हिन्दी नवजागरण में भारतेन्दु हरिशचंद्र द्वारा निकाली गयी पत्रिका “बाला बोधनी” ने स्त्री के स्वतंत्र अस्तित्व की प्राप्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी और स्त्रियों एक नया मंच देकर उनका मनोबल बढ़ाया । जिसके बाद पत्र पत्रिकाओं में लेखन को स्त्रियों ने अपनी आवाज समाज तक पहुचाने का माध्यम बना लिया ।
बीसवीं सदी तक आते आते हिंदी क्षेत्र में स्त्री विषयक और स्त्रियों के द्वारा अनेक पत्रिकाएं छप रही थीं और अनेक पत्रिकाओं की संपादक स्त्रियां भी थी भले ही वह पत्रिकाएं अल्प समय के लिए छप रही थीं ।
हिंदी क्षेत्र में स्त्रियां अपने हक, अधिकारों की लड़ाई के लिए सड़कों पर नहीं उतरी , परंतु अगर हम उस समय के पत्र-पत्रिकाओं को देखें और उन में छपे हुए लेखों पर नजर डालें तो इस बात से कोई इनकार नहीं किया जा सकता है कि उस समय महिलाएं निरंतर समान शिक्षा प्राप्ति के अधिकार पर, कन्या हत्या के विरोध, सती प्रथा, बेमेल और बाल विवाह ,विधवा विवाह की मांग के विषय पर लगातार लिख कर जो प्रतिरोध दर्ज कर रही थी वह किसी आंदोलन से कम नहीं था।
1878 में आनंदीबाई जोशी देश की पहली महिला डॉक्टर अमेरिका से अपनी डॉक्टर की डिग्री लेकर भारत आई थी, साथ ही रमाबाई रानाडे और उस समय की अनेक महिलाएं परम्परागत समाज के विरोध को सामना करते हुए उच्च शिक्षा प्राप्त कर सामाजिक, राजनीतिक गतिविधियों में भागीदारी करने लगी थी और अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही थी।
18 90 के आसपास लिखी गई “सीमंतिनी उपदेश” अनाम लेखिका द्वारा लिखी गयी पुस्तक इस बात का साक्ष्य देती है जिससे हम कह सकते हैं कि स्त्रियों ने अपने आंदोलन को प्रखर और प्रभावशाली बनाने के लिए इस समय पत्र-पत्रिकाओं का बखूबी इस्तेमाल किया । 1885 हेमंत कुमारी ने शिलांग से ‘सुगृहणी’ नाम की पत्रिका निकाली तो बीसवीं सदी के आरंभ में रामेश्वरी देवी नेहरू ने ‘स्त्री दर्पण’ पत्रिका निकाल कर महिलाओं की आवाज को मुखर किया ।
स्त्री विषयक पत्रिकाओं में तो स्त्रियों से जुड़े विषयों पर निरन्तर लेख छप ही रहे थे,
परन्तु इन सबके बीच एक और गैर स्त्री विषयक नवजागरण कालीन प्रतिष्ठित पत्रिका थी *मर्यादा*।
(मर्यादा का मूल स्वरूप एक राजनीतिक सामाजिक पत्रिका का था इसका प्रकाशन काल अभ्यूदय प्रेस प्रयाग से 1910 नवंबर से 1923 तक रहा। इसके सम्पादको में क्रमशः पं.कृष्णकांत मालवीय ,सम्पूर्णानंद, सम्पूर्णानंद के जेल जाने पर एक अंक का सम्पादन प्रेमचंद और प्रवासी अंक के अतिथि संपादक बनारसीदास चतुर्वेदी रहे।)
*मर्यादा* पत्रिका ने भी स्त्रियों के इस संघर्ष में पूरा साथ दिया ,पत्रिका में समय-समय पर शिक्षा समानता के अधिकार , समाज में व्याप्त कुरीतियों आदि पर व्यापक चर्चा निरंतर होती थी ।
*मर्यादा* का विशेष महत्व इस बात में है कि *मर्यादा* जो कि सामाजिक राजनैतिक पत्रिका होते हुए भी यह पत्रिका स्त्रियों के लेखन को बिना सुधार और संपादन और सीख के पर्याप्त स्थान देती थी।
जबकि उस समय महावीर प्रसाद द्विवेदी के संपादन में छपने वाली *सरस्वती* हिंदी की प्रतिष्ठित आधुनिक पत्रिका में भी लेखिकाओं के रूप में महिलाओं की उपस्थिति नगण्य थी और महिलाओ के द्वारा लिखे गए लेख सामाजिक मर्यादा निभाने की सीख के साथ छपते थे। यह बात कम महत्वपूर्ण नहीं है कि *मर्यादा* ने ऐसे समय में दो स्त्री विशेषांक निकाले और उसका संपादन का भार भी स्त्रियों को दिया और स्त्री लेखिकाओं विचारको के लेखो को पूर्ण सम्मान के साथ पत्रिका में स्थान दिया।
जहां एक और समाज सुधारक, जननायक महिलाओं के लिए मर्यादित जरूरत भर की संयमित शिक्षा के हिमायती थे तो दूसरी ओर स्त्रियां *मर्यादा* पत्रिका में अपनी पूर्ण जागृति की आकांक्षा और विश्वास के साथ पूर्ण रूप से उपस्थित थीं।
उसमें हर तरह के लेख छपते थे ‘हिंदुस्तानी स्त्रियों की मारीशस के टापू में दशा’ विषय को लेकर के भी लेख लिखे जाते थे तो दूसरी और *स्त्रियों की पराधीनता* शीर्षक से भी लेख थे जिसमें शिक्षा,ज्ञान के बल पर जोर था।
उमादेवी का ‘अछूत जातियों की दशा’ पर ज्वलंत लेख है ।’विदुषी स्त्रियों के समाज पर प्रभाव’ नाम से एनी बेसेंट के समय-समय पर लेख छपते थे। पत्रिका में कभी-कभी विशेष सम्मानित महिलाओं के चित्र और जो विभिन्न आंदोलनों में भाग ले रही थीं उन महिलाओं के चित्र उनके परिचय के साथ छपते थे ऐसे ही बीवी शेख मेहताब के चित्र के साथ यह खबर छपी थी कि
“बीवी शेख मेहताब एक मुस्लिम महिला हैं जिन्हें निष्क्रिय प्रतिरोध के कारण अक्टूबर 1913 को इन्हें 3 महीने की जेल की कड़ी सजा हुई थी।
इसके अतिरिक्त हेमन्त कुमारी,ऐनी बैसेन्ट,शामलाल देवी नेहरू,स्त्री दर्पण सम्पादिका के रूप में रामेश्वरी देवी नेहरू ,श्रीमती मगन बाई जी ,यमुनादेवी आदि लेखिकाओं, सम्पदिकाओ के चित्र भी समय समय पर छपते थे।स्पष्ट है कि *मर्यादा* पत्रिका का इस तरह के चित्र छापना विभिन्न क्षेत्रो में संघर्षशील महिलाओ के प्रोत्साहन के लिए बहुत महत्वपूर्ण अवश्य रहा होगा ।
पत्रिका महिला मुक्ति के आन्दोलन और सरोकारो के प्रति भी ईमानदारी से साक्ष्य प्रस्तुत करती है।
करीब अपने बारह वर्ष के संपादन के काल में मर्यादा का दो स्त्री विशेषांक निकालना कम महत्वपूर्ण नहीं था उसमें छपे हुए कुछ लेखो के शीर्षक इस प्रकार थे– ‘भारत में स्त्रियों की स्थिति और उनके कार्य’ लेखिका श्रीमती कुमुदिनी मिश्र बीए ,
श्रीमती हेमंत कुमारी का लेख ‘युक्त प्रदेश को स्त्रियों की उन्नति के मार्ग में सामाजिक बाधाएं’
‘इंदुमती’ नाम की कहानी लेखिका श्रीमती शारदा कुमारी।
ऐसी बहुत सी लेखिकाएं थी जिन्हें समय-समय पर मर्यादा ने अपनी पत्रिका में सम्मान के साथ स्थान दिया था, उसमें प्रमुख थीं उमा देवी नेहरू ‘स्त्रियों के अधिकार नाम” वह अपने लेख की शुरुआत कुछ इस तरह करती हैं कि मर्यादा के स्त्री विशेषांक में प्रकाशित होने वाले विषयों में हमें ऐसा कोई विशेष लेख नहीं दिखा जिसमें स्त्री जाति से विशेष संबंध हो रोम निवासी केट अपनी हर वक्तृता को वह किसी ही संबंध में क्यों ना होती सदा ‘कार्थेज मस्ट फॉल’ कहकर समाप्त किया करता था हमने भी सोचा है कि हम हर पत्र-पत्रिका को उसमें कुछ भी विशेषता क्यों ना हो स्त्री संबंधी लेखों से बिना सुसज्जित किए ना रहेंगी यहां पर उमा देवी नेहरू का विशेष भाव स्त्रियों के अधिकारों को लेकर के ही था वह वोट के अधिकार पर कहती हैं कि स्त्रियों को वोट के अधिकार नहीं देने का कारण उनका अशिक्षित होना बताया जाता है तो हम पूछते हैं कि क्या भारत में सिर्फ शिक्षित पुरुषों को ही अधिकार मिलेगा और यदि नहीं तो यह सिर्फ स्त्रियों को ही क्यों इस अधिकार से इस आधार पर वंचित रखा जाए। वोट के अधिकारों पर लंबी बहस, शिक्षा और अनेक सामाजिक कुरूतियों ,रूढ़ियों आदि को लेकर चर्चा करते हुए सभी प्रकार के लेखों को *मर्यादा* ने प्राथमिकता दी।
*मर्यादा* में छपे ऐसे अनेक सम्मानीय प्रगतिशील समाज सुधारक पुरूष नेताओं और लेखको की कमी नहीं जो औरतों की शिक्षा और स्वतंत्रता के सवाल पर समझौता वादी रवैया अपनाने के हिमायती थे उस समय स्वराज्य के राष्ट्रीय आंदोलनों और जरूरतों की दृष्टि से नारी के विकास को जो समर्थन मिला उस आधार पर हम कह सकते हैं कि वह एक समझौता वादी रूप ही था। गांधीजी के स्त्री के अधिकारों से संबंधित अनेक विचार बड़े अंतर विरोधी प्रतीत होते हैं।
गांधीजी स्त्री पुरुष की बराबरी की निरंतर बात करते हैं परदा प्रथा, दहेज ,कन्या हत्या का विरोध करते हैं वह कहते रहे कि स्त्रियां पुरुषों के समान स्वाधीनता पाने और ऊंचे पद पर पहुंचने की वह अधिकारी है शिक्षित होने पर स्त्रियों को उनका अधिकार नहीं मिले -ऐसा दृष्टिकोण अन्याय पूर्ण है,
लेकिन इस बात को भी वह निरंतर कहते हैं कि स्त्री के पढ़ी-लिखी न होने पर पुरुष स्त्री को अपने बराबर के अधिकार ना दे यह तो अन्याय है ।
वह मानते हैं कि फिर भी स्त्रियों को शिक्षा तो मिलनी चाहिए लेकिन यह जरूरी नहीं कि स्त्री पुरुष दोनों को एक ही शिक्षा मिले स्त्रियां पढ़ लिख कर नौकरी या व्यवसाय ही करें मेरा विश्वास नहीं है वह शिक्षा ग्रहण कर बालको को उचित धार्मिक और नैतिक शिक्षा दें, बालको को उच्च नागरिक बनाएं।
तो दूसरी ओर लाला लाजपत राय स्पष्ट रूप से स्त्री शिक्षा पर कटाक्ष करते हुए निरंतर लिखते रहते हैं
*मर्यादा* 1919 के एक लेख में लिखते हैं कि स्त्रियों को सह कार्यों की शिक्षा दी जानी चाहिए ऐसी शिक्षा नहीं जो उन्हें गृह के धर्म कर्तव्य से जरा भी विमुख करें ।
लाला लाजपत राय अपने लेख की शुरुआत कुछ व्यंगात्मक तरीके से करते हैं… अफ्रीका में कुछ इस बात पर दावा ठोक सकती हैं कि उनके पति ने उनके कपड़ों को ठीक से नहीं सीया वह कुछ और बातों के बाद में आगे लिखते हैं कुछ लोग स्त्रियों के लिए आंदोलन कर रहे हैं वस्तुतः उनका उद्देश्य तो अच्छा है पर उनके परिश्रम का फल निरर्थक हो जाएगा कि शिक्षा स्त्री पुरुष दोनों को समान रूप से दी जानी चाहिए हमको लगता स्वतंत्र रूप से स्त्री पुरुष शिक्षा पर भिन्नता से विचार करना होगा लेकिन भिन्नता का अर्थ यह नहीं कि स्त्री को पुरुष से हीन समझा जाए स्त्री पुरुष में समानता है देशवासियों का ऐसा समझना भूल है लेकिन फिर भी मैं स्त्रियों के वोट देने के विरोधी नहीं हूं ।
पुरूष सुधारक जननेता जहां एक ओर स्त्रियों की परम्परागत छवि में मात्र सुधार चाह रहे थे तो
*मर्यादा* पत्रिका स्त्री के परम्परागत मर्यादाओं रूपी मुखोटो को हटा कर नई छवि का स्त्री दर्पण गढ़ने में मदद कर रही थी। इसमें समय समय पर सम्पादकिय टिप्पणियां लिखी जिसमें पुरूषो के मुकाबले उनकी घटती संख्या प्रसव काल की दुरावस्था,अनाचार बाल, बहु,बेमेल विवाह, सामाजिक रूढ़ियां अंधविश्वास अशिक्षा पर चिंता व्यक्त होती थी।
हिन्दी नवजागरण काल में स्त्री लेखन में *मर्यादा* पत्रिका का महत्व इस बात में है कि यह कोई स्त्री विषयक या स्त्री विशेष पत्रिका नहीं थी।,इसीलिए यह बात विशेष महत्व रखती है कि वह हर प्रकार स्त्री विषयक लेखो को अन्य पत्रिकाओं की तुलना में महत्व देती है जहां मर्यादा में गर्भ संचार पर लेख लिख निकले हैं तो पर्दा प्रथा पर भी, जाति पाति की व्यवस्था पर भी स्त्री के शिक्षा के अधिकार पर भी लेख निकले।
मर्यादा के 1920 के अंक में एक लेख का उल्लेख करना जरूरी है जिसमें एक लेखिका कुसुम कुमारी का लेख है जिसमें वह *अमृतसर में कांग्रेस की महासभा* के आयोजन का वर्णन करते हुए लिखती हैं जो कि किसी भी व्याख्या की मांग नहीं करता है क्योंकि यह लेख जिस बेबाकी से लिखा गया है वह बहुत महत्वपूर्ण हैं उन्होंने अनेक प्रश्न इस लेख में उठाए हैं…
कांग्रेस की महासभा की व्यवस्था को लेकर के जिसमें एक महत्वपूर्ण प्रश्न पर वह अपनी आपत्ति प्रकट करती हैं कि स्त्रियां दूर-दूर से देश के कोने कोने से गांधी जी का भाषण सुनने के लिए आई थी और उन्हें मचं से बहुत दूर पर्दे की ओट में बैठाया गया गांधी जी जो कि स्वयं पर्दे की प्रथा का विरोध करते हैं उन्हीं का भाषण सुनने के लिए हमें पर्दे में बैठाया गया जहां हमें वंदे मातरम और भारत माता की जय के कुछ शब्दों के अलावा कोई और शब्द नहीं सुन पा रही थी, वह आगे लिखती हैं कि जो मर्द हमें कुंभ के समय गंगा में नहाते समय हमारी ओर ताकते हैं और उस समय नहीं शर्माते हैं लेकिन जिस वक्त हम देश के हालात सुनने आए हैं उस वक्त आप इतने पंडित बन जाते हैं कि हमारी ओर पीठ करके व्याख्यान दे या जिस वक्त गिरे हुए भारत के उद्धार की तैयारी हो रही हो उस वक्त हमें मुंह फेर कर समझाया जाता है ।
वह अनेक नेताओ द्वाराअंग्रेजी में भाषण दिए जाने का भी विरोध करती है कि अनेक माताएं बहने दूर दूर से आयी उन्हे आपका कहा कुछ भी पल्ले नहीं पड़ा। भाइयों क्या आप हमें साथ में लिए बिना देश का उद्धार कर सकते हैं हम अपने ऊपर होने वाले जुल्म के लिए रोए अपनी फैंसी साड़ी और जेंटलमैनी कोट पतलून का ख्याल करें।
कुल मिला कर हम कह सकते हैं कि मर्यादा अपने समय की ऐसी पत्रिका थी जिसके उद्देश्य में राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय सामाजिक राजनीतिक चिंतन मुख्य विषय थे लेकिन स्त्री संबंधी विषयों पर उसने आधुनिक, प्रगतिशील और निर्भीक नजरिया अपनाया।
सुनन्दा पाराशर