मित्रो अब तक आपने हिंदी के 33 नामी गिरामी लेखकों की पत्नियों के बारे में पढ़ा। आज आप पढ़िये महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला” की पत्नी मनोहरा देवी के बारे में। आपको मालूम होगा कि हिंदी के प्रसिद्ब मार्क्सवादी आलोचक रामविलास शर्मा ने निराला की साहित्य साधना जैसी ऐतिहासिक किताब लिखी थी जिस पर उन्हें साहित्य अकेडमी पुरस्कार भी मिला था।तीन खण्डों में प्रकाशित निराला की उस जीवनी में मनोहरा देवी का जिक्र तो मिलता है लेकिन बहुत विस्तृत जानकारी नही मिलती। निराला का विवाह कम उम्र में हो गया था और उनकी पत्नी का महामारी के कारण अल्पायु में निधन हो गया था लेकिन उनके बारे में अधिक जानकारी नहीं मिलती। उनके प्रपौत्र विवेक निराला ने अपनी परदादी पर मनोयोग से लिखा है। विवेक खुद भी एक सुपरिचित कवि भी हैं। आपको उनके इस लेख में मनोहरा देवी के बारे में रोचक जानकारी मिलेगी पर दुर्भाग्य से उनकी एक भी तसवीर उपलब्ध नही है। यहां तक कि सरोज की भी कोई तसवीर नहीं हैं। अगर निराला की पत्नी और बेटी अधिक समय जीवित रहती तो कोई फोटो जरूर उपलब्ध होता। खैर, हम बिना फोटो के यह लेख दे रहे हैं। आप इसे जरूर पढ़िए।
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“निराला की प्रेरणा: प्रिया मनोहरा”
“क्या मनोहरा देवी निराला से अधिक हिंदी जानती थीं?”
निराला ने अपनी प्रिया, पत्नी मनोहरा देवी के बारे में लिखा है-‘‘जिसकी हिन्दी के प्रकाश से, प्रथम परिचय के समय, मैं आंखें नहीं मिला सका, लजाकर हिन्दी की शिक्षा के संकल्प से कुछ काल बाद देश से विदेश पिता के पास चला गया था, और उस हिन्दी-हीन प्रान्त में बिना शिक्षक के ‘सरस्वती’ की प्रतियां लेकर पद-साधना की, और हिन्दी सीखी थी; जिसका स्वर गृहजन, परिजन और पुरजनों की सम्मति में मेरे ;संगीतद्ध स्वर को परास्त करता था; जिसकी मैत्री की दृष्टि क्षण-मात्र में मेरी रुक्षता को देखकर मुस्कुरा देती थी, जिसने अंत में अदृश्य होकर, मुझसे मेरी पूर्ण परिणीता की तरह मिलकर, मेरे जड़ हाथ को अपने चेतन हाथ से उठाकर दिव्य श्रृंगार की पूर्ति की, वह सुदक्षिणा स्वर्गीया प्रिया प्रकृति दिव्यधामवासिनी हो गई।’’
उ0प्र0 के रायबरेली जनपद के डलमउ में पं0 रामदयाल द्विवेदी एवं पार्वती देवी की सुपुत्री मनोहरा देवी से निराला का विवाह सन् 1910 में हुआ था। विवाह के दो वर्ष बाद, जब निराला सोलह के नज़दीक पहुंच रहे थे और लोग कहने लगे थे कि ‘कण्ठ फूट आया, मसें भीगने लगीं; बगलें निकल आईं, अब गौना कर देना चाहिए’ तो निराला का गौना कर दिया गया। मनोहरा देवी का व्यक्तित्व बेहद निश्छल और स्नेहमय था, उनके भीतर गांभीर्य के साथ एक विशिष्ट शीतलता थी।
निराला अपनी सासजी से मनोहरा के सुमधुर कण्ठ की तारीफ़ सुन चुके थे। एक दिन अवसर आ ही गया। मजलिस लगी, ढोलक बजने लगी। मनोहरा देवी ने भजन गाया, वह भी तुलसीदास का प्रसिद्ध गीत-‘श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन हरण भवभय दारुणम्।’ निराला के साथ-साथ सारे लोग सांस रोक कर सुनने लगे। ‘कन्दर्प अगणित-अमित-छवि-नवनील-नीरज-सुन्दरम्’ की जगह जान पड़ने लगा, गले में मृदंग बज रहा है। तुलसीदास की शब्द-योजना और मनोहरा देवी के मधुर गान ने निराला को गहरे प्रभावित किया। मनोहरा के मनोहर कण्ठ से तुलसीदास का यह छन्द सुनकर निराला के भीतर सोये संस्कार जाग उठे। बंगला मातृभाषा और बंगला साहित्य से बाहर हिन्दी का साहित्य इतना सुन्दर और ललित है, बंगला संगीत से अलग यह संगीत इतना सुमधुर एवं आकर्षक है, निराला ने शायद पहली बार जाना। अब जैसे एक नया संसार निराला के सामने था। बंगला भाषा और बंगला संस्कृति का अभिमान और अपने रूप-सौन्दर्य का दर्प चूर हो गया। निराला को चुनौती मिली-ऐसा ही कुछ गायें, ऐसा ही कुछ रच कर दिखाएं तब जीवन सार्थक हो। मगर, जीवन में न साहित्य की विधिवत् शिक्षा मिली न संगीत की।
निराला को हिन्दी आती न थी। मनोहरा देवी यह अच्छी तरह जानती थीं। निराला को मनोहरा के हिन्दी ज्ञान का पूरा अंदाजा न था। एक दिन बहस हो ही गई। निराला ने पूछा-तुम हिन्दी-हिन्दी करती हो, हिन्दी में है क्या ? उन्होंने कहा-जब तुम्हें आती ही नही ंतो कुछ भी नहीं है। निराला ने फिर पूछा-मुझे हिन्दी नहीं आती ? मनोहरा ने कहा-यह तो तुम्हारी ज़बान बतलाती है। बैसवाड़ी बोल लेते हो, तुलसी की रामायण पढ़ी है, बस। तुम खड़ी बोली का क्या जानते हो ? निराला परास्त हो गए। तब तक उन्होंने खड़ी बोली का तो नाम तक न सुना था। महावीरप्रसाद द्विवेदी, अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ तथा मैथिलीशरण गुप्त आदि उनके स्वप्न में भी न थे। मनोहरा देवी हिन्दी के ऐसे धुरन्धरों के तमाम नाम गिना गईं। निराला स्तब्ध रह गए। निराला सचमुच मनोहरा के हिन्दी-ज्ञान के प्रकाश से आंखें न मिला सके। निराला को बात लग गई, हिन्दी नहीं आती। महिषादल में हिन्दी का कोई जानकार नहीं। हिन्दी के नाम पर कोई ब्रज जानता था, कोई अवधी। खड़ी बोली के लिए अड़चन पड़ी। हिन्दी की अपने ज़माने की मशहूर पत्रिकाएं-सरस्वती और मर्यादा मंगाने लगे। सरस्वती लेकर खड़ी बोली का एक-एक वाक्य अंग्रेजी और बंगला व्याकरण से सिद्ध करते। स्वाध्याय और परिश्रम से हिन्दी सीखी। निराला ने लिखा है-‘‘मैं खड़ी बोली का वाल्मीकि नहीं, पर ‘भयो सिद्ध करि उलटा जापू’ अगर किसी पर खप सकता है, तो हिन्दी के इतिहास में मात्र मुझ पर।’’ निराला की हिन्दी-साधना का प्रतिफल यह हुआ कि गणित के नीरस परचे में पद्माकर के श्रृंगार के सरस कवित्त लिख आने पर एन्ट्ेन्स में फेल हो गए और स्कूल की शिक्षा से मुक्ति मिली।
मनोहरा देवी धार्मिक और शाकाहारी महिला थीं। निराला बंगाल से खाने का भी संस्कार ले कर आये मांसभक्षी। मनोहरा देवी के कहने पर कुछ दिनों मांस खाना छोड़ भी दिया, मगर यह बहुत दिनों तक न चल सका। दुबले हो गए। एक पंडित के यह कहने पर कि ‘मांस खाने से कनौजियों को दोष नहीं लगता, उन्हें वरदान है’-निराला ने फिर से खाना शुरू कर दिया। मनोहरा देवी ने उनके मांस वाले बरतन अलग कर दिए, साथ ही शर्त रखी कि जिस दिन मांस खाओ, उस दिन न मुझे छुओ न घर के बरतन।
सन् 1914 में मनोहरा देवी ने अपने मायके डलमउ में पुत्र रामकृष्ण को जन्म दिया और 1917 में अपनी दूसरी सन्तान सरोज को। सन् 1918 आते-आते एनफ्लूएन्जा महामारी के तौर पर फैल गया। मनोहरा अपने मायके में ही थीं। महिषादल में निराला को तार मिला-तुम्हारी स्त्री सख़्त बीमार है, फौरन आओ। मगर, निराला के पहुंचने से पहले ही मनोहरा की चिता जल चुकी थी। फेफड़े कफ़ से जकड़ गए थे। परिवार के कई लोग इस महामारी में गुज़र गए। निराला को गहरा धक्का लगा। इक्कीस-बाइस साल की उम्र, जब विवाहित जीवन कायदे से शुरू होना था, मनोहरा नहीं रहीं। मनोहरा देवी उनकी सच्ची सहयोगिनी थीं। परीक्षा में फेल होने पर पिता से खुद के साथ उन्हें भी अपमानित करा के निकले थे, उनकी नापसंदगी के बावजूद मांसाहार करते थे। मनोहरा कितनी उदार! कभी शिकायत न की और इस युवावस्था में निराला तथा दो छोटे-छोटे बच्चों को छोड़कर चली गईं। सुमधुर कण्ठ, मृदुल स्वभाव, सात्विक सौन्दर्य, और तेजोमय व्यक्तित्व की स्वामिनी मनोहरा के प्रति कितना प्रेम है जेसे निराला को अब मालूम हुआ। एक अपराध-बोध जैसे निरन्तर साथ लगा रहता। निराला गंगा किनारे रात-रात भर श्मशान में घूमा करते जहां मनोहरा देवी की चिता जली थी। निराला ने आत्म-व्यंग्य करते हुए स्वयं लिखा-‘‘मेरा और मेरी दिव्यधामवासिनी धर्मपत्नी का सम्बन्ध पण्डितों ने पत्रा देखकर जोड़ा था, मुझे और उन्हें देखकर नहीं, इसलिए विवाह के पश्चात् मेरी और उनकी प्रकृति ऐसे मिली, जैसे पण्डितों की पोथियों के पत्र एक दूसरे से मिले रहते हैं। वह अखण्ड भारतीय थीं और मैं प्रत्यक्ष राक्षस।’’
निराला अपने मॉं-बाप की इकलौती संतति थे तो मनोहरा देवी भी अपने मॉं-बाप की इकलौती बेटी थीं। मनोहरा का लालन-पालन बेटे की तरह हुआ था। पिता उन्हें ‘राम मनोहर’ कह कर बुलाते। मनोहरा के पिता अपनी आधी सम्पत्ति अपने बेटे रामधनी को और आधी अपनी बेटी को देना चाहते थे, किन्तु निराला ने सम्पत्ति न लेने का सुझाव दिया। मनोहरा ने सम्पत्ति लेने से मना कर दिया। आत्म-सम्मान की भावना उनमें भी बहुत थी। महिषादल में बैसवाड़ी परिवार निराला का बड़प्पन स्वीकार करते थे, मनोहरा देवी ने यह बड़प्पन स्वीकार न किया बल्कि हिन्दी का आइना दिखा दिया। निराला को अपनी देह-यष्टि, अपने रूप पर गर्व था, मनोहरा ने अपने सुमधुर संगीत से उनका गर्व चूर कर दिया। निराला हारे, मनोहरा जीतीं।
मनोहरा के न रहने के बाद मनोहरा देवी की मॉं ने खुद निराला से छोटे बच्चों के हित में दूसरा विवाह कर लेने का आग्रह किया मगर निराला स्वीकार न कर सके। मनोहरा का स्थान कोई और अब ले भी न सकता था। खेलती हुई नन्हीं सरोज को वह जन्म-पत्रिका ही दे दी जिसमें दो विवाह भाग्य में लिखे बताये जाते थे। सरोज ने खेलते-खेलते वह जन्म-पत्रिका ही चिन्दी-चिन्दी कर डाली।
मनोहरा अब भले ही भौतिकरूप से निराला के साथ न थीं, लेकिन निराला के अन्तर्मन में वह सदैव साथ रहीं। समय-समय पर निराला व्यक्त करते रहे – ‘रंग गई पग-पग धन्य धरा/हुई जग जगमग मनोहरा।’ या उनकी प्रसिद्ध कविता सरोज-स्मृति में प्रसंग आता है कि सरोज को देख कर निराला को वही मनोहर छवि दीखती है-‘श्रृंगार रहा जो निराकार/रस कविता में उच्छ्वसित धार/गाया स्वर्गीया प्रिया संग/भरता प्राणों में राग-रंग।’ मनोहरा निराला की प्रेरणा थीं। उनके हिन्दी-ज्ञान के समक्ष नतमस्तक निराला ने हिन्दी सीखी और आधुनिक हिन्दी कविता के ‘महाप्राण’ बन सके। सरोज को निराला ‘जीवित कविते’ कहते हैं तो हम भी निराला को मनोहरा की ‘मनोहर निर्मिति’ कह सकते हैं।
– विवेक निराला
जन्म : 30 जून 1974 इलाहाबाद में।
शिक्षा : प्राथमिक शिक्षा इलाहाबाद, माध्यमिक बाँदा में, एम. ए. , डी. फिल.(इलाहाबाद विश्वविद्यालय)
रचनाएँ : ‘एक बिम्ब है यह’ (2005 राजकमल प्रकाशन) के बाद दूसरा कविता संग्रह, ‘ध्रुवतारा जल में’ राजकमल प्रकाशन से बारह वर्षों के बाद 2017 में प्रकाशित।’ दो आलोचना पुस्तकें
पांच पुस्तकें का सम्पादन.
संपर्क : निराला-निवास, 265 बख़्शी खुर्द, दारागंज, इलाहाबाद -211006
viveknirala@gmail. com, 09415289529
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