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कविताएं
1
खोखला हो रहा है समाज
बिगड़ती चीजें खत्म करने का संकेत नहीं देती
मानक हो रहे ध्वस्त, खंडित हो रही सत्य की प्रतिमाएँ
हालात बदलाव के साथ घुटन की संधियाँ लिख रहे है
ध्वस्त सच पर बैठे पारी खेलने में जुटे
अंधे हो, युग को अंधी हवा से ढकेलने की कोशिश कर रहे है
खत्म कर रहे है युद्ध, प्यार की परिभाषा
जमीनी मोह में फँसे, विचारों और सलाहों के लेन-देन में लगे हैं
रहे बची दुनिया और चलता रहे जीवन
लेकर संज्ञान मानवता का … बस बचाने की बात कर रहे हैं।
2
अवसर वादिता (चरस, अफीम, गांजा है … क्या कुछ ज्यादा हो गया)
ऐसा नशा है
जिसका स्वाद
हर कोई
चखना चाहता है
पूरे जुनून के साथ
सच लिखने के बाद
चेहरे को
कालिख का इंतजार नहीं होता
बस गई है बस्ती
तो उठते धुंओं से आश्चर्य कैसा
तुझे आग भी देखना है
और हाथ भी जलाने हैं
तसवीर का आधा सच
जब पूरी कहानी कहता है
विश्वास कटघरे में साँस लेती है
समय कठिनाई बोता है
पढ़ कर खामोश हो जाने वाली आँखें
मर्म के मायने बदल देती है
कतरनों से सुलगते विचार
हादसों की बखिया उधेडते है
दफन है जो सच्चाई है
सूंघकर आँखों की जात बिगड जाती है
बेखौफ बेशक बेशुमार है हादसे
आत्मा में दर्ज होते जीभ की तरावट शुष्क हो जाती है।
3
उतर जाती है गंध
पहचान पुरानी हो जाती है
अपना ही अक्स निहारने ताउम्र
फिर भी आईने की जरूरत पड़ती है
आसमान बादल चाँद सितारें
चमकती हुई धूप, हवा, पशु पक्षी सभी रचते हैं पृथ्वी
जाने क्यों इंसान विस्फोटक रचता है
सच्चाईयों की अपनी बातें
कुछ रस्मी तौर पर अलहदा है
छुपी है कुछ बेहतर
कुछ जश्नी तौर पर बेपर्दा भी होती है
लगाव से ना बूझो रिश्तों की औकात
ये वह फलसफा है जिसमें
हकीकत की मीठी गोलियाँ
कडवी मुंडेर पर उगती है।
4
अब गुलाब नहीं खिलते
जमीन के भीतर की सारी दुनिया रेत हो गई है
नजरों की सुनसान तलछट
पत्ते पत्ते बेमौसम गर्द की कहानी कहती है
भूख गरीब का कुछ नही बिगाडती
जिंदा रहने की जरूरत तलाशती सो जाती है
आरजूएं बंद मुट्ठी की खाली पुकार है
जिसे शब्दों के सुने जाने का खौफ नही।
जिंदगियों ने आतंक के मतलब बदल दिए है
बेगुनाहों की फेहरिस्त में गुनाहगार की तलाश जारी है
रातें शून्य का विस्तार करती बड़ी होती
जिसकी सुबह का पता भी अंधेरे में चलता है।
5
जरुरत की मिट्टी में बेचारगी की फ़सल बोता
हालात के जख्मों से लड़ता
पेट की भूख
धमनियों में उतारता …. गरीब
देश का सोना है
चांदी है
रुपया है
पैसा है
जिसे हर कोई खर्च करना चाहता है।
6
कुछ शब्द पूरे विस्तार के बाद भी अधूरे लगते हैं
मात्राएं और बिंदु के बावजूद शब्दों का अभाव पूर्ण लगना अखरता है
अक्षर बिखर जाने की असंख्य कोशिश करते हैं
अर्थ बेमतलब हो टूटते-फूटते-उलझते हैं
आंखें देखती है घोर अनर्थ और निष्क्रिय स्थिर मूक सी खड़ी रह जाती है
मस्तिष्क धुनता है कई अनर्गल वार्तालाप और लब्बोलुआब के मायने तलाशता है
समझ इस तारतम्य को घूरती है चुपचाप और बिखरी चीजें समेटने की कोशिश करती है
सूख चुकी आँखों का पानी मौसम के बढ जाता है रेगिस्तान की ओर
ठंडे पानी का चश्मा जहां पूरी आत्मीय तरलता लिए सन्दर्भ सहित वाक्यों की पहल है
आत्म विभोर करते भाव दिल की बात करते है जिसका पूर्ण विराम से कोई मतलब नहीं होता।
7
स्त्री आवाज है
खनक के उन सारे आहटों को छोड
पायल की तरंगों को तज
झुमका बिंदी काजल के अलावा
स्त्री स्वर है उस शब्दों का जिन्हें उठने ही नही दिया गया
विचार है जिसे दहलीज से बाहर निकलने से रोका
बहस है जिसे सुनने से डरता है समाज
स्त्री के हक की बात पर संसद में प्रस्तावित दस्तावेज पडी रहती है सालो
नजर है वो जो पितृसत्तात्मकता के सम्मुख बन कर खडी है सवाल
आधा समाज कब तक रहेगा दरवाजे के भीतर बंद
अपनी वैचारिक हस्तक्षेप की स्वतंत्रता से कुंद
मुखरता पर लगाते लांछन बोए जाते प्रश्न
जिसने बसाई सात पुश्तें अभिव्यक्ति के विरुद्ध घुटने को हुईं मजबूर
उसकी संभावनाओं और सृजनात्मक पहल की जरूरत को कर दिया गया अनदेखा
उसकी साहसिक उद्घोषक प्रतिक्रियाएं है सबूत जिसने घनघोर मार्ग में भी कदम बढाए
उसकी नियति का प्रश्न है
उसकी सहमति का प्रश्न है
उसकी स्थापना का प्रश्न है
उसकी सामाजिकता का प्रश्न है
उसके निजता का प्रश्न है
कब तक करेंगी पितृसता खारिज उसे
उसके आत्मसम्मान का प्रश्न है
उसके स्वाभिमान का प्रश्न है।
8
रचनाओं की चोरी का डर
साहित्यकारों पर हो रहा है हावी
अपनी पुस्तकें पढ़ने देने से डरने लगा है हर लेखक / कवि
डर है कि रचनाओं की चोरी या अनुकृति ना आ जाये
कोई भेद ना लें विचार
कोई किले को ना कर लें फतह
नेस्तनाबूद ना हो जाय रचना
चुग ना लें पंछी खेत
कोई कीट ना कर दे फसल बर्बाद
विचारों को करें सिर्फ वही स्थापित
कोई सेंध ना पड जाए
लक्ष्य भेद ना हो जाए भावार्थ का
कोई ताड ना ले मन के भाव
नवीन रचनाओं को यह डर
कहां तक कितना कैसे स्थापित कर सकता है
कैसी होड है जो कटघरा खड़ा करती है रचनाकारों के चारों ओर
कब तक बनी रहेगी यह स्पर्धा !!
चुनौतियों से ही बढ़कर आगे
रचते हैं कुछ ऐसा
समाज को करें परिष्कृत देश को देकर गति
बेहतरीन लक्ष्य साहित्य का भी
के … रचनाकार की दृष्टि सर्वस्व में समाहित होती है संकीर्णता में नहीं।
– रीदारा
9
सवालों के घेरे में
संशय के बीज़ महफिल की
बेजान तारीफ करते है
कुछ तो है
जो रुबरू होने की मिल्कियत पर
पाबंदी की धूल बिखरी है
अपने ही शहर में बेगाने बने
इंसानी इबादत की व्याख्या तलाश रहे हैं
जो बंद हो बेमतलब अनभिज्ञता के घेरे में
उसकी आज़ादी वैचारिक आंदोलन का हिस्सा है
मुट्ठी भर हिम्मत की ताकत जब बचा सकती है भटकाव से
चहचहाहट में देखने चमकते हुए जुगनू बोते हैं आसमान में आस के पंछी।
10
गुज़र जाना,
हादसा है
तमाम घटनाओं के बीच
ना लौटने के संज्ञान के साथ
लौटना,
होती सुबह से बाँधना है
ठहरे पानी में संगीत सी हलचल के सान्निध्य में
विदा,
पूरी कठोरता के साथ
प्रेषित होना है अलगाव
छोड़ना,
कठोर निष्क्रियता को
करते सिद्ध
देना भाषिक दंड
मिलना,
आत्मीय कुतूहलता के साथ
तरलता युक्त मीठा गुलाबी एहसास
खो जाना,
जागरूक बौद्धिक चेतना के बावजूद
अदृश्य होने का देते हुए बेचैन संताप
कुछ तो है
जो बोध का बोध है
तिलिस्म का टूटता आईना नही
एहसास की भेदक जड़ें
इंसानियत का जिससे है जमीनी रिश्ता।
किताबें
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