स्त्री दर्पण पर देश के जाने माने लेखकों की पत्नियों की श्रृंखला में अब तक आपने रवींद्रनाथ टैगोर, नाथूराम शर्मा शंकर, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, मैथिलीशरण गुप्त, राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह, आचार्य शिवपूजन सहाय, रामबृक्ष बेनीपुरी, जैनेंद्र, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, गोपाल सिंह नेपाली, नरेश मेहता, मार्कण्डेय, कुंवर नारायण, ज्ञान रंजन, विनोद कुमार शुक्ल, प्रयाग शुक्ल, राजेन्द्र दानी आदि की पत्नी के बारे में पढ़ा।
आज पढ़िए हिंदी के यशस्वी आलोचक देवीशंकर अवस्थी की पत्नी के बारे में जिन्होंने अपने पति की (1966) अल्पायु में निधन के बाद न केवल बाल बच्चों को आगे बढ़ाया, बल्कि अपने पति की समस्त रचनाओं को संपादित कर रचनावली प्रकाशित की और उनकी पुस्तकों का पुनर्प्रकाशन करवाया। इतना ही नहीं उन्होंने अपने पति की स्मृति में एक पुरस्कार भी शुरू किया जो इस समय हिंदी आलोचना का सबसे अधिक प्रतिष्ठित पुरस्कार माना जाता है। ‘देवीशंकर अवस्थी सम्मान’ से हिंदी आलोचना की एक पूरी पीढ़ी रेखांकित और सम्मानित हुई है।
हिंदी की कवयित्री व लेखिका रीता दास राम ने कमलेश अवस्थी से बातचीत कर उनके जीवन संघर्ष के बारे में लिखा है कि किस तरह उन्होंने लम्बा एकांकी जीवन व्यतीत करते हुए अपने परिवार को चलाया और साथ ही साथ अपने पति की स्मृतियों को भी बड़ी तन्मयता के साथ सुरक्षित रखा। उनके त्याग समर्पण कर्मठता और लगन ने देवीशंकर अवस्थी की समस्त रचनाओं से हिंदी जगत को अवगत कराया है। यह उनका बहुत बड़ा योगदान है तो आइए कमलेश अवस्थी के बारे में जानते हैं।
“हम टूटे, फटे फिर जुडते चले गए”
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– रीता दास राम
हिंदी के प्रख्यात आलोचक देवीशंकर अवस्थी का जन्म 5 अप्रैल 1930 को उत्तरप्रदेश के सथनी बाला खेड़ा (उन्नाव,) में एक संयुक्त परिवार में हुआ था। देवी शंकर की मां दुर्गावती व पिता शिवमाधव थे। देवी शंकर का बचपन अधिकतर ननिहाल में बीता। प्रारंभिक शिक्षा पांडेनपुरवा के प्रायमरी स्कूल हुई। 17 वर्ष की आयु में पिता के देहावसान बाद दायित्वों का निर्वाहन करते हुए वह अध्यनरत रहे। वह कानपुर में प्रथम श्रेणी से एम.ए. उत्तीर्ण कर डी.ए.वी. कॉलेज के हिंदी विभाग में प्राध्यापक नियुक्त हुए। वे नेहरू जी से प्रभावित रहे।भूदान आंदोलन में विनोबा भावे के साथ रहकर काम करते, हाथ बंटाते, सीखना, समझना, जानना, चाहते रहे।
उन्होंने अजित कुमार के साथ ‘कविता 1954’ का सम्पादन किया। उस जमाने की साहित्यिक पत्रिका ‘युगचेतना’, ‘ज्ञानोदय’, ‘नई कहानियाँ’ में आलोचनात्मक लेख लिख कर अपनी पहचान बनाईं। बहुत कम लोगों को पता होगा कि उन्होंने ‘कलयुग’ नामक एक पत्रिका निकाली। वह दिल्ली विश्वविद्यालय में सांध्यकालीन सत्र के प्राध्यापक रहे। 1966 में अल्प आयु में ही सड़क दुर्घटना में उनकी मृत्यु से उनकी पत्नी कमलेश जी के जीवन में दुःखों का पहाड़ टूट पड़ा। उनकी शादी के अभी दस वर्ष ही हुए थे।
कमलेश अवस्थी जी का जन्म 1939 कानपुर में हुआ। प्रारंभिक शिक्षा भी कानपुर में हुई। माता का नाम मुन्नी देवी और पिता का नाम रामाधार था। वे खेती किसानी करते थे। बाद में लोहे का बिजनेस करने लगे। कमलेश अवस्थी जी के चार भाई तथा चार बहनें थीं। बी.ए. सेकंड ईयर तक पढाई के बाद उनका विवाह हो गया। बाद में थर्ड ईयर कंप्लीट किया। कानपुर से ही बाद में एम.ए. तक पढाई की। दिल्ली से लौटकर पीएचडी कानपुर से पूरी की। कमलेश जी के शब्दों में देवीशंकर जी को जानना बड़ा दिलचस्प रहा। वे बताती हैं –
“देवीशंकर अवस्थी जी पर एक फिल्म बनी है। उसे ही हम रात देख रहे थे उसी में हम उलझ गए। उलझना भी स्वाभाविक था। उनकी रचनावली से उनके जीवन की बहुत बातों को जाना जा सकता है और अवस्थी ने अपने बारे में लिखा है और मैंने भी उसमें विस्तार से लिखा है। अवस्थी जी ने सत्य ही लिखा है। हम बहुत छोटे तबके से आए हैं। अभी भीउसी तबके के है। हमारा जीवन बहुत संघर्षशील बना रहापर हर साल हम हमेशा बहुत अच्छे ढंग से अब उनका जन्मदिन हम मनाते हैं। एक साहित्यकार जो बहुत छोटी सी उम्र में साहित्य में अपनी पैठ बना कर चला गया, अपनी एक अच्छी पहचान छोड़ कर चला गया है।”
वह बताती हैं “हमने कुछ छुपाया नहीं है, जैसे मन्नू भण्डारी ने भी । राजेन्द्र यादव से कैसे भी संबंध रहे हो उनके, उन्होंने कुछ छिपाया नहीं। लेकिन हमारा तो मुश्किल से 10 साल साथ रहा है। इन दस सालों में हमने बहुत छोटी सी जिंदगी जी। जो कुछ भी है वह हमने रचनावली में लिखा है। उसे पढ़ें आपको अच्छा भी लगेगा कि स्त्री कैसे जीती हैं अपने ससुराल में, माईके में। ऐसे ही संघर्षमय जीवन होता है और कितनी टूट-फूट होती है। टूटे हुए भी हम कुछ जोड़ते रहते हैं, सिलते रहते हैं, सिलाई करते रहते हैं, वो सिलाई की हुईं है हमने। वाणी प्रकाशन से एक किताब आई हुईं है उसमें आपको उस की कहानी मिल जाएगी।”
“देवीशंकर अवस्थी ने हजारी प्रसाद द्विवेदी के निर्देशन में पीएचडी की थी। मैंने समाज शास्त्र में एम ए और पीएचडी की। ‘कानपुर ब्राह्मणों में स्त्रियों की स्थिति’ पीएचडी का विषय था। ये हमने आई आई टी कानपुर से ही किया था। सब कुछ बड़ा कठिन था पर अवस्थी जी के सहारे हम जी आए अब तक। उनके जाने के बाद हमने उनकी ही इच्छा को पूर्ण करने के लिए पीएचडी की। उनकी सारी इच्छाओं को पूरा किया। पढ़ा, बच्चों को पाला, बच्चों को पढ़ाया, अच्छे से अच्छी जगह शिक्षा दी। उतने ही पैसों में ये साहस का कार्य है।”
कमलेश जी उन दिनों को याद कर कहती हैं, “देवीशंकर अवस्थी जी के जाने के बाद तो जिंदगी एकदम पटरी से उतर गई थी। जिस समय वे गए हम दिल्ली में रहते थे। अवर्ड पार्क के सामने दिल्ली में ही अवस्थी जी का अक्सीडेंट हुआ था। वे दिल्ली में प्रोफेसर थे। अचानक उनका एक्सीडेंट हुआ। उनका जाना समझ में ही नहीं आया। उनके दोस्तों ने, दोस्तों की पत्नियों ने बहुत मदद की। हम टूटे, फटे फिर जुडते चले गए। उस समय बड़ा बेटा साढ़े आठ साल का था, उससे छोटा सात साल का, बेटी तीन साल की थी।बड़ा बेटा अनुराग, छोटे का नाम है वरूण और बेटी है वत्सला। यही नहीं देवर पढ़ रहे थे बीएचयू में, ननद पढ़ रही थी दिल्ली यूनिवर्सिटी में रेखा अवस्थी नाम है उनका। इतने बड़े परिवार को भी लेकर चलना था। सभी को संभालने का इतना साहस आया वो इस तरह कि हमें लगता था कहीं ना कहीं अवस्थी जी हमारे साथ हैं और हमने यह जिम्मेदारी पूरी की। हर पल उनकी प्रेजेंस हमको महसूस होती थी। उनकी प्रेरणा थी जो हमें आगे बढ़ाती चली गई। उसी के बल पर हम शायद उठकर खड़े हो पाए फिर से। पूरे परिवार का साथ रहा। बच्चे अभी भी आते हैं। हमारे साथ तो नहीं है। एक बेटा आई. आई. टी. कानपुर से पढ़ा है। दूसरे ने दिल्ली से इंजीनियरिंग की। बेटी आर्किटेक्ट है। वे सभी वेल एडुकएटेड हैं। वे वेल एजुकेटेड शायद इसलिए हो पाए कि ‘मेरिट कम मीन्स’ के साधनों से वो पढ़ रहे थे। मैंने जॉब किया। अवस्थी जी की तेरहवीं भी नहीं हुईं थी। मैंने तेरहवें दिन से जॉब की शुरुआत की। सेंट जेवीयर्स में दिल्ली में पढ़ाती थी। सेंट जेवियर्स स्कूल में शिक्षिका रही। आठवीं-नवीं के बच्चों को पढ़ाते हुए दिल्ली से बी.एड. किया। 5 साल तक इस कार्य से जुड़े रहने के बाद दिल्ली से कानपुर लौट आईं।उस समय हमारी ही कमाई से घर संभला, ऐसा हम कह सकते हैं। हमारे माता-पिता ने हमको बहुत सहारा दिया। हमारे खाने-पीने का ध्यान, जिस घर में बैठ कर हम आपसे बात रहे हैं, यह उन्होंने बनवाया। रहने के लिए जगह दी। बच्चों को पढ़ने के लिए सहारा दिया। कभी अभाव नहीं होने दिया। हमारे माता-पता, भाई, बहन सबने बहुत सपोर्ट किया। आज भी उनका सपोर्ट हैं।”
1995 में शुरू हुए देवी शंकर अवस्थी आलोचना सम्मान के बारे में वह बताती हैं–
“अवस्थी जी असमय चले गए। एक्सीडेंट के समय वे डॉक्टर को कह रहे थे कि मेरी पत्नी को मत बुलाइए उसे बहुत तकलीफ होगी। हमें लगा जो हमारा इतना ध्यान रखता हो, हमारी इतनी परवाह करता हो उसकी स्मृति को बनाएं रखना है। इसलिए हमने देवीशंकर अवस्थी स्मृति सम्मान पुरस्कार की शुरुआत की। ज्यादा कुछ हमारे पास साधन भी नहीं था पैसे भी नहीं थे। 11 हजार पुरुस्कार राशि से हमने इसकी शुरुआत की। आज भी वही है, हमने बढ़ाया नहीं। लोगों से सुना है जितना सम्मान अभी भी अवस्थी जी का है उतना किसी का है नहीं।”
वे बताती हैं, “आज भी बच्चों के सामने हम अवस्थी जी की बात नहीं करते हैं। यह जिंदगी का बहुत बड़ा अभाव है। उस टॉपिक पर बात करना ही लगता है जैसे गलत है। एक फिल्म उन पर बनकर आई है। एक कवि हैं देवी प्रसाद मिश्र हैं, उन्होंने बनाई है। हमने देखी। सबने देखी। देवर, ननद, बच्चों ने भी सबने रियेक्ट किया। हमने भी रियेक्ट किया है पर लिखा नहीं। हमारे हाथ लिखने नहीं दे रहे। बच्चों को भी लगा कि पहली बार हम बैठकर पिता की बात कर रहे हैं। हम तो यह भी नहीं सोच सकते थे। जैसे देवी प्रसाद मिश्र ने कहा हमने तो बना ली है। हमने कहा था मेटर तो जो आपको लगेगा, हम दे देंगे।”
वे कहती हैं, “वैसे तो जिंदगी पटरी से तो उतर चुकी थी बहुत पहले, फिर वो चढ़ जाती … फिर वो चली, वो चली। पुरस्कार से संबंधित कई काम के चलते सभी से बात करते रहे हैं। हॉल बुक करना होता है और कई काम। सम्मान का हर कार्यकम साहित्य अकादमी के सभागार, दिल्ली में ही होता है। फिलहाल हम अभी कानपुर में रहते हैं। पहले भी कानपुर में ही रहते थे। केवल नौ साल के लिए दिल्ली में रहना हुआ। अवस्थी जी के जाने के बाद सुरक्षा की दृष्टि से माता-पिता ने वापस कानपुर बुला लिया।”
कमलेश जी अपने विवाह के बाद पति के साथ गुजरे क्षणों को याद कर बताती हैं-“अवस्थी जी के साथ नाटक देखने जाते थे, साहित्य अकादमी में जाते थे। दिल्ली का कोई समारोह छूटता नहीं था। बच्चों को साथ नहीं ले जा पाते थे कि कहीं शोर ना मचाएं। कभी-कभार ले जाना भी हुआ। साहित्य के बहुत शौकीन, देखने सुनने में रुचि रखने वाले वे थे। साहित्य का कोई कार्यक्रम होता था और कोई आ रहा हो तो उनसे मिलाने के लिए हमें भी ले जाते थे। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, अजीत कुमार, विश्वनाथ त्रिपाठी, अज्ञेय, हजारी प्रसाद द्विवेदी, अशोक वाजपेयी, कुंवर नारायण इत्यादि साहित्यिक क्षेत्र से जुड़े महत्वपूर्ण उनके मित्र आते रहें। श्री लाल शुक्ल हमारी देवरानी के पिता हैं। देवीशंकर अवस्थी जी का कहना था आगे बढ़ना चाहिए, पढ़ना चाहिए और समझना चाहिए। मैं तो उनके साथ थी ही। देवीशंकर अवस्थी रचनावली चार भागों में हैं। उनके बारे में रचनावली पढ़कर जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। हमने सब बताया हैं। अवस्थी जी के जाने के बाद जिन लोगों ने मदद की है उन सभी 200-300 लोगों के फ़ोटो उसमें हैं। बहुत सारे साहित्यकार उनके साथ होते थे। यह बहुत ही रेयर किसी के साथ होता है। आपको इस तरह उनके बारे में बताने से मुझे तकलीफ हो रही है आप उनकी रचनावली पढ़ें।”
कमलेश जी से बातचीत कर मुझे लगा हर स्त्री को उनकी तरह आत्मनिर्भर और कर्मठ होना चाहिए। लेखक की पत्नियां जो संघर्ष करते हैं उनका पता नहीं चलता। अगर मैंने फोन पर नहीं बात की होती तो उनके बारे में कहां जान पाती। पति के निधन के बाद 56 साल से वह एकाकी जीवन उम्मीद और उत्साह के साथ जी रही हैं।
‘देवीशंकर अवस्थी स्मृति सम्मान’ 1995 से हर साल समकालीन हिंदी आलोचना में योगदान के लिए पैंतालीस वर्ष तक के युवा आलोचक को दिया जाता है। यह सम्मान देवीशंकर अवस्थी के जन्म दिन 5 अप्रैल को उनकी पत्नी कमलेश् अवस्थी के परिवार द्वारा दिया जाता रहा है। अब तक यह पुरुस्कार मदन सोनी, पुरुषोत्तम अग्रवाल, विजय कुमार, सुरेश शर्मा, शंभु नाथ, वीरेंद्र यादव, अजय तिवारी, पंकज चतुर्वेदी, अरविन्द त्रिपाठी, कृष्ण मोहन, अनिल त्रिपाठी, ज्योतिष जोशी, प्रणय कृष्ण, प्रमिला के पी, जितेंद्र श्रीवास्तव, अमिताभ राय आदि कई आलोचकों को दिया जा चुका है।