Wednesday, December 4, 2024
नाम- सुषमा सिन्हा
छात्र जीवन से ही चित्रकला एवं लेखन में रूचि
 
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ एवं कुछ पत्रिकाओं में रेखाचित्र एवं आवरण प्रकाशित।
 
बिहार विधान परिषद की पत्रिका साक्ष्य का दो बार आवरण बनाने का गौरव। राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर एवं डॉ राम मनोहर लोहिया का पोट्रेट।
 
हिन्दी, पंजाबी, उर्दु, मलयालम भाषा की पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित एवं इन भाषाओं की साझा संकलनों में भी रचनाएँ शामिल 
 
मिट्टी का घर पहला कविता संग्रह वर्ष 2004 में ‘शिल्पायन’ दिल्ली से प्रकाशित
बहुत दिनों के बाद दूसरा कविता संग्रह वर्ष 2017 में ‘प्रकाशन संस्थान’ दिल्ली से  प्रकाशित
 
संप्रति- झारखंड वित्त सेवा में अधिकारी
 
संपर्क- 
Sushma Sinha
C/o Mr. K. K. Sinha
Flat no. 1A, Block ‘F’
Jayshree Green City
Near Argora Chowk
Ranchi- 834002, Jharkhand. 
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कविताएँ

पँखो वाली लड़की

मैं ढूँढ़ रही हूँ   
उस पगली सी लड़की को    
जिसके पँख हुआ करते थे      
बेवजह हँसती वह लड़की     
पंजों के बल चलती थी    
हौले से धरती पर पैर दबा     
आसमान में उड़ती थी      
 
परवाजों की तरह वह 
इंद्रधनुष तक जाती थी          
रंग-बिरंगे सपने अपने   
बस्ते में भरकर लाती थी 
उन्हीं सपनों के रंगों से 
जीती और जगमगाती थी    
काली अँधेरी रातों में भी   
चमकती आँखों से मुस्कुराती थी        
 
सुना है   
उनमें से कई सपने    
जीवन के जरुरी सपने थे जो खो गए    
कई सपने कमजोर थे जो टूट गए     
कई सपने तो यूँ ही भूखों मर गए    
कई सपने जो जिंदा बचे थे   
आँसुओं से लथपथ पड़े थे   
जिन्हें वह छोड़ नहीं पाई    
उन्हीं से भीगे पँखों के कारण    
फिर कभी वह उड़ नहीं पाई      
 
सुना है यह भी  
कि उसके पँख      
हवा से भी ज्यादा हल्के थे         
और सपने समय से भी ज्यादा भारी              
टूटते हुए पँखों के दुःख  
और दर्द के बावजूद        
वह हारी नहीं थी            
अपने मरणासन्न सपनों को           
जी-जान से बचाने में लगी थी          
 
दोस्तो !! आपको भी कभी       
मिल जाए गर कहीं          
पँखों वाली ऐसी कोई लड़की          
बताना उसे –        
‘कि सपनों के लिये पँखों को सहेजे      
कि पँखों के बिना सपने नहीं बचते                 
कि सपनों के लिए जरुरी है  
हमारे पँखों का बचा रहना ।।’  
© सुषमा सिन्हा

अस्वीकार का मतलब

जन्मी जहाँ
बताया गया ‘ये घर तुम्हारा नहीं !’
दान कर दी गई जहाँ
कहा उन लोगों ने ‘ये तुम्हारा घर नहीं !’ 
असमंजस में देर तलक
खड़ी रही दरवाजे पर !
 
हिम्मत कर जब 
निकली बाहर, कदम बढाया
खुद को चौराहे पर खड़ा पाया
चलना चाहा जिस रस्ते भी 
कहा लोगों ने ‘ये तुम्हारा रस्ता नहीं !’
ठहरना चाहा जहाँ कहीं भी 
टोका गया ‘यह तुम्हारी जगह नहीं !’
बमुश्किल कोशिशों के बाद
पहुँच भी गई गर कहीं 
कहा लोगों ने ‘यहाँ तुम्हारी जरूरत नहीं !’
 
हर बार इनकार ने 
बढाया उसका हौसला
अविश्वास ने बचाया, मुश्किलों से
धोखे ने दी नई राहें
अंधेरों ने दी रौशनी
तब जा कर कहीं बच पाई, उसके पास
अपने कदमों के नीचे की जमीन !
 
अब उसी जमीन पर
अपने पाँवों से उचक
भरती है वह, बाहों में आसमान
आँखों में नमक 
होठों पर मुस्कान लिए
बनाती है, अपने घर पर अपनी रोटी
और समझती है बेहतर
अस्वीकार का मतलब !!
©सुषमा सिन्हा

शामिल है भय

शामिल है भय  
इस तरह मेरी सांसों में    
कि माँ के गर्भ में भी तलाशती हूँ ईश्वर !   
 
शामिल है भय  
मेरी आँखों में ऐसे  
कि मिलाती नहीं हूँ किसी से नजर !
  
भय शामिल है   
मेरी आवाज़ में इतना      
कि अटक-अटक जाते हैं शब्द गले में ! 
 
भय शामिल है  
मन में भी इतना   
कि भागती फिरती हूँ बेचैन        
घर से बाहर और बाहर से भीतर !     9
 
शामिल है भय 
जीवन में दुःखों की तरह     
कि थामें ही रहना चाहती हूँ    
किसी न किसी का हाथ !  
 
भय से बनी मैं, भय में पली हूँ   
सिर से पाँव तक हूँ भयातुर   
अंतर्मन तक हूँ आकुल-व्याकुल !       
  
अब तो शामिल हो चुका है भय  
मेरे सपनों में भी इस कदर    
कि नींद में अक्सर निकल ही जाती है चीख-        
“नहीं…नहीं…..मैं निर्भया नहीं हूँ…
मैं निर्भया नहीं हूँ !!”               
 
नहीं हूँ मैं निर्भया !!   
©सुषमा सिन्हा

बेहतरीन सपने

बेटी अपनी आँखों से
इंद्रधनुष के रंग देखती है
और अपने हौसलों के पंख तौलती है
फिर एक विश्वास से भरकर
अपनी माँ से कहती है-
‘मैं आपकी तरह नहीं जीऊँगी’
 
मुस्कुराती हैं माँ
और करती हैं याद
कि वह भी कहा करती थीं अपनी माँ से
कि ‘नहीं जी सकती मैं आपकी तरह’
 
माँ यह भी करती हैं याद
कि उनकी माँ ने भी बताया था उन्हें
कि वह भी कहती थीं अपनी माँ से 
कि ‘वह उनकी तरह नहीं जी सकतीं’
 
शायद इसी तरह 
माँ की माँ ने भी कहा होगा अपनी माँ से
और उनकी माँ ने भी अपनी माँ से……
कि ‘वह उनकी तरह नहीं जीना चाहतीं’
 
तभी तो
युगों-युगों से हमारी माँएँ
हमारे इंकार के हौसले पर मुस्कुराती हैं
और अपने जीवन के बेहतरीन सपने
अपनी बेटियों की आँखों से देखती हैं !!
©सुषमा सिन्हा

खत्म हो जाएगी यह धरती !!

वस्तुएँ हैं !
तुम्हारे बड़े काम की 
नापसंद हों, तो कर के साजिशें
मार डालो गर्भ में ही !!
 
बची रह गईं कुछ अगर  
तो लेते ही जन्म कुछ को चटा दो नमक 
कुछ का घोंट दो गला 
कुछ को फेंक आओ कूड़े के ढेर पर
कुछ को चींटियों के बिल के पास 
कुछ को फेंक दो कुत्तों के सामने
कुछ के साथ कर के अमानवीय हरकतें
मार दो पटक-पटक कर !! 
 
बड़ी जीवट वाली होती हैं ये वस्तुएँ
इतनी नफरतों के बावजूद  
मुमकिन हैं बची ही रह जाएँ कुछ ढीठ सी 
तब छोड़ आओ कुछ को    
किसी भीड़-भाड़ वाली जगह पर        
बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन, हाट-बाजार      
कुछ को मेले में ले जा कर !! 
 
गर अब भी बची रह गईं कुछ  
तो फेंक कर उनके सामने बची हुईं रोटियाँ  
इच्छानुसार करा लो काम उनसे 
कि बड़ी कामगार होती हैं ये वस्तुएँ !!      
 
फिर भी लगें जब भारी  
स्वघोषित मालिक हो तुम, कर लो मनमानी 
जो नहीं कर पाए तो कुछ को बेच दो 
कुछ को दे दो दान में     
कुछ को खींच कर घर से बाहर निकाल दो !!
 
बाहर घर के 
गाँव, शहर सब जंगल है
तलाश में जहाँ इन वस्तुओं की 
घूमते हैं भेड़िए-दरिंदे    
जो कर ही देंगे इनके चिथड़े-चिथड़े !!    
 
जो बच जाएँ इनसे अगर    
तो कुछ को फाँस लो नाम पर प्रेम के
और जब भर जाए मन तुम्हारा
इस प्रेम-व्रेम के खेल से 
तब लगा दो कुछ की बोली
अपने दोस्तों के बीच में !!
 
अपने फायदे
अपनी कमाई के लिए 
कुछ को पहुँचा दो अपने बॉस के बेडरूम में    
कुछ को पेश कर दो बतौर रिश्वत   
सामने किसी नेता, मंत्री, या अफसर के 
और जो न माने तुम्हारी बात
फेंक दो तेजाब उनपर !!
 
देखा ? 
वस्तुएँ हैं न ये तुम्हारे काम की !? 
मोल-भाव-तौल कर खरीदो    
जब जी चाहे बदल लो
कुछ को पुनः बेच दो 
कुछ को पीट-पीट कर मार डालो 
कुछ को चाकुओं से गोद डालो   
कुछ को चाहो तो जिंदा जला दो !!  
 
पर एक बात रखना याद  
जिन्हें तुम कह कर माल, लगाते हो घात
उन्हीं की मुहब्बत से 
बनी और बची है तुम्हारी जात
जो मुहब्बत उनकी नफरत में बदली
तो खत्म हो जाएगी यह धरती !!   
©सुषमा सिन्हा
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किताबें

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