स्त्री दर्पण मंच पर महादेवी वर्मा की जयंती के अवसर पर एक शृंखला की शुरुआत की गई। इस ‘प्रकृति संबंधी स्त्री कविता शृंखला’ का संयोजन प्रसिद्ध कवयित्री सविता सिंह कर रही हैं। इस शृंखला में स्त्री कवि की प्रकृति संबंधी कविताएं शामिल की जा रही हैं।
पिछले दिनों आपने इसी शृंखला के तहत हिंदी कविता क्षेत्र में प्रसिद्ध वरिष्ठ कवयित्री, उपन्यासकार और स्त्री विमर्शकार अनामिका की कविताओं को पढ़ा।
आज आपके समक्ष शीला सिद्धांतकर सम्मान और शैलप्रिया सम्मान से सम्मानित कवयित्री अनीता वर्मा की कविताएं हैं तो आइए उनकी कविताओं को पढ़ें।
आप पाठकों के स्नेह और प्रतिक्रिया का इंतजार है।
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कवयित्री सविता सिंह
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कवयित्री सविता सिंह
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स्त्री का संबंध प्रकृति से वैसा ही है जैसे रात का हवा से। वह उसे अपने बहुत निकट पाती है – यदि कोई सचमुच सन्निकट है तो वह प्रकृति ही है। इसे वह अपने बाहर भीतर स्पंदित होते हुए ऐसा पाती है जैसे इसी से जीवन व्यापार चलता रहा हो, और कायदे से देखें तो, वह इसी में बची रही है। पूंजीवादी पितृसत्ता ने अनेक कोशिशें की कि स्त्री का संबंध प्रकृति के साथ विछिन्न ही नहीं, छिन्न भिन्न हो जाए, और स्त्री के श्रम का शोषण वैसे ही होता रहे जैसे प्रकृति की संपदा का। अपने अकेलेपन में वे एक दूसरी की शक्ति ना बन सकें, इसका भी यत्न अनेक विमर्शों के जरिए किया गया है – प्रकृति और संस्कृति की नई धारणाओं के आधार पर यह आखिर संभव कर ही दिया गया। परंतु आज स्त्रीवादी चिंतन इस रहस्य सी बना दी गई अपने शोषण की गुत्थी को सुलझा चुकी है। अपनी बौद्धिक सजगता से वह इस गांठ के पीछे के दरवाजे को खोल प्रकृति में ऐसे जा रही है जैसे खुद में। ऐसा हम सब मानती हैं अब कि प्रकृति और स्त्री का मिलन एक नई सभ्यता को जन्म देगा जो मुक्त जीवन की सत्यता पर आधारित होगा। यहां जीवन के मसले युद्ध से नहीं, नये शोषण और दमन के वैचारिक औजारों से नहीं, अपितु एक दूसरे के प्रति सरोकार की भावना और नैसर्गिक सहानुभूति, जिसे अंग्रेजी में ‘केयर’ भी कहते हैं, के जरिए सुलझाया जाएगा। यहां जीवन की वासना अपने सम्पूर्ण अर्थ में विस्तार पाएगी जो जीवन को जन्म देने के अलावा उसका पालन पोषण भी करती है।
हिंदी साहित्य में स्त्री शक्ति का मूल स्वर भी प्रकृति प्रेम ही लगता रहा है मुझे। वहीं जाकर जैसे वह ठहरती है, यानी स्त्री कविता। हालांकि, इस स्वर को भी मद्धिम करने की कोशिश होती रही है। लेकिन प्रकृति पुकारती है मानो कहती हो, “आ मिल मुझसे हवाओं जैसी।” महादेवी से लेकर आज की युवा कवयित्रियों तक में अपने को खोजने की जो ललक दिखती है, वह प्रकृति के चौखट पर बार बार इसलिए जाती है और वहीं सुकून पाती है।
महादेवी वर्मा का जन्मदिन, उन्हें याद करने का इससे बेहतर दिन और कौन हो सकता है जिन्होंने प्रकृति में अपनी विराटता को खोजा याकि रोपा। उसके गले लगीं और अपने प्रियतम की प्रतीक्षा में वहां दीप जलाये। वह प्रियतम ज्ञात था, अज्ञात नहीं, बस बहुत दिनों से मिलना नहीं हुआ इसलिए स्मृति में वह प्रतीक्षा की तरह ही मालूम होता रहा. वह कोई और नहीं — प्रकृति ही थी जिसने अपनी धूप, छांह, हवा और अपने बसंती रूप से स्त्री के जीवन को सहनीय बनाए रखा। हिंदी साहित्य में स्त्री और प्रकृति का संबंध सबसे उदात्त कविता में ही संभव हुआ है, इसलिए आज से हम वैसी यात्रा पर निकलेंगे आप सबों के साथ जिसमें हमारा जीवन भी बदलता जाएगा। हम बहुत ही सुन्दर कविताएं पढ सकेंगे और सुंदर को फिर से जी सकेंगे, याकि पा सकेंगे जो हमारा ही था सदा से, यानी प्रकृति और सौंदर्य हमारी ही विरासत हैं। सुंदरता का जो रूप हमारे समक्ष उजागर होने वाला है उसी के लिए यह सारा उपक्रम है — स्त्री ही सृष्टि है एक तरह से, हम यह भी देखेंगे और महसूस करेंगे; हवा ही रात की सखी है और उसकी शीतलता, अपने वेग में क्लांत, उसका स्वभाव। इस स्वभाव से वह आखिर कब तक विमुख रहेगी। वह फिर से एक वेग बनेगी सब कुछ बदलती हुई।
स्त्री और प्रकृति की यह श्रृंखला हिंदी कविता में इकोपोएट्री को चिन्हित और संकलित करती पहली ही कोशिश होगी जो स्त्री दर्पण के दर्पण में बिंबित होगी।
स्त्री और प्रकृति श्रृंखला की हमारी तेरहवीं कवि अनिता वर्मा हैं। कोमल और नरम संसार का भेद इन्हे पता है, ऐसी चीजें कहां रहती हैं, इसका भी इन्हे पता है। प्रकृति को अपने भीतर का संसार इन्होंने कहा है, एक झांकती हुई सी दुनिया! यहां प्रकृति की कोमल संताने रहा करती हैं, प्रेम के बीज यहां रोपे जाते हैं। तो इन्होंने भी प्रकृति को क्या कुछ अपना नहीं दिया है__
अपनी आवाज हवा को दी, अपना रूप जंगल को, सांसे समुद्र को, पहाड़ों को अपने पंख। इस तरह अपने को रिक्त किया। ये देखती रहीं नीले आकाश को, हरे पत्तों को, नदियों, जंगलों और बादलों को। इन्हे ही देखती हुई इन्होंने प्रेम की भी विशिष्टता समझी। प्रेम मुक्त करता है जिसकी अपनी ही एक चमक होती है। जो यह नहीं समझ सका वह प्रकृति को भी क्या सीखेगा। वह कहां से जान सकेगा कि “बर्फ के आंगन में खुलते हैं वसंत के दरवाजे” कि “चांदनी में बहती है हवा की अबोली भाषा”। प्रकृति को जानना और उससे प्रेम करना स्त्री को उसके स्त्रीत्व से परिचित होना या कराना भी है। यह संबंध बना रहे इसके लिए कविता भी प्रयत्नरत रहती है तभी तो वह ऐसे सुंदर रूपों में कवि के हाथों ढल कर आती है।
अनिता वर्मा की बेहद सुंदर प्रकृति की कविताएं आप भी पढ़ें।
भीतर बहुत भीतर
अनाम नदियां हैं
समुद्र के घुमड़ते भंवर
पहाड़ों का गुरुत्व/ बियाबानों की निर्जनता,…एक बोझिल चंद्रमा/ सपनों के प्यालों में।
अनीता वर्मा का परिचय
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जन्म:25 जून। देवघर और पटना में आरंभिक शिक्षा के बाद भागलपुर विश्वविद्यालय से हिंदी भाषा और साहित्य से बी. ए. आनर्स में प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान प्राप्त। एम. ए. में मानक अंकों के साथ प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान।विगत तीन दशक से राँची में निवास और अध्यापन।
पहल, साक्षात्कार, समकालीन भारतीय साहित्य, सर्वनाम, वागर्थ, नया ज्ञानोदय, जनसत्ता, हंस, आवेग दस्तक, आवर्त, इंडिया टुडे वार्षिकी आदि प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं का प्रकाशन। ’समकालीन सृजन‘ के ‘कविता इस समय’, ‘विपाशा’ और ‘रचना समय‘ के विशेषांकों में कविताएँ प्रकाशित। आकाशवाणी और दूरदर्शन से कविताओं का प्रसारण। ’कविता का घर’ कार्यक्रम के अंतर्गत चयनित कविता का दृश्य रूपांतर।
वर्ष-2003 में राजकमल प्रकाशन से पहला कविता संग्रह ‘एक जन्म में सब’ प्रकाशित और चर्चित। विभिन्न भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेज़ी, डच और जर्मन में कविताओं के अनुवाद।’ दस बरस:अयोध्या के बाद’ में कविताएँ संकलित।डच भाषा में अनूदित हिंदी कविता के संकलन ‘Ik Zag de Stad’ (मैंने शहर को देखा) और जर्मन में प्रकाशित ‘Felsinschriften(शिलालेख) में कविताएँ संकलित।चीन की कुछ आधुनिक महिला कवियों के हिंदी अनुवाद।
2008 में राजकमल प्रकाशन से दूसरा कविता संग्रह ‘रोशनी के रास्ते पर‘ प्रकाशित और प्रशंसित। ’एक जन्म में सब’ के लिए 2006 बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान। इसके अतिरिक्त शीला सिद्धांतकर सम्मान, शैलप्रिया सम्मान एवं ‘रोशनी के रास्ते पर‘ के लिए केदार सम्मान से सम्मानित।चित्रकला, संगीत और दर्शन में विशेष रुचि ।
अनिता वर्मा की कविताएं
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1. वसंत
बर्फ़ के आँगन में खुलते हैं वसंत के दरवाज़े
एक सोई हुई आवाज़
चाँदनी में बहती
हवा की अबोली भाषा
एक नदी की बाँहें दूर तक फैली हैं
समुद्र का जल भरने को आतुर
एक नीला सूर्य बनाता है रेशम से दिन
कोमल रातें और मीठी शामें
पानी और घास के एक जैसे रंग हैं
सुनहरे चाप से गिरती हैं फूलों की पंखुरियाँ
स्मृति चमकती है देह में ।
2. प्रेम
समुद्र की एक लहर ने मुझे घेर लिया
कहा मैं हूँ पानी का प्रेम
बादल कहाँ रहने वाले थे पीछे
भर गये वे पूरी देह में
हवा के हाथों ने उठा दिया आकाश तक
मैं शून्य की बारिश प्रेम की
पहाड़ों ने सीने से लगाया
सूरज का चुम्बन माथे पर देकर
बर्फ़ जैसी एक नींद प्रेम की
जंगल के सन्नाटे ने तोड़ा
सघन काँटेदार कोहराम का जाल
वेगवान नदी के कठोर तटों ने फिर घेरा
एक बार फिर प्रेम के लिए मैं इनके पास गई ।
3. भीतर बहुत दूर
भीतर बहुत दूर
एक घेरा है
दुनिया के उपजे रास्तों का भूरा विस्तार
आँखों के जलकुंडों के किनारे
तुम्हारे अनगिनत प्रतिरूप
निर्वसन उनसे लिपटती हुई मेरी आत्मा
भीतर बहुत दूर
इस दुनिया के पीछे से
झाँकती है एक दुनिया
प्रकृति की कोमल संतानें
बोती हुई प्रेम के बीज
सूरज अपना मुँह खोले
जलाता दुखों के ढेर
भीतर बहुत दूर
अनाम नदियाँ हैं
समुद्रों के घुमड़ते भँवर
पहाड़ों का गुरुत्व
बियाबानों की निर्जनता
अजन्मे शब्दों के अर्थ
एक बोझिल चंद्रमा
सपनों के प्याले में
गिरती हुई एक रात
भीतर बहुत दूर
क्रूर दृश्यों से बचने की गुफ़ाएँ हैं
उनका सामना करने के लिए
ईंधन बनाने के कारख़ाने
टूटे हुए विश्वासों की प्रेतात्माएँ
हारे हुए मनुष्यों की नींद
अपमानित स्त्रियों के आँसू
असमय छिन गये कई बचपनों की कथा
व्यर्थ होते समय का हिसाब
इन सब के बारे में नहीं लिखी गई एक किताब
एक उजास भीतर बहुत दूर
बहुत दूर एक ओस की बूँद है
जहाँ मैं अपना जीवन बिताती हूँ
मैं एक हरी पत्ती के पीछे छिप जाती हूँ
मैं उगाती हूँ शब्दों का एक पेड़
कोरे पन्ने पर जैसे धूप और बारिश
भीतर प्रकाश की एक पृथ्वी
दूर जाती एक सड़क के पार ।
4. ज़रूरत
मैंने अपना दुःख अकेली रात से कहा
वह उतर आई मुझमें
लिये हुए पूरा चन्द्रमा
मैंने समुद्र से यह सब कहा
उसने सोख लिये मेरे सारे आवेग
मैंने हवा में लिखे दुखों के अक्षर
वह बहा ले गई उन्हें क्षितिज के पार
ख़रीद- फ़रोख़्त में जुटी इस दुनिया से दूर
वहाँ कोई है जिसे इसकी ज़रूरत है
मैंने ऐसा सोचा और झुक गई धरती पर।
5. एक और संसार
एक संसार होता है बाहर
एक भीतर
जहाँ अचानक बारिश आती है
पानी के क़तरे छा जाते हैं चेहरे पर
नमी से पिघलते उदास
कभी अचानक धूप आती है
अनार के फूल सी नारंगी मीठी
अंदर से बाहर तक नरम दीप्त कर जाती है
कबूतरों से छोटे बादल
छोटे-छोटे क़दमों से उतरते हैं चेहरे पर
आँखें नदी में नहाती हैं
किरणों की डूब के साथ
सफ़ेद फूल महकते हैं
नीली नदी मोतियों से भर जाती है
क्यों नहीं होता यह सब बाहर
ऐसे ही
इतना ही।
6. रिक्त
मैंने आवाज़ हवा को दी
वह बह सके
रूप जंगल को दिया
वह कुछ कह सके
साँसें समुद्र को दीं
वह रहे तरंगित
पंख पहाड़ों को दिए
वे आएँ सपनों में चलकर
प्रेम को दी आत्मा
इस तरह हुई मैं रिक्त।
7. जुलाई
जुलाई के महीने में
बारिश और हरे पत्तों के बीच
मेरी आँखें सोती हैं तुम्हारी आँखों पर
गर्मी ने छिपा लिए हैं अपने हाथ भूरे लबादे में
उदासी पेड़ों पर सोती है
हरी रात जुगनू सी चमकती है
दुनिया उठकर चली गयी है बीच से
छोड़ती हुई थोड़ी धूप और बारिश
हम इसे बर्फ़ तक ढोयेंगे
डाल देंगे दिसम्बर की गोद में
जनवरी हमारी क़ब्र होगी
पड़ी होगी उस पर धूप बारिश और बर्फ़।
8. नीम का पेड़
पहले तीन परिवार रहते थे
इस बड़ी इमारत में अब रहते हैं छत्तीस परिवार
छत्तीस का ही आँकड़ा रहता है यहाँ
कम से कम मुलाक़ातों में खोजे जाते हैं
ज़्यादा से ज़्यादा सम्बंध
आँगन में था एक नीम का पेड़
इमारत बनने के बाद भी वह पहले जैसा हीरहा
कभी सड़क पर कभी घरों में अपनी छाया फैलाता रहा
कंक्रीट के मुहल्ले में अकेला हरापन
मैं आते- जाते वहाँ खड़ी हो जाती कुछ देर
याद आते चरक और हकीम लुकमान उनकी कहानी
एक बार लुकमान ने परखना चाहा चरक को
भेजा अपना एक दूत
जाये और चरक से मिलकर आये
दिया नहीं कोई संदेश बस इतना कहा
रास्ते में जितने पेड़ हों इमली के
उनके नीचे बस एक-एक कर थोड़ा रुकते जाना
उन दिनों आसान नहीं थीं यात्राएँ
दूत पहुँचा चरक के पास बदहाल और बीमार
बिना संदेश उसने बयान किया यह हाल
और कहा संदेश भी दें
कहा चरक ने कोई नहीं है संदेश
बस इतना करो रास्ते में जितने पेड़ हों नीम के
उनके नीचे थोड़ा-सा रुकते जाना
दोनों विद्वानों को सिरफिरा समझ
वापस लौटा दूत
स्वस्थ और प्रसन्न बताया लुकमान को फिर सारा हाल
लुकमान मुस्कुराए
इस कथा का नायक था नीम का पेड़
उसके होने में बचा हुआ था एक अनुरोध
एक हरी संवेदना इस पतझड़ समय में
वह खड़ा था अविचल तना हुआ
ठेकेदारों शहर के निर्माताओं के रास्ते में
वे कहते थे इस पेड़ की पुरानी जड़ें
कमज़ोर कर रही हैं नयी-नयी इस बस्ती को
नीम के पेड़ में कीड़े हैं
उसके तने का भुरभुरापन खा रहा है मिट्टी की सीरत
बेहतर है उसे काट देना
इस तरह चीज़ें सुरक्षित रहेंगी
मज़बूत रहेंगे मकान
मैं रोज़ सुबह देखती थी नीम का पेड़
उसका हरा रंग
आकाश के नीले को पुकारता हुआ
नुकीली पुरानी पत्तियाँ उँगलियों जैसी
हवा को बुलातीं
पृथ्वी जैसे उसके छोटे -छोटे फल
कोई कुछ नहीं बोला कालोनी में
सिर्फ़ पुराने घर की सबसे बूढ़ी औरत आई नीम के साथ
एक सबसे छोटी बच्ची खड़ी हुई
नीम की बग़ल में
दोनों ने कहा बचा लो इस पेड़ को
यह बूढ़ों का अतीत है और बच्चों का भविष्य
लेकिन यह प्रमाणपत्रों का समय है
प्यार की फ़सल पहले ही सूख चुकी है
नीम की डालें आ गिरीं सड़क की गोद में
उस दिन इमारत में तीन मौतें हुईं
और कहीं से रोने की आवाज़ नहीं आयी।
9. देखा
देखा
आकाश को बहुत नीला
पत्तों को बहुत हरा
हवा को बहुत शांत
नदियों को बहुत गहरा
सूरज को बहुत चमकीला
पहाड़ों को बहुत ऊँचा
जंगलों को बहुत सघन
किरणों को बहुत उजला
बादलों को बहुत हल्का
प्रेम को बहुत भारी
मुक्त चमकता
गहरे मन में।
10. वह सब
अब भी तितली और फूल अच्छे लगते हैं
ताल का जल जब गहरा नीला होता है
आकाश में उड़ते बादलों में
जब हम खोजते हैं चित्र-विचित्र आकार
बहुत से शब्द जबकि खो चुके हैं
फिर भी चटख और उदास रंग
और बच्चों की हँसी अच्छी लगती है
जो कहते हैं कि वे ख़ुश हैं
उन्हें देख उदास हो जाता है माँ
झूठ अपने मुलम्मे में भी दिख जाता है
जिन सफ़ेद फूलों के सपने देखे थे
वे अब भी सिरहाने आ बैठते हैं
दूर बहता पानी और हिमशिखर
वह सब अच्छा लगता है
जो उपस्थित नहीं होता।