Saturday, November 23, 2024
Homeकविता“स्त्री और प्रकृति : समकालीन हिंदी साहित्य में स्त्री कविता”

“स्त्री और प्रकृति : समकालीन हिंदी साहित्य में स्त्री कविता”

स्त्री दर्पण मंच पर महादेवी वर्मा की जयंती के अवसर पर एक शृंखला की शुरुआत की गई। इस ‘प्रकृति संबंधी स्त्री कविता शृंखला’ का संयोजन प्रसिद्ध कवयित्री सविता सिंह कर रही हैं। इस शृंखला में स्त्री कवि की प्रकृति संबंधी कविताएं शामिल की जा रही हैं।
पिछले दिनों आपने इसी शृंखला के तहत हिंदी की वरिष्ठ कवि एवं सांस्कृतिक कार्यकर्ता कात्यायनी की कविताओं को पढ़ा।
आज आपके समक्ष हिंदी कविता क्षेत्र में विशिष्ठ नाम सविता सिंह की कविताएं हैं तो आइए उनकी कविताओं को पढ़ें।
आप पाठकों के स्नेह और प्रतिक्रिया का इंतजार है।
………………………
कवयित्री सविता सिंह
………………………

स्त्री का संबंध प्रकृति से वैसा ही है जैसे रात का हवा से। वह उसे अपने बहुत निकट पाती है – यदि कोई सचमुच सन्निकट है तो वह प्रकृति ही है। इसे वह अपने बाहर भीतर स्पंदित होते हुए ऐसा पाती है जैसे इसी से जीवन व्यापार चलता रहा हो, और कायदे से देखें तो, वह इसी में बची रही है। पूंजीवादी पितृसत्ता ने अनेक कोशिशें की कि स्त्री का संबंध प्रकृति के साथ विछिन्न ही नहीं, छिन्न भिन्न हो जाए, और स्त्री के श्रम का शोषण वैसे ही होता रहे जैसे प्रकृति की संपदा का। अपने अकेलेपन में वे एक दूसरी की शक्ति ना बन सकें, इसका भी यत्न अनेक विमर्शों के जरिए किया गया है – प्रकृति और संस्कृति की नई धारणाओं के आधार पर यह आखिर संभव कर ही दिया गया। परंतु आज स्त्रीवादी चिंतन इस रहस्य सी बना दी गई अपने शोषण की गुत्थी को सुलझा चुकी है। अपनी बौद्धिक सजगता से वह इस गांठ के पीछे के दरवाजे को खोल प्रकृति में ऐसे जा रही है जैसे खुद में। ऐसा हम सब मानती हैं अब कि प्रकृति और स्त्री का मिलन एक नई सभ्यता को जन्म देगा जो मुक्त जीवन की सत्यता पर आधारित होगा। यहां जीवन के मसले युद्ध से नहीं, नये शोषण और दमन के वैचारिक औजारों से नहीं, अपितु एक दूसरे के प्रति सरोकार की भावना और नैसर्गिक सहानुभूति, जिसे अंग्रेजी में ‘केयर’ भी कहते हैं, के जरिए सुलझाया जाएगा। यहां जीवन की वासना अपने सम्पूर्ण अर्थ में विस्तार पाएगी जो जीवन को जन्म देने के अलावा उसका पालन पोषण भी करती है।
हिंदी साहित्य में स्त्री शक्ति का मूल स्वर भी प्रकृति प्रेम ही लगता रहा है मुझे। वहीं जाकर जैसे वह ठहरती है, यानी स्त्री कविता। हालांकि, इस स्वर को भी मद्धिम करने की कोशिश होती रही है। लेकिन प्रकृति पुकारती है मानो कहती हो, “आ मिल मुझसे हवाओं जैसी।” महादेवी से लेकर आज की युवा कवयित्रियों तक में अपने को खोजने की जो ललक दिखती है, वह प्रकृति के चौखट पर बार बार इसलिए जाती है और वहीं सुकून पाती है।
महादेवी वर्मा का जन्मदिन, उन्हें याद करने का इससे बेहतर दिन और कौन हो सकता है जिन्होंने प्रकृति में अपनी विराटता को खोजा याकि रोपा। उसके गले लगीं और अपने प्रियतम की प्रतीक्षा में वहां दीप जलाये। वह प्रियतम ज्ञात था, अज्ञात नहीं, बस बहुत दिनों से मिलना नहीं हुआ इसलिए स्मृति में वह प्रतीक्षा की तरह ही मालूम होता रहा. वह कोई और नहीं — प्रकृति ही थी जिसने अपनी धूप, छांह, हवा और अपने बसंती रूप से स्त्री के जीवन को सहनीय बनाए रखा। हिंदी साहित्य में स्त्री और प्रकृति का संबंध सबसे उदात्त कविता में ही संभव हुआ है, इसलिए आज से हम वैसी यात्रा पर निकलेंगे आप सबों के साथ जिसमें हमारा जीवन भी बदलता जाएगा। हम बहुत ही सुन्दर कविताएं पढ सकेंगे और सुंदर को फिर से जी सकेंगे, याकि पा सकेंगे जो हमारा ही था सदा से, यानी प्रकृति और सौंदर्य हमारी ही विरासत हैं। सुंदरता का जो रूप हमारे समक्ष उजागर होने वाला है उसी के लिए यह सारा उपक्रम है — स्त्री ही सृष्टि है एक तरह से, हम यह भी देखेंगे और महसूस करेंगे; हवा ही रात की सखी है और उसकी शीतलता, अपने वेग में क्लांत, उसका स्वभाव। इस स्वभाव से वह आखिर कब तक विमुख रहेगी। वह फिर से एक वेग बनेगी सब कुछ बदलती हुई।
स्त्री और प्रकृति की यह श्रृंखला हिंदी कविता में इकोपोएट्री को चिन्हित और संकलित करती पहली ही कोशिश होगी जो स्त्री दर्पण के दर्पण में बिंबित होगी।
….
प्रकृति और स्त्री श्रृंखला की ग्यारहवीं कवि सविता सिंह हैं जिन्होंने प्रकृति के साथ मिलकर ही कविता का जीवन जिया है। इन्होंने रात को जागना जाना है; हवा को अपने तन बदन से लगाया है। प्रकृति इनकी मित्र है जिसका वह वो रूप उजागर करती हैं जो वासनासिक्त है। वही उसकी सखी ललिता है जिससे मिलने वह आम के बाग जाती हैं, उसका इंतजार करती हैं। जीवन और मृत्यु के बीच वह एकमात्र सच्चाई जिसे जानना खुद को जानने जैसा है तभी तो वह अपने को धन्य मानती है कि उसे रात को देखने के लिए खास तौर पर चुना गया है। वह उन नीले फूलों को देखती है जिसे प्रकृति रात में ही खिलाती है, वह भी स्त्री के लिए। इससे इनके अस्तित्व का ऐसा विस्तार होता है जो प्रकृति का ही है, जिसमें हर रात एक तारा उतरता है मनुष्यों की भांति मरने के लिए, हर रात उतना ही प्रकाश मरता है, उतनी ऊष्मा चली जाती है कहीं। यह कायनात अपनी सुंदरता में रचित है याकि स्वरचित है, इसे स्त्री जानती है और इसलिए अपने सौंदर्य में अश्वत भी है। यहां प्रकृति को इस तरह से जानने का रोमान है, प्रकृति से आत्मीयता के कारण उपजा रोमान, जिसमें हम मनुष्यों के दुखों की संश्लिष्टता को पहचान लेते हैं, उसके उल्लास को जानते हैं तब भी: वैसी ही रात फिर…वही स्वप्न झिलमिला रहा है नींद का इंतजार करता/ जिसमें हमारे हाथ खोजते थे एक दूसरे की आत्मा। मगर इस भीतरी रहस्य को जानने के वावजूद वह कौन सी शक्ति है जो स्त्री को अपने में ठहरने नहीं देती, होने नहीं देती? ऐसा क्यों है की यथार्थ में ऐसे स्वप्न के लिए जगह नहीं जिसमे एक डाल सोती हो दूसरी डाल पर, एक पत्ता ढकता हो दूसरे को?
प्रकृति में दूसरे जीवों के बीच जो संतुलन है उसे कौन भंग करता है? प्रकृति इतनी हताहत क्यों है और क्या यह घायल हुई स्त्री की भी तस्वीर नहीं? क्या पितृसत्ता प्रकृति और स्त्री के जीवन और खुशियों को बंधक बना चुकी है, सदा के लिए यानी जब तक दोनो ही नष्ट न हो जाएं?
कवि इन्हीं बातों को समझने के लिए रात में जाती है, संध्या से पूछती है, बर्फ का इंतजार करती है। आइए आज पढ़ते है ऐसी ही एक कवि को जिसे “रात चूमती है, बदहवास वह कुछ नहीं कहती, उसकी आत्मा बस उसी की हुई जाती है”।
ऐसा ही संबंध है हिंदी की प्रकृति की अप्रतिम कवि सविता सिंह का खुद से यानी प्रकृति से “शाम रात के आगोश में जा चुकी थी/ बसंती हवा कचनार के फूलों को हिला रही थी/ बगल के खाली मैदान में ऊंची ऊंची जंगली घास डोल रही थी…
आज रात ऐसी ही कायनात थी। ऐसी ही थी स्त्री प्रकृति में। समलैंगिक।
– रीता दास राम
सविता सिंह की कविताएँ-
————————–
1. बचा हुआ स्पर्श
शाम रात के आगोश में जा चुकी थी
वसंती हवा कचनार के फूलों को हिला रही थी
बगल के खाली मैदान में ऊँची-ऊँची जंगली घास डोल रही थी
मानों खड़ी रात का स्वागत कर रही हो
यह दृश्य कहीं और भी था सहसा लगा
जहाँ सभ्यता का विकास किसी और ढंग से हुआ था
जहाँ शाम और रात के छोटे अन्तराल में
सुन्दरता किसी रहस्य की तरह नहीं छिपी थी
वह थिरकती हुई सबों के सामने थी डाले हाथों में हाथ
देख रहे थे जब इसे जाने कितने युगल
बसंती हवा जब सहला रही थी
उनके चेहरे बाल आँखें सारा बदन
शाम रात के आगोश में जा चुकी थी
और कोई खोजता था वही स्पर्श हवा में बचा हुआ
वैसे ही इस पल
2. रात को एक बार देखा था
समय की साँस पर जैसे लेटी हुई
मैं आ-जा रही थी इस लोक से उस लोक में
देख रही थी घना तम चमक रहा था
एक चमकीली रात लेटी थी उधर अपने पूरे सौन्दर्य में
नीले सफ़ेद फूलों से सजी थी उसकी देह
वह सचमुच एक अप्सरा दिख रही थी
समय के हाथों मैं अचानक चुन ली गयी थी
देखने के लिए
किस तरह रात स्वप्न में बदलती है
कैसे उसकी साँस हवा बनती है
बाद में नीले सफ़ेद फ़ूल मेरे चेहरे पर पड़े मिले थे
जैसे वे सौन्दर्य के रहस्यमय चिन्ह हों
जिनसे साबित कर सकूँ
रात को देखा था एक बार मैंने यूँ
3. संश्लिष्ट दुख
वैसी ही रात आज फिर
सुन्दर साँवली अनावृत अपने बाल खोले
ठंडी हवा जिसमें बहती है
वही स्वप्न झिलमिला रहा है नींद का इंतज़ार करता
जिसमें हमारे हाथ खोजते थे एक दूसरे की आत्मा
वैसी ही रात आज साँवली अनावृत
ठंडी हवा जिसमें बहती है
लेकिन हमारे दुख पहले से ज़्यादा संश्लिष्ट हैं अब
और हम उनसे मोहित करुणा से भरे अपने लिए
किस कदर !
4. बर्फ़ का इंतज़ार
अन्यमनस्क पीली पड़ रही जिज्ञासा से ढँकी
मेपल के पत्तो वाली जैसे कोई डाल हूँ
जिससे लगकर हवा गुज़रती है
जिस पर आसमान अपना थोड़ा नीला रंग
टपकाता है
जिस पर सूरज अपनी सबसे कमज़ोर किरण फेंकता है
अन्यमनस्क फिर भी
मेरा मन बर्फ़ के गिरने का ही इंतज़ार करता है
बर्फ़ सभी कुछ ढँक देती है
पाप दुख शाप
छोटी-मोटी बेचैनियाँ
सुख में चमकने वाले हीरे जैसे
एक दो क्षण
वह ढँक देती है
गिलहरियों के हृदय में व्याप्त यह डर
कि उन्हें कोई हर लेगा
अन्यमनस्क
बार-बार क्यों चाहती हूँ वही
जो मुझे उदास करे
ढँक ले
5. मेरी सखी ललिता
स्थिर जलवाले तालाब के किनारे
वहीं जहाँ आम के घने पेड़ों की छाया है
मंद-मंद हवा जहाँ बहती है शीतलता लिये
वहीं जहाँ हम मिले थे पिछले जन्मों में
अपलक देखते रह गये थे एक दूसरे को
जब लगा था सारी दुनिया सुन्दर है
कहीं कुछ भी कुरूप नहीं
वहीं आना अपने सुनहरे केश खोले
हाथों में लिये श्वेत कमल
होठों पर बिठाये वही अविस्मरणीय मुस्कान
जिससे वातावरण में हलचल-सी हुई थी
जहाँ-तहाँ से उड़कर आये थे अनेक पक्षी
देखने हमारा यह मिलन
उसी स्थिर जल वाले तालाब के किनारे
आम की गाछियों की साँवली छाया में
आना मिलने बताने फिर से
कितने हज़ार वर्षों का हमारा साथ है
कितने हज़ार वर्षों से तुम रही हो ऐसी ही
इतनी ही सुन्दर प्रकृति-मेरी सखी ललिता
6. रात चूमती है
रात चूमती है उसको
बदहवास वह कुछ नहीं कहती
निर्वस्त्र उसकी आत्मा उसी की हुई जाती है
कोई भाषा नहीं वहाँ कि वह कुछ कहे भी
एक चुप्पी में सब कुछ होता चला जाता है
सुवासित भोर में चाँद-सा कोई
उसके कानों में साँस की
आवाज़ भर छोड़ जाता है
जागने की कोई विवशता नहीं
जागती है फिर भी वह जैसे चिड़िया
दर्ज करने विश्व में अपनी उपस्थिति
शाश्वत-सा फैला रहता है रात का जादू
समेटती ख़ुद को वह उसी में फँसी जाती है
हवा आती है सारी छुपी अतृप्तियों को
उजागर करती
जगाती किन वासनाओं को, आह !
7. शाम
सुन्दर मुख साँवली काया
जानती हूँ तुम्हें तब से
पहली बार जब मोह में पड़ी जीवन के
जब संसार सारी दुख-दुविधाओं के बावजूद बेहद ज़रूरी लगा
हर बार नये सिरे से अच्छी लगे कोई जब
कभी बची लालिमा की वजह से
कभी डूबती बैंगनी रंग में मिले चटक गुलाबी के कारण
जाती हुई छोड़ यह सब कुछ फिर गहरे काले में आखिर
प्रतीक्षा करती है उसकी ही मेरी आत्मा
सहेली-सी जो धर देती है मन पर बिला नाग
मौन अवलोकन के सुख को
कौन जानता है सिवा मेरे कैसे ढलने पर
आकर बैठती है मेरे भीतर वह
समेटे अपने लम्बे काले बाल
मोड़ कर बाँहें ढँक कमनीय अपनी पीठ गर्दन स्तन
कैसे जब पसारती है रात अपने डैने
लेती हुई संसार को अपनी गिरफ्त में
तोड़ती सबसे बल-संयम
रखती है वही हिसाब हर सुख का
विघटन बिखराव से बचाकर सौंपती है सब कुछ
पूर्ववत सुबह को
8. कोई हवा
कोई हवा मुझे भी ले चले अपनी रौ में
उन नदियों, पहाड़ों, जंगलों में
जहाँ दूसरे जीवों का जीना होता है
मुझे भी दिखाये कठिनतम
स्थितियों में भी कैसे
बचा रहता है जीवन
दस बजिया फ़ूल की एक टहनी कैसे
टूटकर जीवन नहीं खोती
ज़रा-सी मिट्टी से लगकर
कहीं पत्थरों में बनी संकरी फाँक में
वह जीने लगती हैं नया एक जीवन
कोई एक डाल किसी मज़बूत पेड़ की
तेज़ तूफ़ान में गिरकर भी बची रहती है
हल्की-सी अपने तने से यदि
वह है अब भी लगी
कोई हवा मुझे भी दिखाये कैसे
लाखों करोड़ों जीवाणु
कीड़े-मकोड़े बड़े-छोटे
जीते हैं प्रछन्न प्रबल अपने जीवन
कैसे उन्हें कोई पीड़ा नष्ट नहीं कर सकती
गुमराह नहीं कर सकता कोई भी सुख उन्हें
छीन नहीं सकता उन्हें जाने से इस जीवन से आगे
9. एक दृश्य स्वप्न सा
एक डाल पर सोयी थी दूसरी डाल
एक टहनी से सटी हुई थी दूसरी
एक पत्ता ढँके था दूसरे को
सब बचाये हुए थे इस तरह खुद को
बचाकर दूसरों से
बचे रहने का शायद यह सबसे सरल तरीक़ा था
जो लाखों करोड़ों वर्षों से इस जंगल में सबको पता था
इसी तरह धरती के असंख्य प्राणी बचे रहे थे
मनुष्यों का समाज बचा रहा था
लड़ते हुये घनघोर बारिश तूफ़ान और एक दूसरे की क्रूरता से
आये थे घेरने इन पत्तों टहनियों गिलहरियों खरगोशों चीतों को
मनुष्यों के साथ-साथ जाने कितने क्लेश बाधाएँ कितनी
लेकिन ये रहे गूँथे एक दूसरे से
भीतर से जुड़े कसकर पकड़े खुद को
किये आँखें बन्द सुनते हुये प्रकृति की हर आवाज़ को
संतुलित किये हुये साँसों को इस तरह
कि आ-जा सकें सबके भय मंशा सबकी साफ़-साफ़
सब तक
यह एक दृश्य है जो सुरक्षित है प्रकृति में अब
बस उसके एक स्वप्न-सा
10. मैं तारों का एक घर
न जाने कितने तारे
मेरी आँखों में आ-आ कर ध्वस्त होते रहे हैं
उनकी तेज़ रोशनी
गहन ऊष्मा उनकी
आकर मेरी आँखों में बुझती रही हैं
और मैं इन तारों का
एक विशाल दीप्त घर बन गई हूँ
जिसमें मनुष्यों की भांति ये मरने आते हैं
आज भी हर रात
एक तारा उतरता है मुझमें
हर रात उतना ही प्रकाश मरता है
उतनी ही ऊष्मा चली जाती है कहीं
RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular

error: Content is protected !!