नाम- रश्मि रविजा
शिक्षा – एम.ए. (राजनीति शास्त्र )
लेखन की मुख्य विधाएं – उपन्यास,कहानी, संस्मरण,यात्रा-वृत्तांत कविता, समसामयिक आलेख।
प्रथम उपन्यास ‘काँच के शामियाने ‘ 2015 में प्रकाशित।
कहानी संग्रह ‘बन्द दरवाजों का शहर’ 2018 में प्रकाशित।
“स्टिल वेटिंग फ़ॉर यू ” उपन्यास 2022 में प्रकाशित।
“ऑरेंज बार पिघलती रही” कथा संग्रह का समपादन ।
‘काँच के शामियाने’ उपन्यास को महाराष्ट्र साहित्य अकादमी का प्रथम पुरस्कार प्राप्त ।
“स्टिल वेटिंग फ़ॉर यू ” उपन्यास रीडर्स चॉइस अवार्ड से सम्मानित।
विभिन्न राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं एवं वेब-माध्यमों में कहानियाँ,संस्मरण एवं आलेख प्रकाशित।
आकाशवाणी मुम्बई से कहानियों और वार्त्ताओं का नियमित प्रसारण । विविध भारती, गोल्ड एफ.एम. एवं बिग एफ.एम. से कहानियाँ प्रसारित।
दो ब्लॉग हैं, ” मन का पाखी” एवं “अपनी उनकी सबकी बातें “
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कहानी
दुःख सबके मश्तरक पर हौसले ज़ुदा
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मौसम बदल रहा था, ठंढ के दिन शुरू होने वाले थे. हलकी सी खुनक थी हवा में। मालती हाथों में चाय का कप लिए बालकनी में खड़ी थी। सूरज डूबने वाला था। आकाश सिंदूरी रंग से नहाया हुआ था। आकाश में अपने घोसलों की तरफ लौटती चिड़ियों की चहचाहट और नीचे मैदान में खेल रहे बच्चों का शोर मिलकर एक हो रहे थे। बहुत ही ख़ूबसूरत दृश्य था . मालती को ऐसे दृश्य बहुत ही पसंद थे और वह रोज शाम को नियम से चाय का कप लेकर बालकनी में आ खड़ी होती ।
थोड़ी देर में हल्का हल्का अँधेरा घिरने लगा। बच्चों की माएं आवाजें , लगाने लगीं बच्चे घर की तरफ चल पड़े, पक्षी भी अपने घोसलों में दुबक गए। वातावरण बिलकुल शांत हो गया।
और मालती को अपना बचपन याद आ गया. अंधियारा घिरते ही उसकी गली में आवाजें ही आवाजें होतीं . महिलायें -पुरुष काम से लौटते और उनके बीच झगडा शुरू हो जाता . चारो तरफ शोर ही शोर होता. मालती का अतीत रह रह कर उसकी आँखों के समक्ष घूम जाता। उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था, यूँ एक अच्छी सी सभ्य कॉलोनी में अकेली पूरी इज्जत के साथ रह पाएगी वह।
एक बजबजाती खुली नाली के पास मालती के बचपन का घर था. घर क्या एक छोटा सा गंदा सा कमरा था. जिसमे मालती अपने माता-पिता और दो छोटे भाइयों के साथ रहती थी । एक कोने में खाना बनता, दूसरे कोने में थोड़ी सी पक्की जगह थी. जहाँ पानी भरी बाल्टी रखी होती. वहाँ बर्तन धुलते और उसकी माँ स्नान करती। मालती और उसके दोनों भाई तो गली में लगे नल के नीचे ही नहा लिया करते और बापू तो हफ्ते दस दिन में एक बार नहाया करता। एक तरफ टीन के पुराने बक्से रखे थे जो आधे से ज्यादा खाली ही रहते। बीच में माँ की फटी हुई साडी बिछा वे तीनो भाई बहन सो जाते। सो क्या जाते सहमे से पड़े रहते . क्यूंकि थोड़ी रात बीतते ही उसका पिता शाराब पीकर गालियाँ देते हुए घर में आता। कभी खाना उठा कर फेंक देता , कभी माँ के लम्बे बाल घसीट कर उसे पीटता। एकाध बार मालती और उसके छोटे भाई माँ को बचाने गए तो उन्हें भी पीट दिया। माँ भी बापू को जोर जोर से गालियाँ देती । पर उस गली के हर मकान का यही किस्सा था। माएं दिन भर घर घर में बर्तन मांज कर पैसे कमा कर लातीं , बच्चों को पालतीं, खाना बनातीं और फिर शाम को पति से पिटतीं । माँ के पैसे भी बापू छीन कर ले जाता।
ऐसे ही माहौल में मालती बड़ी हो रही थी। वह, माँ की ज्यादा से ज्यादा मदद करने की कोशिश करती। पांच साल की उम्र से ही, घर में झाड़ू लगा देती ।कच्ची -पक्की रोटी बनाने की कोशिश करती। माँ के साथ काम पर भी चली जाती। उनलोगों के छोटे मोटे काम कर देती। वे लोग कुछ खाने को देतीं तो छुपा कर भाइयों के लिए ले आती। भाई सारा दिन धूल धूसरित गलियों में कंचे खेला करते या फिर साइकिल की टायर को पूरी गली में घुमाते रहते।
जैसे तैसे दिन कट रहे थे. वह नौ-दस साल की थी जब कहर टूट पड़ा उस पर। एक दिन बापू माँ को पीट रहे थे, माँ भी गालियाँ दे रही थी। बस उस दिन पता नहीं बापू को क्या हो गया, उसने बगल में रखा केरोसिन तेल का डब्बा उठाया और माँ के ऊपर डाल कर आग लगा दी। माँ चिल्लाने लगी, वो छोटे छोटे कटोरे से पानी डालकर आग बुझाने की कोशिश करने लगी। गली के लोग भी आ गए। किसी ने दरी डाला, किसी ने पानी और आग बुझा दिया। पर मा काफी जल गईं थीं .बापू बाहर भाग गया। बगल वाली काकी माँ को अस्पताल ले गयी। दस साल की उम्र में घर का सारा भार उस पर आ पड़ा । माँ जिनके यहाँ काम करती थीं वो शर्मा मालकिन एक दयालु महिला थीं। उन्होंने छोटे छोटे कामों के लिए मालती को रख लिया .
काफी दिन अस्पताल में रहकर माँ वापस घर आ गयी। पर बेहद कमजोर हो गयी थी। वह ठीक से चल भी नहीं पाती । अब मालती सुबह उठती , घर का सारा काम करती। घर में जो भी राशन पड़ा होता आटा , चावल बना कर रख देती। , कभी कभी कुछ भी नहीं होता। तो बगल के बनिए की दूकान से उधार डबल रोटी लाकर रख देती। उसमे से थोडा सा निकाल कर माँ के तकिये के पास छुपा देती .वरना पता था, दोनों भाई ,माँ के लिए कुछ नहीं छोड़ेंगे। बाहर से बाल्टी में पानी भर भर कर लाती, माँ को नहलाती,स्टूल पर खड़े होकर उनके लम्बे बाल धो देती उनके कपडे साफ़ कर देती। कुछ ही दिनों में छलांग लगा कर एक लम्बी उम्र पार कर ली थी, मालती ने। .माँ आंसू पोंछती रहती। मैं किसी काम की नहीं, मर जाती तो अच्छा होता .वो भी साथ में रोने लगती तो माँ चुप हो जातीं। इतना काम करने के बावजूद भी वो खुश रहती क्यूंकि घर में शान्ति थी। बापू पुलिस के डर से उन्हें छोड़कर भाग गया था . मालती ,भगवान से मनाती, वो कभी लौट कर ही न आये।लेकिन भगवान् ने उसकी नहीं सुनी।
करीब एक साल के बाद एक रात बापू धड़धडाता हुआ घर में घुस आया, ” तुमलोग बहुत मजे कर रहे हो, मेरे बिना ?? तू मरी नहीं, अब तक ?? कितना कमाती है तेरी बेटी, ला पैसा ला। “
” इतनी छोटी उम्र में इतना काम कर रही है, पूरा घर संभाल रही है, उसे तो छोड़ दे, ” माँ ने कराहते हुए कहा।
“जुबान लड़ाती है।” कहता वो माँ की तरफ बढ़ा ही था कि मालती बीच में आ गयी, “बापू बस बीस रूपया है, ले लो पर माँ को मत मारो।।”
” ला, जल्दी ला और उसका बापू, वो थोड़ी सी जमा पूंजी लेकर चलता बना.
माँ जो थोड़ी ठीक होने लगी थीं, बैठे बैठे खाना बना देतीं, मालती की चोटियां कर देतीं। बापू के आने के बाद ही फिर से बीमार पड़ गयी।
शर्मा मालकिन को बताया तो वे कहने लगीं, ” सदमा लग गया है तेरी माँ को, डर गयी है बापू को देखकर ।”
माँ की सेहत दिन ब दिन गिरती गयी, उसने फिर से बिस्तर पकड़ लिया, उसका खाना-पीना छूट गया और एक दिन उसकी मौत हो गयी।
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वह छोटे भाइयों को गले लगाकर बहुत रोई। बापू से उसे बहुत डर लगता था। पर अच्छा था
बापू ज्यादातर गायब ही रहता, कभी कभी ही घर आता. वो डर कर पहले ही पास के पैसे बापू को दे देती. थोड़ी बक झक के बाद वह शराब के नशे में सो जाता.
मालती ने अब एक दो और घरों में काम करना शुरू कर दिया था । वह मन लगाकर मेहनत से काम करती। कभी किसी का कोई सामना नहीं छूती। साफ़ सुथरी रहती। सलीके से कपडे पहनती बाल बनाती, सभी मालकिन उसके काम से बहुत खुश रहतीं। अपनी बेटियों के चप्पल, कपडे, उसके भाइयों के लिए भी पुराने शर्ट -पैंट दे देतीं।
दिन गुजर रहे थे। आजकल बापू रोज घर आने लगा था, उसके पैसे भी नहीं मांगता, घर में डांट डपट नहीं करता । मालती को थोडा आश्चर्य हो रहा था। फिर लगा, शायद बापू की उम्र हो रही है. वह सुधर रहा है. एक दिन बापू दो आदमियों के साथ आया।
मालती से कहा, “पानी ला ..चाय बना।”
उसने डरते डरते चाय बना कर दे दी । पर गौर कर रही थी, चाय बनाते हुए भी वे दोनों आदमी उसे गौर से देख रखे थे। दुपट्टे से उसने खुद को जितना हो सकता था, ढक लिया। उसे लगा बापू शायद उसकी शादी करने की सोच रहा है। वो तो कभी नहीं करेगी शादी। उसे कमा कर पैसे नहीं लाने और पति से मार नहीं खानी । उसकी बिरादरी में सब ऐसा ही करते हैं।
चाय पीने के बाद, बापू उन आदमियों के साथ बाहर चला गया। थोड़ी ही देर बाद उसका छोटा भाई दौड़ता हुआ घर में आया।
“दीदी, बापू तुझे उन आदमियों के हाथों बेच रहा है”
“क्या “आश्चर्य से उसका मुहं खुला रह गया।
“हाँ .. दीदी, उस आदमी ने बापू को बड़े बड़े नोट दिए हैं। मैं अँधेरे में से छुप कर सब देख रहा था। और उसने कहा कि बाकी पैसे लड़की को ले जाने आऊंगा तब दूंगा।”
अब वो क्या करे,मालती का दिमाग तेजी से चलने लगा। उसने दोनों भाइयों को पास बिठाया और कहा, ” देखो शर्मा मालकिन की बहन आयी थी बम्बई से वे मुझसे अपने साथ मुंबई चलने के लिए कह रही थीं. मैं नहीं गयी कि तुमलोगों का ख्याल कौन रखेगा। पर अब अगर नहीं गयी तो बापू मुझे बेच देगा, तुम दोनों बड़े हो गए हो , अब अपना ध्यान रख सकते हो .मैं शर्मा मालकिन को हाँ बोल देती हूँ।”
दोनों भाई रुआंसे हो गए। छोटा भाई तो डर कर उस से लिपट गया, ‘ना दीदी मुझे भी अपने साथ ले चलो “
चौदह साल के बड़े भाई ने बड़े-बुजुर्ग सा समझाया , “नहीं दीदी को जाने दे छोटे। जब हम और बड़े हो जायेंगे अच्छा कमाने लगेंगे तो अलग घर में रहेंगे फिर दीदी को बुला लेंगे। “
मालती का मन भर आया। पर यह कमजोर पड़ने का समय नहीं था। उसने तेजी से अपनी चीज़ें इकट्ठी करनी शुरू कर दीं। बापू का क्या ठिकाना , उसे सुबह सुबह ही निकल जाना होगा. शर्मा मालकिन बहुत भली हैं। जबतक बम्बई जाने का इंतजाम नहीं हो पाता । वे उसे अपने घर में जरूर रहने की इजाज़त दे देंगीं। काम में देर हो जाने पर कितनी बार तो कहती हैं, “रुक जा रात को यहीं।’ वो उसकी मुश्किल जरूर समझेंगी।
शर्मा मालकिन तो बापू की बात सुनते ही आग बबूला हो गयीं।कहने लगीं, अभी पुलिस में खबर करती हूँ ‘ पर मालती ने ही समझाया, बापू तो साफ़ मुकर जाएगा और फिर हम तीनों की बहुत पिटाई करेगा .‘ फिर वे बोलीं, ‘ठीक है, पर अब तू उस घर में पैर मत रखा रखना, यहीं रह मेरे पास। पीछे आँगन में जो कमरा है, उसे साफ़-सूफ करके उसी में रह जा। अब उस राक्षस के घर में मत जाना “
मालती ने बताया कि यहाँ रहना ठीक नहीं होगा । बापू शायद आपसे भी झगडा करे। मुझे शेफाली दीदी के यहाँ बम्बई भेज दीजिये। वो जब यहाँ आयी थीं तो बार बार कहती थीं न , “दीदी इसे मुझे दे दो।।”
“हम्म ये ठीक रहेगा, शेफाली के पास रहेगी तो मुझे भी चिंता नहीं होगी। वो तो कई बार कह चुकी है। आज ही उसे फ़ोन करती हूँ। पर तुम चिंता मत करो।” “
शर्मा मालकिन का माँ का सा स्नेह देखकर उसका मन पिघल गया। अगर भगवान एक तरफ से कष्ट देता है तो दूसरी तरफ से कई हाथ उस कष्ट से बचाने के लिए भी देता है।
दो दिन बाद ही शेफाली दीदी के यहाँ जाने के लिए शर्मा मालकिन ने उसे बम्बई की ट्रेन में लेडीज़ कूपे में बिठा दिया। आस-पास वालों को उसका ख्याल रखने को कह दिया अपना फोन नंबर भी दे दिया ताकि वो जब चाहे भाइयों से बात करती रहे।
शेफाली दीदी उसे स्टेशन पर लेने आयी थीं। शेफाली दीदी भी शर्मा मालकिन की तरह ही दिल की बहुत अच्छी थीं। उसका बहुत ख्याल रखतीं पर उसे उनके घर का माहौल रास नहीं आता। शेफाली दीदी के पति फिल्मो में कुछ करते थे। हमेशा उनके यहाँ लोगों की भीड़ लगी होती। देर रात तक पार्टियां होतीं। दिन- रात का कोई भेद ही नहीं होता। अजीब अजीब से लोग उनके घर आते, फटी जींस वाले ,लम्बे बालों वाले, लगातार सिगरेट फूंकते हुए। सबलोग शराब पीते, देर रात तक उनके ठहाके गूंजते। उसे बहुत अजीब सा लगता . कई लोग कभी-कभी उसे घूर कर भी देखते, उसे बिलकुल अच्छा नहीं लगता। वो इस माहौल से निकल जाना चाहती थी।
वो जब सब्जियां लेने जाती तो पास की एक आंटी भी अक्सर मिलतीं . वो उस से बड़े प्यार से बातें करतीं और एक दिन उसने अपने मन की उलझन उनके सामने रख दी और पूछ लिया , “आप मुझे कहीं और काम दिलवा दीजियेगा ?”
उन्होंने उसकी समस्या समझी और कहा, “कोशिश करेंगे ”
और एक हफ्ते बाद ही वे रास्ते में उसके इंतज़ार में ही खड़ीं थीं। उनकी एक सहेली को पूरे दिन के लिए एक लड़की चाहिए थी। सहेली और उसके पति दोनों नौकरी करते थे , उनकी एक छोटी सात साल की बेटी थी , जिसकी देखभाल के लिए उन्हें कोई अच्छी सी लड़की चाहिए थी। आंटी बार बार अपनी सहेली के अच्छे स्वभाव की बात कर रही थीं।
मालती को भी ऐसा ही शांत माहौल चाहिए था। इस घर में आकर उसे बहुत अच्छा लगा। शालिनी प्यारी सी शांत सी लड़की थी। लड़की की माँ जिन्हें वो शोभा दीदी कहा करती थी। वे भी मीठा बोलने वाली थीं। किसी बात पर डांटती नहीं। घर का सारा भार उसे सौंप दिया था। वे सुबह सुबह ऑफिस चली जातीं, शाम में घर वापस आतीं, पूरे घर की जिम्मेवारी मालती की ही थी अब । वह भी बहुत मन लगाकर काम करती। शोभा दी भी उसके काम में मीन-मेख नहीं निकालतीं। उसे अपनी बेटी जैसा ही मानती . बेटी के लिए चॉकलेट , आइसक्रीम लातीं तो उसके लिए भी ले आतीं । शनिवार रविवार जब उनकी छुट्टी रहती तो घर के कामों में भी हाथ बटाती । शोभा दी के पति अपने काम से मतलब रखते अखबार पढ़ते, फोन पर बात करते या फिर कंप्यूटर पर कम करते रहते । वे अक्सर टूर पर भी जाया करते .
दो साल के बाद शोभा दी का ट्रांसफर एक छोटी सी जगह पर हो गया। वहां उनकी बेटी शालिनी के लिए अच्छे स्कूल नहीं थे। शोभा दी नयी जगह पर चली गयीं। उनके पति भी अक्सर टूर पर चले जाते . पूरा घर मालती अकेले संभालती। सीमा दी पूरे घर के खर्च के पैसे उसके हाथों में दे देतीं . मालती एक एक पैसे का हिसाब रखती । घर की देखभाल करती । शालिनी का ख्याल रखती .
मालती बहुत निडर और हिम्मती भी थी। किसी से नहीं डरती . एक बार बिल्डिंग के वाचमैन ने कुछ छींटाकशी की उसपर, मालती ने वहीँ चप्पल निकाली और उसे दो चप्पल लगा दिए। पूरे इलाके में यह बात फ़ैल गयी । अब आस-पास की बिल्डिंग के वाचमैन , ड्राइवर सब उस से डर कर रहते। वो नीचे सब्जी भी लेने भी जाती तो सब उस से सहम कर नज़रें नीची कर के बात करते। मालती भी यह दिखाने के लिए कि वह किसी से नहीं डरती , सबसे बहुत रूखे स्वर में बात करती। मुश्किल ये हो गयी कि यह उसकी आदत में शुमार हो गया।
अब वह घरवालों से भी रुखा ही बोलती। खुद को घर की मालकिन समझती, क्यूंकि शोभा दी महीने में एक बार ही आतीं। घर के सारे निर्णय वही लेती, कौन से परदे लगेंगे, कौन सी चादर बिछेगी, कौन सी चीज़ कहाँ कहाँ रखी जायेगी शोभा दी को ये सब अच्छा नहीं लगता। पर उसकी ईमानदारी , काम के प्रति लगन, अपना घर समझकर काम करना , पूरी जिम्मेवारी उठाना, शालिनी को बहुत सारा प्यार देना, ये सब देखकर वे चुप रहतीं।
अब मालती के पास काफी समय रहता। शालिनी ने उसे पढना-लिखना सिखाना शुरू किया। उसे भी पढने में बहुत दिलचस्पी हो गयी। जरा सा भी खाली वक़्त मिलता तो वह किताबें लेकर बैठ जाती। शालिनी भी अच्छी टीचर थी, उसे बहुत मन से पढ़ाती। स्कूल जाती तो उसे होमवर्क देकर जाती। और अगर वो होमवर्क नहीं करती तो उसे सजा देने के लिए शालिनी खुद खाना नहीं खाती। फिर उसे शालिनी का घंटों मनुहार करना पड़ता। अब वो जल्दी से घर का काम ख़त्म कर होमवर्क करने लगी। धीरे धीरे वह अंग्रेजी के कॉमिक्स, चंदा मामा , चम्पक से शुरुआत कर , पत्रिकाएं , अखबार सब पढने लगी। शालिनी के साथ अंग्रेजी के प्रोग्राम देखते हुए वो अच्छी तरह अंग्रेजी समझने लगी। शालिनी भी उसे सिखाने के लिए ,उस से ज्यादातर अंग्रेजी में ही बात करती। अब मालती बाहर जाती तो अंग्रेजी में ही बोलने की कोशिश करने लगती। शोभा दी की सहेलियां, या उनके पति के दोस्त घर आते तो उसे देख दंग रह जाते। कई लोग तो उसे घर का सदस्य ही समझ लेते।
जब तीन साल बाद शोभा दी का ट्रांसफर वापस इस शहर में हो गया तो शोभा दी ने मालती से कहा कि ‘अब वो उसकी शादी कर देना चाहती हैं ‘. मालती की रूह काँप गयी। उसके अपने माता-पिता का जीवन आँखों के सामने आ गया और गली के और लोगों का जीवन भी। महिलायें हाड तोड़ कर कमाती और उनके पति शराब के नशे में उन्हें मारते भी और उनके पैसे भी छीन कर ले जाते। उसे नहीं चाहिए थी ऐसी ज़िन्दगी। और उसने शोभा दी से साफ़ कह दिया, उसे शादी नहीं करनी ,अगर वे उसे नहीं रखना चाहतीं तो वह दूसरी जगह कोई काम देख लेगी पर आजीवन शादी नहीं करेगी । ये उसका अंतिम फैसला है।
शोभा दी ने उसकी बात मान ली । मालती बीच बीच में अपनी शर्मा मालकिन के यहाँ फोन करके भाइयों का हालचाल लेती रहती। पता चला, दोनों भाई एक कारखाने में नौकरी करने लगे हैं और पिता से अलग रहते हैं। दोनों ने शादी भी कर ली। मालती को बहुत बुला रहे थे, ‘एक बार आकर मिल जा’। शोभा दी ने भी ख़ुशी ख़ुशी उसे छुट्टी दे दी और भाइयों के लिए ढेर सारे उपहार भी खरीद कर दे दिए। अब तक का उसका सारा वेतन भी जोड़ कर दे दिया।
वहां जाकर उसने सारे पैसे भाइयों को दे दिए। उपहार तो दिए ही, भाभियों को उसके जो भी कपडे पसंद आते, वो दे देती। जब लौटने का समय आया तो उसने पाया उसके पास बस दो जोड़ी कपडे बचे हैं। फिर भी उसने सोचा, उसके लिए काफी हैं। अभी जायेगी तो शोभा दी खरीद ही देंगीं और दो महीने के बाद उसके पास भी उसके वेतन के काफी पैसे जमा हो जायेंगे . वह जो चाहे खरीद लेगी। पर जब वापस काम पर आयी उसके दस दिन बाद ही उसकी भाभी ने एक पत्र भेजा अब खुद लिखा या किसी और से लिखवा कर भेजा पर पत्र का मजमून था कि “‘आप इतने दिन यहाँ रहीं, आपको अच्छा खिलाने-पिलाने के लिए हमें क़र्ज़ लेना पड़ा। अब उनके पैसे लौटाने हैं। आप पैसे भेज दो।” उसने वो पत्र फाड़ कर फेंक दिया और फिर भाइयों के घर कभी नहीं गयी। शोभा दी का घर ही ,अब उसका घर था।
शालिनी बड़ी होती गयी। उसने कॉलेज पास किया और नौकरी भी करने लगी। उसकी शादी हो गयी।शोभा दी और उनके पति भी रिटायर हो गए .अब वे ज्यादातर घूमते रहते. मालती बहुत अकेलापन महसूस करने लगी और उसी दरम्यान एक हादसा हो गया . सीढियों से फिसल कर वो अपनी कमर की हड्डी तुडवा बैठी। शोभा दी ने उसके इलाज़ का पूरा खर्च उठाया। हॉस्पिटल मेंभी उसके साथ रहीं। शालिनी ने भी ऑफिस से छुट्टी लेकर ,उसकी अच्छी देखभाल की . घर पर भी उसे पूरा आराम दिया। पर पूरी तरह ठीक होने के बाद भी अब वह पहले की तरह काम नहीं कर पाती। तेजी से चल नहीं पाती ,झुक नहीं पाती। जल्दी जल्दी काम नहीं निबटा पाती । मालती को बहुत बुरा लगने लगा। उसे लगने लगा , वो शोभा दी पर बोझ बन गयी है। मालती बार-बार उनसे मिन्नतें करने लगी कि अब उसे छुट्टी दे दें . अब वो पहले की तरह उनके काम नहीं आ पाती। उसकी इलाज़ पर भी इतना खर्च हो गया है। वो कहीं और काम करके अपना जीवन गुजार लेगी। उनपर बोझ नहीं बनना चाहती
पर मालती ने नाजुक वक़्त में शोभा दी की गृहस्थी संभाली थी .उनकी अनुपस्थिति में उनकी बच्ची की प्यार से देखभाल की थी। ये वो नहीं भूल पायीं थीं . अनुष्का और उन्होंने मिलकर एक उपाय सोचा. इन्वेस्टमेंट के लिए शोभा दी ने कभी एक वन बेडरूम का फ़्लैट खरीदा था .वो खाली पड़ा हुआ था .उनलोगों ने तय किया कि मालती के लिए उसमें एक क्रेच खोल देंगी. मालती में बहुत पेशेंस है और वह बच्चों की अच्छी देखभाल कर लेती है. फिर तो सबकुछ अनुष्का ने ही किया. बोर्ड बनवाये, पर्चे छपवाए और पूरी कॉलोनी में भिजवा दिए. धीरे धीरे बच्चे आने लगे . मालती बच्चों को इतने प्यार से सम्भालती कि माएं खुश हो जातीं .एक से दूसरे को पता चलता और बच्चों की संख्या बढ़ती जाती . मालती ने दो हेल्पर भी रख लिए. युवा दंपत्ति जो पेशे से अफसर, डॉक्टर, इंजीनियर होते, जब मालती के साथ प्यार और सम्मान से बात करते तो वह संकोच से भर उठती .
जिंदगी इतनी सारी सीढियां चढ़ती उतरती अब एक समतल रेखा पर आ गई थी. चाय कब की ख़त्म हो चुकी थी। बाहर अँधेरा घिर चुका था। मालती सोचने लगी, कितने भी कष्ट आयें जीवन में पर अगर अपने कर्म अच्छे रखो तो अच्छे लोगों का साथ मिल ही जाता है। अगर उसने सही समय पर सही निर्णय लेने की हिम्मत नहीं दिखाई होती, अपना काम मेहनत ,लगन और ईमानदारी से नहीं किया होता तो आज वह इस शांतिपूर्ण जीवन की हक़दार नहीं होती।
एक दादाजी अपने पोते को क्रेच में छोड़ने आते. अक्सर मालती से कुछ बातें कर लिया करते. मालती समझती थी, इस महानगर में उनसे दो बातें करने वाला भी कोई नहीं है. कभी कभी वे कुछ शेर भी पढ़ा करते , मालती को समझ नहीं आता फिर भी वह रूचि दिखाती सर हिलाया करती. ये शेर भी ख़ास समझ तो नहीं आया पर अपने लिए सही लगा
“दुःख सबके मश्तरक हैं पर हौसले जुदा
कोई बिखर गया तो कोई मुस्करा दिया “
(समाप्त )
—— रश्मि रविजा
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किताबें
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