाठकों का पसंदीदा कहानी-संग्रह बनेगा । 

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कहानिया

मरीन ड्राइव की खाली बोतल

आज लहरें कुछ ज्यादा ही उछालें मार रही हैं, शिखा को घबराहट-सी होने लगी । एक तो सामने गहरा पानी और उस पर मरीन ड्राइव के किनारे ‘क्वीनस नेकलस’ कहलाने वाली सीमेंट की गोल-घुमावदार ऊँचाई वाली इस जगह पर बैठना । दोनों ही बातें उसे एक साथ मिलकर भयग्रसित करने के लिए काफी थी, न जाने क्यों शिखा को बचपन से ही पानी और ऊँचाई से खौंफ़ रहता है । डरते-डरते वह पास बैठे पति की तरफ देखती है परन्तु वह लहरों की आवाजाही पर टकटकी लगाए अपने ही ख़्यालों में खोए हुए थे ।

 

यह जगह प्रशांत की पसंदीदा जगहों में से एक है । वह अचानक शिखा की तरफ देखकर मुस्कुरा उठे फिर सरककर उसके और समीप आ गए, एक अनबोला-सा ढाढस शिखा की देह से छूने लगा वह आश्वस्त हो गई । प्रशांत अनकहे भी उसकी हर बात समझ जाते हैं । पेशे से सिविल इंजीनियर प्रशांत बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत हैं, वह बड़े ही ठहराव वाले व्यक्ति हैं । अचानक पूछ बैठते हैं “कितनी ऊँचाई होगी इन लहरों की, शिखा ?” फिर शिखा के उत्तर देने से पहले स्वयं ही जवाब देते हैं “करीब छः फीट तो होगी,  है न शिखा ?” शिखा हाँ-ना के असमंजस में ही खोई रह जाती है । उसे यह हिसाब-किताब की गणित कहाँ समझ आती है । वह तो जीवनभर रिश्तों की भाषा ही समझ पाई है, हमेशा दिल से जीती रही तमाम रिश्ते ।  बी.ए. की अंतिम वर्ष में थी कि एक दिन किसी समारोह में प्रशांत की माँ को वह भा गई, शिखा के पिता भी प्रशांत और उसके ओहदे से प्रभावित हुए बिना न रह पाए थे फिर एक शुभ मुहुर्त में उसका विवाह हो गया था, विवाह के तुरंत बाद शिखा विदा होकर यहाँ मुंबई आ गई थी ।

 

घर-परिवार के तमाम काम, सास-ससुर की सेवा, बच्चे और उनकी पढ़ाई में समय कहाँ गुज़र गया पता ही नहीं चला । अपनी उम्र में से कितने बरस घट गए इसका लेखा-जोखा भी वह नहीं कर पाई । मगर हाँ, अब शरीर की थकन उसे अहसास करा जाती है कि परिवार व रिश्तों की जिम्मेदारी निभाते-निभाते वह अपने-आप से कितनी दूर निकल आई है। विवाह पूर्व हर पत्र-पत्रिकाओं में उसकी कहानियाँ छपती थीं परन्तु सब कुछ जैसे वहीं थम कर रह गया था । बस एक उम्र थी जो बढ़ती गई समय के साथ-साथ । उसका लेखन तो बरसों पहले ही घर की अलमारी में कैद होकर रह गया था ।

 

लहरों के शोर से शिखा की तंद्रा टूटी, सामने नज़र गई तो देखा एक प्लास्टिक की खाली बोतल लहरों के साथ बहती हुई चली आ रही थी ।  रात के धुँधलके में दूर से देखने पर लग रहा था जैसे कोई इंसान है जो सिर उठा-उठा कर साँस लेता है मगर पानी के थपेड़े उसे फिर दबोच लेते हैं । कुछ दूर बहने के बाद बोतल शिखा की नजरों से ओझल हो गई । शिखा बेचैन हो उठी, उसकी आँखें लहरों पर कुछ खोजने लगीं, उसकी साँसें तेज-तेज चलने लगी । तभी वह बोतल किनारे पर जमे पत्थरों के बीच आकर अटक गई । शिखा ने एक राहत की साँस ली जैसे किसी का जीवन बच गया हो । अब वे लहरें अकेली ही वापस लौट रही थीं ।

शिखा मन ही मन बुदबुदा उठी । मनुष्य की प्रकृति भी इस गहरे समुद्र की मानिंद होनी चाहिए । जो कुछ भी उसका अपना नहीं है या यूँ कह लो कि “फॉरन पार्टिकल” है उसे यह अपने भीतर कभी समाहित नहीं होने देता । किसी न किसी युग में, सदी में या किसी न किसी दिन जरूर बाहर लाकर तट पर पटक देता है । तन साफ तो मन साफ ।

आजकल शिखा और प्रशांत रात के खाने के बाद यहीं ‘मरीन ड्राइव’ पर आ बैठते हैं दोनों घंटों तक यहीं बैठे-बैठे जिंदगी के बीते लम्हों के सिरे पिरोया करते हैं, फिर भूतकाल से शुरु हुआ कोई किस्सा इस तट पर आकर दोनों के मध्य चुपचाप पसर जाता है और वे दोनों अपने जीवन के साथ-साथ गुजारे उन तेईस वर्षों को महसूस करते रह जाते हैं । आज वातावरण में नमी कुछ ज्यादा ही तैर रही है । हवा के झोंके के साथ मोगरे की ख़ुशबू शिखा के नथुनों में भर जाती, वह जोर-जोर से साँस लेने लगती है जैसे उस ख़ुशबू को अपने रोम-रोम में बसा लेना चाहती हो । उसे मोगरे की ख़ुशबू बहुत पसंद है । प्रशांत आँखों-आँखों ही में शिखा से कुछ पूछते हैं । शिखा कहती है, अब ? इस उम्र में ? प्रशांत चुहल करते हैं “क्यों शादी के बाद तो मैं हर शाम ऑफिस से लौटते समय वेणी लाया करता था और तुम भी तो कितने चाव से उसे जूड़े में सजाया करती थी, हाँ, “मगर वो तब की बात थी, अब क्या अच्छी लगूँगी ? शिखा संकोच से बोली ।” प्रशांत उस वेणी बेचने वाली बच्ची को बुलाकर एक वेणी खरीद लेते हैं । वेणी बेचने वाली बच्ची की सहेली कहती है बाबूजी ! “एक वेणी मुझसे भी खरीद लो न, मेरी भी अब तक बोनी  नहीं हुई है” प्रशांत उससे भी एक वेणी खरीद लेते हैं । दोनों बच्चियाँ ख़ुश होकर हँसती हुई चली जाती हैं । प्रशांत आत्मसंतोष से दोनों बच्चियों को जाते हुए देखते हैं । प्रशांत की यही गणित शिखा के दिल के आगे जीत जाती है । 

 

शिखा के जूड़े के स्थान पर अब एक पॉनीटेल लहराया करती है । प्रशांत उसी में धँसी पिन पर वेणी लगा देते हैं और शिखा का चेहरा अपनी तरफ घुमा कर कहते हैं, “देखो मेरी तरफ देखो, कुछ भी तो नहीं बदला” वह शरमा जाती है ठीक उसी तरह जैसे पहली बार प्रशांत के देखने पर शरमाई थी । सच, कुछ भी तो नहीं बदला । हाँ, उसके सिर पर कुछ सफ़ेद बाल जरुर चमकने लगे हैं और अब एक वेणी उसके इन्हीं काले-सफेद बालों में लहरा रही थी । दूसरी वेणी प्रशांत अपने हाथ में लिए बार-बार उसे सूँघ रहे थें जैसे वे भी शादी के बाद वाले उन ख़ुशनुमा पलों को इस वेणी की ख़ुशबू में खोज रहे हों ।

तभी चाय बेचने वाले बच्चे की गुहार पर प्रशांत दो प्याले चाय खरीद लेते हैं । एक कप शिखा को पकड़ाते हुए पूछते हैं “अच्छा शिखा, जिन लोगों के बच्चे नहीं होते वे ज़िन्दगी कैसे जीते होंगे ?” शिखा सोच में डूब गई उससे अचानक जवाब देते नहीं बना मगर प्रत्युत्तर में वह सिर्फ़ यही कह पाई कि “उनकी प्राथमिकता कुछ और होती होगी, वे लोग सिर्फ़ अपने लिए ही जीते होंगे या कभी दुःख व कभी तनाव से घिरे रहते होंगे अथवा आत्मकेन्द्रित हो जाते होंगे ।” शिखा ने रटा-रटाया जवाब दे दिया जो कुछ दिनों पहले उसने निसंतान दंपत्तियों के बारे में छपे किसी लेख में पढ़ा था ।

प्रशांत ने एक लंबी साँस अपने अंदर समेटी और उतनी ही गहराई से उसे छोड़ा उन्होंने तो जैसे शिखा का उत्तर सुना भी न था । शिखा समझ गई की बच्चों से दूरी प्रशांत को अंदर ही अंदर खाए जा रही है । दोनो बेटे अपने – अपने परिवारों में व्यस्त हैं । रोज़ फ़ोन करके मम्मी-पापा का हाल-चाल पूछते रहते हैं । समय पर दवाई लेने की हिदायत देना कभी नहीं भूलते । जन्मदिन, शादी की सालगिरह आदि पर दोनों बच्चे विडियो कानफ्रेसिंग के जरिए परिवार सहित बात करते हैं । बच्चों को माँ-बाप की चिन्ता तो रहती ही होगी परन्तु नौकरी और तरक्की की दौड़ उन्हें दूर विदेशों तक खींचकर ले गई थी ।

 

शिखा को बच्चों का बचपन याद आ गया । कितनी मेहनत की है उन दोनों पति-पत्नी ने बच्चों के भविष्य को इस मुकाम तक लाने में, आज जब पीछे मुड़कर ज़िन्दगी को देखते हैं तो एक असीम-सा सुख अनुभव करते हैं । यही तो चाहा था दोनों ने जीवन से । घर-परिवार, बच्चे और प्यार कितना कुछ मिला है इस जीवन में, मगर फिर भी एक खालीपन है जो घेरे रहता है इन दिनों । शिखा पति की तरफ देखती है । प्रशांत के चेहरे पर कितनी निर्मलता है, मगर वह न जाने किस सोच में गुम है । तमाम उम्र प्रशांत हर संभव प्रयत्न करते रहे कि शिखा को तनिक भी कष्ट न हो । बिना किसी शर्त उस पर प्रीति की वर्षा करते रहे । शिखा की आँखें फिर से उस प्लास्टिक की खाली बोतल पर जा लगी, जो  अब भी तट पर जमें पत्थरों में अटकी पड़ी थी ।

शिखा के अंतर मन में छिपी बरसों पुरानी लेखिका आज एक बार फिर शब्दों को आकार देने लगी । वह सोच के समंदर में डूबने लगी …आख़िरकार बच्चे भी तो मानव शरीर में “फ़ॉरेन पार्टिकल” की तरह होते हैं । लाख कोशिशें करो फिर भी न तो शरीर, न ही गर्भ उन्हें हमेशा के लिए अपने भीतर सहेज कर रख सकता है, फिर कैसा मोह ? यह दुःख और यह खालीपन क्यों ? अनायास ही उसके हाथ प्रशांत की कलाई में पहनी हुई वेणी को सहलाने लगे जैसे वह भी फूलों से आती ख़ुशबू को प्रशांत के साथ-साथ ठीक उसी तरह महसूस कर रही थी जैसे वह तब करती थी जब नई नवेली थी ।

 

वे दोनों इस वक़्त सामने फैले अथाह समुद्र की मानिंद प्रतीत हो रहे थे, यह समुद्र जो कुछ भी अपने भीतर नहीं समेटता….जो कुछ भी उसका अपना नहीं है, उसे तट पर लाकर जमा देता है । वे दोनों हाथ पकड़कर खड़े हुए और टहलते हुए घर की ओर चल पड़े । रात गहराने लगी थी । मरीन ड्राइव की लहरें अब पहले की तरह उछालें नहीं मार रही थीं । न जाने क्यों शिखा को अब इस गहरे पानी से भय के स्थान पर स्नेह होने लगा ।  वह प्रशांत का हाथ थामे ग़ज़ल की पंक्ति गुनगुना उठी । “तू नहीं तो ज़िन्दगी में और क्या रह जाएगा, दूर तक तन्हाईयों का सिलसिला रह जाएगा ।”

 

प्रशांत समझ गए अब शिखा घर जाकर अलमारी में से अपनी पुरानी डायरियाँ निकालेगी जिनके पृष्ठ एक बार फिर नई-नई कहानियों से लहलहा उठेंगे । वह स्वयं भी तो गुनगुनाती हुई इस नई शिखा के साथ अपनी आने वाली ज़िन्दगी में खो जाना चाहते थे । मरीन-ड्राइव की लहरों में अचानक ही कहीं से बहकर आई एक प्लास्टिक की खाली बोतल प्रशांत व शिखा को ज़िन्दगी जीना सीखा गई जो अब सिर्फ़ और सिर्फ़ उनकी अपनी है ।

 

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किताबें

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