Monday, May 13, 2024

विभा रानी- मैथिली व हिंदी की लेखक, अनुवादक, नाट्य-लेखक, नाट्य व फिल्म कलाकार। मिथिला के ‘डहकन’ और ‘खिस्सा कहे खिसनी’ की प्रेजेंटर, ‘अवितोको रूम थिएटर’ प्रणेता व कैंसर अचीवर। उपन्यास ‘कांदुर कडाही’ सहित मैथिली व हिंदी में नौ कथा संग्रह, नौ नाटक, लोक साहित्य पर दो पुस्तक, दो व्यंग्य संग्रह, दो कविता संग्रह, आठ अनूदित किताब सहित पैंत्तीस किताबें। कई पुस्तकों में रचनाएं संकलित। नाटक, कथा, कविताओं के मराठी, गुजराती, उर्दू, तेलुगु, पंजाबी, बांग्ला, अंग्रेजी आदि में अनुवाद। नाटक, कथा व सामाजिक गतिविधियों के लिए तीस से अधिक पुरस्कार व सम्मान। मुंबई में निवास। संपर्क- [email protected]

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कहानी

वाजिब है हमरे लिए दफा 302
विभा रानी
‘जी, जज साहेब, अपनी लल्‍ली का खून हम किए हैं। हम अपना जुरम कबूलते हैं। नहीं, हमको कोनो ओकील- तोकील नहीं चाहिए। का करेंगे हम बाहेर आ के? कौन सा हमरे लिए लोग गुलाब का फूल आ चन्‍दन का माला ले के हमरी अगवानी करेंगे। अभी तक तो दुइये- चार ठो बात सुनते थे, अब उसमें आठ गो आउर जुड़ जाएगा। लोग पहिले भी टोंट मारते थे, अब औरो मारेंगे। इस देस में सबको एतना बोलने का आजादी काहे है जज साहेब?’
‘हाँ, जज साहेब! जब कबूल करने पर आ ही गए हैं तो सबकुछ कबूलेंगे- राई- रत्‍ती। तनिको झूठ नहीं बोलेंगे। हम बड़ी डरपोक किसम के हैं। खून देख के हमको उल्‍टी- चक्‍कर आने लगता है। हम तो कहियो रोड पर कोनो कुत्‍ता- बिलाई का एक्‍सीडेंट भी नहीं देख सके हैं। ओने से नजर घुमा लेते हैं। एही मारे डाक्‍टर बनने का हिरिस मने में रह गया। कहियो मेढक का भी डिसेक्‍शन नहीं कर सके। हम अपना साथी सब को देखे कि ऊ सब मेढक को उल्‍टा करके उसका चारो टंगड़ी कील से ठोक दिया, चारो पैर तना हुआ आ बीच में उसका फूला पेट, जिसके ऊपर से कैंची चलनेवाला था उसका पेट फाड़ने के लिए। जिंदा मेढक- छटपटाए नहीं, छटपटाकर भागे नहीं, इसके लिए कील में ठोका मेढक। माफ कीजिएगा जज साहेब। हमको पता नहीं क्‍यों ईसा मसीह याद आ गए। कील में ठोका मेढक देखकर हमको चक्‍कर आ गया। हम बेहोश हो गए। पैंट भी गीला हो गया।‘
‘बचपने से जब- तब पैंट गीला हो जाता है। टोला- मोहल्‍ला में तो लोग आ खासकर जनी- जात सब अपना सुख- दुख एक- दूसरा से बतिऐबे करते हैं। हमरी माई भी टोला- मोहल्‍ला के चाची, दादी, फुआ से हमरा ई नया दुख बतिया देती। इस बीमारी से छूटने का उपाय पूछती।‘
‘दादी- चाची सब उपाय सुझाईं- ‘रात में सोने से पहले दिया जलाकर बचवा के माथे पर रखकर जहां वो सोता है, वहां से लेकर घर के बाहरी दरवाजे तक पांच बार उसका फेरी लगवाओ ई बोलते हुए- ‘घर में सूत, बाहर में मूत।’
‘हमरी भोली- भाली माई! पूजा जैसी श्रद्धा और विश्‍वास से ई सब करती गई। मगर हमरा पैंट गीला होना नहीं थमा। मोहल्‍ले की दादी- चाची- फुआ के मार्फत उनके घरों की बाकी सभी औरतों और वहां से उनके मरद और मरद से बच्‍चों तक को हमरी ई बीमारी का पता लग गया। जनी- जात हमको देख पूछ बैठती- ‘बउआ, मन ठीक है न अब?’ मर्द कहते- ‘काहे रे? एतना बड़ा हो गया, अखनी तक बिछौने पर मूतता है!’ और बच्‍चे तो हमको देखते ही ताली पीट- पीटकर चिल्‍लाने लगते- ‘मूतना, रे मूतना।’ हमरा तो नामे जज साहेब मूतना पड़ गया। बच्चा सब ठिठियाते हुए इस फकरा को उल्‍टा करके बोलते- ‘घर में मूत, बाहर में सूत।‘ पूछिए गनेस तिवारी का घर तो कोई नहीं बताएगा। पूछिए, मूतना का घर, चालीस ठो लोग आपको साथ लेकर हमरे दुआरे पर आपको पहुंचा देंगे। हमरी ओर देखा के बोलेंगे– ‘ईहे है मूतना- माने गनेस तिवारी।‘
‘हमरे यहां का बड़ी खराब चलन है। किसी को कुछ होने पर लोग उसका उपाय नहीं करेंगे। उस बीमारी या लक्षण को देखकर उसका नामे उसके ऊपर रख देंगे- जैसे हमरा रख दिया- मूतना। हर किसी का ऐसा ही नाम है- कोई कनहा यानी काना है तो कोई लंगड़ा, कोई कुबड़ा तो कोई दंतुला तो कोई डेढ़ बित्ता, कोई बौना तो कोई कनकट्टा। एक को बहुत कम दिखाई देता था। खूब मोटा चश्‍मा पहनता था और चलते वक्‍त भुंइया, माने जमीन देख- देखकर चलता था, तो लोगों ने उसका नाम ही रख दिया- भुंईतक्‍का।‘
‘हमरी लल्‍ली हमको बहुत प्‍यारी थी। हमसे चौदह बरस छोटी। गोद में उसको ले के हम खेलाए हुए हैं। हमरा जनम भी माई- बाबू के शादी के आठ साल बाद हुआ। माई का भी नाम पड़ गया गया बॉझिन। माई बताती- ‘औरतें उसके यहां आना- जाना बन्‍द कर दी थी। तीज- त्‍यौहार में, मेले- ठेले में उसे देखकर उससे बचकर निकलती कि माई की छांह कहीं उनलोगों पर ना पड़ जाए। दादी बाउजी पर दूसरा ब्‍याह के लिए जोर मारने लगी। माई की किस्‍मत तनिक बढिया हुई कि हमरा जनम हो गया। बच्‍चा ही नहीं, बेटा का जनम। माई का खोया हुआ मान- दान लौटा। मगर दुइए बरस बाद फेर ओलाहना- ‘अरे, अब इस राम के लिए लछमन तो चाहिए ना!’ और माई फेर से बांझ से एकांझ हो गई। माने जज साहेब, जिसको एकदमे से बच्‍चा नहीं हुआ, ऊ बांझ आ जिसको एके गो हुआ, ऊ एकांझ।‘
‘माई को बांझ से मुक्ति दिलाए हम आ एकांझ से छुटकारा दिलाई लल्‍ली। हमरे जनम के चौदह साल बाद। हमरा तो खुसी के मारे हालते खराब था। पता नहीं, हमरे मन में एगो बहीन की कल्‍पना शुरूए से थी। दादी लोग सब मनता मान रही थी कि बेटा होगा तो भगवती को जोड़ा छागर (बकरी) बलि चढाएंगे। राम को लछुमन मिलेगा, बलराम को कृष्‍ण। मगर हम माई के पेट पर उंगली रखकर पूछते, ‘माई रे, इसमें हमरे लिए बहिन है न?’ माई स्‍नेह से मुस्‍का पड़ती। हम तनिक ठुनकते, ‘हमको बहिन देना। ऊ हमको राखी बांधेगी, हम उसको नेग देंगे।‘
माई हमको नेग में लल्‍ली दे दी। हम भर दिन उसको गोदी में उठाए घूमते रहते। रात में हम उसी के बगल में सोते। लल्‍ली बड़ी होती गई और हमरा प्रेम भी उसके लिए बढ़ता गया। उसका एक आंसू हमको डिसेक्‍शन के लिए टंगा मेढ़क जैसा लगता और हम तड़प- तडप जाते। ऊ बीमार पड़ती तो हम रात- रात भर नहीं सोते। सभी कहते, ‘रे गनेसवा, एतना प्रेम मत कर! बेटी जात है। ससुराल चली जाएगी तो तू कइसे रहेगा।’
‘हम दूल्हा को घरजंवाई बनाकर रख लेंगे।’
‘तुम्‍हारी घरवाली तुम्‍हीं को झाड़ू मारकर निकाल देगी। कोनो भौजाई अपनी ननद के लिए अपने मरद का इतना प्रेम बरदास्‍त नहीं कर सकती है।’
‘हमारी लल्‍ली गन्‍ने की तरह बढ़ती गई- छरहरी, दुबली, गोरी, सुन्‍दर और पढ़ाई में खूब तेज। हमको डिसेक्‍शन से जितना डर लगा था, उसको उसमें उतना ही मन लगता। फूल- पत्‍ते की पांखुरी तोड़कर उसका पुंकेसर- पराग देखने, पहचानने की कोशिश करती। किताब पढ़- पढ़कर नब्‍ज थामकर, घड़ी मिलाकार नबज टटोलती। मैंने पूछा- ‘लल्‍ली, डाक्‍टर बनेगी तू?’
‘लल्‍ली को डाक्‍टरी में दाखिला मिल गया- एके बेर में। हमरे मन की साध लल्ली एक्के बेर में पूरा कर दी। जज साहेब, हम पहिले ही बोले हैं कि राई- रत्‍ती सच बोलेंगे। हमारी लल्‍ली पढ़ने में बहुत तेज थी और हम उतने ही बोगस। लेकिन हम बेटा थे ना! सो कोई कुछो नहीं बोला।‘
‘हमरा बोगस दिमाग देखकर बाउजी बोले- ‘अपना खेती- बाडी आ खाद का धंधा संभाल।’
‘ई हमको आज बुझाता है कि हमरा बोगस दिमाग देखकर सब हमको मूतना के बाद बोका कहने लगे थे और बाउजी इस कहनपट्टी में शामिल नहीं होना चाहते थे। ऊ अपना बेटा के मन में ई बिस्‍वास भरना चाहते थे कि नहीं, पढ़ने से या कम बुद्धि होने से कोई इन्‍सान खारिज नहीं हो जाता। सो ऊ हमको अपना खेती- बाडी आ काम- धन्‍धा में लगा दिए। आउर उसके ऊपर से हमरा सादी भी करा दिए। अपने समाज में कोनो लड़का कितना भी गंवार, मूरख, चप्पड- चौपट क्‍यों ना हो, उसका बियाह होइए जाता है। पता नहीं हमरे समाज में बेटी एतना बड़का बोझ काहे बना दी गई है। हमरा भी बियाह हो गया और हम बाउजी के साथ खेती आ धंधा संभालने लगे।‘
‘डाक्‍टरी का पढ़ाई बहुत खर्चीला होता है, जज साहेब। इधर मंहगाई भी सुरसा की तरह बढ़ रही थी, उधर बाउजी का धन्‍धा भी मन्‍दा हो रहा था। खेत में कमाई नहीं रह गया था। जो नहर था, कहिया न सुखा गया था। खाद का धंधा कम हो रहा था। पानिए नहीं बरसता था। सो सब फसल चौपट। कोनो साल एतना पानी कि सब दहो- बहो। दाही आ सुखाड से जूझते साले- साल हमलोग। खेती का बिये नहीं पनपता पानी के कारण सो लोग को लगता कि काहे के लिए उस पर खाद का खरचा और बढाया जाए! उसपर से लल्‍ली की डाक्‍टरी की पढ़ाई। बाउजी एक बेर बोले भी कि काहे के लिए उसकी पढ़ाई पर एतना खर्चा! आखिर को तो दूसरे घर उसको जाना है। मैं लड़ गया बाउजी से, सचमुच! अपनी लल्ली की खातिर, हां! बोले थे बाउजी को- ‘हम तो बौक- बौकाल रहे।‘ लल्ली एतना तेज दिमाग वाली है। एक्के बेर में मेडिकल किलियर की है। उसको तो आपको पढाना ही पडेगा।‘
‘सचमुच लल्‍ली बहुत हुशियार थी। डाक्‍टरी की प्रवेश परीक्षा भी वह एके बेर में पास कर गई। स्कूल से लेकर कॉलेज तक सभी क्लास में ऊ फर्स्‍ट आती। उसकी पढाई हम लडकर करवाए। आखिर हमरी बहन डाक्टर बनने जा रही थी जज साहेब!’
‘लल्ली ने इधर पढ़ाई खतम की और उधर उसको कई अस्‍पताल और नर्सिंग होम से बुलावा आने लगा। आज के समय में ऐसे ही तो किसी को कोनो नहीं बुलाता है ना जज साहेब! हमलोग क्‍या राय- विचार देते। खुदे ऊ अपना सबकुछ ऊंच- नीच बूझ- बाझकर एगो होस्‍पीटल ज्‍वायन कर ली। लोग सब फेर हमको कहने लगे- ‘रे मूतना, अब बहिन डाक्‍टरनी हो गई है तो तू उसकी कम्‍पोडरी ही कर ले। घरवाली को नर्स बना दे। तेरा भी नाम बदल जाएगा। मूतना से मूतना कम्‍पोडर हो जाएगा और तकदीर भी सुधर जाएगी।‘ जज साहेब, अपना बाल- बच्‍चा के लिए तो आदमी हाथी- घोड़ा, बंदर, भालू सब बन जाता है। हम लल्ली के कम्‍पोडर बन भी जाते तो उसमें क्‍या खराबी? खराब लगा तो खाली अपना नामकरण- गनेस तिवारी कंपोडर के बदले मूतना कंपोडर।‘
‘पढ़ाई और नौकरी का ऊंच- नीच तो लल्‍ली बूझ गई, मगर जिनगी के ऊंच- नीच में तनिक गड़बड़ा गई। वैसे, हमरे हिसाब से ऊ कोनो गड़बड़ नहीं था जज साहेब। मगर ऊपरवाले की बनाई- बिगाड़ी चीज पर भी अपनी जबान चलाने से बाज नहीं आनेवाला ई समाज, इंसान के उस काम को कैसे सह लेता, जिसमें उसकी रज़ामन्दी ना हो?’
‘पहले तो घर में ही खूब हंगामा मचा, जब लल्‍ली बोली कि ऊ जयचंद चौधरी से ब्‍याह करना चाहती है। जयचंद चौधरी उसी के साथ पढ़ता था और अभी दोनों एके होस्‍पीटल में थे। अपने समाज का भी गजबे रीत है। बेटा- बेटी अपना मर्जी से पढ़ाई- लिखाई करे, कपड़ा- लत्‍ता पहिरे, खाना- पीना खाए, सिनेमा- बजार करे, सब चलता है, मगर ऊ अपना मर्जी से अपना जीवन साथी चुने तो जैसे महासागर पलट के आसमान में डेरा जमा लेता है।‘
‘हमलोग ठहरे कान्‍यकुब्ज ब्राह्मण। सो पहिले तो लगा कि चौधरी माने होगा, मिथिला का मैथिल ब्राह्मण। बाकिर आजकल चौधरी, ठाकुर, सिंह सबसे किसी के जात- ऊत का पता नहीं चलता जज साहेब। सो, जब जयचंद चौधरी के जात का हमलोगों को पता चला तो सबके पैर के नीचे से जमीन खिसक गई। अरे लाख डाक्टर था और लल्लीए जैसा तेज़ था। उसको भी होस्पीटलवाले अपने से आगे बढकर बुलाए थे, मगर इससे उसकी ज़ात तो नहीं बदल जाती। बाउजी बाघ लेखा दहाड़ने लगे। माई अलगे से घेओना पसारकर बैठ गई। हमरी घरवाली कोंहडा जैसा मुंह बनाकर घूमती रही। और हम एतना नरभसाए जज साहेब कि बहुत साल बाद, बूझिए कि इस बडी उमिर में पहिला बेर हमरा पैंट गीला हो गया।‘
‘हम लल्‍ली को बहुत समझाए, बहुत बुझाए। घर, कुल- खानदान, टोला- मोहल्‍ला, सर- समाज सभी का हवाला दिए। बाउजी के इज्‍जत का दुहाई दिए। ऊ सब सुनती रही आ सुनकर एक्‍के गो बात बोली- ‘भैया, केवल यह बता दो कि जात के अलावा और कौन कमी है उसमें? पढ़- लिखकर भी हमलोग इस ज़ात-पात में ही उलझे रहेंगे? इस देश का कितना नुक्‍सान हो रहा है इस जात- पात के चक्‍कर में, कभी सोचा है आपने? भैया, आप तो आज के समय के हैं और आपको तो हम बाउजी से भी बढ़कर बूझते और पूजते हैं। आप तो हमारा साथ दीजिए।’
‘सच पूछिए जज साहेब तो हम तो अपनी लल्‍लीए के पक्ष में थे। अरे, क्या होता है जात- पात से। एतना बाभन सब तो कोट- कचहरी आ ऑफिस में चपरासी का काम करता है और छोटा जात के ऑफीसर का पानी भरता है। तब उन लोगों का जात नहीं जाता? दिल्‍ली, कलकत्‍ता, मुंबई में तो सुनते हैं जो ऊ सब होटल में काम करता है, सबका जूठा उठाता है। और हमरी लल्‍ली तो एतना समझदार है। ऊ कोनो गलत काम कर ही नहीं सकती। तो भला अपना जिनगी के चुनाव में गलत कैसे होती?’
‘हम अपना दिस से माई- बाउजी को भी बहुते समझाए। मगर माई- बाउजी पर भी समाज का एतना दवाब था कि पूछिए मत। हमरे बिस्‍तर गीला करने की बात माई जहां सभी मोहल्‍लेवाली को बताई थी, लल्‍ली की यह बात माई सबसे छुपा गई। बाउजी कभी गुस्‍सा में चिल्‍लाते तो माई बोलती- ‘आस्‍ते बोलिए। टोला- मोहल्‍ला जान जाएगा।‘
‘और जानिए गया। ई सब बात छुपाए छुपती है कहीं। बाउजी लल्‍ली को घर में बैठा दिए। लडकियों के लिए सबसे सस्‍ता, सरल, सुंदर उपाय। न अस्‍पताल जाएगी, न लड़के से मिलेगी, न बात आगे बढ़ेगी। उसके घर में इस तरह बन्द रहने से उसकी नौकरी का कितना हर्ज़ा हो रहा है, उसके मरीज के तबीयत- पानी का के‍तना नुक्सान हो रहा है, बाउजी को इन सबसे कोई मतलब नहीं था। हम इस मादे बाउजी को कई बार बोले।‘
‘हमसे लल्ली का उदास चेहरा देखा नहीं जाता था। पहिली बार बाउजी हमको बोले- ‘बोका! चुप रह तू। अपना दिमाग नहीं है तो दूसरे के दिमाग से काम कर।‘
‘बोका।‘ आखिर बाउजी भी हमको बोल ही दिए- बोका। माने, सचमुच में हम बोका, बुद्धू!”
‘हम अबतक खुद को बोका, बुद्धू नहीं समझे थे। मगर बाउजी के बोका बोलने के बाद हम सचमुच समझ गए कि हम बोका हैं, एकदम से बोका। हमको अब अपने दिमाग से नहीं, दूसरे के दिमाग से चलना चाहिये। और सचमुच हमरा दिमाग दूसरे के दिमाग से चलने लगा।‘
‘इधर बाउजी खेती आ दुकान- धन्‍धा हमरे हवाले करके तेजी से लड़का खोजने लगे उसके लिए आ पन्‍द्रहे- बीस दिन में एक जगह संबंध पक्‍का कर आए। हम तो जज साहेब कल्‍पने नहीं कर सके कि कोई बाप अपनी डाक्टर बेटी के लिए अइसा घर-वर खोजेगा! एक्‍के ठो मकसद जैसे बाउजी का रह गया था- ‘किसी तरह से कोनो लड़का खोजकर लल्ली को ठिकाने लगा दो। आगे जाने वो और उसका भाग्‍य!’
‘हम बोका थे, तइयो हम लड़े, खूब- खूब लडे। बडे होने के बाद दूसरी बार हम रोए। पहिली बार जब बियाह के बाद हमरी घरवाली विदा होते समय रो रही थी तो हमरी आंख भी पनिया गई थी। आ, अभी दूसरी बार, जब बाउजी लल्ली के लिए ऐसा बोका लडका खोजे। बाउजी फिर हमको बोका बोले, फिर भी हम लड़े- ‘लल्‍ली की पसंद के लडके से उसका बियाह नहीं करेंगे तो कम से कम उसके लायक तो लड़का लाइए। ऊ डाक्‍टर आ ई गुड के आढ़त पर काम करनेवाला? दसवीयो पास नहीं है। ढंग का कमाई नहीं है। खेती- बाड़ी नहीं है। घर भी किराए का है। इससे तो बढिया लल्‍ली का गला दबा दीजिए।‘
‘बाउजी ई काम नहीं किए। कइसे करते? ई काम तो हमरे हाथ से होना था न जज साहेब। बाउजी इधर लल्‍ली का बियाह ठीक करके आए, उधर ऊ जाने कैसे जयचंद से संपर्क साध ली और दूसरे ही रात घर छोड़कर चली गई। छोड़ने में एक ठो पुर्जो नहीं छोड़ के गई और लेने में अपना कान का बालियो नहीं ले के गई, जो ऊ हमेशा पहिने रहती थी। हाथ की अंगूठी भी उतारकर चली गई।‘
‘टोला- मोहल्‍ला को तो अब पता चलना ही था। सभी माई- बाउजी के ऐसे हितैषी बनकर उनके चारो ओर जमे कि वाह! औरत सब माई के पास पहुंच- पहुंचकर कहने लगी- ‘इसी सब से बेटी ज़ात को ज़्यादे नहीं पढाना चाहिये। भला कहिए तो? और जब आपको पता चला, तखनिये काहे न मुआ दी? खानदान पर करिखा लगा गई। अरे खोजबो की त’ चमार। शुद्ध बाभन की बेटी आ चमार से ब्‍याह?’
‘आदमी लोग का भी ओही हाल। हमेशा कोई ना कोई बाउजी के आस- पास डोलता रहता और बोलता रहता- ‘खोज के लाइए साले को। यहीं चीरकर धूप में सुखाने के लिए डाल देंगे। नहीं भैया, ई प्रेम- आसनाई नहीं है। ई एक ठो ऊंचे कुल- गोत्र जात की लड़की को भ्रष्‍ट करने की साजिश है। भैया, ई खाली आप ही के इज्‍जत का सवाल नहीं है, पूरी बिरादरी की प्रतिष्‍ठा का प्रश्‍न है। उस हरामजादे को खोजवाइए। सजा तो उसको मिलनी ही चाहिए।‘
‘समाज अपना देश के कानून से भी ऊपर कैसे हो जाता है जज साहेब, हमको अभी पता चल रहा था। लल्‍ली पर गुस्‍सा तो आ रहा था, मगर मन में एक ठो संतोष भी था। ऊ दसवीं फेल, गुड़ के आढत पर काम करनेवाले एक हज़ार रुपैया कमानेवाले से तो लाख गुना अच्‍छा है ई छोटी जातवाला लड़का। अपनी पसंद का भी और डाक्‍टर भी। दोनों जने अपना परेक्टिस कहीं भी करेंगे, कमाएंगे, खाएंगे, खुश रहेंगे। बाकिर ई समाज जज साहेब न, एकदमे से चौपट निकला। चौपट से बेसी बदमाश, जिसको दूसरे के घर में आग लगाकर हाथ सेंकने में बहुते मजा आता है। भर मोहल्‍ला क्‍या, पूरा शहर को हमरी लल्‍ली का टॉपिक मिल गया था। जो कोई जिधर टकरा जाता, एके सवाल पूछता- ‘रे मूतना, तेरी बहिन का कुछ पता चला? अब तो ऊ पूरी चमइन हो गई होगी! मुर्दा खाती होगी। चमड़ा निकालती होगी। राम-राम!’
‘रस्‍ता- पैरा चलना मुहाल हो गया जज साहेब। बाउजी को सभी सिखाते रहते- ‘रामधन बाबू! पुलिस- जासूस लगवाइए। खोजवाइए हरामी को। एक ब्राह्मण की प्रतिष्‍ठा का सवाल है। छोड़ दीजिएगा तो ई लोग का मन आओरो बढ़ेगा। आज भगा के ले गया है, कल सोझे- सोझे हाथ मांगने आ जाएगा और मना करने पर हमलोग के इज्‍जत का बखिया उधेड़ते हुए हमरी बेटी- बहिन को उठा ले जाएगा। न! सजा तो मिलना जरूरी है।’
चर्चा बहस का रूप ले लेती- ‘कौन देगा सजा?’
‘हम! हमारा समाज!’
‘कानून नहीं है क्‍या?’
‘कानून गया पिछाड़ी में हगने। जिस दिन ऊ एक ठो ब्राह्मण की बेटी को उठा ले गया, उस दिन कानून उसका कुछो उखाड़ लिया? बात करते हैं।’
‘कानून के हिसाब से दोनों बालिग हैं। इसलिए अपनी पसीन्द से शादी कर सकते हैं।’
‘छिनाल का हाथ- गोर तोड़कर घर में बैठा दो। बेशर्मी की हद है! बाप- भाई मर गए हैं क्या? आ कि एतना देह में आग लगा था तो कहती न हमलोग से। बुझानेवालों की कमी है!’
‘धर्म और जात जज साहेब, इस देश के कानून से बहुत बड़ा है। धर्म और जात के रखवाले सब आपलोग के लिए भी बोले जज साहेब- कानून की कुर्सी पर तो कोनो जात का आदमी बैठ सकता है। और जो बैठेगा, ऊ अपना जाते के मुताबिक फैसला देगा ना। बाकिर, हमारा फैसला अपने जात के मुताबिक होगा। हम अलग, हमारा जात अलग, हमारा कानून अलग।’
‘हमारी देह सुलगने लगती। मन करता, सबको चीर कर रख दें। मगर हम तो एक ठो चींटी भी नहीं मार सकते थे। आदमी को क्या मारते! लोग- बाग हमको देखते और बोलना शुरू करते- ‘रे मूतना, रे तुम्‍हारा जीजा का क्‍या हाल है? आदमी को चीर रहा है कि मरी गइया का खाल उतार रहा है? उसके साथ गाय खाया कि नहीं? चमड़ा उतारा कि नहीं?’
‘मेरा दिमाग़ भडकने लगता। जिस काम के लिए बाहर निकले होते, खतम किए बिना ही लौट आते। कान के पीछे जैसे कुछ सुलगने लगता। कलेजा धकधकाने लगता। कंठ सूख जाता। पसीना बहने लगता। हम घर लौट आते। बिस्‍तर पर पड़ जाते। माथे पर धमक बढ़ता जाता। मुट्ठी अपने- आप बंधने लगती।‘
‘खेती- बाडी छूट गई- हमसे भी और बाउजी से भी। दुकान पर भी हम नहीं बैठते अब। खाना- खर्चा का किल्लत होने लगा। लल्ली की पढाई का करजा अलग तकादा पर तकादा भरने लगा। हम सबको जैसे ठकमूडी लग गया था।‘
एक दिन चार- पांच लोग हमको बुलाए- किसी के हाथ में गुदड़ी था, किसी के हाथ में चवन्‍नी- अठन्‍नी, किसी के हाथ में बासी खाना। सब बोले- ‘रे मूतना, तुमको पता है न, रात ग्रहण था। तू ग्रहणदान मांगने नहीं आया? अब क्‍या फरक पड़ता है कि ग्रहणदान चमार नहीं, डोम मांगता है? डोम और चमार में कोनो फरक थोड़े है? एगो मरा आदमी उठाता है तो एगो मरी गैया! ले, ई ले, ई गरहनदान! जा। इसमें से अपनी बहिनिया को भी कुछो दे देना। अब तो ऊ बिचारी भी इसी सब पर गुजारा करती होगी ना!’ फिर वे सब ताली पीट-पीटकर गाने लगे-
बाभन की बेटी करे चमरा भतार
मूतना का मूत बहे मोरी के धार
‘हमरे कान में जैसे कोनो गरम शीशा डाल दिया जज साहेब। तनिक कल्‍पना कीजिए जज साहेब। हमरी एक ठो बचपन की बीमारी। ऊ भी खून न सह सकने के कारण। सबका दिल इतना मजबूत तो नहीं होता न जज साहेब! हम तीस के पार हो गए थे। घरवाली भी आ गई थी। एक ठो बेटा भी हो गया था और ई सबके बाद भी इन सबको मेरा यही नाम मिला? कोई उसको गनेस की घरवाली कि गनेस का बेटा नहीं कहता। सभी कहते- मूतना की घरवाली, मूतना का बेटा और अब चमार का साला।‘
हमरा कहीं भी आना- जाना छूट गया। बाहर के लोगों से हमको आओरो डर लगने लगा। घरवाली समझाती। कभी- कभी रोने लगती। उसके यहां औरतें पहुंच जातीं- ‘मूतना बहू, चलो, जरा हमरी बहू का पेट देख दो। तीन महीने से है।‘ कोई कहती- ‘हमरी दुलहीन तीन बेर तो अस्‍पताल में बच्‍चा पैदा करके आई है। कोनो चमइन नहीं थी। अब तो तुम हो। इस बार जच्‍चगी घर में और तुम्‍हारे हाथ से करवाएंगे।’
एक दिन फिर हमको बुलउआ आया- मोहल्‍लावाला का। सामने एक ठो कुत्ता मरा पड़ा था। सब बोले- ‘रे मूतना, देखता क्‍या है? ई कुतवा को उठा ईहां से। मर्जी तो इसकी खाल खींच, चाहे तो इसका मांस पका। हमको भी बताना, कइसा लगता है इसका स्‍वाद! सुने हैं कुत्ते का मांस बड़ा गरम होता है। गरमी ज्‍यादा चढ़े तो मेहरारू पर उतार लेना।’
‘जज साहेब! आपलोग तो ऊंचा- ऊंचा कुर्सी पर बैठे हैं न! ई सब नहीं समझ में आएगा। हम गिरते- पड़ते घर पहुंचे थे। सबका हंसी- ठहक्‍का हमरे पीछे भूत लेखा आ रहा था। घर पहुंचे तो देखा, माई को मिसराइन चाची कह रही थी- ‘अरे, कल मकर संक्रान्ति था, तुम पौनी पसारी के लिए नहीं आई? हमलोग नाऊन, चमाइन, डोमिन, कहारिन, कुम्‍हारिन सबके लिए तिल- गुड़, सीधा- पानी निकालकर रखते हैं। तुम नहीं आई तो कौनो बात नहीं। भेज देती मूतना बहु को।’
‘घर जइसे नरक हो गया। जज साहेब! देश का कानून तो सबूत मांगता है, खून का, चोरी का, डकैती का। मुदा बोली के ई सब बाण का कोन सुबूत हम सब देते? मन पर छूटते तीर की व्‍यथा का सबूत कइसे दिखाएं! हाथ गोर काट- पीट के अधमुआ किया तो दफा 307 । शीलहरण किया तो 376। मार दिया तो दफा 302। लेकिन हमरे मन के हाथ पैर को दिन- रात काटा जाता रहा, मन को बार- बार मारा जाता रहा, हमरे शील सुभाव को बीच चौराहे पर नंगा किया जाता रहा, उसके लिए कौन सा दफा लगेगा जज साहेब?’
‘ओ‍ही दिन की तो बात है। हम अपने दुआर पर खड़े थे कि एक ठो बचवा आया और बोला- ‘आपको गोबरधन चच्‍चा बोलाए हैं।’ हमरा मन में कुछो खटका। तइयो हम पहुंचे। भर मोहल्‍ला जमा था। गोबरधन चच्‍चा बोले- ‘रे मूतना, शंकर चाचा की गइया कल मर गई। अपने बहनोई को बुला आ तू स‍ब मिलकर उठवा ले उसे। सुनते हैं, गाय के चमड़े का चप्‍पल मजबूत होता है। हमरे लिए भी एक जोड़ी बना देना।’
‘जज साहेब! हमरा मन तइयो लल्‍ली को दोषी नहीं ठहराता है। ऊ वयस्‍क है। हमसे तेज है। अपना भला- बुरा समझती है। प्रेम किया है उसने। ब्‍याह की है अपनी पसंद के लड़के से। कोनो गुनाह तो नहीं की है। भगवान कृष्‍ण के महारास पर मोहित हमारा धरम अपनी ही बेटी का प्रेम नहीं सह सकता। हरतालिका व्रत में कथा सुनाते हैं कि शिव जी को पाने के लिए पार्वती जी घर छोड़कर कठिन तपस्‍या में लीन हो गई। शिव जी का कौन जात था जज साहेब? लेकिन हमारे घर की बहन- बेटी प्रेम न करे। अपने प्‍यार को पाने के लिए कुछ ना करे। अपने ब्‍याह के बारे में राय विचार न दे। ई कैसा धर्म है जज साहेब?’
‘अचानक एक दिन लल्‍ली का फोन आया। बोली, ‘भइया, हमलोग अच्‍छे से हैं, आप लोग का आसीरवाद पाना चाहते हैं। आपको जानकर खुशी होगी कि आप मामा बननेवाले हैं। जयचंद और उसके घरवाले बहुत अच्‍छे हैं। बेटी से भी बढ़कर हमको मानते हैं। भैया, आप आइए न! माई- बाउजी कैसे हैं? भाभी और छुटकू?’
‘लल्‍ली बोल रही थी और मेरे दिमाग में मोहलेवालों की बातें घम घम करके गूंज रही थीं- माई, मेरी घरवाली, मेरे साथ किए जा रहे मजाक, ताने, ठहाके। लल्‍ली की बातें और ये सब एक साथ मन में घुले- मिले जा रहे थे। नहीं, जज साहेब, घुल- मिल नहीं रहे थे। तेल- पानी कहीं आपस में घुले हैं भला?’
मेरे मुंह से निकला- ‘लल्‍ली, तू आ जा। जयचंद को भी ले आ। एक- दो दिन होटल में रह। मैं सब इंतजाम कर दूंगा। तब तक मैं माई- बाउजी को समझाता हूं। फिर मैं खुद होटल से लेकर तुम दोनों को यहां लाऊंगा।’
‘लल्‍ली आ गई। मैंने अपने शहर के सिमान पर बने एक होटल में उन दोनों के ठहरने का इंतजाम किया। आजकल का जमाना है। सबके हाथ में मोबाइल है। हमरे पास भी। मोबाइल से हम बराबर संपर्क में थे। लल्‍ली हमको देखते ही हमसे लिपट गई। खूब रोई। मेरी कमीज भीग गई। हम भी खूब रोए। जयचंद हमरा पैर छूकर प्रणाम किया। हम तो उसका शालीन रूप- रंग, सोफियाना पैंट- शर्ट आ मीठा बोली बानी देख- सुनकर दंग थे- गेहुआं रंग, ऊंचा माथा, पतली नाक, तनिक मोटे होठ और माथे पर पढ़ाई का तेज! कपडे- लत्ते से खूब ऊंचा पसीन्‍दवाला, पढाई का तेज़ और उस तेज से उपजी शालीनता। कोनो खूब बढिया कंपनी का शर्ट- पैंट पेन्हे हुए था।’ हमको गुड़ के आढ़त पर काम करनेवाला लड़का याद आया। मन में तुरंत लल्‍ली के लिए ‘वाह’ निकला। माई बाउजी एक बार देख लें तो चट से ऐसे सुदर्शन दामाद के मोह में पड़ जाएंगे।‘
‘रात में हम सबने साथ में खाना खाया। मैं लल्‍ली को जी भर कर निहार रहा था। चौदह साल छोटी थी हमसे। अपनी बेटी जैसी लगती थी ऊ हमको। कितनी प्‍यारी है लल्‍ली! कितनी तेज! कितनी हंसमुख! कितनी सुंदर! उसकी होनेवाली संतान भी इसी के जैसी सुंदर होगी न!’
‘लल्‍ली और जयचंद खा रहे थे। लल्‍ली चहक- चहककर अपनी ससुराल की बात बता रही थी। जयचंद तनिक संकोच में था। खाने में भी सकुचा- सकुचा कर कौर उठा रहा था। एकदम से कैसे घुल- मिल जाता। खा हम भी रहे थे। बस, टूंग रहे थे। खीरा का फांक भी उठाते तो कान में मोहल्‍लेवालों की आवाज गूंजने लगती।
‘बहीन चमारिन, भाई चमार
मूतना के मूतन में कोनो न धार’
लल्‍ली मुझे सीता लग रही थी और जयचंद राजा रामचन्‍द्र। और हम? हम अपने को कुछो नहीं समझ पा रहे थे। समझ पा रहे थे तो खाली इतने कि हम मूतना हैं, मूतना। कोनो दिस से हम लल्‍ली जइसी सुघड़ लड़की का भाई नहीं लग रहे थे। आ लल्‍ली थी कि बतियाए जा रही थी- ससुराल का बात, जयचन्द का बात, अपनी डाक्टरी का बात, होस्पीटल का बात। ऊ बक्‍सा- पेटी खोलकर दिखाई- बाउजी के लिए कुर्ता, भौजाई के लिए साड़ी, माई के लिए शॉल, हमरे लिए सिलिक का कुर्ता- पैजामा आ छुटकू के लिए मिर्जई जइसा कोनो ड्रेस- लाल रंग का। बोली- ‘गुजराती लोग का ड्रेस है भइया। खूब सुन्‍दर लगेगा छुटकू उसमें।’
‘बिस्‍तर लाल हो गया। होटल का इतना मोटा गद्दा दो के खून की धार के आगे पतला हो गया। दो क्‍या, लल्‍ली के भीतर उसकी संतान भी तो थी। हां, जज साहेब, हम कोनो सफाई नहीं देंगे। हम खून किए हैं तो किए हैं। काहे को झूठ बोले? झूठ बोलकर हमको कौन सा तिरलोक मिल जाएगा? हाथ हमरा लगा है खून करने में तो हमी खूनी हुए न? बकिर एक बात बोलेंगे। मन में हमरी लल्‍ली बसी हुई थी। हमरी प्‍यारी सी, बेटी जैसी बहिन। उसके ऊपर मोहल्‍ले की बातें एक ठो अजबे ताना- बाना, रस्‍सी- फांसी बनाकर बैठ गई आ हमसे लल्ली का खून करवाए बैठी। हमको जीने का अब कोनो मोह नहीं है, जज साहेब। लल्‍ली जब रही ही नहीं तब। हमरी घरवाली और बेटा जी ही लेंगे। नहीं जी पाएंगे ताने- बात सुन- सुनकर तो फंसरी लगा लेंगे या कुएं- पोखर में डूब- धंस जाएंगे।‘
‘आपको भले लगता हो जज साहेब कि अगर लल्‍ली ने ऐसा नहीं किया होता तो हमरा परिवार बच जाता और ऊ भी। मगर हम अइसा नहीं मानते। एक पढ़ी- लिखी होशियार लड़की अपनी बेहतर जिन्दगी के लिए जैसा सोच सकती थी, उसने सोचा और किया। ई तो समाज का घाटा है कि उसको दो ठो डाक्‍टर नहीं मिला। उसकी कोख से जो जनमता, वह भी तो कुछ बनबे करता अपने माई- बाप लेखा। समाज को उसका भी घाटा हुआ। जज साहेब, कोई कानून हो ऐसा तो बनवा दीजिए कि हमको समाज के ताने से मुक्ति मिल जाए। कोनो सज़ा का प्रावधान हो तो ऊ भी बनवा दीजिए जज साहेब कि ऐसा ऐसा ताना देनेवाले सबको भी कसकर सज़ा मिले। हम जैसा मूतना आ लल्ली जैसी बहिन अपना- अपना जिनगी अपने अपने तरह से जी सकें।‘
‘बकिर, हम अपना ई जुर्म कबूलते हैं कि हमने उस रात लल्‍ली और जयचंद को खाना खिलाने के बाद चाकू से गोद- गोदकर मार डाला। हमने उनके खाने में बेहोशी की दवा मिला दी थी। हम, गणेश तिवारी, जिसकी पैंट चार कील पर उल्‍टे टंगे मेढ़क को देखकर गीली हो गई थी, वही गणेश तिवारी यानी मूतना अपने टोले- मोहल्‍ले की बात से इतना ताक‍तवर हो गया कि उसको लल्‍ली और जयचंद का खून देखकर न पसीना आया, न बेहोशी छाई, न उसकी पैंट ही गीली हुई। अफसोस खाली इतना ही रहा जज साहेब कि अगर लोग बाग ई जात- पात का चक्‍कर नहीं रखते, तो हम मूतना से अपनी लल्‍ली, उसके आदमी जयचंद और उसके अजन्मे बचवा के हत्‍यारे नहीं बनते। तब ई होता कि माई- बाउजी लल्‍ली को दुलार रहे होते, उसकी भौजाई उसके लिए तरह- तरह के पकवान बना रही होती। जयचंद के साथ हम बाजार घूम रहे होते। और कुछ समय बाद हम लल्‍ली के बच्‍चे के मामा बने उसको अपनी गोद में उठाए घूम रहे होते। ऐसा ही कुछ होता। हो सकता था न जज साहेब?

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