डॉक्टर संध्या सिंह
हालाँकि नवीन आँकडे़ बतायेंगे कि भारत में आज की तारीख में बालिका और बालक का अनुपात क्या है? उनकी जन्म और मृत्यु दर क्या है? भ्रूण हत्या आज किस स्थिति में है, पर साथही हम यह भी जानते हैं कि आँकड़ों का सच और सच का सच अलग होता है, परन्तु आँकड़ों का सच भी भयाक्रान्त करने वाला हो तो सभ्यता के इस मुहाने पर आकर सोचना पड़ता है कि तथाकथित भूमण्डलीकरण, उदारीकरण और उत्तर आधुनिकता के चोले तले स्त्री आज भी अपने पैरों के नीचे की जमीन बचाने को जद्दोजहद में क्यों है। हिन्दू कोड बिल के अनुसार हिन्दू स्त्री को निम्न अधिकार मिले थे:-
(1) पिता की सम्पत्ति में बेटी का अधिकार, (2)बहुपत्नी प्रथा पर रोक (3) पुनर्विवाह/विधवा विवाह का अधिकार (4) विवाह विच्छेद का अधिकार (5) स्त्री को स्वतंत्र रूप से विवाह का अधिकार जिसमें अन्र्तजातीय विवाह शामिल है। इतने वर्षो बाद का यथार्थ क्या है। इन अधिकारों के लिए कहीं अदालतों का दरवाजा खटखटाती स्त्री है तो कहीं अलिखित कानून से चुपचाप लड़ती स्त्री है तो कहीं बहुतायत में उपनिवेशीकृत हो चुका और स्वयं हथियार में तब्दील हो चुका स्त्री समुदाय है। सदियों की परम्पराओं ने उसके ‘‘माॅरल फाइबर’’ की ‘‘कन्डीशनिंग’’ कर दी है, पितृसत्तात्मक सामन्ती समाज में बस उदारवाद की चादर ओढ़ ली है। पूँजी और बाजार का खेल जारी है। देखना होगा कि इस तथाकथित आधुनिक समय ने पुराने समय की तुलना में आज की स्त्री को वस्तुतः दिया क्या है। एक स्त्री की चाहना है क्या आखिर! (फ्रायड को फिलहाल रहने दें – वह अलग अध्ययन का विषय है) उसकी आकांक्षा, उसकी स्वीकारोक्ति,उसका नकार, आखिर कहता क्या है? ज्ञात इतिहास और परम्परा से प्राप्त मिथक तक से गुजर कर एक ही बात पकड़ में आती है,- एक स्वतंत्र मनुष्य के रूप में स्वीकारोक्ति अपनी! जैसे पुरूष वैसे वह स्वयं क्यों नहीं!
महाभारत में एक श्लोक है – न स्त्री स्वातंत्रमर्हतिः। अर्थात स्वतंत्रता पर नारी का कोई अधिकार नहीं है।’’1
जाहिर है इस विषय के लिये हमें परम्परा, सभ्यता, संस्कृति, इतिहास और मिथकों से भी गुजरना होगा। मिथकों को बड़ी आसानी से नकारा जा सकता है पर साथ ही यह सत्य आ खड़ा होता है कि मिथकों में हमारा लोक सांस लेता है और लोक में हमारा मिथक। विशेष कर परम्परागत स्त्री समुदाय। हम उन्हें दरकिनार नहीं कर सकते। स्त्री की स्वतंत्रता का समूल लेना देना इसी पितृसत्तात्मक जड़ों से है। वहीं से खुराक भी और वहीं से सूखापन भी।
एक तरफ प्राचीन भारतीय संस्कृति के महिमामण्डन का अतिवाद है तो दूसरी तरफ उसके छिद्रान्वेषण की ओढ़ी हुई दृष्टि का दूसरा छोर। अभाव है तो संतुलित दृष्टि का। एक लम्बा इतिहास है जो अपने चिन्ह छोड़ता गया है। कालान्तर में जो चिन्ह कई-कई रूप बदलते गए हैं। उनका समेकित रूप जब सामने आ खड़ा होता है तो जाहिर है वह जटिल होगा ही। पर इतना तय हो जाता है, इन सबसे गुजर कर कि ‘‘दुनिया में अगर न्याय का कोई एक विश्वव्यापी संघर्ष है, तो वह है नारी के लिये न्याय का संघर्ष। अगर किसी एक मुद्दे पर हर सभ्यता हर परम्परा का दामन दागों से भरा हुआ है, तो वह है स्त्री की अस्मिता का मुद्दा।’’2
पीछे चलते हैं, उस ऋग्वेदिक कालमें जब स्त्री को स्वयं ब्रम्हा का स्थान दिया गया था ‘‘स्त्री हि ब्रह्मा वभूविथ’’3
के0एम0 मुंशी अपनी पुस्तक विश्वरथ में लिखते हैं- ‘‘ऋग्वेद वर्णित जीवन नवीन है, इसमें इतिहास के ऊषाकाल की हलचल और तेजस्विता है ….. हर स्त्री को विवाह करने की आवश्यकता न थी। कुमारी से उत्पन्न बच्चे अधम, पतित नहीं समझे जाते थे।’’4
‘‘वैदिक व्यवस्था में कुमारी व विवाहित महिलाओं को बहुत सम्मान दिया जाता था। उन्हें सभी सामाजिक व धार्मिक कार्यो में पुरूषों के बराबर अधिकार और दायित्व थे। तब बालिकाएं भी अपने भाईयों की तरह जनेऊ पहनती थीं और गुरूकुल में उनके साथ अध्ययन करती थीं।… आज भी हम अपने पाॅच हजार साल पुराने मंत्रों और आचारों में से अनेक का पालन करते हैं। प्रातः काल के सूर्य नमस्कार से लेकर विवाह और दाह संस्कार के मंत्र आज भी वही हैं। परन्तु जहाॅ स्त्री जाति को बराबर स्थान देने की बात कही गयी थी, वे वाक्य, कहावतें और आचार धीरे-धीरे हमारे समाज की स्मृति से लुप्त हो गये। स्त्रियों के प्रति निषेधात्मक उपपत्तियाँ क्यों प्रचलित की गयी। यह कहना तो मुश्किल है, परन्तु उसके परिणाम इसके लगभग डेढ़ हजार साल बाद हमें पुराणों में साफ दिखाई देते हैं।’’5
इसके बरअक्स तसलीमा नसरीन अपनी पुस्तक ‘‘औरत के हक में’’ में वैदिक साहित्य के साथ-साथ कुरान और हदीस से उद्धरणों की फेहरिस्त प्रस्तुत करती है, वे लिखती हैं -‘‘कई लोगों का सोचना है कि वैदिक युग में भारत वर्ष में नारी को यथोपयुक्त सम्मान या मर्यादा दी जाती थी! इस्लाम के अर्विभाव के बाद वह मर्यादा अचानक लुप्त हो गई। लेकिन मैं इसे मानने को तैयार नहीं! पुरातत्व, शिलालेख, ताम्रशासनादेश (ताँबे के पात्र पर लिखी गई राजाज्ञा) प्रथम युग के पुराण और बौद्ध साहित्य के साथ-साथ वैदिक साहित्य ही वैदिक युग के सम्पूर्ण इतिहास को वहन करते हैं। संहिता, ब्राह्मण, आख्यानक, उपनिषद और सूत्र साहित्य ही (श्रुति, गृह्य, धर्मसूत्र) मुख्य रूप से वैदिक साहित्य है, ईशा पूर्व बारहवीं से ईशा की चैथी शताब्दी के बीच रचित साहित्य द्वारा समाज का जो चित्र उभर कर सामने आता है, उसमें नारी को कहीं भी ‘‘मनुष्य’’ नहीं समझा गया है।’’6 तसलीमा आगे लिखती हैं-‘‘ऐतरेय ब्राहम्ण’ उसी नारी को उत्तम समझता है जो अपने पति को सन्तुष्ट करती है। पुत्र संतान को जन्म देती है एवं पति से बढ़चढ़ कर कभी कुछ नहीं कहती (3/24/27) शतपथ ब्राह्मण’ में लिखा हुआ है, ‘सुन्दर पत्नी पति का प्रेम प्राप्त करती है’’ (9/6) ‘शतपथ ब्राह्मण में नारी के दमन (अवरोध) की बात कही गई है, ऐसा न होने पर उसकी शक्ति क्षय होगी (14/1/1/31) यज्ञ में एक दण्ड (लाठी) को दो वस्त्रों के टुकड़ों से लपेटा जाता है, इसलिए पुरूष को दो पत्नी ग्रहण करने का अधिकार है। चूंकि एक कपडे़ के टुकडे़ को दो लाठियों में नहीं लपेटा जाता, इसीलिए नारी को दो पति यानी द्विपतित्व को मनाहीहै। (तैत्तरीय संहिता 6/6/4/3, तैत्तरीय ब्राह्मण 1/3/10/58)…………(ऐतरेय ब्राहम्ण, 35/5/2/47)………….. (वशिष्ठ धर्मसूत्र में लिखा है, पिता रक्षति कौमारे, भ्राता रक्षति यौवने। रक्षति स्थविरे पुत्रा, न स्त्री स्वातंत्रमहर्ति (5/1-2, 2/1, 3, 44, 45) ‘शतपथ ब्राह्मण में नारी को पुरूष का अनुगामिनी होने को कहा गया है (132/28) वृहदा रण्यक उपनिषद्’ में है – ‘‘पति वा अनुजाया’’ – यानी पत्नी पति के पश्चात (1/9/2/14) विवाह अनुष्ठान में प्रार्थना की जाती है – पुत्र,पौत्र, दास, शिष्य, वस्त्र, कम्बल, धातु, बहु भार्या, राजा, अन्न और सरुक्षा की (हिरण्यकेशी गृह्य सूत्र 1/6/12/14) …… स्त्री का पहला कर्तव्य है पुत्र – सन्तान को जन्म देना (आपस्तम्ब धर्म सूत्र -1/10-51-52) निःसन्तान पत्नी को शादी के दस वर्ष बाद त्याग किया जा सकता है, जो स्त्री कन्या सन्तान को जन्म देती है, उसे बारह वर्ष बाद, जिस स्त्री के बच्चे जीवित नहीं रहते, उसे पन्द्रह वर्ष बाद और कलहपरायण स्त्री को तुरन्त त्यागा जा सकता है। (बोधायन धर्मसूत्र, 2/4/6) और शतपथ ब्राह्मण में भी है कि जो अपुत्रा पत्नी है, वह परित्यक्ता है (5/2/3/14) (वशिष्ठ धर्मसूत्र, 28/2-3) नारी होम-हवन नहीं कर सकती (आपस्तम्ब धर्मसूत्र 2/7/15/17) उपनयन संस्कार, ब्रह्मचर्य, वेद अध्ययन नारी के लिये निषिद्ध है। (वृहदारण्यक उपनिषद 6/4/7) में पति संभोग इच्छा को सन्तुष्ट न करने पर हाँथ या लाठी से पीटकर स्त्री को वश में करने का उल्लेख है। अपने शरीर को अवांछित संभोग से बचाने का अधिकार भी उसे नहीं था) मैत्रेयणी संहिता, 3/6/3, 4/6,4/7/4,10/10/11, तैत्तरीय संहिता, 6/5/8/2) ‘‘मैत्रेयणी संहिता’’ में कहा गया है कि नारी अशुभ है (3/8/3)। यज्ञ करते हुए किसी कुत्ते , शूद्र और नारी की तरफ मत देखो (शतपथ ब्रह्मण, 3/2/4/6) कन्या अभिशाप है (ऐतरेय ब्राह्मण 6/3/7/13)। नारी मिथ्याचारिणी, दुर्भाग्यस्वंरूपिणी, सुरा और द्यूत-क्रीड़ा की तरह है (मैत्रेयणी संहिता, 1/10/11, 3/6/3)। इसीलिए सर्वगुण सम्पन्न श्रेष्ठ नारी भी अधम पुरूष से हीन है ( तैत्तरीय संहिता 6/5/8/2)।
शतपथ ब्राह्मण में है कि ‘‘भुक्तावाच्छिष्टं वयैव ददात्’’ अर्थात जूठन पत्नी को देंगे (गृहयसूत्र, 1/4/11) । ‘‘आपस्तम्ब’ धर्मसूत्र (1/9/23/45) में नारी हत्या के लिए एक दिन के व्रत का पालन का उल्लेख है। काली चिड़िया, गिद्ध, नेवला, छछूंदर और कुत्ते की हत्या के प्रायश्चित के बराबर।7
दूसरी तरफ ‘‘मुस्लिम हदीस शरीफ में लिखा गया है- दुनिया में सब कुछ भोग्य सामगं्री है और दुनिया की सर्वोत्तम सामग्री है ‘स्त्री’।’’8
तसलीमा लिखती हैं ‘‘सभी देशों में एक अलग कानून से धर्मग्रन्थ सुरक्षित रहतेहैं।’’ जब कि ‘‘रक्षा कवच या संरक्षण का अलग कानून न रहे तो इन पर भी अश्लीलता का आरोप लगाया जा सकता था। जैसे – सियाम की रात में तुम्हारे लिए स्त्री संभोग वैध किया गया है। (सुरा बकारा आयत: 189) (सुरा बकारा आयत: 222) तुम्हारी स्त्री तुम्हारे अनाज का ख्ेात है। इसलिए तुम लोग अपने उस खेत में जैसी मर्जी गमन कर सकते हो।
(सुरा बकारा, आयत: 223) (सुरा बकारा,आयत: 230) भोग्य वस्तुओं में स्त्री भी शामिल है (सूरा अल इमरान, आयत: 14) औरत शैतान का रूप धारण करके निकट आती है और शैतान के रूप में वापस चली जाती है। (बुखारी हदीस ) पति अपनी पत्नी को चार कारणों से पीट सकता है जिसमें एक है पति यदि सहवास की इच्छा से पत्नी को बुलाये और पत्नी न आए। (तिरमिजी हदीस)’’9 (बुखारी शरीफ़ हदीस 4425) में कहा गया है कि अल्लाह रसूल ने इरशाद किया है-‘‘कभी उस कौम का भला नहीं होता जो किसी औरत को नेता चुनती है।’’ ‘‘जब तुम्हारे शैतान, अमीर, शासक और मालदार लोग कंजूस होंगे और तुम्हारी तमाम कार्यावली औरतों के सुपुर्द होंगी, तब इस पृथ्वी का पेट उसकी पीठ की तुलना में (यानी दुनिया में न रहना ही ) तुम्हारे लिए बेहतर होगा’’ (तिरमिजी शरीफ दूसरा खंड पृ0 52)’’ जब पुरूष महिलाओं के माध्यम होंगे तब वे खत्म हो जायेंगे’’ (मुसतादरक अल् हकीम, चतुर्थ खण्ड पृ0-291)10 ‘‘इस्लाम धर्म में पुरूष के लिए चार विवाह करने का नियम प्रचलित है। महानवी हज़रत मुहम्मद (साहब) ने चैदह शादियाँ की थीं।11
‘‘पवित्र कुरान में ही तो दस-दस दासियों को भोगने की बात कही गई है। एक घटना के सन्दर्भ में यह उदधृत करते हुए तसलीमा पुनः उदाहरण देती हैं (सूरा निसा: 3 आयत: 1 रूकु) यानी यह बात जाहिर है कि दासी निषिद्ध नहीं है, सूरा आहजाब, आयत: 52 )’’ तुम्हारे अधिकार की दासियों के लिए यह विधान (नियम) प्रयोज्य नहीं’’12
वैदिक साहित्य से पुराणों तक के बीच के काल में ही वे परिवर्तन घटित हुए, जिन्हें महादेवी वर्मा किसी विषवृक्ष के फल की संज्ञा देती हैं। ‘‘वराह पुराण, याज्ञवल्क्य स्मृति, अग्नि पुराण, पद्म पुराण, ब्रह्म वैवत्र्य पुराण, गायत्री पंचांग, भागवत पुराण के उद्धरणों से यह पता लगता है कि स्त्री हत्या, स्त्री भू्रण हत्या, बाल हत्या की घटनाएं समाज में शुरू हो चुकी थी इसीलिए इसके दण्ड का विधान अस्तित्व में आया था।13 आगे बढ़ते हैं ‘‘कन्या शिशु की हत्या का पहला उल्लेख हमंे 1789 में सर जोनायन डंकन के लेख में मिलता है। सर डंकन वाराणसी के आयुक्त थे। …………… सर डंकन ने इन इलाकों के सरदारों से 3 दिसम्बर 1789 को एक इकरारनामा लिखवाया कि वे इस घिनौनी प्रथा को छोड़ देंगे। ……. सर डंकन के बाद सर जाॅन शोर 1795 में वाराणसी के आयुक्त बने। 22 मई 1795 को प्रथम रेग्यूलेशन ग्ग्प् उन्होंने पास करवाया।………….. परन्तु 1836 में जब थाॅमसन नामक सैनिक अफसर आजमगढ़ जिले के करों का निबटारा करने आये तो मजाक-मजक में उन्होंने गाॅव के एक व्यक्ति को एक दूसरे व्यक्ति का ‘‘दामाद’’ कह कर पुकारा। इस पर सभी लोग हँस पडे़ और बताया कि यह तो असम्भव है, क्योंकि उनके गाॅव में 200 सालों से कोई लड़की ही नहीं रही।
लगभग दस साल बाद पहला पंजाब युद्ध घटित हुआ। 1846 में जलंधर दोआब को ब्रिटिश साम्राज्य में संयुक्त कर दिया गया। युद्ध के बाद सैनिक घरों में छुपाये धन और गहनों की खोज में घर के आँगन और पिछवाडे़ की जमीन खोदने लगे, तो उन्हें हर घर में ढेरों शिशुओं के कंकाल मिले। लाॅर्ड लाॅरेन्स ने, जो यहाँ के आयुक्त बने, तुरन्त जाँच-पड़ताल शुरू की। तब उन्हें पता चला कि ऐसी हत्याएँ पंजाब में बहुत प्रचलित है। खासकर यह पंजाब की बेदी नामक जाति में अनेक पीढ़ियों से प्रचलित थी।…………… जहाँ राजपूत इस प्रथा का पालन चोरी छिपे करते थे, वहीं सिख बहुत गर्व से अपनी 400 सालों से चली आ रही कन्या शिशु हत्या की परम्परा के बारे में बताने में संकोच नहीं करते थे। …… 1846 में जलंधर -दोआब की जनगणना में 2000 बेदी परिवारों में एक भी लड़की नहीं मिली। 1852 में पूरे प्रदेश में सिर्फ 50 लड़कियाँ एक से पाॅच वर्ष की उम्र में पायी गयी। 1807 में कन्या शिशु की हत्या की प्रथा बम्बई प्रेसिडेन्सी (अब गुजरात, महाराष्ट्र और कर्नाटक ) में मेजर वाॅकर की नजर में आई। …… 1870 में एक अधिनियम पारित किया गया। अधिनियम टप्प्प् के द्वारा जिस गाँव में लड़कों की तुलना में लड़कियां 40 प्रतिशत या उससे कम हों, उसे संदिग्ध गाॅव का दर्जा दिया गया। ऐसे गाँव सिर्फ संयुक्त प्रान्त (अब उत्तर प्रदेश) में 4959 थे। 1890 तक सभी संदिग्ध गाॅवों में लड़कियों की संख्या लड़कों के बराबर हो गयी। 1906 में यह अधिनियम निरस्त कर दिया गया। ……..1901 से आज तक पुरूषों के अनुपात में स्त्रियों की संख्या घटती ही जा रही है 1977 में एमनियोसेंटेसिस का इस्तेमाल पहली बार बम्बई के हरकिसनदास अस्पताल में भू्रण हत्या के लिए किया गया। ….. 1989 में 1200 कन्या भ्रूणों की हत्या सिर्फ बम्बई के दो क्लीनिकांे ने की (मानुषी, मार्च अप्रैल, 1991) और यह 1988 में भ्रूण लिंग परीक्षण पर महाराष्ट्र सरकार के निषेध के बाद!’’14
एक अन्य सर्वेक्षण के अनुसार ‘‘1984 में मुम्बई के एक अस्पताल में जन्म पूर्व सेक्स-निर्धारण परीक्षण के बाद 8000 भ्रूणों का गर्भपात हुआ, इनमें से 7999 लड़कियाँ थीं।’’15
इसी सर्वेक्षण में यह तथ्य भी आया कि ‘‘1990 में भारत की पुलिस ने दहेज की वजह से 4835 हत्याओं के मामले दर्ज किये।…… एशिया/प्रशान्त क्षेत्र में पुरूषों की संख्या 105ः100 के अनुपात में महिलाओं से अधिक है, शेष दुनिया में महिलाओं की संख्या पुरूषों से ज्यादा है। विश्व के अशिक्षित लोगों में से दो तिहाई महिलायें हैं। प्राथमिक पाठशाला में जिन बच्चों का नाम नहीं लिखवाया जाता उनमें से 70 फीसदी लड़कियां होती हैं।’’16
वन्दना राग लिखती हैं – ‘‘भारतीय स्त्री परिप्रेक्ष्य, भूमंडलीकरण के वर्षो में भी, एक ही साथ अठ्ारहवीं, उन्नीसवीं, बीसवीं तथा इक्कीसवीं सदी की सोचों को विभिन्न स्तरों पर साथ-साथ भुगत रहा है। स्त्री के देह सम्बन्धी अधिकारों की बात करते वक्त हम पाते हैं कि आम तौर पर स्वास्थ्य के क्षेत्र में हुई प्रगति से स्त्री का जीवन भी अधिक सुरक्षित हुआ है। स्त्री की कोख के अधिकार से भी तथाकथित रूप से समर्थ किया गया है। सेक्स के प्रति तेजी से बदलते सामाजिक नज़रिए और गर्भ निरोधकों की खुली बिक्री ने देश में भूमण्डलीकरण की उत्तर अन्र्तकथा के रूप में एक यौनक्रान्ति का उद्घोषणा कर दिया है। जाहिर है, खुले बाजार के प्रमुख टूल के रूप में मीडिया, सेक्स के प्रति न सिर्फ जागरूकता बढ़ाने का काम कर रहा है, बल्कि अनेक बार वह सार्थकता की सीढ़ी लाँघ अश्लीलता की ओर अग्रसर हो जाता है।’’17
पुूरे विश्व के नारी मुक्ति आन्दोलनों को और भारत के स्त्री पुरूष को सन्दर्भो सहित समझना एक पृथक पृष्ठ भूमि देता है, जो बताता है कि सिर्फ वर्ग संघर्ष नहीं जातिगत और सांस्कृतिक विभिन्नता सहित इसे देखना बरतना होगा। भूमण्डलीकरण ने जिस आधुनिक सबल स्त्री को दृश्यमान बनाया है वह झूठ नहीं है पर अधूरा सच है जो बताता है कि स्त्रियाँ आत्म निर्भर हो रही हैं। निर्णय ले रही हैं, अविवाहित मातृत्व को जी रही हैं, अकेली रह रही हैं खुश और सन्तुष्ट हैं। दूसरी तरफ आज भी (विशेष रूप से भारतीय सन्दर्भो में ) इसके विपरीत खड़ा वह स्त्री जत्था है जो वैसे ही उपनिवेशीकृत है जैसे सदियों पहले का था कुछ टूल्स बदल गए हैं, कुछ नए मिथक निर्मित हो गये हैं, वैज्ञानिक सोच का आज भी अभाव है। बाज़ार और पूँजी आज भी आधुनिक सबल स्त्री के भाग्य विधाता और नियामक बने डटे हैं। स्त्री भूमिकाओं की अदला बदली से भ्रमित है या और जकड़ गई है, सशक्त मीडिया जिन छवियों को गढ़ कर मानक के रूप में पेश कर देता है, वे रूढ़ बन जाती हैं। स्त्री आज भी कमनीय होने को बाध्य है। सूचना क्रान्ति ने स्त्री को जो साइबर स्पेस दिया है वह उसकी मालकिन नहीं है। उसे कुछ आजाद क्षण मिलते हैं पर वह पूरी तरह से उसके नियंत्रण में नहीं है। नियंता यहाँ भी अदृश्य, आवारा पूँजी हीं हैै।
बहरहाल पुनः शुरूआती आंकड़ों पर आते हैं – ‘‘1981 की अपेक्षा 1991 से 2001 तक के वर्षो में बालिका भू्रण हत्या तथा बालिकाओं की उपेक्षा दरों में साधारणतया वृद्धि ही हुई है। लैंगिक अनुपात स्त्रियों के बरअक्स पुरूषों के पक्ष में, दिल्ली शहर में सबसे अधिक नजर आता है। पंजाब में अभी 793 लड़कियों के मुकाबले 1000 लड़के हैं। इसके विपरीत केरल प्रान्त में 1058 स्त्रियों के मुकाबले 1000 पुरूष हैं। पुरूषों की अपेक्षा स्त्रियों की दैनिक आय पहले से ही कम थी और अब अंाकडे़ बताते हैं कि सन 1990 के बाद कमी के अनुपात में और भी वृद्धि हुई है, भारत के अनेक प्रान्तों में कोख के अधिकार, मातृत्व के सुख, सब मिलकर उसी पितृसत्तात्मक सत्ता की उत्पत्ति और पोषण में संलग्न हो जाते हैं, जिसके तिरस्कार से निजात पाने हेतु कोख के अधिकार की कामना की गयी थी।18
भारत के संदर्भो में अगर हम आशावान और सकारात्मक होना चाहते हैं तो खुश हो लेने का एक छोटा कारण है 2011- से 2016 के बीच मंथर गति से बढ़ता बालिका जन्म दर का लैंगिक अनुपात – जो 2011 में 940 था, पुनः 2012 में 940, 2013 में 941, 2014 में 942,2015 में 943 और 2016 में 944..।
इस भूमण्डलीकृत समय में इस उत्तर आधुनिक समय में स्त्री के सामने आज भी खाद्य पंचायतें और आॅनर किलिंग अजेय खडे़ हैं। मध्ययुग आज भी डरा रहा है। निम्न वर्ग की स्त्री अदालतों के चक्कर काट रही हैं, अपनी मेहनत का पूरा प्रतिदान नहीं पा रही, आत्मनिर्भर होने का उसे पूरी तरह भाव भी नहीं है। मध्यमवर्गीय स्त्री दोहरी मार झेल कर सुखी सन्तुष्ट होने का दिखावा करने के लिये बाध्य है। सुपरवुमन बनी आधुनिक आत्मनिर्भर स्त्री दोहरे दोहन का शिकार है। जातीय-जन जातीय स्त्रियों की तकलीफों को पूरी अभिव्यक्ति तक नहीं नसीब । इस बहुआयामी असन्तुलन की जडे़ भी गहरी हैं और उसी अनुपात में निदान भी भविष्य के गर्भ में अनिश्चित है। वैदिक काल, सामन्ती मध्य युग और भूमण्डलीकृत यह बाज़ारी समय (जो लैंगिक तटस्थता का दावा तो करता है, पर अपने मूल में हानि लाभ और लिप्सा का जो गणित छिपा कर चलता है वह नारी प्रश्नों को लेकर तटस्थ है- यह सभी काल और संस्कृतियाँ आधी दुनिया के प्रति असंवेदनशील है।
सन्दर्भ
- औरत के हक में-तसलीमा नसरीन वाणी प्रकाशन-2002 – पृ0 19
- स्त्री के लिए जगह-स0राज किशोर पृ0-140
- ऋग्वेद (8.33.19) स्त्री के लिए जगह पृ0-102
- विश्वरथ- के.एम.मुंशी भूमिका से
- स्त्रियाँ लुप्त क्यों हो रही हैं-स्त्री के लिये जगह पृ0-102
- औरत के हक में – तसलीमा नसरीन पृ0 22
- वही – पृ0 – 22, 23, 24,25
- वही – पृ0 – 13
- वही – पृ0 158-159
- वही – पृ0 165
- वही – पृ0 173
- वही – पृ0 183
- स्त्री के लिये जगह-स0 राजकिशोर पृ0 103
- वही पृ0 104 से 109
- हँस मार्च 2001 पृ0 59
- वही – पृ0 59
- संवेद – जनवरी 2011 पृ0 96
- सम्पादक किशन कालजयी, दिल्ली
- वही पृ0 97
डाॅ0 संध्या सिंह
विभागाध्यक्ष हिन्दी
डी0ए0वी0पी0जी0कालेज
लखनऊ।