Tuesday, May 14, 2024

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किताबें

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कहानी

खिड़की

बारिशों के दिन की आर्द्र हवा जब मुझे छूकर गुज़रती है तब  धूमिल सा कुछ याद आता है।मैं उस धुंधलके को साफ़ करने के लिए अपने मन को यादों के अन्धे कुएँ  में उतार देती हूँ मगर उस धुंधलेपन से निस्तार नहीं मिलता।  इस समय मैं खिड़की पर खड़ी पूरी कोशिशों से उस धुंधलके को पौंछने में मशगूल थी। शून्य के तश्त पर घुमड़ते बादल किसी भी समय बरस पड़ने की चेतावनी दे रहे हैं।हवा के झोंको में रूमान भरी नरमाई थी इसी से  माहौल में एक ख़ुशगवार ठंडक बनी हुई थी।मैंने काँच वाली खिड़की के दोनों पल्ले पूरे खोल दिए और कुछ इस तरह खुद को  हवाओं के हवाले कर दिया कि खुराफ़ाती झोंके मुझसे छेड़छाड़ करने लगे

 

बहुत देर की चुप्पी के बाद निचले कमरे से अंतरा की आवाज़ें आने लगी थीं।साथ पढ़ने वाली पूर्वा उसे लिवाने गयी होगी। उसकी आंखें बिल्लौरी हैं।मैं जब भी उसे देखती हूँ तो सोचने लगती हूँ कि वो आंखें अंधेरे में बिल्ली की शैतानी आंखों के मानिंद चमकती  होंगी।अपनी आंखों के उलट वो शर्मीली बिहारी लड़कीे बोलने के क़ायदे की वजह से मुझे अच्छी लगती है।मगर वो बहुत कम और संभलकर बोलती है।उसके आचरण में संजीदगी है।अंतरा कभी भी कहीं भी कुछ भी तपाक से कह देती है। कल रात डिनर के वक़्त उसने शेखर से कहा था 

पापा यू आर गैटिंग फ़ैट डे बाई डे..माय कैमेस्ट्री सर इज़ फ़ोर्टी  क्रॉस्ड  बट डैडली अमेज़िंग

मैंने देखा था कहते हुए उसकी आँखों में अजीब सी दर्प भरी चमक थी। वो आगे भी कुछ कहती मगर मेरी आँखें देखकर शांत हो गयी।

पूर्वा के लिए इस उम्र में घर की आत्मीयता और सुरक्षा से दूर रहना किसी चुनौती से कम होगा। अंतरा के मुकाबले पूर्वा बहुत जिम्मेदार और  सयानी लगती है। अंतरा अपने रोज़ के छोटे बड़े कामों के लिए अब भी मेरा मुँह ताकती है।स्कूल का आख़िरी साल है। फिर उसे भी किसी अजनबी शहर की निर्मम भीड़ में निकलना होगा। उसे पूर्वा की तरह होना चाहिए। आत्मनिर्भर और सलीक़ामंद ।मुझे यक़ीन था कि आज भी उसने अपना गीला तौलिया रस्सी पर पसारने के बजाय कमरे में कुर्सी की पुश्त पर फैला दिया होगा। उतारे हुए कपड़े गुसलखाने में या बिस्तर पर उलटे पड़े होंगे।रोज़ की तरह धोने के समय मुझे ही सीधे करने होंगे।रात की ओढ़ी चादर पलंग से लटककर फ़र्श को चूम रही होगी।हो सकता है कई बार टोकने के बाद भी कंघी में बालों का गुच्छा फंसा होगा। मैं सीढियां उतरने की सोच रही थी कि अंतरा ने थोड़ी ऊँची आवाज़ में कहा

मम्माssss कैमेस्ट्री सर एक्स्ट्रा क्लास लेंगे ….आने में देर होगी।

मैंने कहाछतरी लेती जाना।बारिश का कुछ ठीक नहीं।

मैं कुछ और बातें कहना चाहती थी यह कि वापसी में पोस्टऑफिस वाली सड़क से मत लौटना ।शाम पड़े ही सुनसान हो जाता है …..बारिश हो तो रिक्शा ले लेना। मगर नीचे से कोई आहट पाकर चुप्पी लगा गयी। वैसे भी कहने कहने के कोई  अर्थ नहीं।अंतरा के लिए ये रोज़ की परिचित हिदायतें हैं।शेखर कहते हैं मैं  क्यों उसे बड़ा नहीं होने देती।क्यों ये चिंताओं का जखीरा उठाए फिरती हूँ।वो नए दौर की लड़की है ।मैं  पूर्वा को देखकर भी क्यों नहीं समझती ।क्या उसकी माँ किसी और मिट्टी की बनी है।

 

मैंने पूरे घर पर एक उचटती हुई निगाह डाली ।तमाम बिखरी हुई चीज़े मेरे इंतज़ार में थीं।मगर मेरी पूरी देह में अलसपन भरा  था। ज़ुकाम से लस्त आंखें भारी हो रही थीं। रिचार्ज होने की गरज़ से मैं तेज़ अदरक और चटख मीठे वाली चाय प्याले में ऊपर तक भरकर दोबारा खिड़की पर खड़ी हुई।

 

पता नहीं खिड़की पर यूँ खड़े रहना मुझे कब से अच्छा लगता है।शायद तब मैं पाँच छह बरस की थी।ननिहाल में  तिमंजिले पर कई  खिड़कियों वाला एक कमरा था।जिसमें सामने की ओर था लकड़ी की शहतीरों पर टिका जालीदार बारजा। बारजे का फ़र्श सुर्ख़ था। उसके ठीक बीच में आठ पत्तियों वाला  सफ़ेद फूल था।मैं उस सुर्ख़ फ़र्श पर पर खेलना चाहती थी।लेकिन खस्ताहाल हो चुके बारजे पर खड़ा होने की खास मनाही थी। उन दिनों माँ पेट से थी ।वो खिड़की पर मेरा पुराना स्वेटर उधेड़कर ऊन का गोला बनाते हुए  जाने क्या ताकती थी और मैं उनकी टांगों से चिपटी यह देखती थी कि माँ यूँ खोई खोई सी क्या ताकती है। पटसन के खरहरे खटोले पर पड़ी नानी  पत्थर हो चुकी माँ को  अपनी क़र्बज़दा आंखों से देखकर मुर्दा आवाज़ में किसी को कोसने भेजा करती थीउसकी बाट मत देख लाड़ोवो डंकिनी उसे नई छोड़ेगी।नानी की वो मुर्दा आवाज़ अब भी मेरे चारों तरफ़ नक़्श बनाती गूंजती है।

 

बारिश तेज़ हो गयी थी। फुहारे खिड़की के कांच से टकराकर मुझे भिगोने  लगी थीं। मैंने खिड़की को आधा भिड़ा दिया। पड़पड़ाता पानी कांच  पर तेज़ी से फिसलने लगा।

 

मेरे कमरे की यह खिड़की दसियों साल से खाली पड़े एक प्लॉट में खुलती है। तकरीबन चार सौ गज़ विवादित ज़मीन का यह टुकड़ा चौमासों में एक सब्ज़ बग़ीचा बन जाता है। इस सब्ज़े में गुलमोहर और अमलतास के दो पेड़  एक दूसरे के इतने  करीब खड़े हैं कि आपस में गुँथी उनकी शाखें किसी प्रेमी जोड़े की तरह  आलिंगन करती हुई सी लगती हैं।उन पर जड़े लालपीले  फूलों के गुच्छों को देखकर कई बार यह भेद करना मुश्किल होता है कि कौन से फूल किस पेड़ की मिल्कियत हैं। बची हुई बाक़ी जगह पर गुलाबी गुलों वाले बेहया के झाड़ों ने अपने पाँव पसार दिए हैं। 

 

ये खाली प्लॉट मेरा साल भर का कैलेंडर है। जहां मैं सारे मौसमों को  आतेजाते देखती हूँ। खिड़की पर खड़े होने का मेरा कोई ठीक वक़्त नहीं ।वो दिसंबर की आधी रात भी हो सकती है और जून की टीक दोपहरी भी।यह खिड़की और खाली प्लॉट उम्र के इस सबसे उबाऊ दौर के मेरे साथी है।मैं अक्सर दुआ करती हूँ कि तनाज़े वाली इस ज़मीन का फ़ैसला कभी हो।और यह खिड़की हमेशा यूँ ही खुली रहे।

 

इस खुशनुमा सब्ज़े के पार डेड एन्ड पर मेरे सपनों का घर है।सफ़ेद इटालियन संगमरमर से जड़ामनचंदा हाउस जिसकी खिड़की ठीक मेरी खिड़की की सीध में प्लॉट के दूसरे छोर पर खुलती है।कभीकभी मुझे अपने आप पर संदेह होता है कि मेरी ज्यादा दिलचस्पी खाली प्लॉट में है या इस खिड़की में ! वो खिड़की प्रायः खुली रहती है। बस कभी कभार जब शाम के सूरज की रोशनी नारंगी होने लगती है  तब उस पर एक झीना परदा होता है।मैं अक्सर उस खिड़की में आलिंगनबद्ध होते …..खिलखिलाते  …चुहल करते दुनिया के सबसे खूबसूरत चालीस पार के जोड़े को झाँकती हूँ।

मनचंदा हाउस की  ऊपरी मंज़िल पर कई खिड़कियों वाला और सामने की ओर छज्जे वाला एक कमरा है जो  मुझे वक़्त बेवक़्त ननिहाल की याद दिलाता है।सड़क की ओर खुलने वाले इस छज्जे पर गमले तरतीब से एक कतार में लगे हैं।लचकदार बेलों ने छज्जे को ढांप रखा है।  स्टेनलेस स्टील की दमकती रेलिंग वाली घुमावदार सीढ़ियां इस कमरे को जाती हैं ।उन्हीं सीढ़ियों पर बैठकर मनचंदा जाड़ों में नरम धूप सेंकता हुआ अख़बार पढ़ता है। और आर पार दिखते प्याले में राधिका ग्रीन टी के घूँट भरती है।बिल्लौरी आंखों वाली पूर्वा इसी मनचंदा हाउस में किराएदार है। 

 

इस समय सुबोध मनचंदा पत्नी राधिका के साथ अपनी टैरेस पर भीग रहा था।मलमल का शफ़्फ़ाक़ सफ़ेद कुरता उसके बदन पर चिपका हुआ था।चालीस पार की राधिका  मनचंदा उम्र के साथ निखर रही है।उसके अंग प्रत्यंग में पारा भरा है। उन्हें भीगते देखकर मेरा मन उम्र की ढलान पर ख़्वाहिशों की दुर्गम चढ़ाई चढ़ने लगा। मैं अपनी ज़िंदगी के पन्नों को बहुत पीछे तक पलटकर देखने लगी और याद करने लगी कि क्या मैं और शेखर कभी इत्तफ़ाकन भी इस तरह भीगे हैं? उन्हें बारिश अच्छी नहीं लगती या मेरी तरह उन्होंने भी जो चाहा वो कभी किया नहीं।अंतर्मुखी होना एक घाटे का सौदा है।

 

भीगने के बारे में सोचते ही मैं एक दूसरी  चिंता में घिर गई।  संक्रमण वाले इस मौसम में गुंजन भीग गया होगा।कल से लगातार छींक रहा था। फिर भी सवेरे ही खेलने निकल गया।मैं हिम्मत बटोरकर काम निबटाने को सीढियां उतरने लगी कि कॉल बैल बज उठी। गुंजन ही था ।बैल लगतार बज रही थी।उसे ज़रा भी सब्र नहीं।जब तक दरवाज़ा खुल जाए वो बटन से हाथ नहीं उठाता। वो पूरा भीग गया था।  अंदर दाखिल होते ही खिन्नता से  फ़र्श पर अपना बल्ला पटककर वो बड़बड़ायाडैम रेन…. सारा खेल बिगाड़ दिया।दिन भर धूप ताप में रहकर उसका गोरा रंग ताम्बई हो गया है। क्रिकेट किट के भीतर उसके ग्लव्स और पैड्स भीग गए थे। उसने पंखे के तले फ़र्श पर उन्हें फैलाते हुए मलाल से कहाआज हम जीत जाते मगर ये मनहूस बारिश ….” मायूसी की एक गहरी छाया उसके चेहरे पर पड़ी और पल भर में उतर गई। उसके जूते और लोअर के पाँयचे कीचड़ में सने थे।वो तौलिया लेकर बाथरूम में घुस गया। मैं उसके कमरे की बिखरी चीज़ों को सँवारने लगी। वो अच्छा खेलता है और सिर्फ़ खेलने के लिए नहीं खेलता। उसे यक़ीन है वो एक दिन अच्छा बल्लेबाज़ बनेगा। उसके कमरे की दीवार पर उसकी पसंद के खिलाड़ियों का कोलाज है। वो दिन भर खेल सकता है मगर किताबें उसे थोड़ी देर में थका देती हैं।

 

गुंजन के पलंग के नीचे कप के तले में दूध जम गया था। जुराबें जूतों में ठुंसी थीं उनसे बास उठ रही थी।गुंजन को इससे फर्क़ नहीं पड़ता।मैं देखूँ तो वो महीनों एक जोड़ा जुराबें पहनता रहे। मैं स्टडी टेबल पर रखी उसकी स्क्रैप बुक को पलटने लगी। उसमें उसके बचपन की तस्वीरें थीं.. क्रिकेटअकादमी से जीते हुए खेलों के ब्यौरे थे ….उसके प्रिय खिलाड़ी थे और मैं यह देखकर चौंक  गयी कि  एक पूरे पन्ने पर रूसी मॉडल नतालिया वोदियानोव की उत्तेजक तस्वीर थी। मैंने स्क्रैप बुक को वैसे ही रख दिया जैसे वो रखी थी।मैं नहीं चाहती थी कि गुंजन यह बात जान ले कि मैंने उसके बारे में कुछ छिपी हुई बात जान ली है।वो नहाते हुए बाथरूम से कोई अंग्रेज़ी गाना गुनगुना रहा था। मेरा मन अजीब हो रहा था।क्या गुंजन बड़ा हो गया ! मुझे याद आया एक रात मेरे अचानक जाने पर वो झेंप  गया था और घबराहट में मोबाइल को तकिए के नीचे रखकर कुछ भी ऊट पटांग बोलने लगा था। मैं  बेचैन होन लगीे ।क्या उस वक़्त गुंजन कोई गेम खेल रहा था या कुछ और…..

आजकल उसे सीना चौड़ा करने वाली स्प्रिंग्स और डम्बलों की आज़माइश की ख़ब्त चढ़ी है।वो खुद को देर तक आइने में देखता है। यही वो उम्र है जब लड़के लड़कियों पर नज़रें गड़ाने लगते हैं और लड़कियां यह ताड़ने लगती हैं कि कौन उन पर नज़रें गड़ाए है।मेरे अंदर एक हूक सी उठी। अभी उसे चूमते , पुचकारते , कलेजे से लगाते जी नहीं भरा और वो बस छह ही महीने में बांस की तरह बढ़ गया। मुझे घुटनों पर रेंगता , हुंकारे भरता गुंजन याद आने लगा और याद आने लगीं  माथे पर झालर वाली उसकी ऊनी टोपी और नन्ही जुराबें। उसी में तो मेरे जीवन का सारा राग और संगीत बसा  है। मेरा मन उसे छाती से लगाने को मचलने लगा था।वो मुझसे चार बालिश्त ऊँचा है। उसके भरेभरे गुलाबी होठों के ऊपर महीन बालों की हलकी रेखा दिखने लगी है।उसकी आवाज़ में अचानक ही भारीपन उतर आया है। मुझे लगा बच्चों को कभी बड़ा नहीं होना चाहिए।

 

गुंजन कब नहाकर आया मुझे पता ही नहीं चला। पता चला जब रसोई से कटोरदान खखोड़ने की आवाज़ आने लगी ।वो पूछ रहा था

 ” बहुत भूख लगी है ,क्या बना है?”

फिर कढ़ाही में  झाँककर बुरा सा मुँह बनाते हुए बोला 

मैं टिंडाविन्डा नहीं खाउंगा।

 मैंने कहाकल तेरी पसंद का बना दुंगी।

वो  रूखी डबलरोटी चबाने लगा। 

तो आज भूखा रहूँ?” 

मेरे अंदर ममता उमड़ रही थी।मैं उसके लिए सैंडविच बनाने में जुट गई तो वो लाड़ से अपना भार मेरे कंधों पर डालकर झूल गया।

आप कितनी अच्छी हो। अगले हफ़्ते सीरीज हैहरियाणा जाना है।

मैं क्या बताऊँ  पापा से पूछना

एक घन्टे का लेक्चर सुनने से अच्छा है जाओ।

सहसा जैसे उसे कुछ याद आयापता है अर्जुन भैया अंडर नाइंटीन खेलने वाले हैं…. मिसेज़ मनचंदा ने फ़ेवर किया है।

कौन अर्जुनपूर्वा का भाई! वो  खेलता है?मेरी आँखों में एक दुबला पतला लड़का साकार हो उठा ।उसकी दोनों बाजुओं पर कुहनियों तक गोदने खुदे थे   मैंने कई बार उसे  पूर्वा के साथ सब्ज़ी की ठेलियों पर और नज़दीक के किराने की दुकान पर देखा था। उसकी आँखें बिल्कुल पूर्वा जैसी थीं ..सैटेनिक ब्राउन।

  मिसेज़ मनचंदा की इतनी पहुँच है! मुझे अचरज़ हुआ।गुंजन ने हुलसकर कहा  “और क्या ।वो चाहेंगी तो मुझे अंडर सिक्सटीन खिलवा देंगी…..अर्जुन भैया के साथ जाकर मैं  उनसे बात करुंगा

मैं उसकी सोच पर मुस्कराने लगी।

मैंने उसे आश्वस्त करने को कहाज़रूर करना मगर अपनी काबिलियत पर भरोसा रखो किसी के चाहने से तुम आखिर कब तक खेल पाओगे।

उसने इस बात पर कुछ कहा।

 

 

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मुझे कोई ठीक अंदाज़ा था कि क्या वक़्त हुआ था।मगर बाहर तेज़ी से  पानी बरसने की आवाज़ अब भी रही थी। शायद डेढ़ दो के आस पास का समय होगा। अचानक नींद उचट गयी थी। कोई बुरा सपना देखा था कि मेरी पलकों के कोर गीले थे।पंखा धीमी गति से अपनी धुरी पर घूम रहा था। मैंने उलट पलटकर सोने की कोशिश की लेकिन नींद आंखों से कुछ इस तरह दूर थी जैसे मैंअपनी तमाम नींदे सो चुकी हूँ। शेखर जिस करवट सोए थे अभी तक उसी करवट थे।लगातार घर से बाहर रहना उन्हें थका देता है।मैं उनके खर्राटे गिनने लगी।एकचारछःनौ ..….और फिर खुद ही अपनी बेहूदा हरकत पर शर्मिन्दा हो गयी। सोते वक्त गुंजन को बुख़ार था।मैं सोच रही थी एक बार फिर देख लूँ ।सीढ़ियों के बाद पहला कमरा अंतरा का पड़ता है। वो पढ़तेपढ़ते किताब पर सिर रखे औंधी सो गई थी।उसके सिर पर अपेक्षाओं का भारी बोझ है।मैंने किताब उठाकर किनारे रख दी। और बत्ती बुझा दी।अपने कमरे में गुंजन सिकुड़ा पड़ा था।सिरहाने उसका मोबाइल और इयरफ़ोन पड़े थे।मैंने पंखा धीमा करके  उसे एक और चादर ओढ़ा दी ।उसे नामालूम सा बुख़ार था। फ़्लू का पहला दिन था।दो दिन और वो ऐसे ही बेहाल रहेगा।

 

इस समय मुझे आराम को बस एक ही जगह थी।मैं बिना आहट किए खिड़की पर खड़ी हो गयी। मुझे हैरानी हुई कि प्लॉट के पार वाली खिड़की में रौशनी रंग बदल रही है।यानि रात के इस वक़्त मनचंदा का टी. वी  ऑन था ।मुझे जाने क्यों अच्छा लगा कि मेरे साथ और कोई भी है जो जाग रहा है। मैं सोचने लगी कि राधिका मनचंदा इस समय किस अवस्था में होगी।मुझे इंतज़ार था कि थोड़ी देर में मनचंदा अपनी कमीज़ के बटन बंद करता हुआ अपनी खिड़की पर   दिखाई देगा। वो खिड़की की दहलीज़ पर अपनी कुहनियां टिकाकर सिगरेट फूंकेगा और फिर उसके कमरे में अंधेरा पसर जाएगा।मैंने एकाएक महसूस किया कि मुझे हर वक़्त मनचंदा का इंतज़ार रहता है। 

 

प्लॉट के घटाटोप अंधेरे में पत्तों पर पड़ पड़ गिरती बारिश की आवाज़ भयावह लग रही थी। मुझे हौल होने लगा।

 

मनचंदा के कमरे में रंगीन रौशनियां बुझ गयी थीं।अब सामने की खिड़की पर घुप्प अंधेरा था  वो दोनों  सो गए होंगे।उन्हें क्यों जागना चाहिए।इतनी रात गए जागने का कोई औचित्य था।मगर एकाएक ही अंधेरे को तोड़ता हुआ  आदमकद रेफ़्रिजरेटर का दरवाज़ा खुला और उसकी धीमी रौशनी में मैंने देखा सिर से पाँव तलक नंगा मनचंदा गट गट पानी पी रहा है। मेरे अंदर अजीब सनसनाहट होने लगी।मेरे पैरों में चींटियां सी रेंगने लगी  कि मैं क्या अधर्म कर रही हूँमुझे क्या हो गया है।मैं आधी रात किसी मर्द के अंतरंग पलों को देखने का पाप कर रही हूँ।लेकिन मेरे पाँव फ़र्श पर मानो चिपक गए थे।मैं इंच भर भी नहीं हिली।

सोती क्यों नहीं?”शेखर की आवाज़ से मेरा जिस्म सूखे पत्ते की तरह काँपने लगा।जैसे उन्होंने मुझे चोरी करते पकड़ लिया हो।मेरे मुँह से बोल फूटा।

वो टॉयलेट के निमित्त उठे थे। और फिर करवट बदलकर सोने लगे थे। इससे पेशतर कि मैं पलटती मेरे होश उड़ गए। मुझे और भी कुछ देखना बाक़ी था।मैंने देखा एक निर्वस्त्र जनाना साया मनचंदा से लिपट गया। वह राधिका मनचंदा नहीं थी। वह राधिका मनचंदा बिल्कुल भी नहीं थी।मैंने फ़्रिज की मद्धिम रोशनी में भी उसे पहचान लिया था।वह इस वक़्त बिल्कुल शर्मीली नहीं लग रही थी।और  …..अंधेरे में उसकी आंखें नहीं चमकती थीं।

 

मैं किसी तरह बिस्तर तक पहुँची ।मुझे लगा कि शेखर को झिंझोड़कर जगा दूँ।और उनसे सब कह डालूं। मुझे ऐसी घुटन हो रही थी कि अगर कुछ देर और चुप रही तो मेरा दिल डूब जाएगा।मगर मेरी आवाज़ रुद्ध हो गयी थी। मुझे जान पड़ रहा था कि अंतरा पर कोई आसन्न खतरा मंडरा रहा है।

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मेरे सामने अनदेखा सा एक आदमी धीरे धीरे एक बड़े मकड़े की शक़्ल अख़्तियार करने लगा उसने अपनी आठों भुजाओं में अंतरा को जकड़ लिया था।

 

अगली सुबह शीशे के सामने गुनगुनाकर सँवरती हुई अंतरा सहम गयी थी। मैंने कड़ी आवाज़ में उसे कहाआज से एक्स्ट्रा क्लास में नहीं जाना।

यह अप्रत्याशित निर्देश था।

क्यों नहीं?”उसका चेहरे पर कई रंग आकर ठहर गए।

स्कूल से सीधा घर आना।

ये बिना बात का तालिबानी फ़रमान किसलिए ….वैसे सीधे घर नहीं आएगा मम्मा  थोड़ा मुड़ना पड़ता है।” 

अंतरा की बेफ़िक्री ने मुझे तसल्ली बख्श दी थी।

 

फिर भी मैं  हफ़्तों एक आतंक के साए में रही।मैं आँखे बंद करती तो वो दृश्य मेरे अंदर मवाद की तरह बहने लगता। कभी लगता वो मेरी उम्र का एक लम्हा था कभी लगता उस लम्हें की उम्र सौ साल है।मैंने रात को खिड़की पर खड़ा होना बंद कर दिया था। मैंने सोच रखा था कि किसी दिन मैं बरसात की उस नंगी रात का ज़िक्र राधिका मनचंदा से ज़रूर करूंगी।

 

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चौमासे बीत गए थे। महीनों बाद मैं रात के वक़्त आज  खिड़की पर खड़ी हुई थी।शेखर दो दिनों के लिए सूरत गए थे। चढ़ते चांद की रात थी।  चाँदनी का  एक  टुकड़ा खिड़की के  काँच पर रेंग रहा था।पतझड़ के बाद हवाओं में सिहरन उतरने लगी थी। प्लॉट में गुलमोहर और अमलतास के सुर्ख़ और पीले फूलों ने उनका संग छोड़ दिया था। सड़क पर पूरी तरह सन्नाटा था।बस स्ट्रीट लाइटों  पर पतंगे मंडरा रहे थे। गश्त पर निकले  चौकीदार की विशल और लाठी फटकारने की आवाज़ कानों को खरोंचती हुई निकल रही थी। चौकीदार के लाठी फटकारने पर मनचंदा के फाटक पर बंधा अमेरिकन एस्किमो भौंकने लगता और फिर अगली फटकार आने तक  चुप्पी साध लेता।मनचंदा की खिड़की पर गाढ़ा अंधेरा था।वहां किसी के जागते रहने का कोई लक्षण नहीं था।मेरे मन में सवाल उठ कि क्या बत्ती बुझाने से पहले अब भी मनचंदा खिड़की पर आकर सिगरेट फूँकता होगा!

मैं अपनी सोचों की  रौ में बह रही थी किअंधेरे में डूबे  मनचंदा के कमरे की बत्ती भक्क से जली और अगले ही पल बुझ गयी।मगर उस एक पल में मुझ पर सैकड़ों बिजलियां टूट पड़ी।मुझमें और कुछ देख पाने की सामर्थ्य बाक़ी नहीं थी।मैंने जो देखा था वो मेरे लिए अविश्वसनीय और अकल्पनीय था। मैंने देखा दो दुबली बाजुएं राधिका मनचंदा की नग्न छातियों के गिर्द लिपटी हुई हैं। मुझे उस दुबली बाहों वाले का चेहरा देखने की कोई तलब थी।  मेरा दिल डूब रहा था।

मैं निष्प्राण कदमों से सीढियां उतरती हुई गुंजन के कमरे में जा पहुँची वो गहरी नींद में था। उसके होठों पर बड़ी प्यारी मुस्कान थी जैसे कोई  मीठा सपना देख रहा हो। मेरी आँखों से अविरल गिरते आँसू गुंजन की ओढ़ी हुई चादर में जज़्ब होनेे लगे ।मुझे लगा वो नवजात शिशु बन जाए और मैं उसे फिर अपने गर्भ में छिपा लूँ।

 

दो दिनों के बाद शेखर ,अंतरा और गुंजन ने यक़ीन कर पाने वाली आंखों से देखा जब राजमिस्त्री ने फीते से नाप जोख करते हुए पूछाएक रोशनदान की जगह छोड़ दूं।मैंने गहरी सांस छोड़ी जो एक अर्से से रुकी हुई थी और बिना एक पल सोचे कहा  “नहीं…. एक सुराख़ भी नहीं।

 

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