प्रतिरोध की कविताएं
स्त्री दर्पण विभिन्न कविता पाठ श्रृंखला आयोजित करता रहा है। इसी की अगली कड़ी मुक्तिबोध स्मृति पाठ में “प्रतिरोध-कविता श्रृंखला” जारी है जिसका संयोजन लोकप्रिय कवयित्री एवं आलोचक सविता सिंह जी कर रही हैं।
स्त्री दर्पण विभिन्न कविता पाठ श्रृंखला आयोजित करता रहा है। इसी की अगली कड़ी मुक्तिबोध स्मृति पाठ में “प्रतिरोध-कविता श्रृंखला” जारी है जिसका संयोजन लोकप्रिय कवयित्री एवं आलोचक सविता सिंह जी कर रही हैं।
“प्रतिरोध-कविता श्रृंखला” पाठ – 1 में हमने वरिष्ठ कवयित्री शुभा जी की यथार्थ परक, बर्बरता को शब्द देती, समकालीन तथ्यों पर तीक्ष्ण प्रहार कर अपना विरोध जताती अद्भूत कविताएँ पढी। इन पर वरिष्ठ आदरणीय कवि नरेश सक्सेना जी की टिप्पणी “बहुत जरूरी, सामयिक और गंभीर हस्तक्षेप है” हमें प्रोत्साहित करती है। कृतज्ञ हूँ। प्रतिक्रियाओं द्वारा पाठकों के सार्थक सहयोग के लिए सभी का हार्दिक धन्यवाद
आज “प्रतिरोध-कविता श्रृंखला” पाठ – 2 में हम वरिष्ठ कवयित्री एवं संस्कृति कर्मी शोभा सिंह जी की कविताएँ उनके परिचय के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं.
– सविता सिंह
रीता दास राम
कवयित्री सविता सिंह
कवयित्री सविता सिंह
आज हिन्दी में स्त्री कविता अपने उस मुकाम पर है जहां एक विहंगम अवलोकन ज़रुरी जान पड़ता है। शायद ही कभी इस भाषा के इतिहास में इतनी श्रेष्ठ रचना एक साथ स्त्रियों द्वारा की गई। खासकर कविता की दुनिया तो अंतर्मुखी ही रही है। आज वह पत्र-पत्रिकाओं, किताबों और सोशल मिडिया, सभी जगह स्त्री के अंतस्थल से निसृत हो अपनी सुंदरता में पसरी हुई है, लेकिन कविता किसलिए लिखी जा रही है यह एक बड़ा सवाल है। क्या कविता वह काम कर रही है जो उसका अपना ध्येय होता है। समाज और व्यवस्थाओं की कुरूपता को बदलना और सुन्दर को रचना, ऐसा करने में ढेर सारा प्रतिरोध शामिल होता है। इसके लिए प्रज्ञा और साहस दोनों चाहिए और इससे भी ज्यादा भीतर की ईमानदारी। संघर्ष करना कविता जानती है और उन्हें भी प्रेरित करती है जो इसे रचते हैं। स्त्रियों की कविताओं में तो इसकी विशेष दरकार है। हम एक पितृसत्तात्मक समाज में जीते हैं जिसके अपने कला और सौंदर्य के आग्रह है और जिसके तल में स्त्री दमन के सिद्धांत हैं जो कभी सवाल के घेरे में नहीं आता। इसी चेतन-अवचेतन में रचाए गए हिंसात्मक दमन को कविता लक्ष्य करना चाहती है जब वह स्त्री के हाथों में चली आती है। हम स्त्री दर्पण के माध्यम से स्त्री कविता की उस धारा को प्रस्तुत करने जा रहे हैं जहां वह आपको प्रतिरोध करती, बोलती हुई नज़र आएंगी। इन कविताओं का प्रतिरोध नए ढंग से दिखेगा। इस प्रतिरोध का सौंदर्य आपको छूए बिना नहीं रह सकता। यहां समझने की बात यह है कि स्त्रियां अपने उस भूत और वर्तमान का भी प्रतिरोध करती हुई दिखेंगी जिनमें उनका ही एक हिस्सा इस सत्ता के सह-उत्पादन में लिप्त रहा है। आज स्त्री कविता इतनी सक्षम है कि वह दोनों तरफ अपने विरोधियों को लक्ष्य कर पा रही है। बाहर-भीतर दोनों ही तरफ़ उसकी तीक्ष्ण दृष्टि जाती है। स्त्री प्रतिरोध की कविता का सरोकार समाज में हर प्रकार के दमन के प्रतिरोध से जुड़ा है। स्त्री का जीवन समाज के हर धर्म जाति आदि जीवन पितृसत्ता के विष में डूबा हुआ है। इसलिए इस श्रृंखला में हम सभी इलाकों, तबकों और चौहद्दियों से आती हुई स्त्री कविता का स्वागत करेंगे। उम्मीद है कि स्त्री दर्पण की प्रतिरोधी स्त्री-कविता सर्व जग में उसी तरह प्रकाश से भरी हुई दिखेंगी जिस तरह से वह जग को प्रकाशवान बनाना चाहती है – बिना शोषण दमन या इस भावना से बने समाज की संरचना करना चाहती है जहां से पितृसत्ता अपने पूंजीवादी स्वरूप में विलुप्त हो चुकी होगी।
इस श्रृंखला में हमारी दूसरी कवयित्री शोभा सिंह हैं जो एक कनी की तरह चमकती रही हैं और जिनकी ज्योति सर्वहारा के जीवन को आलोकित करती रही है, अपने संघर्षमय जीवन से निकाल कर हमें कुछ और मोती दिए हैं जिनसे हम एक लंबी माला बना रही हैं। प्रस्तुत है शोभा सिंह जी की दस कविताएं –
वरिष्ठ कवयित्री एवं संस्कृति कर्मी शोभा सिंह का परिचय –
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कवि और संस्कृति कर्मी। जन्म 9 जून 1952, इलाहाबाद। पढ़ाई-लिखाई इलाहाबाद और दिल्ली में।
पहला कविता संग्रह ‘अर्द्ध विधवा’ 2014 में और दूसरा कविता संग्रह ‘यह मिट्टी दस्तावेज़ हमारा’ 2020 में गुलमोहर किताब (दिल्ली) से प्रकाशित।
रचनाएं ‘पहल’, ‘जनसंदेश टाइम्स’, ‘वागर्थ’, ‘जनसत्ता’, ‘नया ज्ञानोदय’, ‘आजकल’, ‘समकालीन सनमत’, ‘पक्षधर’, ‘दलित अस्मिता’, ‘लमही’, ‘कल के लिए’, हिंदी ‘आउटलुक’, ‘प्रभात खबर’, ‘आधी जमीन’, आदि में प्रकाशित।
वाम राजनीतिक-सांस्कृतिक व महिला आंदोलन से बहुत पुराना, गहरा जुड़ाव व सक्रियता। पहले ‘पथ के साथी’ पुरस्कार (2020) से सम्मानित।
संपर्कः 3/28, पत्रकारपुरम, गोमती नगर, लखनऊ 226010 (उप्र)।
टेलीफोनः 09717779268
शोभा सिंह की प्रतिरोध की कविताएं
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1. प्रेम में गुंथी प्रकृति
यादें खिलती हुईं
सहसा लगा
बरखा के वेग में
सर्वांग का
भीग जाना
नदी का सागर में
गुम हो जाना
एक विस्तार में
तरंगित
आकाश में जले
प्रेम लैम्प पोस्ट के बिम्ब
नदी में जल उठे
सही गलत के साये
शाम की खिड़कियां खड़काते
धुंधले हुए
रूपांतरण हुआ
शाश्वत किसी ठहरे पल का
प्रेम के सृष्टि बीज
रात गुनगुनाती
करवटें लेता रहा सौन्दर्य
चंचल चपल गिलहरी सी
तरुणाई
दुनियावी हक़ीक़त से अनजान
सुनहरे कथा देश का द्वार खोलती
जहाँ सपनों का बोलबाला था
सपनों की ठेस तब तक
उसके लिए अबूझ थी
दृश्य सुख से ही अभिभूत
बिहंसते रंग बिरंगे फूल
अपनी दिल फरेब ख़ुशबू
हवा को सौंप रहे
हवा से ख़ुशियां झरतीं
झूमती डालियों से
झरझर
ढेर सारी प्राण वायु
रेशमी बादलों ने भी छिटका दिया
अपना ख़ुशरंग
बसन्त को विश्वास देता रवि
ऊँचे पहाड़ों से सोना पिघलाने लगा
संरक्षक था
सागर का अक्स, नीला आकाश
उसके प्रेम सम्मोहन का राग
भ्रम के कोहरे में छुपा
शायद लम्बा चला
क्षण भंगुरता का डराता सच
सब समाप्ति की
धमाकेदार टनकार
उसके लिए
समय का रथ
जाम हुआ
दुःख से धरती दरकने लगी
भीतर की आग सुलगती
जलाती रही
उलझनों की गांठें कसी
बिना उसके जाने
अपराध क्या था
सजाएं तामिल की गईं
अक्षम्य था प्रेम का खोना
लेकिन देखा है
हरा दरख्त काट दिए जाने पर
उसी कटे जख्म पर
नई कोपलें फूटतीं हैं
अपनी यह वंचना स्वीकार नहीं
हठी सपने आज भी हैं
बस
अभी तक
व्यर्थ की प्रतीक्षा में
बहार का मौसम
ठहरा है
उदास शामें हैं ज़रूर
उदास शामों की
सहर भी है।
2. मिसफिट
मैं से
हम का
सफर तय करते
दशकों की सीढ़ियाँ
फलांगते
पहुंचे
बेरहम वक़्त में
मिसफिट होना
जबरन घटाए जाते हादसों की
खूनी छीटों से
दंगों से घायल
जीवन मूल्य और नई किस्म की नैतिकता में
गोल गोल घूमते
नई पथरीली अनुभूतियों
शब्दों के नए अर्थ
की तलछट में
खुलती आँख
चकित
सब उलट पुलट
बेईमान ईमानदार की जगह
दूसरों का हक छीनने वाले
सत्ता की कुर्सी पर
गलत को सही ठहराने का
बुद्धि विलास
जुमलों के आवरण में सच्चाई छुपा
नफ़रत के कैनवास पर खूनी रंग
और ख़ुद को ही देश घोषित करते
बेहया प्रेम का महिमा मंडन
विकास के नाम पर
ख़ूब दाद मिली
उसी दौरान
खंडित हुई
सरलता की कई मूर्तियाँ
बेआवाज कठिन दिनों में
उम्मीद का सितारा
क्या टूट गया
या मिसफिट होकर
अपने पीछे
ढेर सारे सवाल
छोड़ गया
नई सुबह के लिए।
3. औरत बीड़ी मज़दूर
नौ सौ बीड़ियां
बाक़ी हैं अभी सौ
वक़्त नहीं
दूर बारह के घंटे की आवाज़
एक, आराम से बजेगा
उंगलियां तेजी से चलातीं
डांट के बावजूद
छोटी बेटी वहीं
लुढ़क गई
प्यार से एक नज़र डालती
दिल की उमड़न
सीने में जज़्ब करती
दिमाग़ और हाथ का
अच्छा तालमेल
तम्बाकू की महक
आदी हो चुकी
शुरू-शुरू में
चक्कर आ जाता था
नई ब्याहता
रात-दिन का पता ही नहीं चलता
मौसम की बहारें
त्योहारों से लकदक
हंसी, कहकहे बस
चंद रोज़
फिर तो जीवन का हिस्सा
तम्बाकू तेंदू पत्ता
मोहल्ले का ग़मे-रोज़गार यही
पूरी कोठरी में
तम्बाकू की महक
रच बस गई….
उसे सपने में दिखते
करारे नोट
मिलते अक्सर तुड़े-मुड़े नोट
बस
बनी बीड़ियों में खोट न निकले
दस-बीस अधिक ही बनानी हैं
छंटनी में पैसे न कट जाएं
हिसाब पक्का है।
आटा और आलू का इंतज़ाम
ख़ुशी के आंसू
इतना तो वह कर ही लेती
काश! सरकारी रेट लागू होता
इस सवाल को पीछे ढकेलती
इतने सालों
उसने बीड़ी बनाई
उंगलियां टेढ़ी
आंख कमज़ोर
क्यों नहीं
बदली उसकी ज़िंदगी
मेहनत का वाज़िब फल
कहां गया
किसके पास
और क्यों?
4. मिसाल: बिलकिस बानो
पिछले पंद्रह साल
तुमने इंतज़ार किया
बिलकिस बानो
न्याय का
पिछले पंद्रह साल
आसान नहीं था कुछ
कितनी बाधाएँ
दुश्वारियाँ जटील
और बेहद तल्ख़
विपरीत हालत के बीच
तुमने सिर्फ़
इंतज़ार किया
मिलने वाले इंसाफ़ का
उसके लिए
ढेर सारी दुआओं को
हर रोज़ समेट
अनथक लड़ती रही
उस हृदय विदारक
दुख को ज़िंदा रखा
उसे बार बार दोहराने की
दारुण यात्रा झेली
कोर्ट, जिरह, जिल्लत
बहुचर्चित हुआ तुम्हारा केस
गुजरात सांप्रदायिक दंगे में
सामूहिक बलात्कार की शिकार
ज़िंदा ?
बिलकिस पाँच माह की गर्भवती
हाँ उस दिन बहुत कुछ हुआ
तुम्हारी नन्ही मासूम बच्ची
पत्थर पर पटक-पटक कर
मार दी गई
परिवार के सात लोग
गाजर मूली की तरह
काट दिए गए
हालांकि
सब कुछ तहस नहस
बेदर्दी से कर दिया गया
बस चंद लोग
भागकर बचे
लहूलुहान तुम्हारी देह को
मुर्दा समझा गया
बेकार की लाश
अंदर का ज्वालामुखी
शायद धधक रहा था
जिसने मौत को पीछे धकेल दिया
तुम्हारा जज़्बा
तारीफ़ के क़ाबिल था
तुमने ज़ुल्म के खिलाफ़
लड़ने का संकल्प लिया
अपराधियों को सज़ा मिले
जाति धर्म के आधार पर विभाजित
नफ़रत की राजनीति की जकड़न से बंधे
25 मार्च 2003 का फ़ैसला
मजिस्ट्रेट कोर्ट ने सबूतों के अभाव में
केस बंद
फ़िर एक लंबा सिलसिला
सुप्रीम कोर्ट
आदेश
सी.बी.आई. जाँच
जहां पूरी व्यवस्था, तंत्र
सबूतों पर मिट्टी दाल रहा हो
लड़ना मुश्किल रेत में नांव चलाना
बिलकिस ने मांग की
मामले की सुनवाई
गुजरात से बाहर हो
यूँ साल बिना पंखे लगे भी
उड़ते गए
मुंबई हाईकोर्ट ने
उन पुलिस कर्मियों
डॉक्टरों को भी
दोषी ठहराया
जिनकी रिपोर्ट झूठी थी
अपराधियों को सज़ा
अलग तरह का फ़ैसला आया
दंगा पीड़ितों को राहत देने वाला
विलम्ब के, बहुत से
उतार चढ़ाव
बहुत सी धमकियों का
जवाब तुमने दिया –
मैं बिलकिस बानो
मैं नहीं हूँ डर का शिकार
अब इससे अधिक बुरा क्या होगा
मैं भूल नहीं पाती
उस मंज़र के कोड़े
जो अब तक
मेरी आत्मा पर बरसते रहे
अपनों को यूँ खोना
नींद में भी
नुकीले काँच चुभते हैं
मैं अपनी ही देह से
कांटे चुनती हूँ
फ़िर भी
तुम्हारे लिए फांसी की सज़ा की
मांग नहीं करती
मेरे धधकते दुख से जुड़ी
मेरी लड़ाई को सही मुकाम तक ले जाने में
मेरी मददगार
साथियों ने भी समझाया
सज़ा-ए-मौत
समस्या का हल नहीं
नफ़रत के बदले, नफ़रत नहीं चाहिए
हाँ सबक़ मिले उन्हें
जो नफ़रत की राजनीति
करते-करवाते हैं
दुआ दिल की है
ख़ुश हाल घर, बस्ती
नफ़रत के खौफ़नाक
मंज़र से ना गुज़रे
उत्पीड़ित और अत्याचारी में फ़र्क रखें
भूमिकाओं की अदला बदली
हरगिज़ नहीं करें
उसने कहा- मैंने नहीं छोड़ी
जुबां की तहज़ीब
हाँ एक खला
ज़ाहिर है रहेगी एक ख़लिश
ख़ून से लथ पथ
ज़िंदगी तो है
उसमें उम्मीदें- सांस ले रही है
सपनों को जलाया नहीं जा सका
घर जरूर फूंक गए
बस अब मेरे सपनों में
मानव घातियों के लिए
कोई जगह नहीं
उनसे कहना
मैं गलत नहीं थी
बयान मेरा हिन्दुस्तानी औरत का
धरती, हवा, पानी जैसे
सच थे
अपराधियों को बचाने के लिए
सत्ता ने कितने ही दरवाज़े
खोले थे
इस पर
अफ़सोस जरूर होता है।
5. शाहीन बाग़
यह मिट्टी दस्तावेज़ हमारा
लगता था अपने ख़्वाबों से
मुलाकात हो रही हो
स्पष्ट विचारों का सैलाब लिए
अपने नीम अंधरे से
उठ कर आईं औरतें
चेतना का दिलेर स्वर बन
उन दिनों जब
संकट गहरा था
ठहरे हुए समाज में भी
आग धधक रही थी
सामान्य मुस्लिम महिलाओं ने आगे बढ़कर
संभाल लिया था मोर्चा
आज़ादी मिलने के बाद
एक नया बेमिसाल
इतिहास
रचा जा रहा था
बेख़ौफ़ आज़ादी का नया स्क्वायर (घेरा)
दमन के ख़िलाफ़
फ़ासीवाद के नंगेपन और
इंसान विरोधी काले कानूनों के ख़िलाफ़
पहली बार घरों से निकल
चौबीस घंटे चलने वाले धरने में आईं
ज़बरदस्त ढंग से व्यवस्थित किया
घर और बाहर का काम
सामने एक ऐसी दुनिया थी
जिसमें अपनी नई पहचान बनानी थी
तय करना था अपना मुकाम
नवजात शिशु के साथ मां ने कहा
कहां हैं वे
जो कहते हैं
हमें गुमराह किया गया है
कौन है गुमराह?
जामिया में हिंदू मुस्लिम में बांट कर
आप छल कर रहे
वहां हमारे बच्चे
मिलकर पढ़ते हैं
आपके दंगाई हमला करते हैं
अब आपसे ही लोकतंत्र को बचाना है
यह तो आज़ादी की लड़ाई है
हमें अपना संविधान
अपना देश बचाना है
दिल्ली का तापमान
एकदम निचले पायदान पर
कड़ाके की ठंड में
अलाव की मीठी आंच सी
जगी आवाज़ें तकऱीरें
संघर्ष से तपे चेहरे
जोश भरते
इंक़लाबी तराने
फ़ैज़ के गीत
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गिरां
रूई की तरह उड़ जायेंगे…
लाजि़म है कि हम भी देखेंगे
सीखचों के पीछे जबरन बंद
अपने मर्दों के लिए
ये तसल्ली और हौसले की
बुलंद आवाज़ें थीं
अन्याय, ज़ुल्म से बग़ावत
जारी रहेगी
कामयाबी न मिलने तक
यूंही अहद है
बिम्ब साकार हो रहे थे
नारे और जज़्बात
दो रंग की घुलावट में
ख़ुदमुख़्तारी का यह अनोखा रंग
जनतंत्र के पक्ष में
एन.आर.सी, सी.ए.ए के ख़िलाफ़
समूचे देश में
गहरा आक्रोश
दर्ज हो रहा था
सद्भाव और एकता की लहरें
ऊपर उठ फैलने लगीं
लोगों ने शुभ संदेश को पकड़ा
अमन सुकून की अहमियत समझते हुए
शांति पूर्ण तरीके से आगे बढ़े
नई मशालों से
रौशन हुए दूर तक
अंधरे कोने भी
अगुआई में
जि़ंदगी के आख़िरी मुकाम पर पहुंची
तीन दादियां
जांबाज़ निडर
शाइस्तगी से बोलीं
करोड़ों लोगों के निर्वासन का दुख
इस ठंडी रात से बड़ा है क्या?
अब तो ख़ामोशी को भी
आवाज़ दे रहीं हैं हम
यह आवाज़ की तरंगें
आने वाली ख़ुशहाली की ख़बर सी
फैल जाएंगी
उनके सपने धुंधली आंखों में
झिलमिलाए
देश की मिट्टी में
कई रंग के फूलों में
हम यूं ही खिलेंगी
देखना
ज़माना हमें कैसे भूलेगा
यहां दादी नानी मां के साथ
बच्चे
सीख रहे
अपनी पहचान
हां अपनी राष्ट्रीयता का
वे पुन: दावा ठोंकते
अपने हिजाब के संग
हिंदू मुसलमान दोनों मिल
हुक्मरान को जवाब देती
ये देश हमारा है, साझी विरासत
हम उतने ही भारतीय हैं जितने तुम
छांटना बंद करो
इसी मिट्टी में दफ़न हैं हमारे पुरखे
यह मिट्टी
दस्तावेज़ हमारा।
6 अफ़ग़ान औरतें
अफ़ग़ानिस्तान की औरतें
अपने जगे एहसास को
पत्थर नहीं बना सकतीं
अपने होने को फिर से नगण्य
नहीं बना सकतीं
बाहरी दुनिया से ग़ायब होना
मंज़ूर नहीं
तालीम के चमकते आफ़ताब के नीचे
खुली हवा में
आज़ाद परिन्दे की उड़ान
अपने लिए शब्दों की शालीनता
उन्हें चाहिए ही
उसे फिर से खोना नहीं
जिसके लिए लम्बे से भी लम्बा
इंतज़ार किया था
अनवरत जद्दोजहद की
दशकों की आज़ादी
उसे छीन लेने की साज़िशाना
जंग भरी चालें
चलती रहीं
जब हासिल आज़ादी का
सुकून-बख़्श साया
कुछ हद तक
छाने लगा था
उनके आकाश में
वे ज़हरीली स्त्री विरोधी ताकतें
हर सिम्त कालिख भरने लगीं
हमारी भावनाओं की
बेरहमी से चीरफाड़
घर की अँधेरी गुफा सी
जहालत की सीलन भरी क़ैद
हां, घोषणाएं बेहतरी की करते
मंसूबे ख़ूनी, कट्टर मज़हबी
निश्चय ही तलछट से सतह पर
भुखमरी की यन्त्रणा
असंख्य घाव लिए
औरतें बाहर आ रही हैं
आतंक के साये से बेख़ौफ़
हथियार-बंद सिपाहियों के सामने
बख़्तर-बंद गाड़ियों के आगे
आवाज़ का उजाला फैलातीं
उनके निर्भीक नन्हे दिलों में
तेजी से धड़कता
दुस्साहस
मिट जाने का ख़ौफ़ नहीं
अवाक, बन्दूकों से डराने के
निशाने भी चूक गए
पुरज़ोर आवाज़ें
जायज़ मांगों की गूंज से
लगा बारूद गीले हुए
तबाही का बर्बर विध्वंसक समय
ठहरा सा
एक रूपक सा उभरता
डर के ठहरे जल में भी
हलचल मचातीं
वे आज़ाद पक्षियों सी
निर्दन्द तैर रहीं
एलान कर रहीं
जंग हमेशा ही हमारी धरती को
बंजर कर देती है
इसलिए भी प्रतिरोध का संघर्ष
दिलों की सियासत की बानगी
अवाम ख़ुद बनाएगी
मुल्क की तस्वीर हम भी तराशेंगी
ज़ुल्म की इंतहा में भी
ख़्वाब मरते नहीं
अमन का कंटीला रास्ता
बसंत के आज़ाद
दरवाज़े खोल देता है।
7. गौरी लंकेश
गौरी लंकेश !
तुम्हारी हत्या के बाद भी
वे तुम्हें दागदार करते रहे
वे गालियां देते भद्दी
जिनसे ख़ून खौलता
फिर लगता उन वहशियों से संवाद भी
शर्मनाक है-बेहद शर्मनाक
वे चुके हुए अघोषित हत्यारे
मृत्यु का जश्न मनाते
उनकी भाषा
उनके घृणित सोच की
पैरोकार
वे क्या वाकई मनुष्य हैं ?
तुम्हारी धारदार कलम से
वे डर गए
सच से भयभीत
क्रांतिकारी विचारों से खौफ़ज़दा
उनकी चरम घृणा की सीख़
कत्लेआम से संतुष्ट होती
उनके लिए अनैतिक कुछ भी नहीं
नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे, एमएम कलबूर्गी
और गौरी लंकेश
समाज के कर्मठ जुझारू सचेतक तबके का
आसान शिकार किया
ये हत्यारे पकड़े नहीं जाते
जबकि देश के तमाम घोषित-अघोषित
तथाकथित आतंकवादी
पकड़े जाते हैं, मारे जाते हैं
फासिस्टों को चुनौती देती
गौरी लंकेश
तुम्हारे हत्यारे पकड़े नहीं जाएँगे
उन पर सत्ता का वरदहस्त है
वे उनके नुमाइंदे हैं
ख़ूब गहरी लकीर सा
हृदय में खींचा प्रतिरोध
सवाल उठाती निडर आवाज़ें
तुम्हारी लड़ाई
जारी रहेगी
तुम्हारी शहादत
बेकार नहीं जाएगी।।
8. अर्द्ध विधवा
कश्मीर की
स्त्री का डर
उसकी नींद की तहों में
कोचता हुआ
उसके हिस्से की दुनिया में
आरामदेह घर
काम से लौटता शौहर
खुशलिबास बच्चे
की जगह
ढेर सारा धुआं
दर्द के काले लबादे में
सिर कटे सपने
छटपटाते हुए हौलनाक
जड़ होती देह
फिर बर्फ की सिल-सी पिघलती
सामने है
आग के धब्बे
कड़वी सच्चाइयां
कर्फ्यू की लीला
अहिंसक प्रतिरोध
और हत्याएं
एक-के-बाद-एक
शव यात्राएं
सीने पर गोलियो के सुर्ख फूलों से सजी
प्रियजनों की
लोहे से तपाए दिनों में
विरोध का जज़्बा
फैलता जाता
व्यापक समुदाय में
बेगुनाह
घिरे हैं
बेहद खतरनाक समय में
गोलियों के मुकाबले
हाथों में
ईंट-पत्थर लिए
क्यों
फूलों की घाटी में
जबरन
पसरा है बियाबान
नफरत के भारी बूटों से
रौंदी गई हरियाली
मुल्क को कठपुतली
बनाने के ख्वाहिशमंद
सिपहसालार लोकतंत्र के
ज्वालामुखी के खुले मुहाने
बरसों का गुस्सा
सुलगता
श्रम की जड़ों में
उनकी आजादी का सवाल
रक्तरंजित
अवाम की नापसंदगी
असहमति
नजरबंद है
स्याह सन्नाटे में
वारदातों की लहूलुहान स्मृतियां
दिल में गड़े
कुर्बानी के अलम
खतरों को भांपती निगाह
अमन की लफ्फाजी
सियासी बिसात पर शतरंज की चालें
समझती हैं वे
हां
प्रेतछाया-सी औरतें
राख से उठे
फीनिक्स पक्षी-सी
ठहर कर सोचती
क्यों उनका आने वाला कल
डर से मुक्त नहीं
कुचक्र कैसे
जीवन की तड़प
धीरे-धीरे
सोखता रहा
आज पथराई उम्मीदें
जलते सवालों के साथ
मुखातिब थीं
जुल्म में सामने
उनके घरों के साये कहां गए
खोने की मारक पीड़ा में
रिस रही उनकी ताकत
रातें ठहरी हुई हैं
जल जल कर
कड़वा धुआं देती
जानती है
ये मुकम्मिल नहीं
एक नई पहचान
उन पर थोपी गई है
अर्द्ध विधवा की
गढ़ी गई दास्तान में
जिंदा या मृत का
कोई सबूत नहीं मिला
उम्र को सिर्फ इंतजार है
गुमशुदा का
उनकी कायनात पर
गम के हाथों के छापें
उभरी हैं
बतौर शिनाख्त
तमाम खुशियों से महरूम करतीं
जुल्म की परतों में
कितनी फाइलें बंद होंगी
जिंदगी की हरकतों पर
कानून की सख्त धाराएं
कितने घर यूं ही दफन हुए
वे रेत के घर नहीं थे
जिंदगी की रौनक से भरपूर
खुशहाल घर थे
कब्रिस्तान का शहर
जब यह नया नाम
दिया जा रहा था श्रीनगर को
कश्मीर की औरतों का डर
बेमानी हुआ
बगावत
जमीन से फूटी
नाइंसाफी के खिलाफ
सस्ती मौत के खिलाफ
रोटी की जरूरत की तरह
वे नए समय की
उम्मीद की जलती मशालें
हाथों में पत्थर लिए
बढऩे लगीं
निर्भय
शब्दों के अर्थ बदलने।
9. यह सदी किसके नाम
बेबाक नज़र थी
बातें
मीठे चश्मे के पानी-सी साफ़
सब की ज़रूरत रोटी
सदियों से
सबको रोटी जोड़ती
व्यापक एकता का सूत्र
जो कभी बनी थी
क्रांति का आह्वान संदेश
कठोर बिजली बादल पानी की गरज से
सवाल थे
क्यों
वे अपना मुल्क बेच रहे
अपना ज़मीर गिरवी
अब हमारी रोटी तक
बेच देना चाहते
भूख की सौदागिरी
वे खूंखार-अंधेरे के व्यापारी
वे सीधे सामने नहीं आते
अपने संरक्षक से
अपने हित के क़ानून पास करवाते
लूट को क़ानूनी जामा पहना
हड़प लेना चाहते
हमारी ज़मीनें
छीन लेना चाहते
हमारे बच्चों का भविष्य
फैलाते ख़ौफ़ का राज
लालच का साम्राज्य
उनके तिलस्म को तोड़ते
किसान
जो अन्न का उजाला
हमारी दुनिया में भरते
जो लोक + जमा तंत्र की
साज़िश
चुनावों में जीत की
दम्भी हेकड़ी
को
समझ बूझ गए
उनकी कतारों में
वक़्त के उस ताने-बाने में
आंदोलन की पुख़्ता बुनावट
डेरा डालो घेरा डालो
की रणभेरी बज रही थी लगातार…
स्त्री पुरुष का भेदभाव नहीं
सब समान, अगुआ भूमिका में
अपनी गरिमा के साथ
स्त्री किसान, पुरुष किसान
बने आंदोलन के सिपाही
इन्सानियत से भरपूर
संज़ीदगी की ढेर सारी
हुंकारें, एकताबद्ध
अपनेपन का सरमाया
बेमिसाल
उधर
बीतते हर दिन
गुपचुप साज़िशें
रचते सत्ता के गुर्गे
सुरक्षा के गोल छल्लों पर
नफ़रती हिंसा के
तीर चलाते
दुष्प्रचार करते
अपनी सामर्थ्य भर-आंदोलनकारी
षड्यंत्र की पहचान करते
उसे बेनक़ाब करते
लड़ाई अनवरत जारी रहती
गोदी मीडिया
आंदोलन की ख़बरों की
गहरी उपेक्षा करता
सत्ता की चाल
किसान उपेक्षा से थक हार
वापस लौट जाएं
समय का कड़वा सच यह भी
यदि किसान हारा
तो देश हार जाएगा
लोकतंत्र हार जाएगा
यह धरती की पीढ़ियां
हार जाएंगी
कड़ी मेहनत, क़ुर्बानियों के बाद
देश को ग़ुलामी से आज़ादी मिली
यह दूसरे किस्म की आज़ादी की
जंग है आरपार की
जीतने के दृढ़ संकल्प के साथ
बेशक वे हाथों से
कलमें छीन लें
अभिव्यक्ति की सारी आज़ादी छीन
जेलों में डाल दें
अन्नदाता की अगली कतारें तैयार हैं
आंदोलन के विस्तार को रोकना
नामुमकिन
दहशत की ख़ौफ़नाक परछाइयों के बीच
राह तलाशती आज़ाद रूहें
अपने को खोल रहीं
बंदिशों, वर्जनाओं से मुक्त
आज़ाद कर रहीं समूह को
देशप्रेम, लोकतंत्र बचाने का सपना
हज़ारों हज़ार आंखों में
अटल ध्रुव तारे सा झिलमिलाता
हां, विपरीत मौसम की चपेट
झेलते
पहलू में बैठने वाले साथियों को
खो देने का भारी दुख
थकते हैं वे
उन्हें गहरी नींद की दरकार
धरती अपना हरियाला आंचल
बिछा देती
उनकी थकन को
दरख़्तों की प्राणदायिनी हवा
हर लेती
जत्थे के जत्थे
मज़दूर किसान स्त्रियां
भोर की उजास फूटते ही
ताज़ा दम हो उठते
अपने सृष्टि बीजों को
अपनी विरासत सौंपते
अंधेरे युग में
रोशनी की बातें करते
कहते ग़ाफ़िल नहीं होना
मुकम्मल दुनिया के लिए
लड़ना ज़रूरी क्यों
पूरे आत्मविश्वास से
लड़ाई लंबी है
इक्कीसवीं सदी
हमारे नाम
लिखी जाएगी
देखना।
10. डर से मुक्ति
जब तक हम चुप हैं
हमें डर लगेगा
सुरक्षा की याद दिला
हमें चुप कराया जाएगा
हम कमज़ोर हैं
हमें विरोध में नहीं आना
राजनीति और किसी विचारधारा के पचड़े में
न – बिलकुल नहीं
वर्ना अनाप शनाप अफ़वाहें
धमकी बलात्कार, हिंसा की
खामोश करने के कारगर उपकरण
ढेरों हैं
दूषित टिप्पणियाँ
“ नारी देवी है ” की पोल खोलती
मंत्री-संतरी शब्दों के पीछे की
गहराई समझाते – तुम लड़की हो
तय हम करेंगे – क्या ख़ाना है, क्या पहनना
क्या सोचना, कितना बोलना, कहां बोलना
वर्ना राष्ट्रद्रोही आतंकवादी का
लेबल आसानी से चस्पाँ
जीतने नारे लगे उतने रेप बढ़े क्यों ?
निश्चय अजीब संकट का दौर है
लेकिन
इस लेकिन में बहुत कुछ छुपा है
निर्भय सच की आवाज़
हवा के पंखों पर सवार
फ़ैल गई
बड़ी बेबाक चुनौती
अभिव्यक्ति की आज़ादी
बाधित क्यों
आवाज़ ने काम किया
असहमति के मदारी
सतर्क
चेतावनी
शब्दों के मुक़ाबले
शब्दों का प्रयोग नहीं
लगाम लगे इस आज़ादी पर
डरो कि डरना बहुत जरूरी है
हाँ जरूर
डराना तुम्हारा ही हथियार है
अब इसका विरोध जरूरी है
घर बाहर कहाँ सुरक्षित हैं हम
जब ज़ुबान ही नहीं बचेगी
तो चुप रहकर क्या करेंगी
अगर मैं तुम हम नहीं
तो कौन उठाएगा हमारी आवाज़
हम कमज़ोर नहीं
डर हमारे ख़ून में नहीं
हम हिंदुस्तान को
मनुस्मृति काल में
ले जाने नहीं देंगी
गलत पाबंदियों के खिलाफ़
अपने से लड़कर भी
हम न्याय के लिए
संघर्ष में हैं
जो इस बुनियादी डर से
आज़ाद होगा
वही कामयाब होगा
हम डर से आज़ाद हैं
पितृसत्ता के शिकंजे से
आज़ाद होना है । ।
– शोभा सिंह