Wednesday, December 4, 2024

सपना भट्ट का जन्म 25 अक्टूबर को कश्मीर में हुआ।
शिक्षा-दीक्षा उत्तराखंड में सम्पन्न हुई। सपना अंग्रेजी और हिंदी विषय से परास्नातक हैं और वर्तमान में उत्तराखंड में ही शिक्षा विभाग में शिक्षिका पद पर कार्यरत हैं।
साहित्य, संगीत और सिनेमा में गम्भीर रुचि।
लंबे समय से विभिन्न ब्लॉग्स और पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित।
बोधि प्रकाशन से कविता संग्रह चुप्पियों में आलाप 2022 में प्रकाशित ।

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कविताएं

1.रियायत

रसोईघर में एकदम ठीक अनुपातों में ज़ायक़े का ख़याल
कि दाल में कितना हो नमक
जो सुहाये पर चुभे नहीं,
कितनी हो चीनी चाय में
कि फ़ीकी न लगे और
ज़बान तालु से चिपके भी नहीं…
 
इतने सलीक़े से ओढ़े दुपट्टे
कि छाती ढकी रहे
पर मंगलसूत्र दिखता रहे,
चेहरे पर हो इतना मेकअप
कि तिल तो दिखे ठोड़ी पर का
पर रात पड़े थप्पड़ का
सियाह दाग़ छिप जाये…
 
छुए इतने ठीक तरीक़े से कि
पति स्वप्न में भी न जान पाये
कि उसके कंधे पर दिया सद्य तप्त चुम्बन उसे नहीं
दरअसल उसके प्रेम की स्मृति के लिए है…
 
इतनी भर उपस्थिति दिखे कि
रसोईघर में रखी माँ की दी परात में उसका नाम लिखा हो
पर घर के बाहर नेम-प्लेट पर नहीं,
कि घर की किश्तों की साझेदारी पर उसका नाम हो
पर घर गाड़ी के अधिकार-पत्रों पर कहीं नहीं।
 
कुछ इतना सधा और व्यवस्थित है स्त्री-मन
कि कोई माथे पर छाप गया है :
तिरिया चरित्रम्…
जिसे देवता भी नहीं समझ पाते,
मनुष्य की क्या बिसात…
 
और इस तरह स्त्री को
‘मनुष्य’ की संज्ञा और श्रेणी से बेदख़्ल कर दिया गया है…
 
इतनी असह्य नाटकीयता और यंत्रवत अभिनय से थककर
इतने सारे सलीक़ों, तरतीबी और सही हिसाब के बीच
एक स्त्री थोड़ा-सा बेढब बे-सलीक़ा हो जाने
और बेहिसाब जीने की रियायत चाहती है…

2- घर

जीवन के रजिस्टर में अस्थाई रहा पता मेरा 
कोई घर नहीं, कोई ठौर नहीं। 
कोई अलहदा पहचान नहीं। 
 
पिता की बेटी से पति की ब्याहता
और बेटे की माँ होने तक की
सारी यात्राएं मैंने बेनाम की। 
 
कभी पिता ने गुस्से में कह दिया था
“अपनी पसन्द से ब्याह करना है
तो मेरे घर से निकल जाओ”। 
मैंने उनकी पसन्द से ब्याह करके उनकी पगड़ी बचा ली थी।
 
अब जब पति गुस्से में कहते हैं 
“निकलो मेरे घर से”
तो पूछती हूँ “कहाँ जाऊं ?”
वे कहते हैं जहां मन करे वहाँ जाओ। 
 
मन जैसी कोई चीज़ होती भी है भला औरत के पास
सोचती हूँ चुपचाप। 
 
‘घर’ शब्द मेरे भीतर घोर लालसा जगाता है।
जैसे कोई बच्चा तरसते हुए, किसी खिलौने को देखता हो। 
मेरे स्वाभिमान पर लगी चोटों पर 
इसी शब्द की प्रतिगूंज है। 
 
इस शब्द ने मुझे जब तब गहरे 
असंतोष और अवसाद से भर दिया है । 
बौद्धिक और भावनात्मक भूख के साथ साथ 
एक घर की ज़रूरत भी जब तब पेश आती रही है। 
 
कोई एक जगह हो जहां ज़ोर से रोया जा सके
जहां शर्मो -लिहाज़ छोड़कर चीखा जा सके
किसी से बेख़ौफ़ हँसी ठिठोली की जा सके
किसी को उमग कर दिलासा दिया जा सके। 
 
जानती हूं कि अलग घर लेना बड़ी बात नहीं 
लेकिन अलग घर लेने के लिए
सबसे अलग होने का फैसला ले पाना बड़ी बात है। 
 
घर लेना, चूड़ी बिंदी खरीदने जैसा सहल नहीं
एक सामाजिक साहस दरकार है इसके लिए
जो मेरे भीतर कभी न पनप सका।  
 
नैतिकता और आदर्शों की एक जंजीर
सीने के चारों और सदा लिपटी रही ।
इज़्ज़त और मर्यादा का एक भारी पत्थर
पैरों से सदा बंधा रहा। 
 
‘घर’ मेरे लिए गहरी नींद का
कोई मीठा कच्चा स्वप्न भर है 
जिसे आँख खुलते ही टूट जाना है।

3- स्वीकारोक्ति

एक दिन रक्त मांस अस्थि से नहीं 
बल्कि मर्यादा से बंधी 
मेरी इस देह को छोड़ देंगे प्राण ।
 
एक दिन छूट जाएँगे श्वास के सब बन्ध 
और लाज की सब डोरियां 
 
रीतियों उपदेशों और लोकाचारों से दबी
मेरी छाती से हट जाएगा 
यह क्रूर कठिन पत्थर एक दिन।
 
मेरी आत्मा देह-अदेह के चक्रव्यूह से छूटकर
कई-कई प्रकाश वर्षों की अलंघ्य दूरी पर 
करती रहेगी अपनी ही परिक्रमा अंतरिक्ष में।
 
एक दिन मेरे नहीं होने से
मिट जाएंगी मेरी मर्मान्तक पीड़ाएं । 
और निश्छल चाहनाएं भी। 
 
एक दिन मेरी आंखें प्रतीक्षा से 
और हृदय अकुंठ आदिम प्यास से मुक्त हो जाएगा ।
मेरी अकथ पीर बह जाएगी
यह अंतिम दुःख,
मेरी मृत आसक्तियों की तरह यहीं छूट जाएगा ।
 
स्त्री होना और प्रेम व सम्मान की इच्छा रखना यहां 
अपराध की तरह देखा जाता है । 
मैं अपना अपराध स्वीकार करती हूं।
 
और यह भी कि 
जब मैं नहीं रहूँगी तब भी 
मेरे अतृप्त और खाली अन्तस् की उदास प्रार्थनाओं में,  
एक स्त्री होकर सुखी रह सकने की कामनाएँ रहेंगी ।

4- जोग बिजोग

प्रेम में इतना भर ही रुके रस्ता 
कि ज़रा लम्बी राह लेकर
सर झटक कर, निकला जा सके काम पर ।
 
मन टूटे तो टूटे, देह न टूटे
कि निपटाए जा सकें 
भीतर बाहर के सारे काम ।
 
इतनी भर जगे आंच
कि छाती में दबी अगन
चूल्हे में धधकती रहे 
उतरती रहें सौंधी रोटियां 
छुटकी की दाल भात की कटोरी खाली न रहे।
 
इतने भर ही बहें आँसू
कि लोग एकबार में ही यकीन कर लें 
आँख में तिनके के गिरने जैसे अटपटे झूठ का।
 
इतनी ही पीड़ाएं झोली में डालना ईश्वर!
कि बच्चे भूखे रहें, न पति अतृप्त!
 
सिरहाने कोई किताब रहे 
कोई पुकारे तो 
चेहरा ढकने की सहूलत रहे।
 
बस इतनी भर छूट दे प्रेम 
कि जोग बिजोग की बातें 
जीवन मे न उतर आएं।
 
गंगा बहती रहे
घर संसार चलता रहे।

5- नवरात्र में देवियाँ

नवरात्र की नवमी पर 
भीतर देवथान में गुंजारित हैं
मुख्य पुजारी के दैविक मंत्रोच्चार के साथ
बड़े बूढ़ों के विह्वल स्वर भी ।
‘ॐ जयंती मंगला काली
भद्रकाली कपालिनी’! 
 
रसोई घर से आ रही है
हलवे की भीनी भीनी महक
छानी जा रही हैं गर्मागर्म पूड़ियाँ 
नौ बच्चियाँ बैठ चुकीं आसनो पर 
और बड़े ससुरजी का नाती
भैरव वाली गद्दी पर इठला रहा है।
 
इधर द्वार पर आ गयी है
पाँच नन्ही लड़कियों की टोली भी
मैं उन्हें पहचानती हूँ
सरूली, चैनी  और सुरेखा ।
वे जब तब अपनी माँ के साथ आती रही हैं 
किसी पुरानी चादर , साड़ी या अनाज की चाह लिए 
मैंने उनके मुंह मे गुड़ भर कर मुस्कुराते हुए 
पूछ लिया था एक दिन उनका नाम।
 
खाने के बाद पंडित जी हाथ धोने 
आँगन में चले आये हैं
कड़क कर बोले हैं ‘ क्यों री छोकरियो ! 
यहां क्यों खड़ी हो, जाओ यहां से 
मैं देखती हूँ नन्ही अम्बिकाओं दुर्गाओं और कालियों 
के मुरझाए उदास मुखों को 
आँगन के भीमल पेड़ से चिपकी तामी की आंखों में नमी तैर गयी है
 
इससे पहले कि तुम्हे अछूत कहकर 
खदेड़ दिया जाए
आओ नन्ही देवियों 
मैं पूज दूँ तुम्हारे नन्हे पैर
अपना मस्तक धर दूँ, कांटे बिंधे तुम्हारे पैरों पर 
 
आओ हे देवियो !
हमारे ब्राह्मणत्व और अहंकार को 
एक ही पदाघात से छिन्न भिन्न करके भीतर चली आओ ।
आसन ग्रहण करो , प्रसाद पाओ 
और बताओ कि भीतर  
हठीले गौरव से भरी बैठी राजेश्वरी 
और बाहर द्वार पर खड़ी मंगसीरी में 
कोई अंतर नहीं ! 

6- स्वर्ग में माता पिता

 
पिता स्वप्न में दिखते हैं।
मायके के तलघर में रखी 
उनकी प्रिय आराम कुर्सी पर
बैठकर सिगरेट पीते हुए,
 
कभी कोई फ़िल्म या क्रिकेट देखते  हुए
या कोई अंग्रेज़ी किताब हाथ में थामे 
शराब के घूँट भरते हुए। 
 
उन्हें स्वप्न में देख आश्वस्त रहता है मन
कि वे वहां भी सुख से ही होंगे।
 
माँ जैसे कभी जीते जी 
एक जगह टिककर नहीं बैठी;
स्वप्न में भी कभी एक दृश्य में नहीं बंध पाती।
 
दिखती है कभी गौशाला में गोबर पाथती हुई।
कभी पशुओं की सानी पानी करती हुई।
जंगल से धोती के छोर में काफ़ल बांध कर लाती हुई।
 
जलती दुपहरी चूल्हे पर दाल सिंझाती,भात पसाती हुई
निष्कपट पिता को दुनियादारी समझाती हुई।
 
बेटियों को जिम्मेदार और 
सुघड़ होने की तरकीबें सिखाती हुई 
पराए घर मे बाप की इज़्ज़त 
रखने की हिदायतें करती हुई। 
 
मैं स्वप्न से जागकर सोचती हूँ 
कि दुनियादारी में असफल अपनी
बेटियों के दुःख जानकर 
क्या माँ अब भी चैन से बैठ पाती होगी
और उदास हो जाती हूँ। 
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